यहाँ खुशबू है, रंग हैं, निर्झर बहता झरना है, कल-कल करती नदी है, दूर तक सफ़ेद बर्फ है, देवदार के हरे जंगल हैं, प्यार है, संवेदना है, अनुभव हैं, किस्से हैं जीवन के, जीवन है और जीवन की कविता है। यह सब आपको सराबोर करते हैं और आप अलमस्त सी खुमारी में बस ‘वाह-वाह' कहते हैं। किताब की पहली पंक्ति ही पाठक को सम्मोहित करना शुरू कर देती है आप बिल्कुल हैरान न हों कि नदी पानी भरने गई है, पहाड़ पिकनिक पर और बाग गए हैं फल खरीदने आजादपुर मंडी...' यह आलोचना नहीं है बिल्कुल नहीं क्योंकि आलोचना तो डराती है, रचनाकार को भी और पाठक को भी। रचनाकार डरता है अपनी रचना की कमियों के उजागर होने से और पाठक तो हमेशा से ही आलोचना से पीछा छुड़ाता रहा है। आखिर कौन ऊबना चाहता है भला। बड़ी-बड़ी दार्शनिक सी बातों को कौन पढ़ना चाहता है भला। पर यहाँ ऐसा नहीं है क्योंकि यह आलोचना का नया रूप है जिसे मैं तो किस्सात्मक आलोचना कहूँगा। जी हाँ, किस्से ही तो हैं जो गनी बड़े मनोयोग से सुना रहे हैं। अपने जीवन के किस्से, गाँव के किस्से, पहाड़ी ज़िन्दगी के किस्से, चिनाब, सतलुज, व्यास और रावी के किस्से, अखरोट तोड़ते बच्चों के किस्से, ठण्ड में दुनिया से कटे नाचते-गाते लोगों के किस्से, चिट्टियों के बदलते मौसम के किस्से, पिता के जीवन और माँ की दुलार के किस्से। बीच में कहीं-कहीं दार्शनिक । तान भी सुनने को मिल जाएगी किन्तु दर्शन की तरह नहीं, किस्से के रूप में। और इन किस्सों को पढ़ते-पढ़ते आप कब लगभग पचास कवियों पर उनकी आलोचना पढ़ जाएंगे। पता ही नहीं चलेगा। इस नई आलोचना से कोई बोर भी नहीं होगा, विद्यार्थी भी नहीं। लेखक ने यहाँ कवियों का परिचय नहीं दिया न ही उनकी रचनाओं का पूरा परिचय दिया है। किन्तु जो कुछ दिया है, उससे यह तय है कि पाठक उन सभी कवियों को गूगल या फेसबुक पर सर्च अवश्य करेगा और उनकी रचनाओं को ढूंढ-ढूंढकर पढेगा। यही इस पुस्तक की उपलब्धि है। गनी ने कवियों और उनकी कविताओं की आलोचना भर की है ऐसा पढ़कर बिल्कुल भी नहीं लगता क्योंकि उनका एक-एक शब्द ऐसा है जो बताता है कि उन्होंने हर कविता को जीया है, आत्मसात् किया है और आलोचना तो किसी नदी या झरने की तरह स्वयमेव बह निकली है जो एक मीठे सोते में तब्दील हो पाठकों की प्यास को बुझाती ही नहीं अपितु और बढ़ा जरूर देती है। इस पुस्तक के सभी रचनाकार प्रायः नए हैं और कुछ प्रसिद्ध हैं भी तो उनके बारे में बहुत लोग नहीं जानते। पर यहाँ उनकी रचनाओं को पढ़कर पाठक को यह क्षोभ जरूर होता है कि अब तक हमने उन्हें पढ़ा क्यों नहीं? वरिष्ठ कवि हुकुम ठाकुर के भाव और बिम्ब देखिए' ‘जो वह हँसता है तो उसके मुँह से भूख झड़ती है वाह भूख भी झड़ती और वो भी हँसने में, ऊपर से कविता के साथ गनी का किस्सा। अग्निशेखर के कोट का किस्सा और फिर कश्मीर से निर्वासन के दर्द को बयाँ करती उनकी कविता -
यह अंतिम रात थी
जैसे प्राचीन पुलों के नीचे से
वितस्ता के बहने की
यह अंतिम रात थी।
अध्यात्म को तलाशते राजा का किस्सा और कवि मणिमोहन की ये मारक पंक्तियाँ -
अपनी दवा की पर्ची के साथ
एक बूढ़ी स्त्री ने
जब अपने बेटे की तरफ
एक मुड़- तुड़ा नौट भी बढ़ाया
तो एहसास हुआ
कि ये दुनिया वाकई बीमार है।
आप साँस रोक लेंगे एक बार कवि की कविता और गनी के चयन को देखकर। और ऐसा वही आलोचक कर सकता है जो कवि हो और कविता को जीता हो। गनी के किस्से और उनकी आलोचना दोनों ही काव्यात्मक हो उठते हैं जब वो चिड़िया, जंगल, बर्फ, झरने, नदियों और पेड़ों की बात करते हैं तो पता चल जाता है कि आलोचक एक सौंदर्यप्रेमी कवि भी है। इस रचना का शीर्षक उनकी एक कविता का अंश है जो कि उन्होंने किताब के आरम्भ में ही दे रखी है। केवल शीर्षक ही नहीं अध्यायों के नाम भी बड़े काव्यात्मक और रोचक हैं। ज़रा देखिए- ‘उस दिन सूरज नहीं निकला', 'शब्दों से परे बर्फ में धूप जैसा', 'मैं तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ’, ‘छाते में बादल', 'कोई बात छू जाती है। जब', 'वो ईश्वर से आँखे मिलाने लगा', 'मैं इन्द्रधनुष होना चाहता हूँ', ‘तलुओं के नीचे आग’, ‘सच बतलाना नदी', यहाँ चौपाल से गायब होती हैं बातें' इत्यादि। यह केवल उनका काव्य प्रेम या प्रकृति प्रेम ही नहीं अपितु उनका जीवन भी है जिन्हें शब्दों में पिरोकर अनेक कवियों की कविताओं के साथ वे हमको परोसते हैं और हम डूब जाते हैं उन नदियों, झरनों, ऊँचे पहाड़ों और घने देवदार के जंगलों में जहाँ सूरज की किरणें भी नहीं पहुँचती ‘बर्फ की आँच आग की आँच से भी ज्यादा खतरनाक होती है', गनी की आलोचना का ये नया रूप भी बर्फ में आँच को ही महसूस कराता है और यह निश्चित है कि उसकी तपिश बहुत ऊँचे बैठे लोगों तक पहुँचेगी और कुछ लोगों को तो जला भी डालेगी। आपको पढ़कर यह भी पता चल जाएगा कि यह सब कुछ किताब के लिए नहीं लिखा गया क्योंकि ऐसी किस्सात्मक आलोचना का साहस कोई किताब लिखने या चर्चा में आने के लिए नहीं लिखेगा। यह तो बस लिखा गया है जो सचमुच रचनाओं को पढ़कर महसूस किया गया है और उनकी संवेदना से किताब तो खुद-ब-खुद बन गई है। गनी स्वयं इसे आलोचना नहीं मानते। उनका कहना है कि यह मात्र साहित्य-संवाद है। अनेक कवियों को पढ़ते हुए जो उन्होंने महसूस किया या जो मानसिक यात्रा की, कविता और अपने घटित जीवन के साथ, वही उन्होंने अभिव्यक्त किया है। अब सवाल यह उठता है कि इस साहित्य-संवाद को किस विधा के अंतर्गत रखा जाए। यह स्पष्ट है कि इसे आलोचना का अंग ही माना जाएगा पर यहाँ यह भी आपत्ति हो सकती है कि आलोचना में स्वतंत्रता की गुंजाइश कम होती है, इसकी अपनी सीमाएँ हैं और इसमें शास्त्रीय मानदंडों के आधार पर रचनाओं को परखा जाना चाहिए, इसमें किस्सों का क्या काम? ऐसी स्थिति में मेरा मत है कि शास्त्रीयता के मानदंडों की आड़ में अपने रुग्ण विचारों को थोपना आलोचना नहीं है। अनेक विचारधाराओं को आधार बनाकर लिखी जा रही आलोचना संकुचित दृष्टि का विस्तार कर रही है और आलोचना को भी संकुचित कर रही है। ऐसे में आलोचना जैसी सशक्त विधा न केवल उबाऊ, संकुचित और विचारपोषक होती जा रही है। अपितु इनकी ऐसी व्याख्या के कारण कुछ अच्छे रचनाकार पाठकों की दृष्टि से दूर होते जा रहे हैं या अनदेखे ही रह जाते हैं। यह तो साहित्य और साहित्यकार की मृत्यु जैसा ही है। आलोचना को भी सरसता का अधिकार है और ताज़गी भरी रचनाएँ स्वीकार की जानी चाहिए। और हर रचनाकर चाहता है कि उसकी रचना अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे। गनी की यह रचना आलोचना के मठवाद पर करारा प्रहार करती हुई और शास्त्रीयता के प्रतिमानों को ठेंगा दिखाती हुई अपनी आलोचनात्मक ऊँचाई को छूती नज़र आ रही है और इसकी ताजगी की विशेषता यह कि इसकी रोचकता में पाठक आलोचना के मानदंडों को ही भूल जाता है और एक नशे में बस पढ़ता ही चला जाता है। यह आलोचना और पाठक के नए संबंधों का ताप है। आलोचना के बौद्धिक दंश से ठिठुरता हुआ पाठक इसमें एक अलग ताप महसूस करता है। इस रचना में वर्णित कवि नवनीत शर्मा के शब्दों में हम इसे समझ सकते हैं -
समाजशास्त्रियों से कहना
अभी बैठे रहें
रात बीतते ही
अकेलेपन से ठिठुरे लोग आएँगै
उनके लिए रख लेना
संबंधों का थोड़ा ताप
ऐसा भी नहीं है कि इस रचना में केवल किस्से ही किस्से हैं, भाव ही भाव हैं, यह भी एक कटु सत्य है कि भावों की प्रबलता ही रचना की जनक होती है, भाषा, बिम्ब प्रतीक इत्यादि तो उस भाव का हिस्सा बन जाते हैं। बस। यह सही है कि यहाँ गनी भाव के साथ रचनाओं को जी रहे हैं, इसलिए भाव की व्याख्या सबल हो पड़ी है किन्तु ऐसे में इन्होंने कला पक्ष को बिल्कुल ही अनदेखा कर दिया ऐसा भी नहीं है। अनेक स्थलों पर वे शिल्प की चर्चा करते हैं। सिद्धार्थ वल्लभ की कविता के संदर्भ में लिखते हैं‘वल्लभ की कविता कमाल की है। ‘कोहरा' कविता के बिंब एकदम ताजे लगते हैं। कविता पढ़ते हुए आनंद की अनुभूति होती है -
शदीद सर्द मौसम में
कोहरे की शक्ल लिए
आसमान पर छाए हैं।
गुजरे दिन ...
सहमा-सहमा धुआं , पुराने दर्द के तलवे , नींद की आवारगी जैसे मुहावरे सिद्धार्थ ही गढ़ सकता है। गनी ने कवि विवेक की रचनाओं के सन्दर्भ में लिखा है कि अच्छी कविताएँ अच्छे लोग ही लिखेंगे' किन्तु गनी की इस बिल्ली के किस्से सुनकर आप कह उठेंगे कि अच्छी आलोचना भी बस अच्छे लोग ही लिखेंगे। आलोचना लिखी जा रही है, खूब लिखी जा रही है पर वही पुराने ढर्रे पर। परेशानी बढ़ाई जा रही है शब्दों से, अर्थों से, वादों से प्रतिवादों से। इन सब परेशानियों और शब्दों के उहापोहों के बीच आलोचना का नया मुहावरा है ‘किस्से चलते हैं बिल्ली के पाँव पर'। कवि सतीश के शब्दों में मैं भी कहूँगा-इसकी गूंज बहुत दूर तक जाएगी और देर तक रहेगी -
*कितने मुहावरों में
अनवरत है उसकी
ठक ठक की गूंज'।
सम्पर्क : 108 बिटना सियुड़ी, पो. : पिंजौर, कालका , जिला : पंचकुला, हरियाणा, मो.नं. : 9417091602