चन्द्रेश्वर 30 मार्च 1960 को बिहार के बक्सर जनपद के एक गाँव आशा पड़री में जन्म। कविता-संग्रह 'अब भी', 'सामने से मेरे एक पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आन्दोलन प्रकाशित। ‘बात पर बात और मेरा बलरामपुर (संस्मरण), और हिंदी कविता पर लेखों का संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। वर्तमान में बलरामपुर, उत्तर प्रदेश में एम.एल.के. पी. जी. कॉलेज में हिंदी के एसोसिएट प्रोफेसर।
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पूरब के हैं हम
पूरब के हैं हम
हर पश्चिम का होता है
एक पूरब
हर पूरब का होता है
एक पश्चिम
हम गहरा ताल्लुक रखते हैं
अपने पश्चिम से
हम जाकर बस जाते हैं
पश्चिम में
वहां रोजी-रोटी है हमारी
हम जीवन भर नहीं बिसरा पाते
तमाम सुखों के बाद भी
अपना पूरब
जिस दिन मरेगा
हमारे भीतर का पूरब
मुर्दा हो जाएंगे हम
जिंदा ही
कई पीढ़ियों बाद भी
पहचान लिए जाते हैं हम
अपनी बोलचाल
भाव-भंगिमा, रहन-सहन
खान-पान के चलते
जब पहचान लिए जाते हैं तो
धकिया दिए जाते हैं हम
हम बार-बार गिरकर भी
पोंछ लेते हैं
अपनी पीठ की धूल
हम छुपा नहीं पाते
अपने भीतर का शूल
हम कुछ रेघाकर बोलते हैं
हम कुछ गाकर बोलते हैं
हम बोलते-बोलते रो देते हैं
हम रोते-रोते हँस देते हैं
हम लड़-झगड़ लेते हैं
हम उधार चुका देते हैं
हम मलाल नहीं पालते
हम भावुक होते हैं ज्यादा
दूर रहते हैं
महीन दाँव-पेंच से
हमारे चेहरे से ही
पढ़ा जा सकता है
हमारा दिल दिल
टॅका रहता है
हमारे चेहरे पर
पूरबिए करते हैं यकीन
सपाटबयानी में
वे करते है खोज
सरल मार्ग की
वे पसीना बहाने या
रक्त देने में अपना
नहीं रहते पीछे कभी
वे अपने हुनर से
छा जाते हैं
कस्बों से लेकर
राजधानियों तक में
पश्चिम जितनी ही करता है
घृणा उनसे
वे जरूरत बनते जाते हैं उनकी
वे न चाहते हुए भी
दिख जाते हैं अक्खड़
वे न चाहते हुए भी
बने रहते हैं सीधे
निर्गुण नस-नस में बसा है उनके
उसी में समाया हुआ है
उनका पीढ़ियों का दु:ख
उसी में समाया है उनका
कृतरा भर सुख
उनकी मस्ती
कृतरा भर !
हाय! मेरा मुग़ल सराय
किशोरावस्था में सुना था
पहली बार
मुग़ल सराय का नाम
एक मुशायरे में
जब भोजपुरी-हिंदी के हास्य रस के
कवि बिसनाथ प्रसाद ‘शैदा' ने सुनाई थी
अपनी एक कविता कि
“शैदा नज़र की रौशनी
बढ़ती है चाय से
डुमराँव नज़र आएगा
मुगलसराय से''
अब जब सरकार
बदलने जा रही है
इस नाम को
तो एक इतिहास-संस्कृति का
बहुरंगी अध्याय
दफ़न होने जा रहा है
यह एक कवि के द्वारा बरता गया
चाय और मुग़ल सराय के
तुक का मामला ही नहीं
यह महज़ एक शब्द की
सुनियोजित हत्या भर नहीं
एक संस्कृति की हत्या भी है
यह स्मृतियों पर गिराना है
कोलतार पिघला हुआ
अब हत्यारे सिर्फ
किसी निर्दोष इंसान की
हत्या ही नहीं कराएंगे
भीड़ से
उन्माद पैदाकर
वे शब्दों को भी मारकर
दफ़नाने के पहले
उन पर कानूनी चादर का
ओढ़ा देंगे
सफ़ेद कफन
यह एक ऐसी शताब्दी है
भीषण रक्तपात की
जहां इंसान से भी ज्यादा
लहूलुहान हो रहे
शब्द
मारी जा रहीं भाषाएँ
जिसे हासिल करने में
गुजर जाती हैं
शताब्दियाँ
फिर भी साथ-साथ
अभी-अभी एक बुजुर्ग उतर गए
हाँफते-हाँफते
मुगल सराय के प्लेटफॉर्म नंबर चार पर
यही तक थी मंजलि उनकी
सामने की सीट पर आ गया एक नौजवान
वह साथ चलेगा लखनऊ तक
कुछ औरत-मर्द जाएंगें जम्मू तक
इस स्लीपर बोगी में भी कुछ लोग उलझ पड़े
कुछ दिखते शांत-निरपेक्ष
एक बाप बता रहा अपने बेटे को
परदेस में रहने के गुर
एक बहन की आँखों में आँसू डबाडब
भाई और माई के लिए
एक शिशु को भूख लगी है
उसकी रुलाई ही पहचान है
भूख की
एक बहू घूघट में है
पहली बार जा रही परदेस
प्रियतम के साथ
इसी में बिक रही चाय
चने की घुघनी चटपटी
और मूंगफली
कुछ हिजड़े ताली बजा–बजा
कर रहे उगाही
दस-दस के नोट की
कोई पीर की चादर पर ले रहा चंदा
कोई सूर गा रहा निरगुन
हाथ फैलाए
यह बोगी बदल गई है।
एक संयुक्त परिवार में कि
छोटी दुनिया में कि
छोटी पृथ्वी में
सब एक दूसरे से जुदा
फिर भी साथ-साथ!
आउटर पर खड़ी रेलगाड़ी
मत करना इंतज़ार मेरा
जब करती हो
इंतज़ार मेरा
तो उसमें शामिल खालीपन
बनाता है मुझे
सफ़र में।
कुछ असहज
तुम्हारी विकलता
परेशानी तुम्हारी
बन जाती है मेरी
इस रूट पर चलने वाली
किसी सुपरफास्ट रेलगाड़ी का भी
क्या भरोसा
कब कहाँ खड़ी हो जाए
अनिश्चित काल के लिए
पहले से दरवाजे पर
मत होना खड़ा
ठंडे पानी का भरा गिलास लेकर
चूल्हे पर चाय की पतीली
मत चढ़ाना पहले से
पता नहीं,
स्टेशन के पहले आउटर पर ही
रुकी रहे रेलगाड़ी
सिग्नल के लिए
यहाँ संभव है कुछ भी
हो सकता है शाम की रेलगाड़ी
पहुँचे देर रात
मेरे स्टेशन पर
मेरे इंतज़ार में मत रहना तुम
पहले से ...
दरवाजे पर...!
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