विमर्श'- विचारधारा, प्रतिबद्धता, पक्षधरता - उमाशंकर सिंह परमार

किसान आन्दोलन से जुड़ाव, जनवादी लेखक संघ उत्तर प्रदेश का राज्य उप सचिव विधा : आलोचना, कभी कभार कविता पुस्तक : प्रतिपक्ष का पक्ष, सुधीर सक्सेना-प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य, समय के बीजशब्द, पाठक का रोजनामचा, कविता पथ, सहमति के पक्ष में (प्रकाशकाधीन) हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं में आलेखों का प्रकाशन।


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विचारधारा का सवाल आज साहित्य का अहम सवाल बन चुका है। विचारधारा का काव्य में सीधे तौर पर प्रयोग नहीं होता है बल्कि वह दूध में पानी की तरह हिल मिल कर उपस्थित होती है। लेकिन आलोचना में विचारधारा एक बड़ा प्रश्न है। विचारधारा के बगैर आलोचना की कल्पना नहीं की जाती है। यही वह साधन है जिससे विश्लेषण, तर्क-वितर्क और निष्कर्ष के साथ स्थापनाओं का अन्वेषण किया जाता है। हालाँकि लेखन में विचारधारा न हो तो लेखक की पक्षधरता व प्रतिबद्धता का पता चलना कठिन होता है, साथ ही लेखक की मनोरचना किस पक्ष में है, उसके चिन्तन का आधार क्या है; यह सब भी नहीं पता चल पाता। विचारधारा के साथ लेखकीय प्रतिबद्धता, पक्षधरता व ईमानदारी का सवाल अपने आप जुड़ जाता है। इसलिए यदि विचारधारा पर बात हो रही है, इसका आशय प्रतिबद्धता और पक्षधरता से लगाया जाता है। यह उत्तर आधुनिकता का दौर है। आज लेखन को विचारधारा मुक्त करने का नारा लगाया जा रहा है, विचारधारा, इतिहासबोध व सामाजिक आयामों से कृति को पृथक् करने की सिफारिश की जा रही है। लेकिन उत्तर आधुनिकता की यह कृति स्वतन्त्रता उचित नहीं है। यदि लेखन का सामाजिक सरोकार नहीं है तो कृति का उद्देश्य क्या है? उसकी उपयोगिता क्या है? उत्तर आधुनिकता तो उपयोगिता को भी नकारती है। लेखन क्यों? और लेखन का अन्त जैसे नारे इसी चिन्तन का परिणाम रहे हैं। दर असल विचारधारा से मुक्ति का सवाल लेखन की मुक्ति के सवाल में तब्दील हो जाता है। कोई भी तर्क नहीं है जिससे विचारधारा विहीन लेखन को बचाया जा सके। इसलिए लोकधर्मी आलोचकों ने इस सवाल को अराजकतावादी असंगत सवाल कहा है। विचारधारा के खिलाफ लिखने के लिए भी विचारधारा की जरूरत होती है और विचारधारा से मुक्ति होने की प्रक्रिया की भी अपनी विचारधारा होती है। विचारधारा तर्क का स्रोत होती है इसलिए यह कल्पना करना विचारधारा विहीनता विचारधारा मुक्ति है। गलत होगा।


       विचारधारा के खिलाफ हमेशा प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ सक्रिय रही हैं। कभी कलावाद, कभी रूपवाद, कभी नई समीक्षा तो अब उत्तर आधुनिकता और विमर्शों का जंजाल, यह सभी विचारधारा की मुखालफत है। यह ठीक है, उत्तर आधुनिकता विचारधारा के समानान्तर विमर्शों की प्रस्तावना करती है लेकिन बड़ा सवाल है क्या विमर्शों का अस्तित्व विचारधारा के बगैर सम्भव है? क्या विचारधारा के अभाव में विमर्शों का मूल्यांकन हो सकता है? नहीं हो सकता है विमर्श भी विचारधारा की उपज है। साहित्य की सर्वमान्य विचारधारा जनहित रही है, जनता के लिएजनता का साहित्य रहा है। यह उसी रीति का विकास है। वामपंथ या जनवाद सर्वदा से जाति के सवालों और लिंगभेद रंगभेद की बात करता रहा है। वह अस्मितामूलक विमर्शो का पक्षधर रहा है। तो विमर्शों को विचारधारा विहीन कहने का कोई कारण नहीं है। न तो यह तार्किक है न वैज्ञानिक है। विचारधारा हाशिए को समझने का वैज्ञानिक तर्क देती है, बगैर अस्मिता को बूझे हम कैसे अस्मिता की बात करेंगे। यह भी विचार करना आवश्यक है कि अब मनुष्य के सृजनात्मक विजन को बदलने में राजनीति दर्शन की क्या भूमिका हो सकती है। अब नई भूमिकाओं और असीम संभावनाओं की तलाश करना आवश्यक है। भविष्य में कला और साहित्य पर मास मीडिया का जो असर होगा या हो रहा है, उससे भी एक संकट खड़ा हो सकता है, जब । साहित्य पढ़े जाने की बजाए पुस्तकालयों और कलादीर्घाओं में बंद होकर रहा जाएगा। लेकिन इससे साहित्य की मूलभूत विचारधारा और राजनीति खत्म नहीं हो सकती है। विचारधारा ही गारा ही नाव साहित्य को राजनैतिक रूप से को प्रतिरोधी बनाती है और आलोचना का मूलस्वर तो हमेशा राजनैतिक रहा है। इतिहास और आलोचना की जरूरतें देखते हुए कहा जा जाना सकता है कि साहित्य विचारधारा से कभी मुक्त नहीं हो सकता है। साहित्य का अब तक का इतिहास साहित्य का अब तक का इतिहास ही राजनीतिक समझ के विकास का इतिहास है। विशेषकर आधुनिक युग से जिस समय आलोचना आरम्भ हो रही थी, वह नवजागरण का समय था, इसमें राजनीतिक नवजागरण भी शामिल था। यह नवजागरण पश्चिमी और भारतीय संस्कृति के मिलन, आपसी द्वंद्व और संवाद की उपज था। भारतेन्दु युगीन साहित्य इसी नवजागरण का साहित्य है। राजनीतिक पराधीनता ने इस समय के लेखकों की राजनीतिक चेतना को प्रखर बना दियाथा. उनके सामने यह स्पष्ट था कि देश को जब तक राजनीतिक स्वाधीनता नहीं प्राप्त होगी तब तक उसका कल्याण असंभव  है, इसीलिए उस युग में एक नई तरह की राजनीतिक चेतना का विकास हुआ। हिन्दी आलोचना जब रामचंद्र शुक्ल के यहां पहुंचती है तब उसमें साहित्य और राजनीति की एकता का अपूर्व विकास होता है। उन्होंने समय-समय पर शुद्ध राजनीतिक और आर्थिक विषयों पर लेखन तो किया ही बल्कि ‘जनता' को आलोचना में स्थापित भी किया। उनकी आलोचना साम्राज्यवाद-विरोध और भारतीय जनता की मुक्ति-आकांक्षा से लैस है। उनसे पहले यह काम महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बड़े प्रभाव के साथ शुरू किया था। शुक्लोत्तर आलोचकों में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी आलोचना के माध्यम से आलोचना और राजनीति के सरोकारों का अपनीअपनी तरह से विकास किया। साहित्य के साथ-साथ इन आलोचकों ने राजनीति को भी आलोचना का विषय बनाया। दोनों के लक्ष्यों की एकता की परंपरा को दृढ़तर बनाया। माक्र्सवादी आलोचना में आलोचना और राजनीति के लक्ष्य पूर्णतः एक हो गए। परवर्ती आलोचना अपनी राजनीति में अधिक सघन, जीवंत और जनतांत्रिक होती गई, राजनीति से उसका संबंध गाढ़ा होता गया। आज वह एक साथ राजनीतिक भी रह सकती है और एक विधा के रूप में अपने स्वभाव की रक्षा और सम्मान भी कर सकती है। माक्र्सवादी आलोचना के विपरीत एक ऐसी आलोचना-धारा सक्रिय रही और है जिसकी मान्यता है कि साहित्य को राजनीति या अन्य अनुशासनों का उपनिवेश नहीं बनाया जाना चाहिए। हालांकि, उसकी इस मान्यता के राजनीतिक निहितार्थ समय-समय पर स्पष्ट होते रहे, फिर भी वह राजनीति से दूर नहीं रही। उसमें राजनीतिक सरोकार न केवल मौजूद हैं बल्कि वह राजनीति से उस रूप में दूर भी नहीं है, न होना चाहती है, जिस रूप में आमतौर पर माना या प्रचारित किया जाता है। नवें दशक के बाद हिन्दी कविता में अचानक परिवर्तन आया और वह प्रतिरोध को अपना मुख्य स्वर बनाने लगी। आरम्भ में प्रतिरोध की ध्वनि कमजोर थी लेकिन ज्यों ज्यों आर्थिक उदारीकरण के नकारात्मक परिणाम आने लगे प्रतिरोध के स्वर भी मुखरित होने लगे। १९९१ में कांग्रेस सरकार ने वैश्विक साम्राज्यवाद के अत्याधुनिक प्रतिरूप  भूमंडलीकरण को अपनाया; बहाना आर्थिक मन्दी को बनाया गया। यह सच है १९८९-९० के वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था डगमगाई, रिजर्व मे रखे स्वर्ण भंडार को गिरवी रखकर स्थिति में नियन्त्रण किया गया। इसी समय विकसित देशों ने विश्व बैंक के नेतृत्व में पूँजीवाद को मजबूत करने का संकल्प लिया। उनका तर्क था कि विश्व की समस्त अर्थव्यवस्थाओं को एक सूत्र में बाँधकर सभी सार्वजनिक उपक्रमों को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया जाए; एक देश का पूँजीपति दूसरे देश में सहजता से अपना उपक्रम स्थापित कर सके और व्यापार कर सके। निजी क्षेत्र में सरकारी नियन्त्रण कम से कम हो और सरकार द्वारा अपने उत्पादों पर कम से कम सब्सिडी दी जाए; निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए सरकार उत्पादकों और उद्योगपतियों को कम ब्याज दर पर ऋण की व्यवस्था करे। अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को निजी भागीदारी से संचालित किया जाए। इस नीति को आर्थिक उदारीकरण कहा गया। भारत की स्थितियां अलग थीं। यहां अंधाधुन्ध निवेश और सब्सिडी खत्म करने का आशय था कि जनता के हिस्से की रोटी और हक पर सीधे प्रहार करना। इस नीति के प्रचार और प्रसार में सरकारी तन्त्र ने जी तोड़ मेहनत की। जनता को यह भ्रम देने की पूरी कोशिश की गई कि रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, अच्छे विदेशी स्कूल खुलेंगे, शिक्षा का स्तर बढ़ेगा और सरकार की आय बढेगी जिसके पैसे से इन्फास्ट्रेक्श्चर मजबूत किया जाएगा। जो काम हिन्दुस्तान की सरकार पचास सालों में नहीं कर सकी, वह काम पाँच वर्षों में हो जाएगा। लेकिन याद रहे, पूँजीवाद कभी भी किसी मुल्क का और वहां की जनता का हितैषी नहीं रहा। वह केवल लाभ और मुनाफा देखता है और फिर जनता के हिस्से का धन निजी उद्योगपतियों को सौंपकर सरकार कैसे जनता का हित करेगी। इस आर्थिक नीति का सबसे तार्किक प्रतिरोध वामदलों ने किया। वामपंथीकार्यकर्ता देश में घूम घूम कर इस व्यवस्था की कमियाँ जनता को बता रहे थे। वे समझा रहे थे कि यह नीति पूंजीपरस्त और जनविरोधी है। इस नीति को स्वीकार करने का मतलब है, किसानों और मजदूरों के हितों के साथ खतरनाक समझौता कर लेना जो भविष्य और वर्तमान दोनों के लिए घातक है। वामदलों के इस विरोध का प्रभाव दिखने लगा था, जनता में इस नई व्यवस्था को लेकर उत्सुकता बढ़ने लगी थी। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद जिस हिन्दुस्तान में वैश्विक पूँजी के विरोध का माहौल तैयार हो रहा था, वामदलों की शक्ति बढ़ रही थी, उस विरोध को वैश्विक पूँजी और राजनीतिक दलों के आपसी गठबन्धन ने एकदम से हाशिए पर कर दिया। जहां एकता और सामूहिक प्रतिरोध की जरूरत थी, वहां आपसी हत्याओं की खतरनाक राजनीति खेली जाने लगी। अचानक धर्म और अतीत की दकियानूसी मान्यताएं जरूरी सवाल बनकर उभरने लगे। धर्म हमेशा से सामन्तवाद और पूँजीवाद का गढ़ रहा है। वह कभी भी जनता के पक्ष में नहीं रहा। पूँजीवाद ने इसे अपनी जरूरत के मुताबिक अपने हित में प्रयोग किया है। जिस समय भारत में लम्बे प्रतिरोध की जरूरत थी, उसी समय धार्मिक मिथकों के महिमामंडन ने जनता के दो समुदायों के बीच खूनी सीमा रेखा तय कर दी। मन्दिर-मस्जिद और आस्था के सवाल रोटी के सवालों से बड़े हो गए। जनता बौनी हो गई। मिथक मनुष्यता का अतिक्रमण करने लगे। यह समय वैश्विक पूँजीवाद के प्रसार और संस्थापन का समय था। १९९१ में आर्थिक उदारीकरण आरम्भ हुआ और १९९२ में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ। सब कुछ तय शुदा और प्री प्लान्ड जैसा लगता है। साम्प्रदायिकता पूँजीपरस्त जमातों के लिए खतरनाक हथियार है जिसका उपयोग आज भी अवसर आने पर कर लिया जाता है। साम्रदायिकता ने दो तरह के परिवर्तन किए, पहला प्रभाव यह पड़ा कि मिथकों और धार्मिक विश्वासों का खतरनाक पक्ष हमारे सामने आया; तर्क के उपर आस्था ने जीत हासिल कर ली। बौद्धिकता और विज्ञान अपराध हो गया। सरकारों ने भी पूँजीगत विसंगतियों और अंधाधुन्ध निवेश का प्रतिरोध अपराध घोषित कर दिया। जनता में आपसी कटुता बढ़ी, तमाम मुद्दे जिनका सम्बन्ध जनता की रोटी और रोजगार से था, गायब हो गए। गाय और मन्दिर के मुद्दे, शरीअत और मस्जिद की राजनीति आरम्भ हुई। दंगे फसाद आम हो गए। मस्जिद की राजनीति आरम्भ हुई। दंगे फसाद आम हो गए। जनचेतना नामक किसी भी तरह की विचारधारा का अभाव हो गया, वामदलों को देशविरोधी ओर राष्ट्र विरोधी कहकर जनता को झूठी अफवाहों में लपेटकर वोट हासिल करने का कुत्सित खेल खेला जाने लगा। ऐसे भीषण और दुर्दान्त समय में जनपक्षधर कवियों, लेखकों में आक्रोश होना स्वाभाविक है। चूंकि साम्प्रदायिकता ने इस देश की मूल संस्कृति गांगा जमुनी विरासत पर चोट की थी। जनता में भी इस बात को लेकर चिन्ता थी पर राजनीति की सड़ी गली परिभाषाओं ने इस समय भ्रम और धोखे का पूरा फायदा उठाया। पूँजीवाद का यह सबसे शक्तिशाली समय है। भारत में जिस तेजी से साम्प्रदायिकता का उत्थान हुआ जितनी तेजी से नरसंहार हुए उतनी तेजी से आर्थिक निवेश भी बढा जनता का खून बहाकर अपनी सत्ता मजबूत करने वाला पूँजीवाद आज सत्ता की मुख्य कुंजी और भारत के लोकतन्त्र का मुख्य नियन्त्रक बन  गया है। समकालीन कविता में इस फासीवादी उत्थान पर खूब चर्चा की गई है, धर्म और उसके राजनैतिक दुरुपयोग पर कवियों का आक्रोश देखते ही बनता है। यह भी प्रतिरोध है। प्रतिरोध महज सत्ता और पूँजी का नहीं होता बल्कि हर उस आदत या प्रवृत्ति का होता है जो पूँजी का सहायक हो, सत्ता का नियामक हो। धर्म के इस उदारीकृत स्वरूप पर कवियों ने तर्क का तूफान खड़ा कर दिया है। समकालीन कविता को इसीलिए प्रतिरोध की कविता कहा जाता है कि उसने आस्था । के विरूद्ध तर्क को महत्व दिया। केवल धर्म के राजनैतिक पक्ष की ही आलोचना नहीं हुई, धर्म के मौलिक एवं सर्वस्वीकृत आधारों पर भी जोरदार खंडन कविता में आए हैं। आलोचना चूंकि विचारधारा आधारित विवेक है। स्वाभाविक है, राजनीति होगी लेकिन कविता और कथासाहित्य भी इन समस्याओं से अपने आप को दूर नहीं कर पाया। यह युगबोध और यथार्थबोध का परिणाम है कि साहित्य को अराजनैतिक घोषित करने का फतवा जारी करने वाले लोग आज खुद साहित्य के दायरे से बाहर हैं। इधर दो दशकों का लेखा जोखा यदि परखा जाए तो साहित्य और के विचारधारा की एकतानता का पता चल जाता है और जिन समस्याओं को राजनीति ने पूँजीवाद के साथ मिलकर उत्पन्न की है, उनके प्रति प्रतिरोध भी खुलकर लिखा जा रहा है। प्रतिरोध आज पक्षधरता का अनिवार्य परिणाम है। ईश्वर का खण्डन केवल दलित साहित्य में ही नहीं हो रहा, उसे मुख्यधारा के साहित्य में भी चुनौती दी जा रही है। इस सन्दर्भ में वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना का कविता संग्रह ईश्वर की मौत उल्लेखनीय है। असंग घोष का ईश्वर की मौत भी साम्प्रदायिकता के खिलाफ ईश्वर की सत्ता की अस्वीकृति है। दूसरी कोटि सरकार की आर्थिक नीतियों के कुप्रभाव की परिचर्चा भीइधर लेखन में खूब बढ़ी है। अधिकांश कवि इस दौर से पीड़ित है, वे नीतियों के कारण घट रही दुर्घटनाओं को समझ और परख रहे हैं, उन्हें कविता और उपन्यासों में चित्रित कर रहे हैं। स्वप्निल श्रीवास्तव, रामेश्वर प्रशान्त, कुशेश्वर महतो, आदि की कविताएं इस नीतिगत प्रतिरोध का बेहतरीन कविताकरण कर रही हैं। भरत प्रसाद पर्यावरण चिन्ता से व्यथित होकर एक पेड़ की आत्मकथा लिखते हैं तो नासिर अहमद सिकन्दर ने मजदूरों की समस्याओं को लेकर कविताएं लिखी हैं। किशनलाल ने नक्सली समस्या और पुलिस उत्पीड़न को लेकर लिखा है तो सन्तोष चतुर्वेदी व्यक्तिगत जीवन और जगत् की विसंगतियों को लेकर प्रतिरोध का स्वर बुलंद किए हुए हैं। आज का युग चतुर्दिक प्रतिरोध का युग है, इसलिए विचारधारा की भूमिका को आलोचना तक सीमित रखना उचित नहीं है और साहित्य को साहित्य की तरह कहकर सत्तावादी कुप्रचार की स्वीकृति भी जरूरी नहीं है। विचारधारा, प्रतिबद्धता और पक्षधरता को आज का प्रतिमान समझना चाहिए, ये भी कविता मूल्यांकन के औजार बन चुके हैं। इन औजारों के अभाव में आज की कविता का मूल्यांकन नहीं हो सकता है। । उदारीकरण के माध्यम से पूंजीपतियों ने राजसत्ता पर कब्जा कर लिया और उसे अपने साधन और सहयोगी के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इससे राज्य की ताकत कम हो गई। फलस्वरूप, नब्बे के दशक में राजसत्ता के साथ हिन्दी साहित्य और आलोचना का संबंध बदल गया। पहले जहां किसी भी शोषण और अत्याचार के लिए राज्य को जिम्मेदार मानकर साहित्य और आलोचना सत्ताधारियों आलोचना । और उसकी विचारधारा की आलोचना करती थी, वहीं उदारीकरण के बाद जब राज्य कमजोर हो गया और इसका एहसास भी साहित्यकारों को हुआ तो उन्होंने राज्य का विरोध करने की बजाए सीधे-सीधे पूंजीवाद को लक्षित किया। उनकी समझ स्पष्ट है, पूंजीवाद ही असली सत्ता है। रचना और आलोचना ने पूंजीवादी विचारधारा और संस्कृति की अमानवीयता के विभिन्न पहलुओं को उजागर कर उसके प्रति प्रतिरोध दर्ज कराना शुरू किया। यह हिन्दी रचना और आलोचना की पूंजीवाद, उदारीकरण और राजसत्ता की गहरी समझ का परिणाम है।


      यह पक्षधरता दलित और शोषित के प्रति ही क्यू है? क्योंकि समाज में मनुष्य और मनुष्य के बीच एक बहुत बड़ी दूरी है। एक शोषित है, दूसरा शोषक। वैज्ञानिक साहित्य मानव की बराबरी की वकालत करता है। वह आँख बन्द करके रूढ़ियों का अनुसरण नहीं करने देता, वह चेतना को जागृत करता है और कवि धूल को आँधी के साथ उड़ने की स्वाभाविक क्रिया और उसकी परिणति से आगाह कराता है। पक्षधरता के बाद प्रतिबद्धता भी वैज्ञानिक विचारधारा की अनुगामिनी हुई है। यह प्रतिबद्धता किसी द्रोणाचार्य की कौरवों के साथ प्रतिबद्धता नहीं है। न ही सत्ता की इजारेदार, अपराधी तत्वों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और खुले बाजार के लिए प्रतिबद्धता है क्योंकि विनाश और विकास दोनों ही विज्ञान ने आसान बनाए हैं। आज भारतीय राजनीतिक सत्ता विनाश की प्रतिबद्धता से संचालित है परंतु एक रचनाकार की प्रतिबद्धता मानव के अस्तित्व, बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय तथा सृष्टि के कल्याण की प्रतिबद्धता है। मूल्यहीनता, दृष्टिहीनता और स्वार्थलिप्सा के प्रति नहीं। प्रतिबद्धता विचारधारा से आबद्ध होने का नाम है। कोई भी लेखक हो किसी न किसी विचारधारा या जीवन दर्शन से बँधा रहता। है। यह पक्षधरता व्यक्ति के नजरिए को तय करती है। यह माक्र्सवादी आलोचना की शब्दावली है। माक्र्सवाद मानता है कि अब तक का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। इस संघर्ष में सर्वहारा का संघर्ष पूँजीवादी वर्ग से होता है। पूँजीवाद प्रतिक्रियावाद का पोषक वर्ग है। इस वर्ग संघर्ष में सर्वहारा के प्रति आस्था व पक्षपात पक्षधरता है। सर्वहारा समाज का सबसे उत्पीड़ित और शोषित वर्ग है। इस वर्ग के लिए इसकी उन्मुक्ति और कल्याण के लिए लिखा जाना चाहिए। इस बहुहंख्यक समाज के प्रति पक्षधरता वैचारिक प्रतिबद्धता को जन्म देती है। माक्र्सवाद साहित्य को वर्गीय प्रतिबिम्ब समझता है। वह इसी आधार पर कला, ललितकला और साहित्य का विभाजन करता है, साथ ही संस्कृति का विभेद करता है। प्रतिबद्धता शब्द से केवल वैचारिक अवस्थिति का ही बोध नहीं होता अपितु पक्षधरता का भी बोध होता है। प्राचीन काल से लेखकों और रचनाकारों का पक्ष रहा है। समय समय पर अपने पक्ष का उल्लेख सभी लेखकों ने किया है। यह पक्ष वामपंथ से जुड़ा नहीं था लेकिन फिर भी समाज के सबसे पिछड़े और उत्पीडित वर्ग के प्रति संवेदनशील था। तुलसी का कहना कि


                                                                              कीरति भनति भूति भल सोई


                                                                              सुरसरि सम सब कर हित होई


     यह प्रतिबद्धता ही है और यही प्रतिबद्धता पक्षधरता तय करती है। लगभग सभी कवियों ने अपने काव्य में अपनी पक्षधरता को बयाँ किया है। इसलिए प्रतिबद्धता और पक्षधरता को महज फैशन नहीं कहा जा सकता है, यह काव्य का हेतु है, काव्य का आधार है। इसे वामपंथ से जुड़ाव भी नहीं कहा जा सकता है, यह काव्य का जुड़ाव है। जो भी लेखक होगा वह जन के प्रति पक्षधर होगा और उनके हित के लिए कार्यात्मक और रचनात्मक रूप से प्रतिबद्ध होगा। संस्कृत काव्य शास्त्र के काव्य हेतु भी इसी जन प्रतिबद्धता और पक्षधरता को व्यक्त करते हैं। कहने का आशय है कि सबका हित सबका कल्याण भारतीय काव्य हेतु रहा है। इसे किसी विचारधारा से न जोड़कर साहित्य की सामान्य समझ से जोड़ना चाहिए। यह बात दीगर है कि जन पक्षीय विचारधाराओं में सबसे तार्किक और व्यापक विचारधारा माक्र्सवाद है, इसलिए जो भी व्यक्ति जनवादी लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति समर्पित है, वह वामपंथी है। और इस साम्यता के कारण ही वामविरोधी प्रतिक्रियावादी कलावादी प्रतिबद्धता और पक्षधरता को वामपंथी पक्षधरता और प्रतिबद्धता कहकर आलोचना करते हैं।


वामपक्षधरता प्रगतिशीलता की पहचान है। यह सच है जो यह कहे कि वह जनवादी है, प्रगतिशील है और वामपक्षधर नहीं है तो यह असंभव है। वाम एक जीवनदर्शन है जो नजरिया देता है, वैज्ञानिकता का पोषक है। फिर भी यदि कोई वामपंथी नहीं है और वह वाम नहीं होना चाहता तो कम से कम जनपक्षधर होना जरूरी है। जनपक्षधर वाम होना नहीं है, संवेदनशील होना है, समाज के व्यापक हितों का चिन्तक होना है। यह मानक हिन्दी का पुरातन मानक है। तुलसी जायसी सूर कबीर आदि वामपंथी नहीं थे, न उस युग में वामपंथ था फिर भी वे जनपक्षधर थे; इसलिए उनके सिद्धांत और उनका काव्य लोक में पूज्य है और जनजन के बीच व्याप्त है। तुलसी को आचार्य शुक्ल ने लोकमंगल का कवि कहा है। जब कविता के मायने ही लोकमंगल है तो विचारधारा और प्रतिबद्धता व पक्षधरता की समाप्ति की बात कहना कहाँ तक उचित है। यदि जन और लोक दोनों को साहित्य वाह्य मान लिया जाए तो साहित्य किसके लिए? यह सवाल वैदिक काल में भी उठा था - 


                                                                               'कस्मै देवाय हविषा विधेम'


     'कस्मै देवाय हविषा विधेम' इस सवाल का जवाब विश्वमंगल में ही प्राप्त हुआ था। अस्तु प्रतिबद्धता और पक्षधरता व विचारधारा को साहित्य का मूलभूत आधार समझना चाहिए न कि जबरदस्ती थोपी गई तानाशाही कहना चाहिए।


      विचारधारा की भूमिका काव्य रचना प्रक्रिया में भी होती है। अनुभव जब तथ्य के रूप में बदलता है तब बगैर वैचारिक सन्दर्भ के नहीं हो सकता है। विचारधारा का सम्बन्ध बुद्धि से होता है। बुद्धि विवेक द्वारा तय करती है कि कौन सा अनुभव  उचित है, कौन सा अनुचित है। अनुभव विश्रृंखल होते है। वह किसी वाद या बुद्धि विकल्प की प्रभावी अभिव्यक्ति नहीं कर सकते हैं। अनुभव को हूबहू काव्य में अंकित करना रचना को मानवीय मूल्यों व काव्य सरोकारों के विरुद्ध कर सकता है। अस्तु अनुभव को निश्चित तर्क में बदलने के लिए विचारधारा की जरूरत होती है। विचारधारा अनुभव को निरन्तरता प्रदत्त । करती है और उसे तर्कपूर्ण प्रभाविकता से युक्त करती है।


    रचना में जब विचारधारा नहीं होती तो वह किसी बड़े उद्दात लक्ष्य की अभिव्यक्ति नहीं कर सकती है। हिन्दी के इतिहास को इस सन्दर्भ में परखा जा सकता है। हर युग की कोई न कोई चेतना या विचारधारा रही है। ये विचारधाएं और चेतना युग सापेक्ष थीं। चेतना का निर्धारण युग करता। है। यदि लेखक इस युगचेतना की अवहेलना करता है तो रचना किसी भी स्तर पर गणनायोग्य नहीं होती है। सर्वोत्तम लेखक वही होता है जो युग से अनुप्राणित होकर विचारधारा के अनुसार चेतना की अभिव्यक्ति करता है। जैसे आदिकाल में सबसे बड़ा काव्य पृथ्वीराज रासो माना जाता है। इस कृति में आदिकालीन युग की प्रवृत्तियों के साथ तत्कालीन युग, सत्य, वीरता की महत्ता का वर्णन है। इसी तरह भक्तिकाल की मुख्य चेतना सांस्कृतिक सुधार है। इस सुधार हेतु सभी कवियों ने भक्ति को आधार बनाया। भक्ति का सबसे तर्कपूर्ण प्रयोग सुधार और जातिगत, धार्मिक दोषों के निरसन में हुआ। यही कारण है, यह आन्दोलन सांस्कृतिक सुधार का आन्दोलन कहा जा रहा है। जातिवादी और धार्मिक कट्टरता सामाजिक एकता और समरसता के लिए बाधक है। इसके लिए कवियों ने भक्ति को विचारधारा के रूप में स्थापित किया और अपने सरोकारों में सफल हुए। जिस तरह का भक्तिकालीन समाज था, लगभग वैसा ही समाज आज भी है, ज्यादा तब्दीली नहीं है। वही धार्मिक कट्टरता और जातीय संघर्ष आज भी । देखने में आ रहे हैं। यही कारण है, भक्तिकालीन सामाजिक आन्दोलन के कवि आज भी प्रासंगिक हैं। हालांकि जातिवाद और धार्मिक कट्टरता का सबसे तीखा विरोध नास्तिकता और प्रगतिशीलता करती है लेकिन नास्तिकता एक नकारवादी अवधारणा है जिसकी स्वीकृति भारतीय समाज में व्यापक रूप से कभी नहीं हो सकती है। भारतीय समाज में अतिवादी कोई भी धारणा सफल नहीं हो सकती है लेकिन धर्म और अध्यात्म के सहारे इन नकारात्मक प्रवृत्तियों का विरोध बहुत आसान हो जाता है। यही कारण है, भक्तिकाल का भक्ति आन्दोलन किसी धार्मिक संस्थापना के तौर पर नहीं बल्कि सामाजिक विद्रोह के रूप में अधिक देखा जाता है।


        कहने का आशय है कि विचारधारा ही कवि के सरोकार तय करती है। भक्ति एक चेतना थी लेकिन कवि के सरोकार प्रगतिशील थे अस्तु भक्ति का मौलिक स्वरूप सुधारवादी हो गया। जबकि इसी काल में बहुत से ऐसे भी कवि रहे जिनके सरोकार धार्मिक ही बने रहे और उनकी रचनाएं भी सुधारवादी परिवर्तनवादी नहीं रहीं। ऐसे कवियों और लेखकों में सिद्ध शाखा के कवि सरहपा और शबरपा, और जैनकाव्य, आदि जैसे साम्प्रदायिक साहित्य रहा है। एक ही धार्मिक आन्दोलन में दो भिन्न प्रवृत्तियों का प्राप्त होना लेखकीय या कवियों की निजी पक्षधरता को अभिव्यक्त करता है।


     आज का युग भारतीय जनजीवन में उथल पुथल का दौर है। दमन, महंगाई, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, जातीय संघर्षों ने ऐसी अराजकता पैदा की कि भारत का बुद्धिजीवी वर्ग इन सबसे विक्षुब्ध हो गया। उसके हृदय में असंतोष पनपने लगा, संवेदनशील होने के कारण वह बेचैन और चिन्तित रहा। इधर के वर्षों में जिस तरह कारपोरेट पूँजी और सार्वजनिक पूँजी में आन्तरिक गठबन्धन स्थापित हुए, शोषण की विश्वव्यापी नीति तय की गई, निवेश, विनिवेश को बढ़ावा मिला, जनता के हिस्से का धन भी कारपोरेट को सौंपा जाने लगा, प्रतिरोध को देश द्रोह की संज्ञा दी गई; जमीन जंगल नदी सब कुछ छीना जाने लगा, ऐसे में कोई भी सचेतन बुद्धिजीवी चुप कैसे रह सकता है। वह सत्ता व्यवस्था की अन्दरूनी विसंगतियों से परिचित रहा है। उसने इस भीषण लूट के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन सत्ताओं ने इस संघर्ष को अलग दिशा देकर मिथकों के आधार पर साम्प्रदायिकता की नई इबारत लिखी। समूचा देश इस आग में अब तक झुलस रहा है। इंसान से अधिक मिथक महत्वपूर्ण हो गए हैं। आचरण से अधिक दुराचरण व सहिष्णुता की जगह असहिष्णुता को बढ़ावा दिया गया। आज के इस भयावह समय को देखते हुए कहा जा सकता है कि जनता के लिए क्या बचा है? न तो रोजगार है न जीवन है, न सत्ता में भागीदारी है। सब जगह बुर्जुवा काबिज हैं, वह प्रतिक्रियावादी मूल्यों के बल पर वही पुरातन समय वापस लाना चाहता है। उसके इस मिशन में पूँजीपति वर्ग खुलकर उसका साथ दे रहा है अस्तु लेखक का उत्तरदायित्व क्या होता है? कि वह अराजनैतिक होकर मात्र प्रेम में गल अश्रु बहाए कि प्रतिरोध की आवाज बुलन्द कर जनता को वास्तविकता से अवगत कराए? शायद इसी कारण, आज प्रतिरोध कविता और आलोचना का मूल स्वर हो गया है। यह आज का लेखकीय प्रतिमान है और लगभग सर्वस्वीकृत प्रतिमान है।


                                                                                                                  सम्पर्क : द्वारा गऊलाल डाकिया, प्रधान डाकघर अतर्रा रोड                                                                                                                        बबेरू, जनपद, बाँदा-210121, मो. : 09838610776