शिक्षा : एम.ए., बी.एड़, पी-एच.डी, (हिंदी) काशी हिंदू विश्वविद्यालय तथा बैंगलोर विश्वविद्यालय विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, बाल्डविन महिला महाविद्यालय, बैंगलोर बीस वर्षों से शिक्षण, लेखन में संलग्न। काव्य लेखन, वैचारिक लेखन, संपादन, शोध समीक्षा, शोध परीक्षक। अनेक पुस्तकें प्रकाशित।
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कहानी विधा ऐसी कौंध है, जो सोए हुए दर्द को जगा जाए। ऐसी लहकती चिंगारी है, जो विचारों के वन में अनल पुष्प खिला जाए। जिस अनुभूति, अनुभव और अवसाद ने हमें आक्रांत किया है, उसे किस्सागोई के रूप में रूपांतरण कर अभिव्यक्त करना भाषा शैली की कारयित्री प्रतिभा का प्रमाण है।
व्यक्ति के परिवेश में, वातावरण में मुखरित मानवीय समानताओं, जटिलताओं, विषमताओं, शोषण और पीड़ा का आकलन करती ये कहानियां बहुत पहले से ही विमर्श का हिस्सा बनी हुई हैं। कहानी का मुख्य स्वर विचार एवं भाव की दृष्टि से संतुलित है जो समय, समाज, सामयिक स्थितियों, समस्याओं, संवेदनाओं तथा सामाजिक दायित्व बोध को दर्ज करती रही हैं।
आज हम समय के दो महत्वपूर्ण पड़ाव से गुजर चुके हैं, या उसके पार्श्व प्रभाव से गुजर रहे हैं। एक भूमंडलीकरण से उपजी उदार अर्थव्यवस्था और बाजारवाद, दूसरा संचार क्रांति जिसे तकनीकी क्रांति के रूप में फेसबुक-ट्विटर ब्लॉग आदि सोशल मीडिया के रूप में जानते हैं। मार्शल मैक्लहान द्वारा तकनीकी संचार क्रांति की यह परिकल्पना विश्वग्राम के रूप में हमारे सामने आई है। हम सब जानते हैं कि ग्लोबल विलेज की संकल्पना है यह। इसमें नई सदी के निर्माण एवं विकास की जो अवधारणा है, उसे उत्तर आधुनिकता अथवा उत्तर आधुनिक काल के रूप में देखा जा रहा है। स्वतंत्रता पूर्व या उसके बाद में हमारे साहित्य में तीन प्रकार की विचारधाराएं सम्मिलित हुई–माक्र्सवाद, +गांधीवाद और फ्रायडवाद। प्रेमचंद पहले लेखक रहे जिन्होंने लेखन को सामाजिक संदर्भो से जोड़कर कहानी को सामाजिक परिवर्तन का प्रभावशाली माध्यम माना।
आठवें दशक के बाद भी उन कहानियों की ओर हम गौर करें आज भी उतनी ही प्रासंगिक और अनिवार्य हैं जितनी आज की सामयिकता हमें चुनौती देती है। हिंदी कहानी ने सहज एवं स्वाभाविक प्रक्रिया के अंतर्गत जिस नएपन को हमारे सामने रखा है, वह सामाजिक पृष्ठभूमि का ही परिणाम है
यदि आज के परिवेश की वैश्विक पड़ताल करें, तो जिनके विचार और सिद्धांतों ने हमें प्रभावित किया है उनमें जॉक दरीदा-जिनके विखंडनवाद की धारणा नई सदी के आवरण को समझने में हमारी मदद करती है। दूसरे फ्रांसिस फुकोयामा जिनकी पुस्तक 'इतिहास अंत का' की अवधारणा के अनुसार मानव जाति के वैचारिक विकास और पश्चिमी उदारवाद का सार्वभौमीकरण लोकतंत्र को मजबूत करना है। सैमुअल हटिगंटन भी कुछ ऐसा ही कहते हैं कि दुनियावी संघर्ष का मुख्य स्रोत विचारधाराएँ हैं। विभिन्न सांस्कृतिक पहचान, सभ्यतागत पहचान, सभ्यताओं के बीच अंतर को समझने के लिए समुदाय को समझना बहुत आवश्यक है। आर्थिक या राजनीतिक रूप से समझना काफी नहीं, मौलिक धार्मिक एवं दार्शनिक समझ की आवश्यकता बहुत जरूरी है, ताकि सभ्यताओं के बीच के संघर्ष को खत्म किया जा सके। यह वैचारिकता जो गहरे प्रभावित करती है।
फ्रेड्रिक जॉन्स के एक कथन की पड़ताल करें, जो अपनी पुस्तक पोस्टमाडर्निजम में लिखते हैं कि 'जब हम इस युग में प्रवेश करते हैं, तो हमारा ज्ञान बदल जाता है, हमारी दृष्टि, हमारी सोचने का तरीका बदल जाता है। आज यदि कहानी के परिप्रेक्ष्य में कहें तो विशेष कालखण्ड में अध्ययन करते हुए यथार्थ के साथ संबंध को किस रूप में हम देखते हैं, विचार करते हैं, केवल वस्तु एवं कला की दृष्टि से ही नहीं सामाजिक विमर्श, वैचारिक टकराहट, राजनीतिक संघर्ष तथा अनेक ऐसी मानवीय कुण्ठाओं की निर्मितियों को जिन्हें हम विभिन्न विषयान्र्तगत अध्ययन करते हैं, साहित्य में दर्ज होते देखते हैं। सामयिक घटनाओं, चलन एवं व्यवहारों के कहन को कहानी का रूप देते हैं। यदि हम इनमें स्त्री विमर्श के तंतुओं को अन्वेषित करें, पाते हैं कि वैचारिक रूप से पश्चिमी नारीवादी आंदोलनों से भरपूर प्रेरणा ली गई। इसमें सीमोन द बउआ, केट मिलेट, जर्मेन ग्रीयर कुछ प्रमुख हैं।
आज अपने आस-पास झूठ को, अन्याय को हम जिस तरह से कहते हैं, वह कहानी का एक रूप है। समय, समाज और इतिहास की पुनर्रचना कहानी के द्वारा एक दूसरे में विस्तारित होती है। हमारे यहाँ कहानी की बहुत समृद्ध परंपरा रही है। चाहे वह लोक हो या शास्त्र जिनमें चिंतन व संवेदना में तालमेल सर्वविदित है। बाणभट्ट, भामह, दंडी से लेकर प्रेमचंद्र, जैनेंद्र, गुलेरी, यशपाल, अज्ञेय, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, सुदर्शन, कृष्णा सोबती, निर्मल वर्मा, संजय, उदयप्रकाश, क्षमा कौल, नासिरा शर्मा, मन्नू भंडारी, राजेंद्र यादव, ओमप्रकाश वाल्मीकि, सूर्यबाला, सुधा अरोड़ा, आदि अनेक रचनाकारों ने बने बनाए फ्रेम से निकलकर समाज के अमानवीय चलन की ओर कलम उठाई।
नई सदी की कहानी ने मनोवैज्ञानिक रूप से विषय के धरातल पर ही नहीं वरन् भाव को स्पर्श किया। उदय प्रकाश की तिरीछ, संजीव की अपराध, चित्रा मुद्गल की लकड़बग्घा, ओम प्रकाश वाल्मिकी की सलाम, क्षमा कौल की कत्थई रंग की फिरन आदि में हम बेचैनी, अंतर्द्वद्व, भ्रम राजनीतिक यथार्थ, बाजारवाद का मायाजाल आदि की स्पष्ट धनक इसमें मिलती है।
एक पूर्व दार्शनिक का कथन सामयिकता के साँचे में फिट बैठता है -
"Every one is deceiving others and every one decieved by others "
यहाँ हर कोई छल रहा है या हर कोई दूसरे से छला जा रहा है।
हिंदी कहानी ने नई चेतना को जन्म दिया है जिसे सामाजिक पृष्ठभूमि का परिणाम कहा जा सकता है। पैराडाईम शिफ्ट तो नहीं कह सकते परन्तु नई कथा का प्रवेश कह सकते । कहानीकारों ने विकास एवं परिवर्तन की प्रक्रिया को अपनी कहानी का विषय बनाया। सम-सामयिक स्थितियों को सामाजिक दायित्वबोध के साथ दर्ज किया है। वैश्विक रूप से आकलन कर हम देखें तो वैश्वीकरण के दौर में जवान हुई पीढ़ी जिनमें कुछ पाठक हैं, और कुछ लेखक हैं, के किस्से और विमर्श को देखने और कहने का तरीका अलग । बेस्ट सेलर का ज़माना है। ऐसे में विमर्शात्मक साहित्य को लिखना भी आज के दौर में चुनौती है। सूर्यबाला की ‘शहर की दर्दनाक खबर' अवधेश प्रीत की नृशंस', प्रेमकुमार मणी की 'खोज', सुनील सिंह की शिकारगाह' ऋता शुक्ल की क्रौंचवध, कैलाश वनवासी की भविष्यद्रष्टा, आदि कहानियों में हम पाते हैं कि इनमें मुक्तधर्मी चेतना से अपने अनुभवों एवं विचारों को प्रमुखता दी गई है।
हम सद्भाव एवं संवेदनाओं के क्षरण से गुजर रहे हैं। ऐसे में अकेलापन, आर्थिक अलगाव, सामाजिक संबंध, असंतुष्टि, मनोवैज्ञानिक रूप से तनाव एवं दबाव, इन सारे अंर्तभावों की एक पारदर्शी वृद्धि हम देखते हैं।
ऐसे में कहानियों में दृष्ट विभिन्न विमर्शों की पर्याप्त गंभीर आलोचना किया जाना आवश्यक है। भरपूर कहानियाँ लिखी जा रही हैं जिनमें कुछ वर्तमान में दर्ज होती है, कुछ नहीं।
आज की युवा पीढ़ी गंभीरता से कही जाने वाली किस्सों को पसंद नहीं करती, हर क्षेत्र में मनोरंजन के पुट । की आकांक्षित खोज रहती है। ऐसे संक्रमण समय में मनस्थ करने वाली कहानी या मन -मस्तिष्क में टिकी रहने वाली कहानी लिखी जा रही है? यह प्रश्न जारी है। जैसे कि गुलेरी ने कालजयी कहानी ‘उसने कहा था', प्रेमचन्द ने कफन, रेणु ने तीसरी कसम, चीफ की दावत भीष्म साहनी की आदि और भी ऐसी अनेक कहानियाँ मनुष्य के पास पहुंच कर एक से दुसरे में विस्तार पाती हैं।
नई सदी में कहानीकार देशकाल का अतिक्रमण कर नए परिदृश्य दे रहे हैं, कार्य हो रहा है। जयश्री राय की दर्दजा, विस्थापन पर क्षमा कौल की दर्दपुर, थर्ड जेंडर पर हो समाज के अनछुए पक्ष पर निडरता से लेखनी को अंजाम तक पहुँचाया गया है, यह साहसी कलम का परिणाम है। आज का कहानीकार समाज के विभिन्न विमर्शों को खंगाल कर उसे शब्द दे रहा है ताकि बदलाव का नया सवेरा हो।
हम दूसरों के द्वारा अन्याय को सहने या करने के लिए अनगिनत बार टोके जाते हैं, सुनाए जाते हैं तो लगता है कि गलत हो रहा है, जो सोचने पर विवश करता है। उसी तरह कहानी पर कहानी लिखी जा रही है, लिखी जानी चाहिए ताकि लोग पढ़ते रहे, मंथन करें। नई पीढ़ी के लेखक आधुनिक टूल्स का उपयोग करने में प्रवीण हैं। जब रचनाकार । भविष्य की ओर देखता है, तो वर्तमान का बोझ, भविष्य के बोझ से हल्का होता है। जो उज्जवल भविष्य की जितनी बड़ी कल्पना करता है, उसे वर्तमान की धरती पर उतना ही अधिक श्रम भी करना पड़ता है।
भूमंडलीकरण की कई ऐसी प्रक्रियाएं हैं जो नए कहानीकारों में साफ दिखाई देती है। स्त्री शोषण, दलित विमर्श एवं किसानों और मजदूरों के संघर्षात्मक प्रतिरोध से बाहर निकलकर महानगरों की प्रतिस्पर्धात्मक जटिलताएँ प्रेम संबंधों में खुलापन, आर्थिक उदारीकरण के बहुआयामी प्रभाव पर नए प्रकार की बहस शुरू हुई है, जहां स्वावलंबन को स्थान तो मिला पर, शोषण का दलदल विघटनकारी रूप से दस्तक देने लगा। रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, शिवमूर्ति, प्रभा खेतान, मधु कांकरिया, चित्रा मुद्गल, उदय प्रकाश, पंकज बिष्ट आदि की कई कहानियों ने आज के दौर के यथार्थ को हमारे सामने रखा है।
समय-समय पर कहानी ने अपने विकास की यात्रा में सामाजिक समस्याओं के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक पक्ष को भी मजबूती से रखा है। नई धारणा, नए विचार ने चिंतन को प्रस्तुत किया है। कहानियां मानवीय तत्व को रेखांकित करती हैं, जो मनुष्य में बचे हुए विश्वास को जीवित रखे हुए हैं। अस्थिरता, अनिश्चितता, अराजकता को देखकर बहुकोणीय जटिलताओं को विमर्शात्मक दृष्टि से लोक चेतना में भरने का कार्य कहानियों ने किया है।
आज की युवा पीढ़ी, दो तरह के कहानीकारों की कहानियों से अपने विचारों को प्रभावित देखती है। एक जिनका विकास नई कहानी, अकहानी, कहानी के दौर में हुआ, जो कि ७० के बाद के दशकों में भी लगभग ९० के दशक तक जारी रहा, और दूसरा उसके बाद की पीढ़ी ऐसी है, जिन्हें आज नई सदी कह रहे हैं, जिनकी पहचान कहानी के परिदृश्य में डेढ़-दो दशकों में हुई है।
जब साहित्य उपलब्ध हो जाता है, तो उसके निरीक्षण और परीक्षण की आवश्यकता पड़ती है कि उन ग्रंथों में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के अर्थ से लोग परिचित हैं या नही। आज भाषा में बदलाव दिखाई देता हैं। सरल बोलचाल की भाषा ने साहित्य का स्थान लेना शुरू कर दिया है। पंकज दूबे की ‘लूज़र कहीं का', अनु सिंह का ‘नीला स्कार्फ' या और भी बहुत सी कहानियां हैं जो बेस्टसेलर की पंक्ति में खड़े होकर भाषा के बदलाव का संकेत देती हैं।
हमारे आसपास बेतरतीब बिखरी सामग्री को कहानी के माध्यम से संप्रेषणीय बना पाना, कृति की प्रमाणिकता सिद्ध करती है। मानवीय दायित्वबोध अंतश्चेतना की संचित अनुभव की उपज होती है। सामयिक घटनाओं की ध्वनियां चाहे, वह राजनीतिक वैमनस्य से, सामाजिक समानता से, शोषण से संतप्त हों, इन्हें युगचेतना का स्वर बनाने के लिए बौद्धिक चेतना एवं मानवीय संवेदना के द्वारा समता और समरसता के कसौटी पर कसना समय की माँग है। इस बिंदु से खड़े होकर उस बिंदु पर और उस बिंदु से खड़े होकर इस बिंदु को खारिज करना विरोधी स्थितियों में वृद्धि करता है। आज ऐसी कहानियां जरूरी है जिसमें कोई ऐसा मूल्य स्तर खोजा जा सके, जिस पर आरोही अवरोही दोनों ही स्थितियों में सामंजस्य आ पाए एवं विमर्श का ऐसा तानाबाना बुना जाए जो विक्षुब्ध, विद्रोही स्वर-युक्त प्रतिकूलताओं के आवेग को रोक सके।
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