लघु कथा - कोट - राधेश्याम भारतीय

रामप्रसाद के छोटे बेटे की शादी है।


     अलग-अलग शहरों में बसे उसके बेटे अपने परिवार सहित गाँव आए थे। बच्चों से घर में मेले-सा वातावरण बन गया था।


     बच्चे दादा जी को शहर की अनेक घटनाएं सना रहे थे. जिनमें उनका अपने मम्मी-पापा के साथ समुद्र तटों की सैर करना, मॉल से शॉपिंग करना, होटलों में खाना खाना...और भी न जाने क्या-क्या।


      दादा जी उनकी बातें किसी रहस्यमयी कथा की तरह बड़ी उत्सुकतापूर्वक सुन रहे थे, ठीक वैसे ही जैसे कोई । अबोध बच्चा किसी परीकथा को सुना करता है।


      इसी बीच उसे याद आया कि एक बार वह पत्नी संग बड़े बेटे के पास गए थे। पर, वहाँ चार दिन उसी कोठी की चार दीवारी में कैद होकर रह गए थे। न बेटे-बहू ने उन्हें घुमाने के लिए समय निकाला और न ही उन्होंने जिद की। वैसे मन कर रहा था कि समुद्र तट पर सैर की जाए। शरीर ही तो बूढ़ा हो रहा था पर मन तो जवान था।


    “दादा जी, आपको चाचू की बारात में पैंट-कोट पहनना चाहिए, पापा की तरह।''एक पोते ने दादा जी का ध्यान भंग करते हुए कहा।


     “उस पर टाई भी लगानी चाहिए। हैंडसम लगेंगे दादा जी।''दूसरे पोते ने भी अपनी बात जोड़ दी।


     ‘‘बिटिया तु भी कछ बोल दे..।'' दादा ने पोती के सिर पर ममता भरा हाथ रखते हुए कहा।।


      “क्यों नहीं दादा जी, लड़के वाले हैं। सज-धजकर तो जाना ही चाहिए...।'' पोती भी अपने मन की बात कह गई। “दादू पहनोगे ना कोट?'' सभी बच्चों ने एक स्वर में


       “दादू पहनोगे ना कोट?'' सभी बच्चों ने एक स्वर में जिद-सी करते हुए पूछा।


       'बच्चो, मैंने तो जिंदगीभर कुर्ता-पायजामा पहनकर मास्टरी कर ली।...हाँ, एक बार सेवानिवृत्ति पर पहना था तेरे चाचा का कोट ...उस दिन मन बडा प्रसन्न था...सारा गाँव आया उस दिन। हर जुबां पर मेरी मेहनत और कर्तव्यनिष्ठा के चर्चे थे।


       "क्या दादू! इतना पैसा कमाते थे, जी लेते अपनी जिंदगी।'' पोता किसी फिल्मी डायलॉग की तरह बोल गया था।


        यह सुन उसकी आँखों के सामने महीने का प्रथम सप्ताह घूम गया। वह किस तरह राशनवाले, दूधवाले, किताबों वाले सभी को थोड़े-थोडे पैसे देकर अगले महीने हिसाब चुकता करने की बात कहता। पर अगले महीने भी वही हाल होता। बच्चों की पढ़ाई के लिए कर्ज ही काबू न आया।


        “कहाँ खो गए दादू...कुछ अपनी भी सुनाओ?''


        “बेटे,मेरे पास क्या है सुनाने को। अब तो मन करता है। तुम्हारी सुनता रहूं।...और हाँ आज भी कोट पहनूंगा...देबूंगा किस बेटे का कोट फिट बैठता है।'' रामप्रसाद ने बच्चों की तरह चेहरे पर मस्ती के भाव लाते हुए।