कला - टैगोर और आधुनिक रूपाकार - अन्नपूर्णा शुक्ला

डॉ. अन्नपूर्णा शुक्ला सहायक प्रोफेसर वनस्थली विद्यापीठ (राजस्थान) । पुस्तकें वानगो और निराला चित्रकला एवं काव्य की अंतरंगता, किशनगढ़ की चित्रशैली, जलरंग चित्रण पद्धति । सोलह विभिन्न सम्मान, 27 अवार्ड्स।


                                                                               -------------------


कला रूपाकारों की सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। तभी यह सभी बन्धनों से मुक्त है। आधुनिक परिप्रेक्ष में यदि बात करें तो यह निश्चित है कि मानव मन के अन्तस के अनन्त चौपालों में सजे अनग-सजय रूपाकारों का सुन्दर भविष्य टैगोर ने कितने दशकों पहले ही अपने फलक पर लिखना प्रारम्भ कर दिया था। ऐसे रूपाकार जिनको उन्होंने बचपन से अप्रत्यक्ष रूप से सहेज रखे थे। क्योंकि इसका कोई माप दण्ड निर्धारित ही नहीं है तभी तो आज प्रागैतिहासिक चित्रों का अनवरत बखान किया जाता है। जबकि उस युग में कोई कलात्मक मापदण्ड नहीं थे। फिर भी शैल चित्रों में आधुनिकता पूरे जोर-शोर से व्याप्त है, जो आज भी विश्वभर के कलाकारों को आश्चर्य में डाले हुए है। सभी एक स्वर में कहते थे कि मुझे शैल चित्रों की आत्मा तक जाने के लिए सब कुछ भूलना पड़ेगा। क्ली ने तो स्पष्ट कहा ही था कि “मैंने जो कुछ भी सीखा है भूल जाना चाहता हूँ।'' या पिकासो ने कहा था कि मैं वापस शैल चित्रों की तरह रेखांकन करना चाहता हूँ।'' टैगौर ने भी कला का अध्ययन नहीं किया था। उन्होंने जब कुछ सीखा ही नहीं था तो कला के नियमों में कैसे बंधते अर्थात् टैगोर के चित्र अन्तस के नित नवीन भावों की उपज थे, जो प्रकृति के सानिध्य से उपजे थे। इसलिए टैगौर के  चित्र आधुनिक से आधुनिक रूपाकारों की सहज अभिव्यति हैं। उनकी कला दृष्टि नवीन


                                             


                                                                                        चित्र संख्या 1


थी तथा कला को वह सजीव और निरन्तर परिवर्तनशील मानते थे। उनका हर बिम्ब, क्षितिज पार ले जाकर विचारों की तलहटी में डुबोता जाता है और हर दर्शक को नवीन अनुभवों का अहसान कराता है। 


       बन्धनमुक्त टैगोर का मन हमेशा सहज रहना चाहता था। उन्हें सदैव वात्सल्य से प्रौढ़ तक प्रकृति का ही सानिध्य मिला, तभी तो मन विभिन्न रूपकारों के लिए कुलाचे भरता हुआ गदगद हो, प्रकृति के साथ एकाकार हो नृत्य करता है।


  चित्र संख्या 2


(चित्र सं. १) प्रकृति के भावरूपी मण्डप में सद्या कलाकार, । रचनाकार की तरह प्रकृति से उठे उन आकारों और भावों को आत्मसात् कर रेखाओं को रंगों से भिगो-भिगोकर फलक पर नवीन कृतियों का सृजन करता चलता है उनका कोई भी बिम्ब आपस में भी मेल नही खाता। बल्कि स्वतंत्र अस्तित्व पर खरा उतरता है। इसीलिए टैगोर कला आधुनिक रूपाकारों का सृजन है। देवी प्रसाद जी के द्वारा कहे गए टैगोर के लिए यह शब्द ‘‘रवीन्द्र नाथ जितना अपने काव्य निर्माण में संयम और स्वानुशासन से बंधे रहते थे, ऐसा लगता है कि चित्र बनाते समय वे उतना ही स्वच्छन्दता की चरम सीमा तक घूम आते थे। उनके इस काम में न कोई कायदा था न कोई कानून। केवल छंद जगत्, रेखा का लय के साथ नृत्य'' (चित्र सं. २) 


इस कथन से और भी स्पष्ट हो जाता है कि टैगोर की स्वच्छन्दता ही उनके हर रूपाकारों को आधुनिकता के पैमाने पर खरा उतारती है और इसी स्वच्छन्दता ने उनके अन्तस की विराट कला दीर्घा को उनकी कृतियों के रूप में व्यक्त किया है। चित्रकला की प्रेरणा के विषय में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने स्वयं लिखते है- “जब मैंने आलेखन का आरम्भ किया, मेरे मानस में एक अद्भुत परिवर्तन आया और मैं शाखा, फूलों


                                                                                                       


                                                                                                                                 चित्र संख्या 3


और पत्रों में विचित्र विचित्र आकृतियाँ देखने लगा जैसा कि मैंने कभी भी अनुभव नहीं किया था। इससे पहले मैंने केवल यही देखा था कि बसन्त आगमन पर पेड किस प्रकार फूलों और फलों के अत्याधिक भार से झुक जाता है। लेकिन इस बार वस्तुओं के निहारने में नवीनता थी, एक भिन्न दृष्टिकोण था। नवीन दर्शन और दर्शन में अनुपमता किसने भर दी। यह कला का उदय था।'' उपर्युक्त पंक्तियों में जिस नवीन


 चित्र संख्या 4


  कला उदय की स्वयं टैगोर बात कर रहें हैं। विभिन्न विद्वानों ने प्रकृति के इसी नित, नूतन बदले स्वरूप को अपने अन्त्स के सौन्दर्य में भकर अंकित करने की बात की है। टैगोर का रचना संसार इसी बिन्दु पर आधारित है वह प्रकृति के हर क्षण को अपने अन्तस से रसमय करके फलक पर प्रस्तुत करते हैं। इसीलिए उनका हर चित्र नवीन दृष्टि के साथ आधुनिकता के ताने बाने से आच्छादित है।


                                                                                        चित्र संख्या 5


टैगोर के अजन्मे बिम्ब एक ऐसी भावभूति पर पैदा हुए। जहां आदिम सहजता थी, जंगल का प्राकृतिक कोलाहल था और अभिव्यक्ति के लिए पेन, स्याही और रंग थे।''आधुनिक कला का यह प्रयोग कला के और भावों के क्षेत्र में नई जाग्रति उपस्थित करता है।'' टैगोर की अन्तस चेतना का आधार प्रकृति ही थी इसी प्रकृति की अतल गहराइयों में जाकर मानस के अद्भुत बिम्बों को नवीन परिधानों में समेटा है अर्थात् प्राकृतिक बिम्बों को हू-ब-हू चित्रित नहीं किया है।


चित्र संख्या 6


श्री कुमार शील जी ने कहा है कि प्रकृति की नकल मात्र करना ही निर्माण नहीं है, निर्माण तो तभी हो सकता है जब नए-नए रूपों का निर्माण किया जाए, ऐसी आकृतियों की कल्पना की जाए, जिसका संसार में अस्तित्व ही न हो। इसी के द्वारा कलाकार की कल्पना की उड़ान का माप और उस की रचनात्मक शक्ति का ज्ञान होता है।'' टैगोर की रचनात्मक और कल्पनात्मक शक्ति का ज्ञान उनके द्वारा अंकित अद्भुत बिम्बित जगत् को देखने से ही स्पष्ट होता है। साथ ही टैगोर कला हमें उन गुफा चित्रों की अनुभूति कराती है। जहां मानव  ने प्रथम भावाभिव्यक्ति की                                                                                                चित्र संख्या 7    


थी जहाँ उसके द्वारा नित- नूतन बदलते बिम्ब अंकित किए गए है। इसलिए टैगोर के हर बिम्ब आधुनिक है क्योंकि टैगोर की कला में प्रागैतिहासिक सहजता और सुकुमारता समाहित है।।  


    यही सहजता ही टैगोर की कृतियों को आधुनिकता तक ले जाती है। टैगोर के चित्रों में सरलता, भावानुभूति और प्रकाश की दीप्ति है। जिससे व्यक्ति विशेष भावविभोर हुए नहीं रहता। इनके चित्रों में समाहित रसानुभूति की तीव्रता ही दर्शक को परमानन्द की प्राप्ति कराती है। मॉडन रिव्यू जनवरी १९३१ की पत्रिका में दिए गए साक्षात्कार से यह स्पष्ट किया है कि टैगोर प्रथम श्रेणी के चित्रकार है और हर नवीन चित्र, दर्शकों को नवीन प्रभाव से रु-ब-रु करता है। अर्थात् उनका हर चित्र आधुनिकता का सृजन करता चलता है। टैगोर ने अन्तस के उजाले को अपने चित्रों में सहजता से पिरोया है। यह तो स्पष्ट ही है कि उनको चित्रण का माध्यम दशकों से मिल रहा था किन्तु शब्दों का वर्चस्व इतना था कि रेखाओं से चित्रण होते-होते शब्द भावों में समाहित हो काव्य रूप अभिव्यक्ति हो जाता था किन्तु रेखाओं ने फिर भी टैगोर के अन्तस में व्यप्त अदृश्य बिम्बों के ताने-बाने को सहेजे रखा है और भावभूमि के हरा भरा होते ही अद्भुत बिम्बों के साथ उदयमान होते हैं। प्रयाग शुक्ल जी टैगोर की नवीन बिम्ब योजना के विषय में लिखते हैं कि “चित्रकला में मनुष्य मन में अंधेरे- उजाले कोनों को भेदते हुए एक ऐसा चित्र संसार हमें सौंपते है, जिसके माध्यम से हम कुछ ऐसे स्त्री पुरुष चेहरे देखते हैं, जिनमें विचित्र भंगिमाएँ-मुद्राएँ है, और कुछ चित्रविचित्र जीव जन्तु, फूल, दृश्य आदि बार-बार अपनी और खींचते हुए से प्रतीत होते हैं। उनकी चित्र भाषा में एक गहरी अपील हैं। गहरी सृजनात्मकता। अपनी चित्र भाषा के कारण भी रवीन्द्र नाथ के बिम्ब, छवियाँ विश्वकला की बिरादरी में सहज ही शामिल हो जाते हैं।''


चित्र संख्या 8


शुक्ल जी का यह वाक्य कि ‘‘विश्वकला की बिरादरी में सहज ही शामिल हो जाते हैं।'' मेरी दृष्टि में यहाँ आधुनिकता की ही बात कहीं जा रही है क्योंकि टैगोर कला आधुनिक कला के उस परिदृश्य का हिस्सा प्रतीत होती है। जहां से व्यक्ति बिना सीखे ही बिम्बों का अद्भुत अम्बार लगाता चला गया है। उस चित्रण में रेखाओं का लास्य है तो शिव का ताण्डव भी है। अद्भुत चेहरों की भयावह स्थितियाँ हैं तो मातृत्व भी है। अजन्में पक्षी, जीव जन्तु है तो अद्भुत पेड़ पौधे है। सभी में छाया प्रकाश और गति का एक दैवीय रूप दिखाई देता है। (चित्र संख्या ७, ८, ९)


                                                                                चित्र संख्या 9


यही टैगोर का छंदमय, दयापूर्ण अन्तिम रूप था। वही उनकी कला की प्रारम्भिक अवस्था थी। ऐसे सहज बिम्ब अपनी कृतियों में पिरोए हैं जो हमें पुनः आदिम मानव की गत्यात्मक रेखाओं की याद दिलाते हैं। उनकी कला में बड़ी उन्मुक्ता थी। उनकी कला का क्षेत्र बहुत विस्तृत था।'' इसलिए टैगोर के अद्भुत बिम्ब अत्याधुनिकता का बाना पहने सम्पूर्ण विश्व में मान्यता पाते गए। इन बिम्बों में प्रयुक्त रंग, रेखा अपनी पराकाष्ठा पर जाकर ही टैगोर कला को विभिन्न आधुनिक रूपाकारों तक पहुँचाया। साथ ही सम्पूर्ण विश्व में टैगोर आधुनिक चित्रकार के रूप में जाने, जाने लगे। टैगोर की अन्तस चेतना में व्याप्त बिम्ब अद्भुत और भावपूर्ण हैं जो आज भी शाश्वत और सत्य हैं।