'लघु कथाएं - सपनों का घर, वो यादें जो जिंदा रहती हैं - सत्या शर्मा कीर्ति

सत्या शर्मा कीर्ति विद्या : लघु कथा, कविता, लेख आदि सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन


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सपनों का घर


 आज कई वर्षों बाद जब हमेशा के लिए घर लौट कर आया हूँ तो ऐसा लग रहा है कि घर अब वो नहीं जिसे मैं छोड़कर गया था या वो जो मुझे हर पल बुलाता रहा, खींचता रहा अपनी ओर।।


    स्मृतियाँ चाहे कितनी भी पुरानी हो, हमेशा ताजी ही बनी रहती है। तभी तो लगता है जैसे कल ही बात हो मेरी शादी का होना और अपने दो मासूम बच्चों तथा पत्नी को छोड़ नौकरी की खातिर दूर देश चले जाना।


     कभी-कभी जब महीनों बाद कुछ दिनों के लिए आता था, तो पत्नी बच्चे सब आस-पास ही घेरे रहते। मैं भी सारे दिन दौड़-दौड़ कर घर की जरूरतों को पूरा करता रहता, उनकी हर इच्छा को पूरी करने की कोशिश करता। अपना एक-एक पल जैसे इन्हें दे देना चाहता था। कितनी खुशी होती थी ना पत्नी-बच्चों के लिए कुछ करना, उनके साथ वक्त गुजरना।


      और फिर इन्हीं यादों को समेटे लौट जाता था अपनी नौकरी पर जहाँ एक छोटे से कमरे में रह नए-नए सपने देखता रहता पूरे परिवार के साथ हँसी-खुशी जीवन गुजारने का। जीवन में जितने पल अकेले जिएं हैं, सबके साथ रह कर उन्हें खुशियों से भरने का।


      पर, अब जब लौटा हूँ, बच्चे कॉलेज जाने लगे हैं और । इतने बड़े हो गए हैं कि मेरी बातें अब उन्हें अच्छी नहीं लगती। पत्नी ने भी खुद की अपनी दुनिया बना ली हैं जिसमें उनके सोशल वर्क और किट्टी की व्यस्तता में मेरे लिए शायद कम ही जगह बच पाती है।


     और मैं अकसर एक अकेले कमरे में बैठ गजलों संग अपने सपनों के घर बुनता हूँ।


 


वो यादें जो जिंदा रहती हैं


    पापा के एक्सिटेंट से मौत के बाद माँ जो कोमा में गई, दो-तीन दिन पहले ही होश में आईं है पर माँ की आँखों में एक शून्यता और अजनबीपन सा भर गया है।


     डॉक्टर का कहना है शायद सदमे की वजह से इन्होंने याददाश्त खो दिया है।''


      आज सोचा माँ को कमरे से बाहर खुली हवा में ले चलू और हौले से माँ के हाथ को पकड़ धीरे-धीरे टहलने लगा। माँ भी चुपचाप चल दी।


       माँ तो जैसे बिल्कुल मासूम बच्ची सी तो लग रही थीं। नहीं, बच्ची तो उझलती है-कूदती है, हँसती है-खिलखिलाती है! पर माँ तो जैसे कहीं गुम सी हो गई हैं अपनी भाव शून्य आँखों और निर्विकार भाव के साथ बस चली जा रहीं है। मेरी अंगुली थामे धीरे-धीरे। एक ममता सी उमड़ आई माँ के लिए।


      फिर, अचानक पापा के स्टडी के पास आकर ठिठक गई माँ। हौले से कमरे में प्रवेश किया, किताबों की आलमारी ठीक कीं, टेबुल से पापा की डायरी उठा ड्राअर में रख दीं, खिड़की के पर्दे खोल दिए। पापा को बंद कमरे में घुटन सी जो होती थी।


     पापा की कुर्सी को एकटक देखती रहीं फिर काँपते हाथ से मेरी अंगुली जोर से पकड़ थके कदमों से कमरे से लौट पड़ीं।।


     पर! एक प्रश्न मेरी आँखों में आँसू बन छलक आया -क्या माँ सच में सब कुछ भूल गई हैं...?