'समीक्षा - बालपन की स्मृतियों का दस्तावेज - गंभीर सिंह पालनी

‘बाल-गुरू' शीर्षक पुस्तक लगभग चार सौ पृष्ठों क कलेवर लिए एक आत्म-कथात्मक अभिव्यक्ति है। यह बेफिक्र-बचपन की बेबाक़-बानगी'' है। इसके लेखक श्री सतीश शुक्ल सेवानिवृत्त पुलिस उपमहानिरीक्षक हैं।


     पुस्तक के कवर-पृष्ठ पर लेखक ने स्वयं लिखा है, जब खुद को जानने की ललक ज्यादा ही बलवती हो गई, ते मैं खुद को खोजता हुआ अपने बाल्यकाल में जा पहुंचा ... स्मृतियों में संचित ‘बचपना' फिर से जिया... किंतु इस बार पुरानी कारगुजारियाँ ‘लीलायें' कम और ‘काण्ड' ज्यादा लगी! इन सभी में हमारे ‘बालगुरू' विद्यमान हैं।''


      पुस्तक के कथानक का मुख्य पात्र बुस्सैन है जो किशोर वय को प्राप्त हो रहा है। वह अपने से उम्र में छोटे लेकिन कुशाग्र सहपाठी को अपना मित्र बना लेता है और उसका ‘बाल गुरू' बन जाता है। बुस्सैन धीरे-धीरे ‘बालगुरू' के रूप में अपनी उपाधि को सार्थक करता हुआ कई गुल खिलाता  हैं।


      बुस्सैन द्वारा ‘बालगुरू' के रूप में जो गुल खिलाये गये, उनकी दास्तान इस पुस्तक में छियानबे उप शीर्षकों में हमें पढ़ने को मिलती है। मंगलाचरण से लेकर उपसंहार तक फैले य खण्ड स्कूली जीवन की शरारतों, अपरिपक्व उम्र की यौन वर्जनाओं और भ्रांतियों का ऐसा दस्तावेज है जो अनेक ऐसे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं तथा विशयों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है जिनके बारे में लोग आज भी खुलकर बात करने से कतराते हैं। यही दोहरी मानसिकता अन्त में व्यक्तित्व की कमजोरी बन जाती है।


    इस कृति के प्रसंग पाठक को आज से लगभग पांच दशक पहले के समाज में प्रचलित मान्यताओं और व्यवहारों से साक्षात्कार कराते हुए उसे उसके बाल्यकाल में ले जाते हैं।


    बुस्सैन का जीवन गरीब मां और स्नेही मामा की अनुकम्पा के साये में बीतता है। वह अपनी विद्रोही मनोवृत्ति तथा अभावों से उत्पन्न विक्षुब्धता सम्पन्न व्यक्तित्व को लिए अपने सहपाठियों को अपने शिष्यत्व से उपकृत करता है। अपने से कम उम्र के सहपाठी को अपना अंतरंग मित्र बना लेवे से बुस्सैन की अव्यक्त भावनाएं व्यक्त होती रहती है।


   लेखक के अपने शब्दों में, “वयक्तित्व के निर्माण में उसका परिवेश अहम् भूमिका निभाता है। परिवेश को बदलकर जीवन को बदला जा सकता है। प्रस्तुत कृति इसी सोच की कड़ी है। मैंने खुद को अपने बाल्यकाल पर केंद्रित किया और इसे वहां से कुरेदना शुरू किया, जहां पर खुद का अहसास होना शुरू हुआ था...।... मैंने अपने बाल-सखाओं के साथ जिये हुए पलों को यहाँ समेटा है।''


     सचमुच बाल-सखाओं से जुड़ी यह पुस्तक हमें उस दुनिया में ले जाती है जहां उन दिनों छुट्टियों में भी थोड़ी पढ़ाई करनी होती थी। कई बार ये नई कक्षा की पुस्तकों की उपलब्धता से जुड़ी होती थी। छोटे भाईयों की बड़े भाईयों से जो पुस्तकें आने वाली कक्षा में पढ़ने हेतु मिलती थी, उनमें महापुरुषों की शक्लों पर बड़े भाईयों द्वारा पहले से ही की गई पच्चीकारी मिलती थी। किसी केसिर पर वास्कोडिगामा ‘टाइप' हैट की चित्रकारी होती थी तो किसी के चेहरे पर अब्राहम लिंकन ‘टाइप' दाढी। ज्यादातर के मुंह में धुआं- उड़ाती बीड़ि लगी होती थी। उन दिनों घर से ज्यादा पिटाई तो स्कूलों में हुआ करती थी। घर वाले भी कभी अपने पाल्य के सूजे हुए गालों की शिकायत करने स्कूल नहीं जाते थे।


     बुस्सैन (असली नाम बुद्धसेन) की मां ने पूत के पांव पालने में ही देख लिए थे, अतः जल्दी ही उन्हें गांव के स्कूल ले जाकर ‘पट्ढी-पूजन' करा दिया। कुछ दिन तक तो मां बुस्सैन को स्कूल छोड़ने गईं लेकिन बाद में ये खुद स्कूल जाने लगे। पर गांव के स्कूल से वे प्रायः गायब रहने लगे तो मां ने अपने कलेजे पर पत्थर रखकर पुत्र को मामा के पास पढ़ने शहर भेज दिया।


     गां में तो बुस्सैन कक्षा पांच के विद्यार्थी थे मगर शहर के स्कूल में उन्हें कक्षा दो में ही प्रवेश मिल पाया। पुस्तक हमें प्रथम काण्ड ‘मंगलाचरण' में उपरोक्त जानकारी देने के बाद विभिन्न रोचक काण्डों ‘बब्बू-चपरासी', ‘परीक्षा', 'गर्मी की छुट्टियाँ', 'नई-क्लास', ‘शक्ति परीक्षण', 'भित्ति-चित्र', ‘हमराही', ‘काला-साँप', ‘हिन्दी हमला', 'कल्लू की चाट', ‘पतंगबाजी', ‘परीक्षाफल', ‘मंदिर दर्शन', ‘चील की आँख', ‘विजय दिवस', ‘पलायन' आदि कई काण्डों से होती हुई ‘उपसंहार' तक पहुंचती है और फिर 'अभी-हाल की बात' शीर्षक के अन्तर्गत हमें बुस्सैन के बारे में ताजा जानकारी देती है।


      इस प्रकार पुस्तक के नायक बुस्सेन की बाल्यावस्था से लेकर अब तक की दास्तान लेखक के माध्यम से हमें पढ़ने को मिलती है।


      पुस्तक की पृष्ठ संख्या देखते हुए यह हमें भारी-भरकम तो लगती है लेकिन इसकी पठनीयता हमें बांध रखती है और रोचक प्रसंगों से सरोबार यह पुस्तक पूरी पढ़े बिना पाठकका मन नहीं मानता। यही इस पुस्तक की विशेषा है।


                                                                                                           समीक्षित पुस्तक : ‘बालगुरू', लेखक : सतीश शक्ल,


                                                                                                            प्रकाशक : नोशन प्रेस, चेन्नई, मूल्य : ४५० रुपये