कला - चित्रकला में व्यक्ति चित्रण सदैव ही चिन्तन का विषय - स्नेहल रंजन

जन्म : 2 सितम्बर 1983 पूरी शिक्षा इलाहाबाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से चित्रकला में परास्नातक सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन पोट्रेट पर शोध कार्य (अपूर्ण)


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भारतीय चित्रकला में व्यक्ति चित्रण सदैव ही चिन्तन का विषय रहा है क्योंकि इस पर न ही कोई क्रमागत इतिहास है और न ही इसमें कलाभिरूचि रखने वालों के लिए कोई विषयगत सामग्री उपलब्ध है। व्यक्ति चित्रण की कला विदेशी प्रभाव में आकर ही फली-फूली है। परंतु भारतीय चित्रकला मर्मज्ञों ने अपने ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर इस विषय की विशद चर्चा की है जो कि भारतीय व्यक्ति चित्रण की कला से सम्बन्धित महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर हैं।


     व्यक्तिगत विचारों में कला एक गम्भीर विषय है जो व्यक्ति की अन्तर्निहित अभिव्यक्तियों से जुड़ा है। पूर्ण निष्ठा ईमानदारी एवं लगन से किए हुए सृजन में स्वतः ही भाव प्रस्फुटित होता है। दर्शक इन्हीं भावों को अपने अन्दर के भावों से जोड़ता है और आनंदित होता है और उससे सौन्दर्य का अहसास होता है। सौन्दर्य, जो कला की आत्मा है उसको एक कलाकार ही मनन, चिन्तन तथा प्रयोगों से जिन्दा रख सकता है और समाज को दिशा दे सकता है। समाज में विभिन्न प्रकार के व्यक्ति हैं जो भ्रष्टाचार, कुरीतियों, अन्धविश्वास आदि सामाजिक विषमताओं को जन्म देते हैं। कलाकार वर्ग ही अभिव्यक्तियों के माध्यम से सामन्जस्य बनाए रखता है और निश्चित दिशा का सूत्रपात करता है।


     चित्रकला की प्रमुख विधाएं, आलेखन, प्रकृति-चित्रण, पदार्थ-चित्रण, दृश्य-चित्रण, सन्दर्भ-चित्रण तथा व्यक्ति-चित्रण के रूप में मानी जाती है। इनमें व्यक्ति-चित्रण का शीर्षस्थ स्थान है जो चित्रण की कुशलता का अन्तिम सोपान है। भारतीय वाड्मय में इसे विविध नामों (प्रतिबिम्ब चित्र, सादृश्य चित्र, बिद्ध चित्र, सत्य चित्र एवं सच्चरित चित्र) से सम्बोधित किया गया है। फारसी में इसे शबीह तथा आंग्लभाषा में इसे पोट्रेट नाम दिया गया है।


     व्यक्तिचित्र चित्रकार द्वारा जीवित प्रतिमान की सहायता से शारीरिक विशेषताएं, जिसमें वर्ण, मांसल तथा आस्थिक रचना सम्मिलित है, और इसके साथ-साथ व्यक्ति के स्थाई मनोभावों को जिन्हें चित्रांकन कहते हैं, अंकित करते हुए चित्रकृति को सजीवता प्रदान करना है। व्यक्ति के परिधान, अलंकरण, उपादानों को यथातथ्य चित्रित करते हुए पृष्ठभूमि में परिवेश तथा वातावरण का समावेश करते हुए उसे सफल कृति का रूप देना है जिसे


देखकर चित्रित शैली का रूप निर्धारण हो और विशेष रूप से रोमन मूर्तिकला, जहाँ बनवाने वालों ने व्यक्तिगत और यथार्थवादी व्यक्ति चित्रों की माँग की। यहाँ तक कि चेहरे की कमियों को बिना छुपाए हुए भी चौथी शताब्दी के दौरान पोट्रेट का झुकाव उस व्यक्ति को ऐसे आदर्श प्रतीक के समान दिखाने की ओर हो गया जिससे उस व्यक्ति की समानता होती है।


      पोट्रेट का प्रचलन योरोपीय देशों में १३वीं शताब्दी के आरम्भ में हुआ। व्यक्ति के बाह्य स्वरूप का वास्तविक चित्रण मध्ययुग के उत्तरार्ध में पुनः उभरा कब्र स्मारकों में, दाता चित्रों में, उजवल पांडुलिपि में, लघुचित्रों में और फिर पैनल पेंटिंग में। ईसाई धर्म के प्रादुर्भाव से सांसारिक नश्वरता का प्रचार हुआ। अतः पोट्रेट चित्रण की कला समाप्त हो गई। १५वीं सदी में इसका पुनरुत्थान हुआ और कुछ दानियों के पोट्रेट चित्रित हुए। पिसा नेलो और जानवाईक ने अपने आपको आकृत चित्रकार के रूप में उभारा। उनके द्वारा बनाए व्यक्ति चित्र उत्कृष्ट कोटि के थे। जान वान आइक के छोटे आकार के पोट्रेट भी हैं लेकिन उन्होंने अपने जीवनकाल में आदमकद पोट्रेट भी बनाए जो अब तक की उपलब्धि में नवीनतम थे। इटली में १६वीं सदी के आरम्भ तक व्यक्ति चित्रण प्रचलित रहे। योरोपीय पुनरूत्थान काल में मानवीय व्यक्तित्व के महत्व को पूर्ण रूपेण स्वीकार कर लिया गया जो ईसाई धर्म के अभ्युत्थान से समाप्तप्राय हो गया था। पूर्ण मानवकद पोट्रेट सर्वप्रथम सम्राटों, पोपों, राजाओं और राजपुरूषों के बने फिर धीरे-धीरे सामान्य व्यक्तियों का और महापुरूषों के पोट्रेट बनने लगे जिससे व्यक्तियों द्वारा चित्रित आकृति को अमरता प्राप्त हो गई। यहीं से संयोजन में पोट्रेट को व्यवस्थित करने की परम्परा आरम्भ हुई। संतों और बाइबिल के आकड़ों को दिखाते हुए एकल भक्ति और पैनलों की बड़ी संख्या का उत्पाद किया जा रहा था, लेकिन ऐतिहासिक ज्ञात व्यक्तियों के चित्रण १४३० के दशक तक शुरू नहीं हुए थे। वैन आइक अग्रणी थे, उनका मौलिक १४३२ लीला स्मारिका सबसे पुराने जीवित उदाहरणों में से एक है। चान्सलर रोलिन घुटनों के बल वर्जिन मेरी और उनके पुत्रों के सम्मुख बैठा हुआ चित्रित किया गया। जॉन वान आइन के समूह व्यक्ति चित्रण में वैरोनीज में ‘मैरिज एट सेना' में दुलहिन और अतिथियों को समूह में चित्रित किया गया है। इसमें चित्रकार टिसा, टिनटोरियो, वैसन और वैरोनिसो स्वयं चित्रित हैं। आगे चलकर इस कला में लियोनार्डो द विंची, रैफिल और रेम्बराण्ट ने असाधारण ख्याति प्राप्त की। यह पुनरूत्थान युग की सबसे बड़ी पोट्रेट दिशा की उपलब्धि थी।


    भारतीय कला में व्यक्ति चित्रण का इतिहास बहुत पुराना है, अति प्राचीन काल से ही जिसे प्राक् आर्य सभ्यता कहते हैं, व्यक्ति चित्रण की परम्परा को प्रमाणित करने के आधारस्वरूप संग्रहीत किए गए हैं। विद्वान इस विषय में एकमत है कि उस समय मानव आकृति को स्थायित्व प्रदान करने के माध्यम थे। इसकी अभिव्यक्ति शैली और रचना प्रक्रिया में युग की मान्यताओं के अनुसार परिवर्तन होता रहा है। व्यक्ति चित्रण को अपने आधुनिक अवतार के रूप में स्थापित करने में, जैसा कि आज है, एक विशिष्ट इतिहास और सांस्कृतिक वातावरण की आवश्यकता थी। व्यक्तिचित्रण अपने सम्पूर्ण इतिहास में वास्तविक आधुनिकता को लेकर प्रकट होती रही तथा विभिन्न अलग-अलग उद्देश्यों को आगे की ओर अग्रसर करती रही है।


      मोएनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की कांस्य प्रतिमा जो नृत्ययुक्त मुद्रा में है, यथार्थ अंकन का एक सफल उदाहरण है। एक प्रस्तर प्रतिमा भी प्राप्त हुई है जो एक पुरोहित की है। ये व्यक्ति चित्रण की परम्परा को प्रमाणित करने के उपलब्ध उदाहरण हैं।


      भारत में भारतीय ईरानी काल में मानव द्वारा धातु पटल पर उत्कीर्ण सिक्कों पर बनी आकृतियों को व्यक्तिचित्रण के रूप में देखा जा सकता है। यह भी मानव अंकन को प्रमाणित करने का एक आधार है। यूनानी शासकों ने लगभग १५० वर्ष तक भारत के कुछ हिस्सों में राज किया। उन्होंने अपने सिक्कों पर अपनी आकृतियां अंकित कराई जो इस दिशा की सर्वप्रथम सफल अभिव्यक्ति थी।


      व्यक्ति-चित्रण की परम्परा अजन्ता की गुफाओं में । देखने को मिलती है। अजन्ता की प्रथम गुफा का निर्माण काल ६३० ई. के लगभग है। चालुक्य वंशीय पुलकेशिन द्वितीय ने (हर्ष के समकालीन) जिसका राज्यकाल ६१०- ६४० ई. है, हर्ष के प्रभाव से अपनी रक्षा करने के लिए। ससानी शासक खुसरो परवेज से अपने राजनैतिक सम्बन्ध स्थापित किए थे। इसी उपलक्ष्य में अपना मैत्री भाव प्रदर्शित करने के लिए खुसरो ने अपने यहाँ से उपहार लेकर दूत भेजे थे। इस घटना को प्रमाणित करने के लिए अजन्ता की प्रथम गुफा में चित्रण किया गया है जिसमें राजा पुलकेशिन द्वितीय दक्षिणी परम्परा के अनुसार ऊपरी भाग बिना वस्त्र धारण किए चित्रित है। ईरानी राजदूतों को उनकी दाढ़ी, जामा, चुस्त पाजामे तथा ईरानी टोपी के साथ चित्रित किया गया है। मुल्कराज आनन्द ने इसे प्रामाणिक व्यक्ति चित्र माना है जो अजन्ता में व्यक्ति-चित्रण के प्रचलन की परम्परा को प्रमाणित करता है। ऐसे ही समय-समय पर व्यक्तिचित्रण होते रहे है। तंजौर के वृहदीश्वर मंदिर में जिसका निर्माण चोल राजा राज राजा ने करवाया था, दो प्रांगण हैं। दोनों प्रांगण में जाने के लिए दो द्वार हैं। एक ओर विजयालय चोलेश्वर का मंदिर है। इसी में राज राजा अपनी पत्नियों सहित चित्रित है।


     कलकत्ता संग्रहालय में मुहम्मद तुगलक का एक व्यक्ति चित्र उपलब्ध है (शासन काल १३२५ ई. से १३५१) । इसे हेबेल तथा डॉ. कुमारस्वामी ने प्रामाणिक माना है। राजा महेन्द्रमल का व्यक्ति चित्र (शासनकाल १५३८ से १५६०) घुड़सवार के रूप में है। आकृति पाश्वगत तथा आभामण्डलयुक्त है। यह व्यक्ति चित्र नेपाल के राष्ट्रीय संग्रहालय में उपलब्ध है।


    ईरानी कला मुख्यतः पुस्तकों को सचित्र करने की कला थी जिसमें चमकदार रंगों के साथ सोने की काफी मिलावट रहती थी। मध्य एशिया में तैमूरवंशी शासकों के अधीन जो कला विकसित हुई, उसमें उद्दामता का अधिक जोर था। सत्रहवीं सदी में ये दोनों कलाएं भारतीय कला भारतवर्ष में मिली। इन विभिन्न कला प्रवृत्तियों के योग से भारत में एक नई कला का जन्म हुआ जो जहाँगीर और शाहजहाँ के राज्य- काल में उन्नति के शिखर पर पहुँची। इस कला में व्यक्ति की आकृति की प्रधानता है। इसकी दृष्टि केन्द्रित होकर वर्तमान काल पर है तथा उसके मुख्य विषय अमीरों के कारनामे हैं। यह कला जीवन को आदर्शोन्मुख न करके खुलकर उसका प्रतिनिधित्व करती है। वैयक्तिक चित्रों में गहरी दिलचस्पी, सश्लेषण के स्थान पर विश्लेषण की प्रमुखता तथा सन्तों और महात्माओं की जगह पर राजाओं और दरबारियों से प्रेम।' अकबर अपने कला प्रेम, उदार दृष्टिकोण, कलाकारों के संरक्षण देने के नाते भारतीय कला के इतिहास में मुगल कला का संस्थापक कहा जाता है। उसके दरबार में चित्रकारों की भरमार थी। वे अकबर की व्यक्तिगत अभिरूचि और स्वतंत्र निर्देशन में चित्र रचना करते थे। अकबर एक विचित्र कलात्मक अभिरूचि वाला व्यक्ति था जो आरम्भिक काल में अपने कला शिक्षक ख्वाजा अब्दुल समद से ईरानी शैली में प्रशिक्षित हुआ। मुगल शासकों ने भारतीय संस्कृति के सम्पर्क में आकर सर्वप्रथम अकबर ने व्यक्ति चित्रण का शुभारम्भ किया। अकबर के काल में जो व्यक्ति चित्रण शाही परिवेश में थी वह अब चित्रण के लिए प्राकृतिक उन्मुक्त वातावरण में आ गई जहाँ चित्रकार अपने प्रतिमान को खुले आकाश के नीचे हरी-भरी भूमि पर प्रतिष्ठित करता था। अकबर कालीन व्यक्ति चित्रों में ही सर्वप्रथम सामूहिक रूप से चित्रकारों की कार्य पद्धति से हटकर एक चित्रकार द्वारा सम्पूर्ण चित्र चित्रित करने की परम्परा आरम्भ हो गई। अकेले व्यक्ति चित्रों में एक ही चित्रकार ने कार्य कर उसे पूर्ण किया है इसका सबसे बड़ा उदाहरण केशवदास का स्वयं का व्यक्ति चित्र है।


     जहाँगीर के काल को मुगलकाल का स्वर्ण युग कहा जाता है। व्यक्ति चित्रण की कला ने इस काल में असाधारण उन्नति की जितना कलात्मक व्यक्ति चित्रण जहाँगीर के समय में हुआ। उसका कारण उसके द्वारा चित्रकारों को व्यक्तिगत प्रोत्साहन देना था। उसके चित्रकार मंसबदार श्रेणी के थे। उसके दरबार में आकारिजा नाम के चित्रकार ने आश्रय प्राप्त किया था। वह हिरात से १५८५ ई. के लगभग भारत आया था। उसने शहजादा सलीम के कई व्यक्ति चित्र बनाए हैं जो फारसी शैली में है। विशन दास इस युग का सबसे अधिक ख्याति प्रापत व्यक्ति चित्रकार था जिसकी प्रतिमा से सन्तुष्ट होकर जहाँगीर ने उसे ईरान के शाह अब्बास के दरबार में सन् १६१७-१६१८ ई. में उनके तथा उनके सम्बन्धियों और प्रमुख व्यक्तियों के व्यक्ति चित्र बनाने के लिए भेजा था। उसकी कला से जहाँगीर इतना प्रभावित हुआ कि उसे एक हाथी तथा बहुत सारे पुरस्कार दिए थे।


                                                                                                             


१८वीं सदी के प्रारम्भ में बीकानेर शैली में एक गोल चन्द्रमुख की छटा अब और विकसित होकर तीखी नासिका और तीखे नेत्रों द्वारा अधिक आकर्षित हो उठी। महाराजा गजसिंह के शासनकाल में राधा-कृष्ण की प्रेम लीला पर आधारित बहुत से चित्र बनाए गए, वहीं शिकार से सम्बन्धित चित्र भी बने और राज परिवार के सदस्यों के आकर्षक पोट्रेट भी बनाए गए। लक्ष्मीनारायण बीकानेर' (सन् १६५० (२२.८ म १८ से.मी.)) खजान्ची संग्रहालय में एक पोट्रेट था। वह दिल्ली से आए प्रसिद्ध कलाकार उस्ताद अलीरजा द्वारा बनाया गया था। अलीरजा का यह काम बीकानेर स्कूल के लिए एक स्रोत था। समकालीन मुगल साम्राज्य की कई यादगार कृतियों में बीकानेर शैली की स्पष्ट झलक है। ‘महाराज करण सिंह' (सन् १६३१ से १६७४ (२८.२ म २१ से.मी.)) का पोट्रेट उस्ताद रूकनुदीन द्वारा बनाया गया। इस व्यक्तिचित्र में महाराजा सिर पर पगड़ी एवं गहने पहने हुए हैं। चेहरा बाई ओर है। हाथ में तलवार है। इस पोट्रेट पर मुगल काल का प्रभाव है।


      आज भी यह माना जाता है कि उच्च पुनर्जागरण यूरोपीय संस्कृति के इतिहास में कला की पराकाष्ठा एवं विभिन्न कला । विभाजनों की स्थिति ही थी। पन्द्रहवीं व सोलहवीं सदी ने जिन कौशलगत कठिनाइयों को अनुभव किया था, उसने मानवता के कारण कलाकारों को धार्मिक विचारों से स्वतंत्र कर दिया और चित्रकला में कलाकार के व्यक्तित्व को महत्व दिया जाने लगा। छवि-चित्रों को फिर से महत्व मिलने लगा। पन्द्रहवीं सदी में यूरोप में दो महान् कला केन्द्र थे जिसमें से एक था इटली और दूसरा था फ्लाण्डर्स जहाँ अनेक प्रतिभा सम्पन्न कलाकार पैदा हुए। जान वान आइक को लम्बे समय तक तैल चित्रण का आविष्कारक माना जाता था। तैल रंगों से छोटे व्यक्ति चित्र व बड़े वेदिका चित्र बनाए जाते थे। पीट्स खिस्ट्स अच्छे फ्लेमिश चित्रकार थे व उनकी शैली वान आइक के समान है। उनके चित्र ‘ईसा की मृत्यु पर शोक' का संयोजन बहुत ही आकर्षक है व चित्र भावुकतापूर्ण है। उन्होंने ‘कय॒सियन' (न्यूयार्क) व 'युवती' (बर्लिन) जैसे उत्कृष्ट व्यक्ति चित्र भी बनाए हैं।


     लियोनार्दो द विन्ची (१४५२-१५१९) ने शरीर की अस्वाभाविक भंगिमाओं को दिखाने में वैज्ञानिक सिद्धान्तों को अपनाया है। वैज्ञानिक सिद्धान्तों में शरीर-विज्ञान अपने में पूर्ण विज्ञान था। वे एक कुशल मूर्तिकार, चित्रकार, वैज्ञानिक, फोटोग्राफर आदि सब थे। उन्होंने शरीर विज्ञान पर पुस्तक भी लिखी। विंची अति मेधावी गुणों से युक्त कलाकार थे जिन्होंने अधिकांश मानवीय विषयों का ही अंकन किया है। १५०० से १५०८ ई. के मध्य विंची ने तीन प्रमुख कलाकृतियाँ बनाई The Battle of Anghiari' (१५०३-१५०६ ई.) फ्लोरेन्स के पलाजो वेकिओं में, मोना लिसा Mona Lisa (१५०३१५०५ ई.) (“The Virgin and Child with St. Anne' (स. १५००-१५०७)। बसारी के विचार से लिओनार्डो ने इस चित्र में लीजा दी एन्टोनिओ मारिया दोरारदिनि, फ्लोरेन्स के नागरिक फ्रान्सिसका देल गिओकोन्डो की पत्नी, के छवि-चित्र को तीन वर्षों में चित्रित किया जिसका शीर्षक Monalisa' दिया गया। यह पश्चिमी कला जगत् का सबसे प्रसिद्ध व श्रेष्ठ चित्र है।


      चित्र में महिला की रहस्यमय मुस्कुराहट व उलझन में डालने वाली निगाह के कारण उसके सही मनोभाव के बारे में कुछ भी निश्चात्मक कहना असम्भव है। इसके ऊपर अनेक निराधार काल्पनिक मत व्यक्त किए गए हैं जिसमें से कुछ अनाकलनीय है तो कुछ फ्रायड के सिद्धान्तों के अनुरूप यौन बोधक। तेओफिल गोतिय के अनुसार उनकी निगाह में 'दैवी व्यंग्यात्मकता के अन्तर्गत अपार कामोत्तेजकता है। महिला की आकृति में पृष्ठभूमि की पहाड़ी के सदृश ठोसपन है व साथ में गतिपूर्ण ओझल होती हुई नदी के सदृश्य सजीवता है। मोनालिसा की चित्रवृत्ति की स्वभाविकता को बनाए रखने के लिए पृष्ठभमि में उसके मनपसन्द आइरिस व कुमुदिनी के फूलों को रखवा कर सांध्य प्रकाश में, क्रीड़नशील फव्वारे व मधुर संगीत में प्रसन्न रमणीय वातावरण में उन्होंने चित्र पूर्ण किया। इसकी रहस्यमयी मुस्कान के कारण, इस छवि चित्र को विश्व में सबसे परिष्कृत नारी छवि चित्र माना गया। इन्होंने अपने स्वयं के छवि-चित्रों को चॉक द्वारा कागज पर बनाया जो कि जीवन के अन्तिम समय का बना रेखाचित्र है।


     रैफेल सन्जिओ (१४८३-१५२०) छवि चित्रों के चित्रकार के रूप में राफेल पुनर्जागरण चित्रकारों में द्वितीय स्थान के कलाकार माने गए जिसका सफल उदाहरण ‘Portrait of Donnavelata का लगभग १५१३ ई. में अंकित छवि चित्रों की श्रृंखला है। उन्होंने फ्रांसरिना (नानबाई की पुत्री) का मॉडल के रूप में प्रयोग किया है। वे कभी-कभी तैल रंग द्वारा भी छवि-चित्र अंकित किया करते थे, जिसमें अंतिम व विख्यात छवि-चित्र इनके मित्र का है- “Portrait of Bold assare Castiglione' (लूब संग्रहालय) जिसे उन्होंने लगभग १५१६ में कैन्वास पर अंकित किया। राफेल के छवि- चित्रों में स्पष्ट दृष्टि व मटमैले रंगों द्वारा उष्मा एवं गौरव का सृजन किया गया है। उनका एक व्यक्ति चित्र ‘Young Women with Unicorn (युनिकॉर्न के साथ युवा महिला जो का पोट्रेट)। जिसे लगभग १५०५ से १५०६ में बनाया। इस चित्र का चित्रण पैनल पर तैल माध्यम से किया गया जो ६५ सेमी म ६१ सेमी (२६ गया जो ६५ सेमी म ६१ सेमी (२६ म २४) पर बना है। यह रोम में गैलेरिया बोगस में है और इसे १९३४ में संरक्षण कार्यों के दौरान कैनवास पर बनाया गया। इस काम के दौरान ओवर पेंटिंग हटा दी गई थी, यूनिकॉर्न को प्रकट किया गया। था।


     एक सफल व्यक्ति चित्र' के लिए निम्न तथ्यों का होना आवश्यक है। वह जीवित प्रतिमान की सहायता से चित्रित हो और व्यक्ति की शारीरिक विशेषताएं जिसमें वर्ण, मांसल तथा आस्थिक रचना सम्मिलित होने के साथ-साथ उसकी मुखाकृति पर उसके स्थाई मनोभाव जिसे चित्रांकन कहते हैं, अंकित होना चाहिए। व्यक्ति की अभिरूचि के परिचायक, परिधान, अलंकरण, उपादान यथातथ्य चित्रित किए गए हो। चित्रकृति में सजीवता का भान हो जिसे देखकर चित्रित शैली का रूप निर्धारण हो सके। रचना विधि के अनुसार चित्रित व्यक्ति चित्रों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है


       १. रेखांकित व्यक्ति चित्र,


        २. रंगीन व्यक्ति चित्र।


      रेखांकित व्यक्ति चित्र सामान्यतः आकार रेखाओं से ही पूर्ण किए जाते हैं। इन्हें मुगल काल में स्याह-कलम भी कहा जाता था। इस प्रकार के व्यक्ति चित्र एक ही रंग की रेखाओं के द्वारा पूर्ण किए जाते थे। रंगीन व्यक्ति चित्र चित्रित करने के लिए आरम्भ में फलक पर आकार रेखांकन तो करना ही पड़ता है। सफल रेखांकन फलक या कागज पर रंग से ही किया जाता है और भौंह, आँख, नाक, कान को गहरे रंग से उभार दिया जाता है। फिर उसे वांछित रंगों से पूर्ण किया जाता है।


      जीवित प्रतिमान द्वारा चित्रित व्यक्ति चित्र को सर्वोत्तम तथा सफल विधि माना जाता है। विश्व प्रसिद्ध मोनालिसा का व्यक्ति चित्र इसी विधि से ल्योनार्डो दी विंची ने १५०५ से १५१२ ई. तक चित्रण करते हुए तैयार किया था क्योंकि मोनालिसा की आकृति पर जो अपने प्रेमी पति के मरने के कारण दुख की छाया आ गई थी, उससे मुक्त कर उसका स्थाई चरित्र उसकी आकृति पर लाने और उसे चित्रित करने के लिए वाछित व्यवस्था करनी पड़ी थी। तभी वह मोनालिसा का स्थाई चरित्र निकाल सके और उसे अपनी कृति में लाने में सफल हुए। विंची का यही प्रयास उनकी कृति को विश्व प्रसिद्ध बनाने में सहायक बना। अतः दुष्टव्य व्यक्ति चित्र प्रतिबिम्बित व्यक्ति चित्र तथा जीवित प्रतिमान की सहायता से बने चित्र वास्तव में व्यक्ति चित्रों की कोटि में आते हैं।


      लियोनार्डो द विंची ने अपनी पुस्तक ‘ट्रीराइज आन पेंटिंग में व्यक्ति चित्र के लिए लिखा है कि चित्रकार को आस्थियों का ज्ञान अति आवश्यक है जो मांसपेशियों के निर्माण में सहायक होती है।' इस लेख का समापन करते हुए मैं एक कला समीक्षक (पाश्चात्य कला साहित्य के प्रणेता) डेविड एम.रोब के शब्दों को उद्धत करना चाहती हैं। उनके अनुसार- ‘व्यक्ति चित्रण की पूर्णता सादृश्य पर निर्भर है। किसी भी प्रकार का परिवर्तन जीवित प्रतिमान से हटकर ग्रहण नहीं किया जा सकता। उसकी आकृति की व्यक्तिगत विशेषताओं को समाप्त नहीं करना चाहिए।'