संस्मरण' - छोटा कद लेकिन बड़ा पद - स्वप्निल श्रीवास्तव

प्रतिष्ठित कवि-कथाकार। शिक्षा : गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर कृतियाँ : ईश्वर एक लाठी है, ताख पर दियासलाई, मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए, जिंदगी का मुकदमा, जब तक है जीवन, एक पवित्र नगर की दास्तान (कविता-संग्रह)। सम्मान : भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार फिराक सम्मान तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान। कविता और कहानी लेखन के अलावा समीक्षा और अनुवाद में अभिरूचि। देश-विदेश की भाषाओं में कविताओं के अनुवाद।


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परामानंद श्रीवास्तव को मैं सेंट एंड्रयूज कालेज के दिनों से जानता था। मैं उन दिनों बी ए का छात्र था और वे हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। छोटा कद, क्लीन शेव, सफेद रंग का कुर्ता पैजामा और पांव में चप्पल। वे दिखने में बहुत विनम्र लगते थे। उनके बारे में प्रचलित था कि हिंदी के बहुत बड़े विद्वान् है। लेकिन उनकी कद-काठी से ऐसा नहीं लगता था। वे हमें बिहारी और जायसी पढ़ाते थे। ये दोनों कवि हम लोगों के लिए अबूझ थे, लेकिन उनकी व्याख्या के बाद सरल दिखने लगे थे। इन कवियों को पढ़ाने के बाद वे प्रद्वारांतर से कुछ नई चीजें बताते थे, जिससे हमारे विचारों के क्षितिज खुलते थे। उनसे हम लोगों ने अज्ञेय के बारे में जाना - जो हिंदी कविता के बड़े व्यक्तित्व थे। उनके तार-सप्तक की धूम थी। वे सप्त ऋषि थे। वह अकविता और नई कविता का दौर था। हम कविताओं को पढ़ जरूर लेते थे, लेकिन उनका समझना मुश्किल था। कविताओं की व्याख्या भी कविताओं की तरह अमूर्त होती थी। उन्ही दिनों कालेज की लाइब्रेरी में कल्पना, लहर,ज्ञानोदय जैसी पत्रिकाएं आती थी - जिसमें परमानंद की समीक्षाएं और कविताएं पढ़ने को मिल जाती थीं। उन्हें पढ़ के उनकी विद्वता के संदेह दूर हो जाते थे।


      परमानंद श्रीवास्तव के पढ़ाने की शैली अलग थी। उनकी भाषा अन्य अध्यापकों की भाषा से आधुनिक थी। जायसी को वे बहुत मनोयोग से पढ़ाते थे। वे बताते थे कि विजयदेवनारायण साही ने जायसी पर अत्यंत महत्वपूर्ण लिखा है। बिहारी की भाषा और व्यंजना उन्हें प्रिय थी। हम छात्रों को उन्हें देख कर बिहारी का वह दोहा याद आता था - सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर / देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर। यह दोहा उन पर सटीक बैठता था। बाद में यह दोहा उनके जीवन के साथ जुड़ गया। इस दोहे का इस्तेमाल वे अपने बचाव में करते थे। कक्षा के अनेक छात्रों को उनकी भाषा नहीं समझ में आती थी। उनकी भाषा परम्परागत नहीं थी। थोड़ी बौद्धिक जरूर थी। जिन छात्रों की रुचि साहित्य में थी - उनके लिए उनकी भाषा कठिन नहीं थी। मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। वे हमें कविताओं का अर्थ लिखने के लिए देते थे। मैंने उन्हें लिख कर दिखाया तो बोले- अब इस तरह के अलंकारिक भाषा का चलन नहीं है। बस तुम सीधी-सादी भाषा में अपनी बात कहो। यह मेरे लिए सूत्र वाक्य की तरह था और अब तक मैं इस लीक पर चल रहा हूँ।


            


    कालेज में मेरे निकट सम्बंधी भौतकी विभाग में लेकरर थे। पिता ने उन्हें मेरा दायित्व सौप रखा था। उन्होंने परमानंद जी से अपने सम्बंधों के बारे में बताया था। इस नाते भी वे मेरे प्रति स्नेहिल थे। जब उनके पिता की मृत्यु हुई तो साल भर उन्होंने वस्त्र नहीं पहने, बस आधा शरीर वे किसी तरह ढकते थे। वे इस परिधान में गांधी की तरह लगते थे। चप्पल की जगह वह खड़ाऊ पहनते थे। उनके खड़ाऊं की आवाज दूर से सुनाई पढ़ती थी। वे सख्त स्वभाव के थे। छात्र उनसे डरते थे। एक दिन परमानंद जी ने उनके हुलिए के बारे में पूछातो मैंने बताया कि वे पुराने रीति-रिवाजों में यकीन करते है। उनके पूछने का तात्पर्य यह था कि एक आदमी विज्ञान पढ़ाता है और वह अपनी निजी जिंदगी में इतना दकियानुस क्यों है? कुछ लोग खुद अपने विलोम होते हैं। अपने विश्वाश की रक्षा अपनी तरह करते हैं।


    एक दिन की बात है, वे बिहारी पढ़ा रहे थे। पढ़ाने के बाद वे नोट लिखाते थे। उन्होंने लिखाया कि बिहारी कीभाषा बहुत चुस्त है। इस बात पर मेरे अगली बेंच पर बैठा हुआ लड़का हंस पड़ा। उन्होंने कारण पूछा तो उसने बताया कि सर आजकल हमारी पैंटें चुस्त रहती हैं और अब भाषा भी चुस्त होने लगी। अन्य कोई होता तो इस मजाक पर हंसता लेकिन वे गम्भीर हो गए और क्लास से चले गए। हम लोगों ने उसकी तरफ से माफी मांगी, बाद में उस लड़के ने अपनी गलती कुबूल की - लेकिन वे सहज नहीं हुए। जितने दिन |  वे रहे, क्लास लेने जरूर आते थे लेकिन वे पूर्व भाव में नहीं लौट सके। मेरा ख्याल था कि वे किसी मानसिक उद्वेग में फंसे हुए थे। कुछ दिनों बाद वे सेन्ट एंड्रयूज छोड़ कर विश्व विद्यालय चले गए। हिंदी विभाग में शरत चंद्र अग्रवाल आए। उनके पीछे अनंत मिश्र भी आए। वे माथे पर चंदन लगाते थे। उन दिनों वे मानसिक रूप से परेशान थे। यह उनके व्यवहार से दिखता था। मेरा ख्याल है कि मुझे उनका सानिध्य साल भर ही मिला होगा। उनका जाना हम जैसे कई छात्रों के लिए उदास करने वाला था। डा० अग्रवाल मेरे प्रति अनुराग रखते थे। एक दिन उन्होंने मुझे अपने आवास पर बुलाया। मैं उलझन में था। बुलाने के पीछे का कारण ढूंढ रहा था। कहीं मुझसे कोई गलती तो नहीं हुई। उन्होंने मुझे चाय पिलाई और कहा कि कालेज की पत्रिका के हिंदी सवर्ग का सम्पादन तुम करोगे। यह खबर सुन कर मैं भीतर से उछल गया और सर को धन्यवाद दिया। अंग्रेजी सेक्शन का सम्पादन अंग्रेजी विभाग की सहपाठी आशा श्रीवास्तव के जिम्मे था। मेरे सहपाठी महेंद्र प्रताप सिंह थे। वे खूब पढ़ते थे। बाद में वे मेरी तरह विश्व विद्यालय के छात्र हुए। वे बहुत अच्छे छात्र नेता थे। लेकिन जिस तरह की छात्र राजनीति चल रही थी। उसमें वे फिट नहीं बैठते थे। कालेज के प्रधानाचार्य मि. चाको थे। उन्हें हिंदी बिल्कुल नहीं आती थी। कुछ दुष्ट छात्र उन्हें उनके सामने उन्हें भद्दी-भद्दी गालियां बकते थे। उन्हें लगता कि वे उनकी तारीफ कर रहे है। उल्टे वे हंसने लगते थे। 


    अंग्रेजी विभाग में नाफीज साहब को कौन भूल सकता है। वे अध्यापक नहीं जादूगर थे। वे डूब कर पढ़ाते थे। उनकी घंटी जल्दी बीत जाती थी। वे केवल अंग्रेजी साहित्य के बारे में नहीं दुनिया-जहान की बातें बताते थे।


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जब मैंने विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में दाखिला लिया तो उनसे परिचय की जरूरत नहीं थी। मेरे हिंदी विभाग के दाखिले से मुझे ही नहीं उन्हें भी खुशी हुई। मैंने यह पूछने का साहस नहीं किया कि वे आखिर क्यों कालेज से चले आए। विश्वविद्यालय कालेज से बड़ी जगह तो थी ही। गोरखपुर का हिंदी विभाग काफी समृद्ध था। रामचंद्र तिवारी, गिरीश रस्तोगी, रामदेव शुक्ल, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कृष्ण चंद्र लाल जैसे लोग थे जिनके भीतर गहरी रचनात्मकता थी। वे साहित्य में भी जाने जाते थे। परमानंद श्रीवास्तव इन लोगों में सर्वोपरि थे। उनकी किताब - नई कविता के परिपेक्ष्य में और कविता संकलन - उजली हंसी के छोर पर - प्रकाशित हो चुकी थी। बताया जाता है कि यह शीर्षक अज्ञेय के किसी कविता पंक्ति के नाम पर रखा गया था। पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख और कविताएं छप रही थीं। वे सेमीनारों और सम्मेलनों में बुलाए जाते थे। वहां से लौट कर वृतांत बताते थे। हिंदी के कवियों-कथाकारों से उनका परिचय था। उनके विभाग में आने के बाद साहित्यिक गतिविधियां बढ़ रही थीं। हिंदी विभाग में उन्होंने हिंदी साहित्य परिषद नाम की संस्था गठित की थी - जिसके छाते तले कार्यक्रम होते रहते थे। हर साल कविता, कहानी, निबंध प्रतियोगिता आयोजित की जाती थी। पुरस्कार वितरण के लिए किसी बड़े साहित्यकार को बुलाया जाता था। मुझे याद है, ऐसे अवसर पर यशपाल का आगमन हुआ था। संयोग से मैं तीनों प्रतियोगिताओं में प्रथम था। जब पहले दूसरे और फिर तीसरे पुरस्कार के लिए मेरा नाम सामने आया तो उन्होंने मेरी पीठ ठोकते हुए कहा - तुम एक दिन अच्छे कवि बनोगे। अच्छे कवि बनने का गौरव तो मेरे पास नहीं है लेकिन हिंदी कविता में मेरा विनम्र योगदान तो है ही। यह बात मेरे रकीब भी मानते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि मेरी बनावट में परमानंद जैसे कई लोगों की भूमिका है।


       इन प्रतियोगिताओं के इतर कई तरह के अयोजन होते थे, इसमें हिंदी विभाग के आचार्यगण शामिल होते थे। मुझे याद है कि काशीनाथ सिंह के उपन्यास-नया मोर्चा पर परिसम्वाद आयोजित किया गया था। यह उपन्यास बनारस के छात्र आंदोलन पर आधारित था। इसे परमानंद श्रीवास्तव ने नया उपन्यास कहा था। इस तरह के अनेक आयोजन होते थे और इन सब गतिविधियों के सूत्रधार परमानंद श्रीवास्तव थे। गिरीश रस्तोगी की नाट्य संस्था-रूपान्तर से भी वे जुड़े हुए थे। वे बहुत अच्छे वक्ता थे। वे नपा-तुला बोलते थे। उनकी आवाज तीखी और पेनीट्रेटिंग थी। उनके पास टकसाली भाषा थी। ज्ञान तो था ही। उन्हें बोलने के लिए कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती थी।


     उन्हीं दिनों मेरी दोस्ती अपनी सहपाठी सुमन से शुरू हुई थी। इस लड़की ने मेरा जीवन बदल दिया था। मां की मृत्यु के बाद जीवन में जो सूनापन पैदा हुआ था, उसको वह भरने की कोशिश कर रही थी। साहित्य में उसकी गहरी अभिरुचि थी। साहित्य परिषद की गोष्ठियों में वह मेरे साथ कविता पाठ करती थी। हम साथ-साथ आते जाते थे। कभी क्लास बंक कर विश्वविद्यालय के सामने गोल्फ के लिए बने हुए हरे मैदान में घूमते और यूकेलिप्टस के चिकने तनों पर एक दूसरे का नाम लिखते थे। इस मैदान को देख कर थकान दूर हो जाती थी। जब याद आता था कि अब क्लास शुरू हो गया होगा तो हड़बड़ी के साथ लौटते थे। भरी हुई क्लास में हम दोनों के आने को जिज्ञासा के साथ देखा जाता था। परमानंद जी हमे सुरूचि और अनुराग के साथ देखते थे। हमारे भीतर यह सपना चुपके-चुपके पल रहा था कि कितना अच्छा हो हम दोनों किसी कालेज में पदस्थ हो जाएं तो यह जिंदगी धन्य हो जाए। हम दोनों अलग-अलग और कभी एक दूसरे के साथ परमानंद श्रीवास्तव के घर जाते थे। उन्हें हमारे सपनों की जानकारी थी। सुमन उनके ज्यादा निकट थी। उसने पारिवारिक रिश्ता बना लिया था। वह हमारे पारिवारिक परिस्थितियों के बारे में उन्हें बताती रहती थी। वे उसे आश्वासन देते रहते थे कि तुम लोगों की नियुक्ति कहीं न कहीं हो जाएगी। सुमन से उनका रिश्ता प्रगाढ़ तब हो गया - जब उसने उन्हें राखी बांधना शुरू कर दिया था। वह उसे उपहार में कोई न कोई किताब भेंट करते थे - जो उसके बाद मेरी अपनी हो जाती थी। मैं आश्वस्त था कि हम दोनों में किसी एक की नियुक्ति हो जाए तो भी जिंदगी चल निकलेगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मैंने तीन जगहों में इंटरव्यू दिया, संयोग से एक्सपर्ट परमानंद श्रीवास्तव थे लेकिन किसी जगह मेरा चुनाव नहीं हुआ। मैंने इसे अन्यथा नहीं लिया लेकिन सुमन आहत हो गई थी। लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि अगर वे चाहते तो तुम्हारा कहीं न कहीं हो ही जाता। हमारे सपने टूटने लगे थे। सुमन एम.ए. के बाद मोहन राकेश पर शोध करने लगी। मोहन राकेश मेरे प्रिय  लेखक थे। मैंने रूपांतर में उनके नाटक-आषाढ़ का एक दिन .. लहरों का राजहंस, आधे-अधूरे देख कर उनका दीवाना हो चुका था। इसके अलावा मुझे उनके उपन्यास, न आनेवाला कल, अंधेरे बंद कमरे तथा कहानियां बहुत पसंद थे। मैं उन पर शोध करना चाहता था, लेकिन पिता ने मुझे अफसर बनाने । तथा सुमन से दूर रहने के लिए इलाहाबाद का बनवास दे दिया था। जब भी मैं गोरखपुर आता, सबसे पहले उनसे मिलने उनके आवास सूरजकुंड चला जाता था। वहां मुझे साहित्य की नई जानकारी मिलती थी। । 


     शुरू में वे गोलघर गांधी आश्रम के पास वाली गली में रहते थे। वहां उनसे मिलना सुविधाजनक था। बाद में वे सूरजकुंड के आवास विकास कालोनी में चले गए - जो शहर के दूसरे छोर पर था। शाम होते रिक्शेवाले मना कर देतेथे। वहां सवारियों के लुटने का खतरा था। अब उस कालोनी का विस्तार हो चुकी है। वह शहर की मशहूर कालोनियोंमें शुमार हो चुका है। जो उनके मुरीद थे, वे उतनी दूर जाने का दुख उठा लेते थे। मेरी नौकरी लग चुकी थी। कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में छप रही थी। चूंकि मेरे तमाम रिश्तेदार गोरखपुर में थे, बहन की शादी वहीं हुई थी, इसलिए वहां किसी न किसी बहाने जाता था। क्या कोई उस शहर को भूल सकता है - जिसने जीवन जीना सिखाया। जहां अच्छे ही नहीं बुरे अनुभव भी मिले। बुरे अनुभव जिंदगी के लिएज्यादा मूल्यवान थे। उनसे बहुत सीख मिलती है। उस वक्त तक परमानंद श्रीवास्तव कीर्तिवान हो चुके थे। वे साहित्य में गोरखपुर के पर्याय बन चुके थे। उनके लिखने का सिलसिला जोर पकड़ चुका था। प्राय; मुख्य पत्रिकाओं में उनका लिखामिल जाता था। लेखन के मामले में वे पूर्णकालिक थे। घर के राशन-पानी और अन्य पारिवारिक गतिविधियों से उनका कोई सरोकार नहीं था। यह भूमिका पत्नी निभाती थीं। वे साहित्य के अलावा कोई बात नहीं करते थे। कोई आदमी उनके बटोर में फंस गया तो वह ऊबने लगता था। उन्हें सेमिनारों और गोष्ठियों से फुर्सत नहीं मिलती थी। एक कार्यक्रम से लौटे तो दूसरे की तैयारी करने लगते थे। जब मैं आता तो कविता ।  सुनाने के लिए कहते। मैं उसके लिए तैयार हो कर नहीं आताथा। एक बार की बात है, वह कुछ साहित्यिक लोगों के साथ बैठे हुए थे और कविता सुनाने के लिए कहा। मैंने वही पुराना वाक्य दोहरा दिया कि मेरे पास डायरी नहीं है। फिर बोले, मैं उन पत्रिकाओं को निकाल कर लाता हूँ। अब मेरे पास बचाव का कोई रास्ता नहीं था। कवि को अपनी कविताएं याद रहनी चाहिए, लेकिन हिंदी में अनेक कवि हैं जिन्हें अपनी कविताएं याद नहीं है। हम सब कवि इस कमजोरी के शिकार है। समाज ही ऐसा है, जिसमें कविताओं के लिए जगह नहीं बची है, इसलिए कोई उत्साह नहीं बनता। मैं जब भी जाता, वह अपनी नई कविताएं जरूर सुनाते। मुझे उनकी कविताएं सुन कर अच्छा लगता था।


     हिंदी कविता में आठवें दशक का समय अत्यंत महत्वपूर्ण था। खासकर कविता की दुनिया का वह प्रस्थान बिंद था। हम लोगों ने उसी समय से लिखना शुरू किया था। हालांकि काव्याभ्यास बहुत पहले से चल रहा था लेकिन गम्भीरता इसी काल-खंड में आई थी। संयोग से नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह और युवा कवियों में राजेश जोशी, उदयप्रकाश का सान्निध्य मिला। उस समय दिल्ली का चेहरा इतना बदरंग नहीं था। लोग दिल से मिलते थे। आज की तरह कंधे छूकर भागते नहीं है। शायद जीवन पहले जैसा सरल और सुखदायी नहीं रह गया है। हम सब एक अंधी दौड़ में शामिल हो चुके हैं। साहित्य का दामन हमसे छूट गया है। साहित्य प्राथमिक नहीं है। उसकी जगह महत्वाकांक्षाएं और अमर होने की कामना प्रमुख हो चुकी है।


     आठवें दशक का उत्तरार्ध परमानंद श्रीवास्तव के साहित्यिक जीवन का नया समय था। उसी समय उनकी कविता की किताब - अगली शताब्दी के बारे में और आलोचना पुस्तक - समकालीन कविता का व्याकरण, प्रकाशित हुई थी। हिंदी कविता प्रयोगवाद, नई कविता के मुहावरें निकल कर समकालीन हो रही थी। अकविता और नई कविता के दौर के कवि अपने मुहावरे बदल कर समकालीन हो रहे थे। मेरे एक आलोचक मित्र ने मुझे एक रूपक के सहारे बताया कि अब कवि अपने सींग मुड़ा कर नए बछड़ों में शामिल हो रहे हैं। कुछ भी कहा जाए, यह कविता का ऐतिहासिक समय था। परमानंद श्रीवास्तव के यहां वैचारिकता का कोई आग्रह नहीं था। उनके लिखने का कैनवास व्यापक था। १९८६ में मैं गोरखपुर आ चुका था। उन्होंने कहा - अब यहां प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना होनी चाहिए। गोया सेंट ऐंड्रयूज कालेज के एक कमरे में प्रलेस की स्थापना का बिगुल बजाया गया। उस सभा में गोरखपुर के कुछ लेखक और पत्रकार थे। उसके कुछ समय बाद प्रलेस के तत्वावधान में फिराक पर महत्वाकांक्षी सेमिनार का आयोजन किया गया। उस आयोजन के मुख्य अतिथि डा. नामवर सिंह थे। वे हवाई जहाज से गोरखपुर के हवाई अड्डे पर उतरे थे। खुद परमानंद जी उन्हें लेने गए थे। नामवर सिंह का जहाज से आना चर्चा   का विषय था। कुछ लोग इस प्रगतिशीलता की आलोचना । कर रहे थे। नामवर सिंह आलोचना पुरुष थे। उनकी आवाज अलग थी। वे जो कुछ भी कहते थे, वह रातोरात वायरल हो जाता था। सभा का महत्व अलग से बढ़ जाता था। वे आलोचना के बट वृक्ष बन चुके थे। नामवर सिंह की प्रतिभा का लोहा उनके विरोधी भी मानते थे। आलोचना नाम की पत्रिका उनके सम्पादन में निकल रही थी। उसकी भूमिका को कौन नकार सकता है?


     परमानंद श्रीवास्तव के जीवन की सबसे बड़ी घटना आलोचना का सह-सम्पादक होना था। उन्हें एक मंच मिल चुका था। आलोचना के लिए वे लेखको-कवियों से सामग्री मंगवाते थे। फिर नामवर सिंह के दिशा-निर्देश से उसे व्यवस्थित करते थे। इसमें कोई संदेह नहीं, उन्होंने आलोचना को नया रूप दिया। आलोचना पत्रिका से जुड़ना उनके लिए। छलांग से कम नहीं था। आलोचना में गोरखपुर के लोगों को। जगह नहीं मिलती थी। उनके विरोधी क्या, उनके चाहनेवाले भी इस बात से कम व्यथित नहीं थे। उनके कुछ प्रिय लोग थे जिन्हें वे जगह देते थे। इस कारण वह नगर में अप्रिय हो गए थे। वे निरंतर लिख रहे थे। कवि-कर्म और काव्य भाषा .. जैनेद्र के उपन्यास जैसी किताबें पहले ही प्रकाशित हो चुकी थीं। इसके अलावा समकालीन कविता पर दो महत्वपूर्ण आलोचना पुस्तके - समकालीन कविता का यथार्थ और कविता का अर्थात् प्रकाशित हो चुकी थी। समकालीन कविता को समझने के लिए ये आवश्यक किताबें हैं। इसमें तनिक संदेह नहीं होना चाहिए कि उन्होंने हिंदी कविता पर जरूरी काम किया है। वे अकेले ऐसे आलोचक है जिन्होंने आठवे दशक के बाद की कविता की सम्यक विवेचना की है। नए । युवा कवियों को रेखांकित किया है। युवा कवयित्रियों के प्रति उनकी उदारता जरूर अधिक थी। पश्चिम बंगाल और झारखंड की कुछ कवयित्रियों/लेखिकाओं के प्रकाश में लाए हैं। छोटे कद के परमानंद श्रीवास्तव ने हिंदी आलोचना में बड़े काम किए है। आदमी अपने कद से नहीं, पद से पहचाना जाता है। यह ओहदा आसानी से नहीं हासिल होता है, उसे श्रम और प्रतिभा से अर्जित किया जाता है। किसी का मजाक उड़ाना एक खेल है। यह कौतुक अक्सर नराधम किस्म के लोग करते रहते हैं। कहा जाता है कि जहां बुद्धिमान लोग पांव रखते डरते हैं, वहां मूर्ख सरपट दौड़ते हैं।


     परमानंद श्रीवास्तव के कवि रूप की बहुत कम चर्चा हुई है। अगली शताब्दी के बारे में, चौथा शब्द, एक अनायक का वृतांत उनके कविता संग्रह हैं। गुरू-प्रवर डा कृष्णचन्द्र लाल की पत्रिका सहचर में उनके संग्रह - चौथा शब्द की समीक्षा, कठिन समय में शब्द शीर्षक से मैंने की थी - जो उन्हें बहुत पसंद आई। उनपर केंद्रित पत्रिका के अंक को जब पुस्ताकाकार शक्ल में छापा गया तो यहीं शीर्षक लगा था। कई विधाओं में एक साथ लिखनेवाले लेखकों की यही ट्रेजिड़ी है कि उनका कोई न कोई पक्ष मूल्यांकन से छूट जाता है। परमानंद जी ने कुछ बेहतर कविताएं लिखी है। बटोर, यह दूरी मेरे कस्बे का हृदय है, दक्षा पटेल, रामसमुझ का हलफनामा। बटोर की पंक्तियां देखें -


    साधु आए अलकनंदा से / साधु कंचन कुटी से / साधु  आए  काशी  से  कांची  से   साधु


    साधु ही साधु फैल गए / सारी सृष्टि में / मानवीय लोकतंत्र में वे अब पूरी तरह


     अंट नहीं पा रहे थे।


     उनकी यह कविता आज कितनी प्रसँगक हैं, यह कहने की जरूरत नहीं हैं। उन्होंने अपने जीवन में बेशुमार यात्राएं की है। इन यात्राओं पर लिखी उनकी कविताएं - साबरमती एक्सप्रेस, जूनागढ़ गिरनार, मधुपुर की चाय, पूना की एक रात्रि को पढ़ने का अलग सुख है। ये यात्राएं संस्मरण लिखने के योग्य हैं। मेरी प्रिय कविता दक्षा पटेल है।


     अनंत धीरज हो तुम्हारे पास / उन्हें बर्दाश्त करने का / जो तुम्हारी भाषा नहीं समझते


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    वट वह तुम्हारे जाने के साथ / जुड़ते हाथों ने कह दिया / निर्विकार ।


    क्या विदा इसी तरह देते हैं। अजनबियों को


     कविता की समीक्षा करनेवाले आलोचक की कविता पर क्या कोई आलोचक विचार करेगा? यह सवाल तब तक बना रहेगा जब तक कोई पारखी नजर उनतक नहीं पहुंचती। उनकी कविताओं में निरंतर वैचारिक विकास देखा जा सकता है। वे अपने पुराने मुहावरे से मुक्त होते दिखाई देते हैं। उनके जाने के बाद हिंदी कविता की आलोचना में जो शून्य पैदा हुआ है, वह बढ़ता जा रहा है। २१वी शताब्दी के लगभग दो दशक बीतने को है। अभी तक इस दौर का मूल्यांकन नहीं हुआ है।


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    हर शहर की अपनी साहित्यिक संस्कृति होती है। गोरखपुर की अपनी परम्परा रही है। इस परम्परा में राजनीति कम नहीं होती। गोरखपुर वैसे ही दो जातीय गुटों के बीच बदनाम रहा है। इस शहर के आंचल में खून के धब्बे कम नहीं हैं। प्रायः हर विश्वविद्यालय में दो जातियों के ध्रुव काम करते है और सृजनशीलता को विनष्ट करते हैं। पढ़े-लिखे समाज में इस तरह की प्रवृति हमें बताती है कि हम भीतर से कितने आदिम हैं। यही काम साहित्यिक जगत् में होता है। हर शहर में दो तीन ग्रुप होते हैं। कुछ की असहमतियां बेहद हिंसक होती है। विचार-विमर्श में असहमति जरूरी है, उससे विकास होता है। कुछ नई चीजें सामने आती हैं। गोरखपुर में दो ध्रुव थे। एक छोर पर परमानंद श्रीवास्तव थे तो दूसरे छोर का प्रतिनिधित्व विश्वनाथ प्रसाद तिवारी करते थे। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी १९७७ से दस्तावेज नाम की पत्रिका निकालते थे। यह हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिका है, जिसमें छपने का सौभाग्य मुझे मिल चुका है। इस पत्रिका ने कुछ नए लोगों को प्लेटफार्म दिया। उसकी ख्याति देश भर में थी। ये दोनों लोग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के शीर्ष थे। डा. तिवारी । हिंदी विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष के पद से रिटायर हुए जब कि यह सौभाग्य परमानंद श्रीवास्तव को नसीब नहीं हुआ। दोनों गुटों के अपने-अपने अनुयायी थे। जब भी मैं गोरखपुर आता था, तमाम किस्से सुनने को मिलते थे। मेरे लिए दोनों प्रिय थे। एक बार दस्तावेज में वाल्टेयर को उद्धत करते हुए एक लेख छपा - लेख की प्रस्तावना में लिखा था कि भले ही मैं तुमसे असहमत हूं लेकिन अंत तक तुम्हारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करूगा। इस रक्षा कवच के साथ परमानंद श्रीवास्तव की खूब आलोचना की गई थी। उससे वे बेहद आहत थे। दोनों मेरे गुरू थे, इसलिए किसी के पक्ष और विपक्ष में स्वभावत कुछ नहीं कह सका। इसे आप मेरी कमजोरी भी कह सकते हैं। मेरा कद इतना बड़ा नहीं थाकि मैं आलोचना कर संक। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हो गए और और परमानंद श्रीवास्तव अपने नगर में अकेले रह गए। कुछ दिनों बाद वे आलोचना के दायित्व से मुक्त हो गए। आलोचना नए लोगों के हाथ में पहुंच गई। स्थाई सम्पादक नामवर सिंह अडिग थे।


     परमानंद श्रीवास्तव विश्वविद्यालय की राजनीति तथा । अन्य कारणों से हिंदी विभाग के अध्यक्ष नहीं हो सके, इसका। उन्हें कम मलाल नहीं था। वे हिंदी के आधिकारिक आलोचक और लेखक थे। उन्हें वह जगह मिलनी चाहिए थी। हिंदी संसार में उनकी पहचान एक प्रतिष्ठित आलोचक के रूप में थी। यह पद उन्हें मिल भी जाता तो क्या फर्क पड़ता लेकिन असल बात यह थी कि उन्हें दरकिनार कर दिया गया था। यह बात उन्हें हजम नहीं हो रही थी। फिर वे बर्दवान यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर और अध्यक्ष के पद पर नियुक्त हुए। बर्दवान में उनके अनुभव खुशगवार थे। वे वहां के गेस्ट हाउस में रहते थे और माह में सुविधानुसार एक दो बार गोरखपुर आते थे। उनका परिवार यहां अकेला था। वे यहां रहकर परिवार की क्या मदद करते थे। बस अहिर्निश साहित्य सेवा में लगे रहते थे। साहित्य उनका ओढ़ना- बिछौना था। बर्दवान से लौटने के बाद जब उनसे मिलने गया और उनका हालचाल पूछा तो वे रोमांटिक होकर बोले - स्वप्निल तुम्हें क्या बताऊ - जब आकाश में बादल आ जाते है तो हॉस्टल से लड़कियां निकल कर सामनेवाले जंगल में चली जाती है और अपना केश खोल कर रबींद्र संगीत गाती हैं। वे इस बात से लापरवाह हो जाती हैं कि जंगल में बहुत से सांप रहते हैं। यह उनका बताया हुआ विलक्षण बिम्ब था। जब कभी आकाश में बादल छा जाते तो यह बिम्ब मुझे अनायास याद आता है। सोचता हूं कितनी अदभुत और खिलंदड़ होती हैं बंगाली लड़कियां।


     बर्दवान में वे साल भर रहे। इसी बीच अपने प्रयत्न और दौड़-धूप करके हिंदी विभाग में प्रेमचंद पीठ की स्थापना कराई और उस पीठ के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के पद को सुशोभित किया। इस तरह उनकी यह कामना पूरी हुई और विरोधियों को जबाब भी मिल गया। इस छोटे कद के आदमी में जिद है, इसका पता इस प्रकरण से चलता है। उन्हें कभी नाराज होते नहीं देखा है। न उन्हें तेज बोलते हुए सुना गया है। उनके आलोचक यह जरूर बताते हैं कि उन्होंने नामवर सिंह की सघन छाया में काम किया है, अपना अलग मार्ग नहीं बनाया है। शहर में किसी को कहते हुए सुना था कि परमानंद श्रीवास्तव के पास दो सीढ़ियां थी। एक नामवर सिंह थे, दूसरे केदारनाथ सिंह। यह बात उनकी मृत्यु के कुछ दिनों बाद कही गई थी। मैंने तत्काल विरोध किया कि अभी उनके चिता की राख नहीं ठंडी हुई है और आप इस तरह की बात कर रहे है। कहावत है कि लोमड़ी अपनी खाल बदल सकती है लेकिन दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ते।


    उनके जीवन के दो वाकये अक्सर याद आते हैं। पहला था उनके ७५ वर्ष पूरे होने पर नगर में उनका नागरिक अभिनंदन, दूसरा अयोध्या के राजघराने से दिया जानेवाला द्विजदेव सम्मान। पहली घटना का मैं साक्षी नहीं था लेकिन दूसरी घटना मेरे सामने घटित हुई थी। गोरखपुर में इसका आयोजन कवि मित्र देवेंद्र आर्य ने किया था। शीर्षक दिया गया था प्रतिमानों के पार। मुख्य अतिथि थे प्रो. नामवर सिंह। उन्होंने प्रतिमानों के पार का तुक सितारों के पार से भिड़ाया। इस अवसर पर उन्होंने वह नहीं कहा जो उन्हें कहनाचाहिए। अगर कोई साहित्यकार अपने शहर में सम्मानित हो रहा है तो उसे शुभकामनाएं देनी चाहिए, लेकिन नामवर सिंह बोलने में कंजूसी कर गए - जो कुछ भी कहा उसका टोन ठीक नहीं था। जिन नामवर सिंह के लिए अपना साहित्यिक जीवन निस्सार किया, लोगों के ताने सुने, उनके लिए उनके पास बोलने के लिए अच्छे शब्द नहीं बचे थे। इन्हीं नामवर सिंह के ७५वें जन्मदिन को अमृत महोत्सव के नाम से देश के विभिन्न शहरों में मनाया गया। इस कार्यक्रम के सूत्रधार प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी थे। नामवर सिंह ने इस पर कोई एतराज नहीं किया। परमानंद श्रीवास्तव पर इस आयोजन पर दिल खोल कर कुछ नहीं बोले। सब अपने लिए अच्छा चुनाव करते है और दूसरे के लिए उनका चुनाव बदल जाता है। वे नामवर सिंह से कितने आसक्त थे कि उनके बिना इस आयोजन की कल्पना नहीं कर सकते थे-स्वाभाविक था उनके विरोधी इस बात को चटकारे लेकर गाते रहे।


    अयोध्या में जब उन्हें द्विजदेव सम्मान दिया गया, इस सम्मान के मुख्य वक्ता अशोक बाजपेयी थे। उन्होंने उनके योगदान पर कुछ नहीं कहा। व्यक्तिगत बातों को लेकर उनकी आलोचना करते हुए कहा कि परमानंद जी तुरंता आलोचक हैं। सम्मान के अवसर पर अपमानजनक टिप्पणी - हम सब सुन कर हैरान थे। किसी का विरोध करना हो तो उसके लिए मंच की कमी नहीं है। विष-वमन करके अशोक बाजपेयी बैठ गए। यह भी सुना गया कि रात को उन्हें दिल्ली लौटना था - उन्हें बोल कर निकलने का इतना अच्छा मौका कहां मिलता। आयोजक की ओर से कुछ नहीं कहा गया। इससे यह लग रहा था कि उन्हें अपमानित करने की व्यूह रचना सम्मिलित रूप से की गई थी। मैं यह सोच रहा था कि इस तरह के चरित्र-हनन की टिप्पणी के बाद, वह इसका प्रतिरोध करेंगे और सम्मान वापस कर देंगे। अगर वह ऐसा करते तो उनका मान बढ़ जाता, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा कुछ नहीं हुआ। परमानंद जी जैसे लोग पुरस्कारों और सम्मानों से नहीं जाने जाएंगे। उनका लेखन ही उनका मूल्यांकन हैं। मेरे जैसा अदना आदमी उस जगह पर होता तो इस सम्मान को ठोकर मार देता। हिंदी के लेखकों और कवियों का अनुराग पुरस्कारों और सम्मानों के प्रति बढ़ गया है। परमानंद श्रीवास्तव इसके उपवाद नहीं बन सके।


   इस बेहद अशालीन प्रकरण से हमारा मन भरा हुआ था। जब वे मंच से उतरे तो मैंने अपना आक्रोश उनके सामने । व्यक्त किया। जबाब में उन्होंने बस इतना कहा कि अशोक बाजपेयी शुरू से मेरे प्रति अनुदार रहे हैं। आगे उन्होंने जो कुछ कहा, उससे मेरी सहमति नहीं थी। उनकी यह भीरूता मुझे अच्छी नहीं लगी।


    सेवानिवृत होने के बाद उनकी सक्रियता में कमी नहीं आई। शहर के बाहर के सेमिनारों में उनका आना जाना बना रहा। वे नियमित रूप से कुछ न कुछ लिखते रहते थे। उम्र बढ़ रही थी लेकिन वह प्रायः बुलावे पर चले जाते थे। लौट कर अस्वस्थ हो उठते थे। स्थानीय लोग उन्हें गोष्ठियों में यह कह कर ले जाते थे कि अभी एक घंटे में लौट आएंगे। ऐसा नहीं होता था, एक घंटे की जगह कई घंटे लग जाते थे। उनकी भी इच्छा गोष्ठियों में शामिल होने की होती थी। साहित्य उनकी प्राण-वायु थी। लेकिन जीवन तो जीवन है, उसकी रक्षा आदमी को खुद करनी पड़ती है। उनकी अस्वस्थता तो परिवार को झेलनी पड़ती थी। इसलिए फोन या मोबाइल पर पाबंदी लगा दी गई। जो लोग उनके स्नेह भाजन थे, उनका आना कम होने लगा, क्योकि वह उपयोग के योग्य नहीं रह गए थे। मैं वैसे भी दूर फैजाबाद में था। कभी कभार ही मिलना हो पाता था, लेकिन जिन लोगों का उन्होंने साहित्यिक संस्कार किया था, वे उनसे मुंह चुराने लगे। जिस कठिन समय का प्रयोग वे अपनी आलोचना में करते थे, वह समय उनके जीवन में आ चुका था। गोरखपुर में कम ही लोग थे, जो उनसे मिलते थे। अंतिम दिनों में उनके बोलने में कोई तारतम्य नहीं मिलता था। उनकी स्मृतियां उन्हें धोखा दे रही थीं। वे कभी अपनी तबीयत को लेकर कोई बात नहीं करते थे। बस उनके पास साहित्य के किस्से जरूर थे - जो उनके अतीत से दस्तक दे रहे थे। वे अंत तक साहित्य की बातें करते रहे। मुझे यह बहुत कारूणिक लगता था। वे शुरू से अंत तक साहित्य के लिए जिए और मरे। जो कुछ भी लिखा मनोयोग मनोयोग से लिखा।


    हर आदमी का जीवन विलोमों से भरा होता है। वह गुण और दोष का समुच्चय होता है। परमानंद श्रीवास्तव उससे परे नहीं थे। वे हिंदी के बहुत से लेखकों और कवियों से बेहतर थे। वे साहित्य के पूर्णकालिक नागरिक थे। उनके बिना आजादी के बाद हिंदी कविता के इतिहास की कल्पना नहीं की जा सकती। मेरे लिए तो वे परम थे। मैंने जीवन भर उनसे कुछ न कुछ सीखा है। हर व्यक्ति अपने अंत के साथ बंधा हुआ है। यही जीवन का सच है। इस सच का सामना जाने के बाद परिजन और इष्ट मित्र करते रहते है।


                                                                                                                                                सम्पर्क : 510-अवधपुरी कालोनी, अमानीगंज,


                                                                                                                                                   फैजाबाद, उत्तर प्रदेश, मो.नं.: 9415332326