वसुन्धरा पाण्डेय जन्म : 13 अप्रैल 1972 शिक्षा : बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय कुशीनगर (सम्बद्ध गोरखपुर विश्वविद्यालय) से हिंदी साहित्य में एम.ए. कई पुस्तकें प्रकाशित, हिन्दी की प्रमुख पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित आकाशवाणी इलाहाबाद से कविताओं का प्रसारण
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वसुन्धरा पाण्डेय
(१)
घुप्प अंधकार के बीच
जीवन के गीत गाते हुए
विलुप्त मेरे स्वप्न को
पुरु'' क्यूँ आवाज देते हो?
मत पुकारो....
इन स्वप्नों में दबी बुझी हुई आग है
तनिक हवा का झोंका गर
बुझते हुए अंगार को लगी तो
कुहुक उठेगी परकटी कोयल
दहक उठेंगे पलाश
आतुर पत्तियां फूल हरियाने लगेगी
कड़क उठेगी बिजलियाँ
खोजते, गरजते, बरसते बादल
बह न जाएं दरीचों से उदासी का आलम
इन्हें रहने दो...बहने दो...आरती के थाल में..!
(२)
कितने दिन यूँ ही उड़े
पंख बिन... धुआं हुए..
प्रतीक्षा
आखिर कितनी
मौसम बदले,
सावन बरसे
रिमझिम...अखियाँ तरसे
क्यों ...
काहे न मन
गुनगुनाए
गीत-गुंजन खुशियों के
दिल की बातें
लिख-सुन फिर
हँस ले कुछ पल यूं ही...
कितने दिन यूँ ही उड़े
पँख बिन... धुआं हुए...!
(३)
रात जब अपना आँचर ओढ़ा देती है
तब वो दिखती है
ढिबरी की लौ में
करिआता हुआ रंग
धसे हुए गाल
काया पतली सींक
केश सन
देह का चमड़ा मुचड़ी हुई चेथड़ी बन गया
पलक झपकाती बैठी देहरी पर
रेगिस्तानी उजाड़ आंखें
भटकती है वह अतीत के बीहड़ में
मन यू टूटता है भीतर-भीतर जैसे
पत्थरों के अनवरत प्रहार से टूटता है कोई कांच
अकथ पीड़ा की सौगातें सम्भाल रखी है...
आंखे हरहरा-हरहरा
चू चू पड़ती है और
रिसती है बेलगाम...।
(४)
हवा चिघाड़ती सी
सब कुछ रौंदती
लाचार पेड़-पौधे नतमस्तक
आपस मे खुसूर-फुसुर करते कमरे के परदे
अजीब हताशा से फड़फड़ा रहे
बाहर पीली भूरी रेत-ही-रेत छाई हुई
धुसर आकाश आंधी से घुट-घुटा सा
ऐसे सांझ से उबरना मुश्किल
अकसर भीतर का घना अवसाद
सूरज की बुझती रोशनी के साथ
और तीव्र हो
निकट और निकट चमकना शुरू कर देता है।
मन छटपटाने लगता है
बरबस पुकार निकली
कोई है! कोई है! जो
भीतरी सलवटों को छूकर
पावस कर दे?
गहरी सांसें आती है और बताती
उसे अपनी दायरों को खुद भरना होगा
सत्व और चेतना का विस्तार करना होगा।
तभी यह एकांत उसके आत्म का अंग बनेगा
एक दिन यही समय उसका अपना होगा
उसके वशीभूत होगा...!
(५)
रेगिस्तान में
पानी तलाशता है यह मन
पतझड़ में
बसन्त की आहट सुनता है।
बंजर धरती पर
फूलों की खेती करने को
अकुलाता है यह मन...।
ऐसी प्रतीक्षा क्यूँ
उम्मीदों का उद्वेलन क्यूँ
ऐसी अकुलाहट क्यूँ
ऐसी तस्वीरें रचता क्यूँ मन
जिनका कोई आधार नही
जिनकी कोई नियति नही..?
शायद यही जीवन है...।।
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