'संस्मरण - वो बारिशें, वो जामुन - आरती तिवारी

जन्म : 8 जनवरी जन्म स्थान : पचमढ़ी शिक्षा : बी.एस.सी.एम.ए.बीएड प्रकाशन : देश के सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ कहानी, आलेख, संस्मरण, यात्रा वृत्तान्त एवं अनुदित कविताएँ निरन्तर प्रकाशित। प्रसारण : आकाशवाणी इंदौर से एकल काव्य पाठ कहानी पाठ एवं काव्य गोष्ठियां वार्ताएं प्रसारित सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन


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लीजिए मैं फिर आपसे मुखातिब हूँ, अपनी बारिशें लेकर, ..लेकर वो यादों के खजाने जो हम सबमें निहां हैं, वैसे ही जैसे छाया में काया रहती है।...कभी काया लम्बी कभी छाया लम्बी ...कभी काया सामने कभी छाया सामने ...और अँधेरा गहराते ही छाया अपनी ही काया में समा जाती है या काया ही उसे समेट लेती है। ..आप भी मेरी तरह यादों के झुरमुट में गुम ज़रूर हुए होंगे और मेरी ही तरह वापिस भी लौटे होंगे, ..पर आपने शायद ध्यान न दिया हो। मैं तो जब भी बचपन की इस गली से गुजरी तो वापसी में मेरी मुट्टियाँ कभी अमलतास के गुच्छों तो कभी झरनों से मिले चमकीले पत्थरों से भरी होतीं तो कभी माचिस की डिब्बियों में इकट्टे किए जुगनू और कन्धे पर बैठी तितलियाँ चली आई और घण्टों मुझसे बतियाती रहीं, ..उन्हीं ने तो मज़बूर किया कि मैं कहूँ बारिशों की बाबत, बूंदों की झाड़ियों की कहानी वो कहानी जिसमें आषाढ़ है।


    हाँ! वही आषाढ़ जो राहत की उम्मीदें लेकर आता है, जिसे उमस से परेशान हाँफ्ते हाँफ्ते अपना रिले रेस का बेटन थमाकर निश्चितता की साँस लेता है, ...सचमुच वो आषाढ़ अपना बेटन थामते ही ऐसी दौड़ लगाता था कि देखने वाले दाँतों तले ऊँगली दबा लेते, ..ऐसी सोंधी सोंधी गन्ध से उसका आगाज होता कि मैं तो खूब लम्बी-लम्बी साँसे लेती थी कि इस गन्ध को जितना भी जी लू कम है क्योंकि इसकी उम्र इतनी कम होती और देखते ही देखते आषाढ़ पूरे आकाश को अपनी स्लेटी चादर से ढंक देता और धरती की पुकार पर अपने पूरे वजूद को बिछा देता धरती की तप्त देह पर, .. और धरती की ठण्डी ठण्डी साँसें फ़िज़ा में ऐसी ठंडक घोल देतीं जैसे मौसमी का जूस तुरन्त ताज़गी देता है।..मुझे धरती की यह मुस्कुराहट बहुत भली लगती है जिसमें जंगल का मन भी मोर का नुत्य देख नाचने लगता है।..इसी आषाढ़ की बूंदों तले पचमढ़ी में बाँहों में बाहें डाले घूमते पर्यटकों के लिए ही किसी दुकान पर यह गाना बज रहा है, ..‘सुहाना सफ़र और यह मौसम हसीं' और वे एक दूजे में खोए दुनिया से बेखुबर हैं!..


    पर हम तो बाख़बर हैं और यह आषाढ़ हमें खूब भिगोता है,याद दिला देता हैं, पंचमढ़ी की उन अटाटूट बारिशों की जब हमारी सालाना छुट्टियाँ १५ जुलाई से १५ सितम्बर तक हुआ करती थीं, हालाँकि हमारे यहाँ मानसून तो जून के अंत तक सक्रिय हो ही जाता था! ..और हम सुंदर सुंदर बरसातियों को पहनने का आनंद भी उठा ही लेते थे, .


         


आनंद भी उठा ही लेते थे, ..जानबूझकर बरसातियों को घुटनों तक उठाए पानी में छप छप करके चलते जबकि पंचमढ़ी में कितनी ही बारिश हो जाए आप सड़कों पर गड़े और इधर उधर भरा पानी कभी नहीं देखेंगे, .. जबकि पिपरिया में गर्मियों के महीनों में सड़कों पर बिखरा पाउडर हमारे पसीने पर उड़ उड़ कर चित्रकारी करता रहता है, और जैसे ही आषाढी बौछारें पड़ती हैं, ..यही पाउडर क्रीम बन हमारे कदमों की निशानदेही करता है।..भाई और बहन दोनों की अपनी अपनी तासीर है। पिपरिया की अलका टाकीज़ में हमने इसी क्रीम पाउडर के मौसम में अपनी प्यारी सखियों के साथ लव स्टोरी, सिलसिला, एक दूजे के लिए, शान, अंधा कानून जैसी फिल्में देखी हैं।..ज्योति पालीवाल, भावना अग्रवाल शायद अपने बदल चुके सरनेम के साथ भूल भी गई हों। ..मीठी गली की उस कचौड़ी वाली दुकान पर जब भी मौका मिलता है, ..मैं किसी भी बहाने रुक कर उन कचौड़ियों का स्वाद लेना नहीं भूलती, ..जो उन दिनों की लड़कियों की खास पसन्द हुआ करती थीं। बारिशों के मौसम में और छतरियों के नीचे खड़े रहकर कचौड़ियां खाने वाली लड़कियाँ उस समय की पिपरिया में एक दुर्लभ दृश्य था। तब की लड़कियाँ आज की लड़कियों की तरह बिंदास नहीं हुआ करती थीं, ..पर हम कुछ लड़कियाँ तब भी कुछ कुछ ऐसी ही थीं। कोई क्या कहेगाकी परवाह न करने वाले और छतरियों की ओट में बारिश में गर्मा-गर्म कचौड़ियों का लुत्फ लेने वाले पता नहीं हमारे बाद की लड़कियों ने यह लुत्फ़ लिया? या उनके सपने शायद अलग हों। हमारी बारिशें हमारे साथ ही अलग अलग शहरों तक पहुँच गईं लगती हैं।


     सतपुड़ा की रानी खूब नहाती है, अपनी झमाझम बारिशों में! ..पर गड़ों और कीचड़ को पनाह नहीं दी उसने अपनी जमीन पर, अमलतास के पेड़ों से अपनी सड़कों को सजाती, देवदारुओं को प्रहरी बना अपने बंगलों को सज्जित करती.! एक साफसुथरी सुघड़ गृहिणी सी अपना घर संसार सहेजती है, न कहीं कीचड़ न कचरे का ढेर। इसकी इसी सुघड़ता पर अंग्रेज़ मर मिटे और चले आए थे, अपना बसेरा बनाने, ..इन गोरी चमड़ी और लाल भभूका मुँह वालों ने जहाँ जहाँ हरियाली देखी, ..झरनों की कलकल सुनी चले आए मैदानों को छोड़ अपना लाव लश्कर उठाए। अब ये आए तो अपने साथ अपने खानसामे, अपने धोबी,अपने नाई, अपने बच्चों को पढ़ाने वाले, आटा दाल बेचने वाले,पशुपालक सब लेकर आए, ...और बसती गई सतपुड़ा की रानी। ऐसा नहीं था कि इनसे पहले कोई यहाँ रहता नहीं था। रहते थे सतपुड़ा की तराई में बसे आदिवासी लोग। लीजिए जैसे ही यह बात आपको बताने आई, ..मुझे आँटी बहन जी की याद आ गई, ..जो अपने स्कूल केटोनमेन्ट बोर्ड में प्राथमिक शिक्षिका थीं और उन्होंने एक बहुत ही खूबसूरत लोकनृत्य अपने छात्रों को सिखाया था ..जिसके बोल थे, हम तो भैया आदिवासी पंचमढ़ी के हम निवासी अरर र अर के दादा अरर र अर के दादा! साथियो, इस लोकनृत्य की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि इसमें सिर्फ लड़के ही होते थे जोड़ों में और उनमें से ही एक लड़की बनता था। आज से चार दशक पूर्व जब वे आदिवासी गोंड़नी बने लड़के लाली लगाए ठुमकते तो हर कार्यक्रम में धूम मचा देते। ...आँटी बहन जी उनका ऐसा मेकअप करती थीं कि मुख्य अतिथि बने ब्रिगेडियर कभी जान ही न सके कि यह मोड़ियाँ नहीं मोड़े हैं। मेरा बहुत मन हो रहा है उनमें से दो चार मोड़ों के नाम आपको बता दें जो अभी पंचमढ़ी में किसी होटल के मालिक या किसी बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी में बड़े अधिकारी हैं ..पर जाने दीजिए यह जिक्र किसी और दिन के लिए रख छोड़ते हैं। आँटी बहन जी जो मैडम शुक्ला थीं, वे तो अब रही नहीं पर बहुत स्नेह रखती थीं अपने छात्रों पर। हालांकि मैं उस स्कूल की छात्रा नहीं थी पर हर कार्यक्रम में भागीदारी अपने स्कूल से ऐसे हर कार्यक्रम में हुआ करती थी जहाँ अन्य स्कूलों के साथ हमारी। प्रतिस्पर्धा हुआ करती थी, ..और मैं तो अपने सारे टीचर्स की बहुत फेवरेट स्टूडेंट थी। पंचमढ़ी के अपने पूर्व शिक्षकों का एक दिन सिलसिलेवार जिक्र करूंगी। लगता है भूलनी बेल पर मेरा पाँव पड़ गया और मैं बारिशों से दूर छिटक गई, ...पर यह आषाढ़ी बौछारें मुझे फिर पकड़ लाई हैं और मैं भी यादों के उस कारवाँ में शामिल हो गई हूँ....जिसका पीछा करते करते विदेशी मूल के भारतीय साहित्यकार रस्किन बॉन्ड हर बार कोई कीमती खजाना लिए लौटते हैं। मेरी तो । अमूल्य सम्पदा यह बचपन ही है जो सतपुड़ा की रानी की गोद में बीता, जहाँ के शौर्य खिला, बचपन की सखी सहेलियों से लड़े झगड़े, कट्टियाँ हुई और पक्की दोस्तियाँ भी।..आज सोचती हूँ तो लगता है सिर्फ पढ़ लिख जाने और चेतना संपन्न होने में बहुत फ़र्क है,..उतना ही जितना कि अपने कुछ क्लासमेट्स के उल्लेखनीय माक्र्स और मेरे विचारों में हुआ करता था।..मैं सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं पढ़ी, ..सिर्फ अच्छे नम्बरों के लिए नहीं दौड़ी। वे तो मुझे वैसे ही मिल जाते थे। अपने स्वर्गीय पिता पंडित शंकरलाल आचार्य से सहज ही। एक तीक्ष्ण बुद्धि मुझे और मेरे भाई को मिली थी, ..और एक गज़ब की याददाश्त का एक अंश भी।..उन्हीं में शामिल हैं। यह आषाढी बारिशें भी। ..पिछले वर्ष ही देनवा पर बने बड़े पुल का लोकार्पण था १० जून २०१७ को और ठीक उसी दिन मैं छोटे पुल से होते हुए पिपरिया आ गई थी, क्योंकि उसी दिन जबलपुर सोमनाथ से मुझे रतलाम आना था।..बरसों मन में यह चाह रही कि देनवा पर एक बड़ा पुल बन जाए जिससे पिपरिया से पंचमढ़ी का वो जीवन्त संपर्क बना रहे जिसे हमारे पुरखे बना गए हैं।...छोटे पुल पर देनवा का पानी आने से दोनों तरफ के लोग इधर से उधर आ जा नहीं सकते, ...बहनें अपने भाइयों को राखी बाँधने नहीं पहुँच पातीं और उदास रही आती हैं, ...चंदा से संदेसा भी नहीं भेज पातीं वो भी बादलों के घर में छुप के बैठा रहता है। उदास बहनें यह भी नहीं कह पातीं, ..‘मेरे भैया को संदेसा पहुँचाना रे चंदा तेरी ज्योत बढे। मैं इस नए बने बड़े पुल को शुक्रिया कहना चाहती हूँ कि इसने कुछ ख़ाहिशों को महफूज कर दिया है। पचमढ़ी में भौतिक समृद्धि बढ़ी है..अच्छा लगता है देखकर पर कुछ कहीं पीछे छूट गया है, ..वो अपनापन, वो आत्मीयता वो मोहब्बतें जो लोगों को जोड़कर रखती थीं।...हाँ कोई भी किसी के भी लिए किसी काम के लिए मना नहीं करता था, ..हमेशा तत्पर रहता था!'


 ये जामुन का मौसम हुआ करता है।


इन्हीं आषाढ़ी बौछारों से जामुन मीठी चट्ट हो जाती हैं। मैंने जामुन की इतनी वैरायटी दूसरी जगहों पर नहीं देखीं, ..मन्दसौर रतलाम नीमच इंदौर उज्जैन जितनी भी जगह इस मौसम में जामुन खाई है, ..प्रायः एक ही साइज़ की बड़ी बड़ी जामुन थीं, ..जबकि पंचमढ़ी की जामुन छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी हर साइज़ की मैंने खाई हैं। जटाशंकर जो पंचमढ़ी का सबसे निकटस्थ दर्शनीय स्थल है शहर से मात्र डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर ही, ..उस पूरे रास्ते में इतने जामुन के पेड़ हैं, ..कि हवा जब चलती है तो जटाशंकर तक के पूरे रास्ते में जामुन ही जामुन बिछ जाती हैं। यदि कोई नवविवाहिता नंगे पैर थोड़ी सी ही दूर उस पर चले तो पैरों में आलता लग जाता है। बड़ा ही खूबसूरत नज़ारा होता है। .. आलता या महावर नर्मदा के आसपास बसे मध्य प्रदेश तक ही रह जाता है। मन्दसौर मालवा में है। यहाँ मेंहदी हर उत्सव और शुभ की सूचक है। मेंहदी लगे पाँव देखकर त्यौहारों के आने की सूचना मिल जाती है। मुझे अपनी अम्मा के आलता से रचे गोरे गोरे सुंदर पैर याद आ जाते हैं। मैं जब भी पंचमढ़ी जाती हूँ, मेरी अनुज वधू राखी मेरे पैरों में आलता जरूर लगाती है। जानती है यह रंग मुझे मेरी जड़ों से मिला है। स्त्री अपने साथ अपनी संस्कृति लेकर चलती है। मुझे अच्छा लगता है अपने मायके के इन पलों को जी लेना लगता है। भूलन बेल पर दुबारा मेरा पाँव रखा गया है। मैं तो आपको जटाशंकर के रास्ते पर लेकर चल रही थी और याद कर रही थी उस नई नई ब्याह कर यहाँ घूमने आई युवती को जो जामुनों पर नंगे पाँव चल रही थी। पर अब कौन चलता है ऐसे? गाड़ियाँ रमैया बाबा के हनुमान मंदिर तक सीधे ही जाने लगी हैं। इस मंदिर में हनुमान जी की एक विशाल प्रतिमा है, जिसे यहीं से निकली एक बड़ी चट्टान को काट और तराश कर यहीं के एक युवक सुरेश ने आकार दिया था। यहाँ से नीचे जाने पर लगभग आधा किलोमीटर की उतराई के बाद ही जटाशंकर का स्वनिर्मित प्राकृतिक शिवलिंग है, ..जो श्रद्धालुओं की अगाध आस्था का केन्द्र है। यहाँ महाराष्ट्र से लाखों श्रद्धालु हर साल नागपंचमी के दिन बिना नागा  पहुँचते हैं, यूं तो साल भर ही पर्यटकों का ताँता लगा रहता है, ..पर नागपंचमी पर जो मेला भरता है उसमें यह मराठी श्रद्धालु पहुँचते हैं, जिन्हें वहाँ भगत कहा जाता है।..लीजिए। हम भगतों की भक्ति में जामुन के स्वाद को ही भूल गए। मेरी एक अभिन्न सखी अन्नू और मैं इन छोटी मीठी जामुनों के इतने दीवाने थे कि, ..एक बार जामुन खाने बारिश में भीगते छतरी लिए झील तक पहुंच गए थे। यह एक रहस्य था पंचमढ़ी की सबसे मीठी जामुन उस झील के पास लगे पेड़ की ही थीं जो महावीरन के रास्ते में था। हम वहाँ पहुँच तो गए पर नीचे की डालियों पर जामुन नहीं थी और झाड़ पर हमें चढ़ना नहीं आता था, ..कि अचानक देखा एक भैया साईकिल से इसी तरफ़ आ रहे हैं। और जब वे पास आए तो हमारी आँखें खुशी से फैल गईं। वे हमारी पहचान के ही थे सिराज भैया। बारिश में हमें जामुन के पेड़ के पास देख वे सारा माजुरा भांप गए। उन्होंने झाड़ पर चढ़कर जामुन तोड़ीं और हम नीचे छाता खोलकर उल्टा करके उसमें जामुन झेलते गए। भैया नीचे उतरे। वे अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर देवदारु बंगले पर जा रहे थे। हम उन्हें धन्यवाद तक कहना भूल गए, और कहा आप घर पर मत कहिएगा, हम बारिश में यहाँ जामुन तोड़ने आए थे! भैया ने कुछ नहीं कहा, हँसते हुए चले गए, जाते जाते यह ज़रूर कहा मैं घर पर ही तुम लोगों को इसी झाड़ की जामुन लाकर । दूंगा। पर अब कभी अकेले इतनी दूर जामुन तोड़ने मत आना। हमें पिछला सब छोड़कर आगे जाना है, निरन्तर आगे बढ़ना है ..पर आप सबसे एक सवाल पूछती हूँ बताइए, ..कितना पवित्र रिश्ता है उस समय से जो बीत गया ..जिसमें भरोसे के बीज एक परिवार जाने कब अपनी संतान में रोप देता था, ..और वो उम्र भर उस भरोसे को कायम रखता था। उस समय भी अनैतिकता थी,दुराचार भी रहा ही होगा, ..पर अपने आस-पास फटकते उसे कभी देखा हो। लाख यादों के पन्ने पलटे, स्मृतियों के दस्तावेज़ खंगाले पर याद ही नहीं आया। कोई आसिफा, कोई दिव्या, कोई पूजा, कोई डॉली नहीं, ऐसे घिनौने किसी भी हादसे का स्मृति पटल पर कोई चिह्न नहीं, मेमोरी रिकॉल में ऐसा कोई संकेत नहीं। इस समय को इतना गिरते हुए देखती हूँ,..छोटी-छोटी बच्चियों को अपनों से ही धोखा खाते देखती हूँ,..तो जामुन खाने का मन नहीं होता। .. कोई तो आषाढ़ ऐसा उमग कर बरसे जिसमें सारा कलुष धुल जाए,..और कल की सुबह एक उम्मीद का पैगाम लेकर आए! मेरे सपने उम्मीद से हैं।


                                                                                                                                                       सम्पर्क : 36, मंगलम विहार, मन्दसौर-458001, मध्य प्रदेश


                                                                                                                                                                                                        मो.नं. : 9407451563