आलेख - ‘अक्षय वट - डॉ. भक्तराज शास्त्री

जन्म : 3 जनवरी 1940 ई. को चन्दौली (वाराणसी) में। प्रारम्भिक शिक्षा चन्दौली में और उच्च शिक्षा वाराणसी में। काशी विद्यापीठ से शास्त्री और लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी) तथा पी-एच.डी. की उपाधि। लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में लगभग तीन दशकों तक अध्यापन करने के बाद सन् 2002 में अवकाश। सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन।


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‘अक्षय-वट' के बारे में कई कहानियाँ और मत हैं। वर्तमान समय में मौजूद अक्षय-वट स्थानीय किले के पातालपुरी मंदिर में है। हालाँकि कई लोग यह मानते हैं कि यह वही अक्षय-वट है जिसकी चर्चा रामायण और दूसरे पुरातन ग्रंथों में मिलती है, लेकिन यदि तथ्यों का विश्लेषण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता हैकि अलग-अलग काल खंडों में यहाँ अलग-अलग वट-वृक्ष रहे हैं, जिन्हें लोग अक्षय-वट के नाम से जानते आए हैं। यह भी जाहिर होता है कि वर्तमान अक्षयवट पौराणिक अक्षय-वटों से बिल्कुल अलग है।


     प्रयाग में अक्षय-वट का सर्वप्रथम उल्लेख वाल्मीकि रामायण में मिलता है। जब वनवास के समय भगवान् राम, लक्ष्मण और सीता के साथ संगम के पास महर्षि भरद्वाज के आश्रम पहुँचे तो महर्षि ने उन्हें चित्रकूट का मार्ग बताते हुए इस वट-वृक्ष का वर्णन किया। उन्होंने भगवान् राम से कहा - आप सर्वप्रथम गंगा-यमुना के संगम पर जाएँ, वहाँ से दाहिनी ओर मुड़कर यमुना के किनारे कुछ दूर ऊपर की ओर जाने पर एक घाट मिलेगा। यहाँ कुछ देर विश्राम कर आप लकड़ी की एक नौका (प्लाव) तैयार कर लें और उसके सहारे यमुना पार कर लेंनदी पार करने पर आप ‘श्याम न्यग्रोध' नामक एक बरगद के पेड़ के पास पहुँचेंगे जो काफी फैला हुआ है। महर्षि भरद्वाज ने यह भी सलाह दी थी कि जानकी इस वृक्ष की पूजा कर इसका आशीर्वाद लें। इससे स्पष्ट है कि इस पेड़ का उस समय भी काफी आध्यात्मिक महत्त्व था।


     वाल्मीकि ने इस ‘श्याम न्यग्रोध' (श्याम-वट) की स्थिति यमुना के दक्षिणी तट पर बताई थी। वाल्मीकि द्वारा दिए गए विवरण से स्पष्ट है कि स्थानीय किले के तहखाने में स्थित पातालपुरी मंदिर का वटवृक्ष रामायण काल का वास्तविक वट वृक्ष नहीं है, जैसा कि प्रयाग के कुछ पंडों और पुराहितों का दावा है।


     वाल्मीकि रामायण में एक और वट-वृक्ष का उल्लेख है जो गंगा के दक्षिणी तट पर था। यह श्रृंगवेरपुर के सामने था जो गंगा के तट पर प्रयाग से कम से कम २५ मील की दूरी पर था। भगवान् राम एक नाव पर गंगा पार कर उसके दक्षिणी किनारे पहुँचे और सीता और लक्ष्मण के साथ इस पेड़ के नीचे विश्राम किया। इसके आस-पास फूलों से भरे और भी कई पेड़ थेइसके निकट ही एक सुंदर तालाब भी था जो कमल से भरा हुआ थाउन्होंने रात में इसी वट-वृक्ष के नीचे विश्राम किया और अगले दिन सुबह महर्षि भरद्वाज के आश्रम की ओर चल 1


         


       महाकवि कालिदास ने भी अपने ‘रघुवंशम्' में इस अक्षय-वट का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि राम जब लंका विजय के बाद पुष्पक विमान पर सवार आकाश मार्ग से अयोध्या जा रहे थे तो उन्होंने चित्रकुट और प्रयाग के बीच के कुछ स्थानों को इस क्रम में सीता को दिखाया : (१) अत्रि मुनि का आश्रम, (२) श्याम वट और (३) गंगा-यमुना का संगम। इससे भी इस वट-वृक्ष की स्थिति यमुना के दक्षिण ही तय होती है। यदि वाल्मीकि का काल चौथी सदी ई.पू. और कालिदास को चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय का माना जाए, जिस पर अधिकतर इतिहासकार सहमत हैं तो यह श्याम-वट (अक्षय-वट) कम-से-कम आठ सौ सालों तक उस स्थान पर मौजूद था।


     भवभूति ने भी अपने ‘उत्तररामचरित' में इस श्याम वट का वर्णन किया है, जो यमुना के दक्षिणी तट पर अवस्थित था और चित्रकूट के रास्ते में पड़ता था।


     भवभूति का काल ८वीं शताब्दी है। उनसे पहले ७वीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया था। उसके मुताबिक संगम के पास एक नया वटवृक्ष उग आया था, जिसे ‘अक्षय-वट' के नाम से जाना जाता था और काफी पवित्र माना जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय तक नदियों के मार्ग परिवर्तन के कारण रामायण कालीन वट-वृक्ष नदी की धारा में समाहित हो गया होगा और उसकी जगह संगम पर उगे नए ‘अक्षय-वट' को लोगों ने उसी आस्था के साथ पूजना शुरू कर दिया होगा।


     द्वेन-त्सांग के विवरण से यह भी पता चलता है कि संगम के निकट स्थित इस वट-वृक्ष के पास एक पुराना ‘देव-मंदिर' भी था। उल्लेखनीय है कि यह देव-मंदिर आधुनिक पातालपुरी मंदिर से अलग है। यह संगम के पास था और समतल पर था। उसने लिखा है कि इस अक्षयवट के पास आत्महत्या करने की परंपरा उस समय काफी लोकप्रिय हो चुकी थी। लोगों का मानना था कि यहाँ प्राण त्यागने से सीधे स्वर्ग में जगह मिलती हैवे पेड़ पर चढ़कर ऊपर से कूद जाते थे। इस कारण इस पेड़ के नीचे काफी कंकाल जमा हो गए थे। चीनी यात्री ने इस परंपरा को गलत बताया है।


    उसने एक घटना का जिक्र किया है, जिसके मुताबिक एक बार एक बुद्धिमान एवं ज्ञानवान ब्राह्मण ने इस कुप्रथा को रोकने का प्रयास कियाउसने लोगों को इस अंधविश्वास के खिलाफ मनाने की कोशिश शुरू की। लेकिन बाद में वह स्वयं इस पर विश्वास कर बैठा और प्राण त्यागने के लिए पेड़ (अक्षय-वट) पर चढ़ गया। ऊपर जाकर उसने कहा, “पहले मैं आत्महत्या कर मोक्ष पाने की बात को छलावा भर मानता 


      


अब मुझे इस पर पूरा विश्वास हो गया है क्योंकि देवता अलौकिक संगीत बजाते हुए मुझसे मिलने आ रहे हैं।'' उसके मित्रों एवं संबंधियों ने उसे आत्महत्या करने से रोकने का भरसक प्रयत्न किया, लेकिन उसने किसी की नहीं सुनी। आखिरकार लोगों ने पेड़ के नीचे एक बड़ा सा कपड़ाफैला दिया, ताकि ऊपर से कूदने पर उसे चोट न लगे। लेकिन वह गिरकर बेहोश हो गया। जब उसे होश आया तो उसने अपने दोस्तों से कहा-“जो हवा में बुला रहे देवता दिखते हैं, वे वास्तव में शैतानी आत्माएँ हैं, न कि स्वर्गिक आनंद का एहसास।''


    हालाँकि आत्महत्या को सभी पौराणिक ग्रंथों ने महापाप बताया है लेकिन प्रयाग में आत्महत्या को इसका अपवाद बताकर पुराणों ने इस परंपरा को और बढ़ावा दिया। पुराणों में कहा गया है कि जो प्रयाग में अक्षय-वट के निकट अपने प्राण देता है, वह सीधे शिवलोक में जगह पाता है। यह वही अक्षय-वट है, जिसका कभी नाश नहीं होता है। आगे कहा गया है कि यहाँ भगवान् विष्णु का निवास है और वे नित्य इस वट-वृक्ष की पूजा करते हैं, तब भी जब यह दुनिया खत्म हो जाती है।


    पुराणों में कहा गया है कि प्रयाग में शरीर त्यागने के दो तरीके हैं- अक्षय-वट से नीचे कूद जाना और दूसरा खुद को अत्यंत पीड़ा पहुँचाना। ब्रह्म पुराण और अग्नि पुराण में कहा गया है कि 'अक्षय-वट' से कूदकर जान देने वालों को इसका पाप भी नहीं लगता और भगवान् विष्णु की शरण में जगह मिलती है।


    मत्स्य पुराण में कहा गया है कि भगवान् शिव स्वयं पवित्र वट-वृक्ष के रूप में प्रयाग में अवस्थित हैं।


     ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि जो इस पेड़ से कूदता है (प्राण त्यागने के लिए) वह शरीर के नष्ट होने के बाद सीधे स्वर्गलोक को प्राप्त करता है और तब उसका यह कर्म (आत्महत्या) किसी भी तरह से उसे पाप का भागी नहीं बनाता है।


    कूर्म-पुराण में कहा गया है कि जो इस वट-वृक्ष के नीचे स्वयं प्राण त्यागता है, सीधे रुद्र के धाम पहुँचता है।१०


    ११वीं सदी में भारत आए मुस्लिम इतिहासकारअलबरूनी ने भी अपनी पुस्तक में गंगा-यमुना के संगम पर एक वट-वृक्ष होने और उससे कूदकर आत्महत्या की परंपरा का उल्लेख किया है। रशीदद्दीन (१३वीं-१४वीं सदी) ने भी लिखा है कि प्रयाग में गंगा एक बरगद के पेड़ के नीचे से होकर बहती है। उसने भी इस पेड़ से कूदकर देह-त्याग की बात कही है


    यहाँ ध्यान देने की बात है कि जहाँ ह्वेन-त्सांग द्वारा वर्णित पेड़ नदी से कुछ दूरी पर था, वहीं अलबरूनी और रशीदुद्दीन के मुताबिक यह पेड़ठीक नदी के किनारे था, इतना निकट कि लोग इसकी शाखाओं से सीधे नदी में कूदकर जान दे देते थे। साथ ही दोनों मुस्लिम लेखकों ने वट-वृक्ष के निकट किसी हिन्दू मंदिर का भी जिक्र नहीं किया है। इससे प्रतीत होता है कि संभवतः ८वीं सदी या उसके बाद यहाँ एक और नया वटवृक्ष उग आया होगा और पुराना वटवृक्ष किसी कारणवश नष्ट हो गया होगा।


    यदि स्थानीय किले के पातालपुरी मंदिर की बात करें तो अलबरूनी और रशीदद्दीन के प्रयाग के विवरण में इसका जिक्र न होना इस तरफ इशारा करता है कि १४वीं सदी तक इस मंदिर का अस्तित्व नहीं था। अबुलफजल के मुताबिक, अकबर ने १४ नवंबर १५८३ को यहाँ किले का निर्माण शुरू कराया था। इससे स्पष्ट है कि पातालपुरी मंदिर इससे पहले यहाँ मौजूद था। अतः इसका काल रशीदुद्दीन और किले के निर्माण के बीच कहीं होना चाहिए, क्योंकि एक तो मुस्लिम सम्राट् द्वारा किले के भीतर मंदिर बनवाना बहुत स्वाभाविक नहीं है और दूसरा किले में इसकी स्थिति, जैसे इसका तहखाने में होना, इसके ऊपर किले का निर्माण आदि, यही इंगित करता है कि किले का निर्माण मंदिर के बाद हुआ होगा। यह जरूर संभव है कि हिन्दुओं की भावना और आस्था का सम्मान करते हुए अकबर ने इस मंदिर को गिराने की बजाय इसी पर किले का निर्माण कराया होगा। इस मंदिर तक पहुँचने के लिए एक अलग रास्ता छोड़ना भी इस तर्क को पुख्ता करता है। इस मंदिर के अंदर रखी मूर्तियाँ भी कोई बहुत ज्यादा पुरानी नहीं हैं।


    कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि पातालपुरी मंदिर में स्थित वट-वृक्ष ही वास्तविक 'अक्षय-वट' है। डॉ. एस.के, दूबे ने अपनी किताब ‘कुंभ सिटी प्रयाग' में । लिखा है कि अकबर की ओर से झूसी के राजा ने इस महल का निर्माण कराया था। इसका निर्माण बीरबल (पहले झूसी के राजा का महामंत्री और बाद में अकबर के नवरत्नों में से एक) की देखरेख में हुआ था। डॉ. दूबे के मुताबिक उस समय लोग इसी ‘अक्षय -वट' से गंगा में कूदकर आत्महत्या करते थे, लेकिन किला बन जाने के बाद यह प्रथा बंद हो गईफिर भी इतना तो तय है कि यह वट-वृक्ष गंगा के किनारे था और इसलिए यमुना के दक्षिण स्थित रामायणकालीन श्याम वट से भिन्न था। उन्होंने लिखा है कि बीरबल ने किले के निर्माण के लिए त्रिवेणी बाँध बनवाकर गंगा की धारा मोड़ दी।


    १८वीं सदी के मध्य टेफेंथलर के लेखन और १९वीं सदी के मध्य थॉर्नटन के गजेटियर से पता चलता है कि पातालपुरी मंदिर का ‘अक्षय-वट' भी सूख चुका था।११ बहुत संभव है कि वर्तमान में इस मंदिर में स्थित वट-वृक्ष उसी ‘अक्षय-वट' की जगह लगाया गया था।


    इतिहास चाहे जो भी रहा हो, भले आज का ‘अक्षय-वट' पुराना बहुत न हो, पर इतना निश्चित है कि रामायण काल से आज तक ‘प्रयाग के अक्षय-वट' के प्रति हिन्दू श्रद्धालुओं की आस्था में किसी प्रकार की कमी नहीं आई है।


१. गंगायमुनयोः संधिमासाद्य मनुजर्षभौ। कालिन्दीमनुगच्छेतां नदी पश्चान्मुखाश्रिताम्। रामायण अयोध्या काण्ड, ५५.४


2.अथासाद्य तु कालिन्दी प्रतिस्त्रोतः समागताम्। तस्यास्तीर्थं प्रचरितं प्रकामं प्रेक्ष्य राघव।। तत्र यूयं प्लवं कृत्वा तरतांशुमती नदीम्।। रामायण अयोध्या काण्ड, ५५.५


३. ततो न्यग्रोधमासाद्य महान्तं हरितच्छदम्। परीतं बहुभिवृक्षः श्याम सिद्धोपसेवितम् ।। रामायण अयोध्या काण्ड, ५५.६ तस्मिन् सीताञ्जलि कृत्वा प्रयुञ्जीताशिषां क्रियाम् । समासाद्य च तं वृक्षं वसेदू वातिक्रमेत वा।। रामायण अयोध्या काण्ड, ५५.७


४. स तं वृक्षं समासाद्य संध्यामन्वास्य पश्चिमाम्। रामो रम्यतां श्रेष्ठ इति होवाच लक्ष्मणम्।। नतस्तत्र सुखासीनौ नातिदूरे निरीक्ष्य ताम्। न्यग्रोधे सुकृतां शय्यां भेजाते धर्मवत्सलौ।। रामायण अयोध्या काण्ड, ५३.१ एवं ३३


5. त्वया पुरस्तादुपयाचितो यः सोऽयं वटः श्याम इति प्रतीतः। राशिर्मणीनामिव गारुडानां सपद्मरागो फलितो विभाति ।। क्वचिच्च कृष्णोरगभूषणेव भस्मांगरागा तनुरीश्वरस्य। पश्यानवद्यांगि विभाति गंगा भिन्नप्रवाहा यमुनातरंगैः।। परीतं बहुभिवृक्षैः श्याम सिद्धोपसेवितम्।। रघुवंश, १३.५३ एवं ५७


६. Watters, On Yuan Chwang, भाग १, पृष्ठ ३६२


७. माहेश्वरो वो भूत्वा तिष्ठते परमेश्वरः। ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः ।। रक्षन्ति मण्डलं नित्यं पापकर्मनिवारणात् ।। कूर्म पुराण, ३६.२६


८. मत्स्य पुराण, १०६.११-१३


९. प्रयागवटशाखाग्रात् पत्तनं च करोति यः। स्वयंदेहविनाशस्य काले प्राप्ते महीपतिः ।। उत्तमान प्राप्नुयांल्लोकान् नात्मघाती भवेत्क्वचित् । महापापक्रियः स्वर्गे दिव्यान् भोगान् समश्नुते ।। ब्रह्म पुराण, २८.


१०. वटमूलं समाश्रित्य यस्तु प्राणान्परित्यजेत् सर्वलोकानतिक्रम्य रुद्रलोकं स गच्छति ।। कूर्म पुराण, ३६ ।


११. Statistical, Descriptive and Historical Account of the North-Western Provinces of India, भाग ८, खण्ड ६, पृ. ६२