लघु कथाएं - फूल कुछ सिखा गया - अनु नैयर

अनु नैयर


 


                                                                               फूल कुछ सिखा गया


मन में कई दिनों से एक छटपटाहट । ना तो खुद टिकता है ना ही टिकने देता है मेरे दिमाग को। मैं तो बहुत स्ट्राँग समझती थी अपने आपको। जिन्दगी ने बहुत कुछ दिखाया पर मुझे हिला ना सकी। शायद अपने पर था अंधा विश्वास या फिर ईश्वर पर। हमेशा परिवार के लिए स्तम्भ बनकर खड़ी रही। बच्चों के लिए हर पल पति से भी लड़ने को तैयार।


      पिछले दिनों दिल्ली में बहुत जोरों से आंधी-तूफान चल रहा था। बादलों की गड़गड़ाहट से मुझे बचपन से ही बहुत घबराहट होती है। अकेली होती हूं तो डर कर सिमट जाती हूं। क्यूं डरती हूं इतना। पक्के मकानों में ये मेरा क्या बिगाड़ लेगा? पर क्या समझाएं इस बाल मन को जो इस उम्र में भी बच्चों सा मचलता है?


      खैर बात कुछ और हो रही थी और मैं अपनी गाथा ले बैठी। सुबह होते ही बाहर आंगन में आकर अचानक गुलाब का फूल देखा। तेज बारिश और हवा के थपेड़े सहते... लगभग जमीन तक छू रही थीं टहनियां... हर दिशा में लचकती उस नन्ही सी जान को देर तक देखती रही.... तूफान आने पर भी पंखुड़ियां तक नहीं गिरी थीं उसकी। कितना मजबूत था वो यह मैंने तभी जाना। क्या यह ही जीवन है? और कितने कमजोर हैं हम इन्सान। शायद कुछ सिखा गया वो गुलाब का पौधा कि जीवन नाम ही संघर्ष का है। भले ही वो संघर्ष अपनों से हो या अपने आप से।


   नहीं मरती यह कोमल देह भी जब तक मृत्यु ना आए।


 


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                                                                                                रेत


 


                   समुद्र के किनारे बैठी हूं। लहरें आ जा रही है और उंगलियां हैं कि रुकती नहीं। कांपती हुई बार-बार तेरा ही नाम लिखे जा रही हूं। पर कितनी बेवकूफ हूं ना? भले रेत पर लिखा हुआ भी टिका है कभी? कोशिश करते थक गई हूं। जब कामयाबी ना मिल पाई तो एक अनोखा काम कर आई हूं। हर पत्ते पर बस तेरा नाम लिख आई हूं।