कविताएं - डॉ शिव कुशवाहा शाश्वत

डॉ शिव कुशवाहा शाश्वत जन्म : 5 जुलाई 1981 शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), एम. फिल., नेट, पीएच.डी. प्रकाशन : छायावादी काव्य की आत्मपरक भावभूमि (प्रकाशित), काव्य संग्रह ‘तो सुनो' प्रकाशनाधीन, युद्धरत आम आदमी, लहक, दलित वार्षिकी 2016, तीसरा पक्ष, निभा, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, अम्बेडकर इन इंडिया, कलमकार, नवपल्लव, लोकतंत्र का दर्द, नवोदित स्वर आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर काव्य रचनाएं प्रकाशित।। सोशल मीडिया फेसबुक पर निरंतर रचनाएं प्रसारित। सम्प्रति : अध्यापन


                                                                               ------------------------------


संवेदना के सूखते दरख़्त


ग्लोबल होती हुई दुनिया के 


महानगरीय बोध की चकाचौंध में


आंखों पर बंधी हुई पट्टी


जो नहीं देखती


टूटते हुए घरौंदे का दर्द..


वह नहीं देखती


मानवीय संवेदना के सूखते हुए दरख़्त


और खो रहे विश्वास के बीच 


टूट रहा है आज अपना परिवेश..


उत्तर आधुनिकता की 


लपेटे हुए चादर


आज का समय


धीरे-धीरे बढ़ रहा


पाश्चात्य सभ्यता के ओवरब्रिज से


जो निकल जाना चाहता है बहुत आगे..


समय की गति


अपनी धुरी से फिसलकर


बढ़ रही एक ऐसी दुनियां की तरफ


जहां दिन-ब-दिन


दम तोड़ रही है।


संवेदना की बहती हुई नदी...


       एकांत भाषा के शब्द


अनेक सहयात्रियों के साथ


अकेलेपन को ओढ़े हुए


एकांत की भाषा


पिक्कर की रील की मानिंद


यकबयक खुलती जाती है,


अनेकानेक भाव


होने लगते हैं आयातित


एकांत भाषा के शब्द


गढ़ने लगते हैं नए भावबोध..


अभिव्यक्ति


तानाबाना बुनते हुए


अंकित करती है


समय की प्राचीर पर


एकांत की भाषा के खुरदरे शब्द,


ऊबड्ख़बड़


रास्तों से निकलते हुए


खुलती जाती हैं


स्मृतियों की गठरियां


यात्रा के अनेक पड़ावों के बीच


चलती रहती है यात्रा..


        शहर की तलाश


बंजर होते हुए रास्ते


सिकुड़ती हुई तंग गलियों में


रेत की मानिंद 


फिसलती जिंदगी के दरम्यान


फासला कदम-दर-कदम


नाप ही लेते हैं


लेकिन अभी भी


हमें तलाश हैं


एक मुकम्मल शहर की...


         डूबता हुआ सूरज


दूर क्षितिज के उस पार


अपनी धुरी की


दिशा बदलता हुआ सूरज


छिप रहा है


पश्चिम दिशा रूपी आंचल में


वह समेट रहा अपनी


निश्तेज किरणों के जाल..


दिशाओं में गुंजरित हो उठा


विदाई का गीत


पक्षियों ने समेट लिए अपने पंख


थाम लिया नदियों ने


जलधारा के तेज प्रवाह को


किसी यायावर की तरह


थका और निस्तेज सूरज


जैसे पा गया हो अपना


आखिरी पड़ाव..


दिशाएं जैसे भूल गई हों


अपना रास्ता


आकाश निशब्द होकर


निहारता है अपलक


मानव जिजीविषा खो गई


अंतहीन आकाश के


किसी कोने में


कलरव रहित वातावरण


और रंगहीनता के विस्तार में


डूबता हुआ सूरज


क्षितिज पर


फिर से निकल आने का


संदेश देता हुआ


जा रहा अपनी


अनन्तिम यात्रा पर..


                                                                                 सम्पर्क : द्वारा श्री विष्णु अग्रवाल, लोहिया नगर, गली नं-2, जलेसर रोड़,


                                                                                  फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश, मो.नं. : 7500219405