'कहानी - एक उदास दोपहर - दिव्या विजय

जन्म : 20 नवम्बर 1984 जन्म स्थान : अलवर, राजस्थान विधाएँ: कहानी, लेख, स्तंभ शिक्षा : बायोटेक्नोलॉजी से स्नातक, सेल्स एंड मार्केटिंग में एम.बी.ए., ड्रामेटिक्स से स्नातकोत्तर अलगोजे की धुन पर- कहानियों की पहली किताब।। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे नवभारत टाइम्स, कथादेश, इंद्रप्रस्थ भारती, पूर्वग्रह, जनपथ,नया ज्ञानोदय आदि में नियमित प्रकाशन। सम्प्रति : स्वंतत्र लेखन, वॉयस ओवर आर्टिस्ट


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वह देर तक खिड़की के सहारे खड़ी रही। जब कभी केशव को आने में देर हो जाती, कनुप्रिया इसी खिड़की से बाहर झाँकती। खिड़की उसकी अन्तरंग सखी थी। उसकी प्रतीक्षा वह समझती थी। कनुप्रिया को कभी महसूस होता जैसे खिड़की उसकी अधीरता पर मुस्कुरा रही है। कभी लगता वह उसे धीरज बंधा रही है। ग्रिल लगी जालीदार खिड़की उसे बहुत प्यारी थी पर ऐसे दिन बहुत कम होते थे जब वह उस से पहले पहुँच जाए। वे दोनों अधिकतर साथ पहुँचते थे। समय मिलाकर ..ठीक वक्त पर। ना एक क्षण इधर न एक क्षण उधर। परीक्षाएँ निकट थी इसलिए आज भी कोई नहीं आया था परन्तु वे दोनों नियमित रूप से आ रहे थे। मिलने का एक यही तरीका उन दोनों के पास था। पर आज सब अलग था। आज वह उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रही थी। आज उसकी प्रतीक्षा का अंत सदा के लिए होने वाला था। कक्षा के बाहर जंगल था जो बारिश के दिनों में हरा हो उठता। लेकिन अभी गर्मियों के दिनों में जले हुए भूरे धब्बे-सा लग रहा था। वह आँसू पोंछ देती तो भूरा धब्बा बड़ा हो जाता लेकिन फिर तुरंत ही छोटा हो उठता। धूप उसकी हथेलियों को चुभ रही थी मगर वह खड़ी रही कि वह उसको आखिरी बार जाते देखना चाहती थी। पेड़ के नीचे खड़ी उसकी काली बाइक वहाँ से नज़र आ रही थी। वही बाइक जिस पर बैठकर वह पूरा शहर घूमी है। शहर जिसकी खूबसूरती को उसने महसूस ही केशव के साथ किया है। वरना वह तो उन इमारतों पर नज़र डालकर आगे बढ़ जाया करती थी...हवा महल हो या अल्बर्ट हॉल। पुराने शहर की गलियाँ जहाँ कार का जाना असंभव था, बाइक पर उन्होंने नाप डाली थीं। वही गलियाँ जहाँ कभी जाना पड़ जाए तो नाक-भौं सिकोड़ लेती थी, अब वहीं के चप्पे-चप्पे से वह वाकिफ थी। कब सोचा था उसने कि मॉल्स और कैफे से अलग किसी दुनिया की मुहब्बत में वह पड़ जाएगी।


    बाइक के हैंडल पर वही लाल धागा बँधा था जैसा उसके हाथ में केशव ने कुछ महीनों पहले पहनाया था। हाथ में बंधे धागे को उसने विवशता से देखा ज्यों वह केशव को वह समझा देगा जो कनु समझाने में असफल रही है। वह देर तक खिड़की से देखती रही पर वह नज़र नहीं आया। कहाँ चला गया वो? क्या बाहर जाकर देखे? वह आगे की ओर झुकी तो बाहर चिलचिलाती धूप में सिर्फ एक कुत्ता दौड़ता हुआ दिखा और एक चिड़िया जो पानी के नल पर उल्टा लटक कर पानी पी रही थी। चिड़िया देख कुत्ता जीभ लपलपाता उसके पीछे आ खड़ा हुआ। चिड़िया कुत्ते की उपस्थिति से बेखबर पानी पी रही थी। क्या कुत्ता चिड़िया को...? उसे लगा वह गिर पड़ेगी। कुर्सी का सहारा लेने के लिए वह पलटी तो ठीक पीछे वह खड़ा था। वह गया नहीं था। उसका जाना तय हो गया था पर वह नहीं गया। उसे पल भर को सुकून मिला लेकिन अगले ही पल वह डर गई और दो कदम पीछे हो गई। वह उसे देखना चाहती थी पर इतना करीब से तो नहीं। केशव की आँखों में प्रेम था, याचना थी। इन सबके अतिरिक्त एक और चीज़ जिससे उसे अभी सबसे अधिक डर लग रहा था। उसकी आँखों में क्रोध था और साथ ही था अविश्वास।


    “मैं जा रहा हूँ।'' होंठ दबा कर उसने कहा। वह अभी यही शब्द कह कर गया था लेकिन फिर वहीं खड़ा था। उसके लिए भी यह उतना ही मुश्किल था जितना कनुप्रिया के लिए। कनुप्रिया की आँखें भर आईं तो वह फिर खिड़की के पार देखने लगी। वह कुछ देर खड़ा उसे देखता रहा। उसका मन हुआ कन्धों से पकड़ कर कनुप्रिया को झिंझोड़ दे। क्यों वह उसकी बात नहीं मान लेती। क्यों वह सब कुछ खत्म कर देना चाहती है। वह उससे पूछना चाहता है कि क्यों वह कनु के लिए उस तरह जरूरी नहीं जैसे उसके के लिए कनु। लेकिन नहीं वह कुछ नहीं पूछेगा। अपना मन कड़ा करेगा और चला जाएगा। अभी थोड़ी देर पहले भी उसने यही तय किया था लेकिन मन को समझाना कितना कठिन होता है। कनु को एक और बार देखने का मोह वह नहीं छोड़ पाया। लेकिन नहीं, अब वह लौट कर नहीं आएगा। वह पलटा और बाहर चला गया।


    कनुप्रिया ने उसकी खुशबू को दूर होते महसूसा तो । उसकी साँस उखड़ने लगी। वह भाग कर बाहर गई तो वह दरवाजे पर खड़ा था। पसीने से भरा उसका उदास चेहरा देख उसकी रुलाई फ़िर उमड़ पड़ी। उसका मन हुआ अपने दुपट्टे से उसका चेहरा और बाल पोंछ दे पर वह रुक गई। वे दोनों कुछ देर एक-दूसरे को देखते रहे। उसकी आँखों में वही था जिस से वह डरती थी। उसने नज़रों का रुख बदल कर आसमान की ओर किया। उसे लगा कोई आग के गोले फेंक रहा हैजो सीधे उसके देह के भीतर प्रवेश कर रहे हैं। उसे लगा वह सिंक कर जाएगी। वह बाथरूम की ओर गई और मुँह पर पानी के छींटे दिए। सर उठा कर देखा तो आईने में केशव का अक्स नजर आया। उसका मन हुआ दौड़ कर उसके सीने से लग जाए। ऐसे हाल में भी यह खुयाल उसे रोमांचित कर गया। उसे याद आया अभी कुछ महीने पहले जब केशव ने पहली बार उसे आलिंगन में लिया था तब डरते हुए उसने खुद को ढीला छोड़ दिया था और पल भर के विराम के बाद उसे कस लिया था। अचेतन होते होते जैसे अर्द्धचेतना कुछ फुसफुसाई हो और उसने आखिरी शब्द थाम लिए हों।


     उसने महसूस किया केशव की आँखों में नमी उतर रही है। केशव ने कन्धों पर से बैग उतारा। बैग जो उसे अली बाबा का खजाना लगता है जिसमें न जाने कितनी चीजें समा जाती हैं और फिर भी जगह बच जाती है। ढेर सारे कागज, फ़ोल्डर्स, किताबों से लेकर साबुन, ब्रश तक वहाँ होते हैं। वह एक जोड़ी कपड़े हमेशा साथ रखता है। उसका बंजारा मन कब कहाँ भटकना चाहे यह पहले से उसे भी मालूम नहीं होता। कितनी ही बार कॉलेज से निकल कर जाने कहाँ पहुँच जाता। जब तक कनु घर पहुँचती वह किसी अनजान शहर पहुँच चुका होता। फोन करता और कहता,


     “कनु, यहाँ बारिश हो रह है। काश तुम भी यहाँ होती।''


     “कनु, यह जगह बहुत सुन्दर है। तुम्हें ज़रूर देखनी चाहिए।''


      और कनु नए शहर का नक्शा अपने मन पर दर्ज करती जाती। वह जाना चाहते हुए भी नहीं जा पाती...घर पर क्या कहेगी। काश! वह भी उसके साथ हर जगह जा पाती...एक कसक-सी उठती है उसके सीने में जिसे वह चुप पी जाती है। केशव समझता है उसकी मजबूरी इसलिए उस पर जोर नहीं डालता। हालाँकि वह भी उसका साथ चाहता है। लेकिन हर चाही गई बात कहाँ पूरी होती है। फिर भी दोनों अपने हिस्से का प्यार जी लेते हैं।


     कपड़ों से उसे याद आया, वह आज वही शर्ट पहने था जो उसने पहले दिन पहनी थी। और पहले दिन वाली तारीख हर महीने जब पलट कर आई तब पहनी थी। तो क्या आज वही तारीख है। उसकी आँखें भीगने लगी तो उसने आगे बढ़कर बाथरूम का दरवाजा बंद करना चाहा। मगर केशव के मज़बूत हाथों ने उसका हाथ थाम लिया। वही हाथ जिसमें उसने लाल धागा पहनाया था। केशव अब भी वहीं था। केशव वह धागा पहाड़ों के किसी मंदिर से लाया था...कई साल पहले। केशव ने वह धागा कनुप्रिया की कलाई में कुछ महीने पहले पहनाया था। यह उसके प्रेम का प्रमाण था। उसने कहा था,


    “कनु, तुमसे पहले मेरे जीवन में दो लड़कियाँ रही हैं। मगर यह जो तुम्हारे लिए महसूस किया वह पहले कभी अनुभव नहीं किया। जब से तुम आई हो, तुम ही हो। अब हमेशा रहोगी। तुम्हारे सिवा कोई न होगा।'' कहते हुए एक चुम्बन उसके माथे पर जड़ दिया था। आज वही कलाई फ़िर उसके हाथ में थी। केशव उसकी गाँठ खोलने की कोशिश कर रहा था। कनुप्रिया ने हाथ खींचना चाहा पर उसने मज़बूती से । थामे रखा। इसी खींचतान में दीवार से रगड़खा उसकी कलाई पर खरोंच आ गई। केशव ने घबरा कर उसका हाथ छोड़ दिया। कनुप्रिया चुपचाप धागे की गाँठ फ़िर बाँधने लगी। क्या धागा खोल देने भर से प्रेम टूट जाएगा!


     “यह ड्रामा बंद क्यों नहीं करती तुम?'' केशव चिल्लाया.


      जवाब में उसने आँसू भरी आँखें उठाई। केशव चाहता क्या है? क्यों वह इतना आक्रामक हो रहा है? क्या वह नहीं समझ रहा कि वह लगातार इतने दिनों से उसे चोट पहुँचाए जा रहा है?


     “तुम्हारे जैसी लड़की मैंने कभी नहीं देखी। झूठ की सारी हदें तुम पार कर चुकी हो।'' उसकी आवाज़ में घृणा थी। ‘‘यह रोना बंद करो। तुम्हारे आँसुओं का असर अब मेरे । ऊपर नहीं होने वाला।'' केशव अपनी आवाज़ भरसक नीची रखने का प्रयास कर रहा था पर फिर भी आवाज़ शायद बाहर जा रही थी कि किसी के क़दमों की आहट बार-बार नजदीक आकर लौटती लग रही थी। शायद चपरासी या सफाई करने वाली में से कोई होगा। उन्होंने सुन तो न लिया होगा? मेरे जैसी लड़की! कैसी लड़की हूँ मैं?


      उसे याद आया एक दिन उसे हरी साड़ी में देख केशव ने ठीक यही शब्द कहे थे, “कनु, तुम्हारे जैसी लड़की मैंने कभी नहीं देखी। तुम्हारा मन इस मंदिर जितना पवित्र और गहरा है। इसमें सदा के लिए मुझे स्थान दे दो।'' उस रोज़ वह गढ़ गणेश जी के मंदिर गए थे। नाहरगढ़ और जयगढ़ के किलों के मध्य अरावली के पहाड़ों पर बना यह मंदिर कला की अद्भुत मिसाल है। सारा शहर वहाँ से नज़र आ रहा था। केशव हर बुधवार यहाँ आता था। उसे मालूम था कनुप्रिया को यह जगह ज़रूर पसंद आएगी.


     “यह मंदिर सवाई जय सिंह ने बनवाया था। जयपुर की स्थापना से पहले उन्होंने यहाँ अश्वमेध यज्ञ किया था। पहले यह मंदिर बना फिर इस शहर की आधारशिला रखी गई। माना जाता है गणेश जी यहाँ बाल रूप में विराजमान हैं।'' बाल गणेश की मूर्ति दिखाते हुए वह कह रहा था। ‘‘और जानती हो, गणेश जी की मूर्ति इस तरह रखी गई कि महाराज हर रोज़ चन्द्रमहल से दूरबीन लगा इनके दर्शन कर सके।''


    ‘‘बाप रे! इतनी दूर से।'' कनुप्रिया विस्मय से भर उठी थी।


     “हाँ, तो क्या हुआ। यह दूरी तो कुछ नहीं। मैं तो इससे भी अधिक दूर से तुम्हें देख सकता हूँ और मुझे तो दूरबीन की आवश्यकता भी नहीं।'' केशव शरारत से बोला था।


       "और यह नंदी जी की प्रतिमा देख रही हो। इनके कान में चुपके से कुछ कह दो। जो चाहोगी मिल जाएगा।''


       “अब मेरे पास सब कुछ है।'' उसने आहिस्ता से कहा था।


       उस रोज वह देर तक उसके कंधे पर सर टिकाए शहर देखती रही और वह उसके बाल सहलाता रहा। केशव को उसके बाल बेहद पसंद थे और खुद के बाल उतने ही नापसंद। उसने कनखियों से देखा केशव के बाल आज भी वैसे ही घास की मानिंद खड़े थे जिनसे उसे चिढ़ थी। उसके बालों के लिए कितने जतन किए थे उन्होंने । बियर से बाल धोने से लेकर विटामिन ई के कैप्सूल तक सारे सुने-अनसुने उपाय किए थे। वह हर रोज़ एक नया उपाय खोज कर लाती और केशव ना-नुकुर करते हुए भी उसे आज़मा लेता। लेकिन नतीजा रहता वही ढाक के तीन पात्। केशव चिढ़ जाता और कभी उसकी बात न मानने की कसम उठा लेता। लेकिन अगले दिन कनुप्रिया के पास फिर एक नया सुझाव होता और वह फिर बालों के साथ कवायद में लग जाता। उन दिनों की याद उसके होंठों पर छोटी-सी मुस्कराहट रख गई लेकिन केशव की उदासी देख वह फिर बुझ गई।


      छोटी से छोटी यात्रा में भी वह डर के कारण कभी सड़क से नज़रें नहीं हटा पाती थी। सामने से आते वाहन उसे अपने ऊपर आते लगते। दरअसल उसे सड़क से ही डर लगता था। उसका डर फोबिया की हद तक जाता था। उसकी स्मृतियों में सड़क से बगैर डर का राब्ता सत्रह साल पर आकर ठहर जाता है जब उसका एक्सीडेंट हुआ था। उसके बाद यह डर सर उठाने लगा और अरसे से उसके साथ है। सड़क पर बगैर किसी का हाथ थामे चल पाना उसके लिए नामुमकिन था। कितनी ही बार अकेले सड़क पार करने की कोशिश में ट्रैफिक जाम हुआ और वह चारों ओर से घिरी हुई इंतज़ार करती कि कोई भला सा इंसान उसे सड़क पार करवा देगा। ऐसे में कार या बाइक पर बैठ कर तो उसे लगता कि तनाव से उसका सिर फट जाएगा।


     पर उसे याद है उस दिन मंदिर से लौटते वकृत वह पहली बार खुद को महफूज महसूस कर रही थी। सड़क को चौकन्नी निगाह से देखने की कोई जरूरत उसे नहीं लगी थी। केशव के हाथों में गियर और स्टीयरिंग उसे उतने ही सुरक्षित  प्रतीत हुए जितना वह खुद को उसके साथ महसूस करती थी। उसने केशव को धीरे से शुक्रिया कहा। केशव ने मुस्कुरा कर आँख के इशारे से पूछा था किसलिए? उसने मुस्कुरा कर ना में गर्दन हिला दी और सर फिर उसके कन्धों पर टिका दिया था।


                                                                                   केशव के कन्धों पर उसने कई बार सिर रखा था। सर्द दिनों में पीले पड़ गए पत्तों की खूबसूरती देखते, प्रकृति की उदासी में अपनी खुशी घोलते , देर से आने पर उसको मनाते, गलती हो जाने । पर माफ़ी मांगते, प्रेम से भर उठने पर, हर मौके पर केशव का कन्धा उसका अंतरंग हो उठता था और हर बार केशव प्रेम से उसे समेट लेता था। मगर इस बार, अभी थोड़ी देर पहले, पहली बार, उसने उसे धकेल दिया था। उसने उसे कहा था,


          “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे छूने की। तुम्हारे जैसी औरतों ने प्रेम को बदनाम कर रखा है।''


         वह हैरानी से उसे तके जा रही थी। उसकी बड़ी बड़ी आँखों में अचरज आकर ठहर गया था। वह कुछ कह नहीं पाई।


         “तुमने मेरे साथ छल किया और अब भी आँखों में आँखें डाले खड़ी हो। बहुत बेशर्म हो तुम।'' केशव उसे । झिड़कते हुए कह रहा था।


          कनु की पलकें नीचे झुकीं और गालों पर आँसू ढुलक आए। केशव का हाथ आगे बढ़ा फिर पीछे लौट आया। ‘‘अब तुम्हें छूते हुए भी....''


          यह वही था जो साथ रहते हुए क्षण भर के लिए भी उसे खुद से अलग नहीं होने देता था। देह के हर अंग को चुम्बनों से सिक्त कर दिया करता था।


          “मैंने झूठ नहीं कहा।'' सिसकते हुए किसी तरह वह कह पाई।


           “मैंने देखा था तुम्हें उसके साथ हँसते हुए। ठीक वैसी ही हँसी जैसी तुम मेरे साथ हँसती हो। फिर भी कहती हो तुमने झूठ नहीं कहा।'' केशव फफक उठा जैसे कोई मज़बूत इमारत ढह गई हो।


            “तुमने कहा था तुम सिर्फ मुझसे प्यार करती हो। कहा था न?'' केशव किसी ट्रान्स में बोले जा रहा था। मुझे नहीं पसंद तुम्हारी हँसी को कोई और छुए।''


            “वह दोस्त है केशव।'' कनुप्रिया पहली बार ऊँची आवाज़ में बोली थी।


           कितने तो दोस्त है कनु के। वह ठहरी बातें करने की शौकीन। जिससे बात करती है उसे ही दोस्त बना लेती है। कॉलेज की लगभग सभी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण कॉलेज में अपने डिपार्टमेंट के बाहर भी उसके अनेक दोस्त हैं...लड़के-लड़की सब। केशव को शुरू में आपत्ति नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे ईष्र्या पनपने लगी। आए दिन दोनों के झगड़े होने लगे। वह उसे लाख समझाती कि किसी से भी मित्रता से अधिक कोई सम्बन्ध नहीं लेकिन उसका समझना क्षणिक होता था। ईष्र्या की जड़ें गहराती गईं और प्रेम मज़बूत लगते हुए भी खोखला होने लगा। वह खुद नहीं जानता कि वह ऐसी प्रतिक्रिया क्यों देता है। लेकिन कन् को किसी और के साथ देख उसके तन-मन में जैसे आग लग जाती है। वह चाहता है कनु सिर्फ उसकी होकर रहे। कोई देखे तक नहीं उसे। वह जानता है यह इच्छा अवास्तविक है और असाध्य भी लेकिन अपने मन का क्या करे। और कनु भी तो कैसे सबके साथ हँसती-बोलती है। आखिर ज़रुरत ही क्या है? उसका मन तो कनु के रहते किसी से बात करने को नहीं चाहता फिर कनु को क्यों इतने लोग चाहिए?


          जिन विशेषताओं से आकर्षित हो दोनों निकट आए थे वही अब अवगुण लगने लगे थे। वे भूल गए थे कि सबकी प्रकृति अलग होती है। एक-दूसरे को अपनी प्रकृति में ढालने के प्रयत्न ने प्रेम को कितनी हानि पहुँचाई थी, वे इससे अनजान नहीं थे लेकिन फिर भी आँखें मूंद अपने अहम् को वरीयता देते रहे।


          ‘‘ऐसे मित्र क्यों हैं तुम्हारे, जिनसे तुम्हें छिप कर मिलना पड़ता है। जिनके बारे में तुम मुझे नहीं बता सकती हो। मेरे जीवन तुम्हारे लिए खुला है.. बिलकुल पारदर्शी। तुम्हारा जीवन ऐसा क्यों नहीं है। तुम निष्कपट हो तो क्यों तुम्हें कुछ छिपाना पड़ता है?''


          “क्योंकि तुम मुझे समझते नहीं हो। मुझे जज करने लगते हो। जो मैं हूँ उसे स्वीकार करने की बजाए अपने अनुरूप ढाल देना चाहते हो। मेरी अपनी निजता समाप्त हो जाती है तुम्हारे साथ। मैं तुम्हारे साथ हैं क्योंकि तुम्हें चाहती हूँ। जब तक प्रेम है तुम्हारे पास लौटती रहूँगी। जब प्रेम नहीं बचेगा तो तुम्हारे रोकने पर भी नहीं रुकेंगी। स्वच्छंद बहते सम्बन्ध में तुम ठहराव क्यों लाना चाहते हो। तुम क्यों मुझे बाँधना चाहते हो? मैं जितनी स्वंतत्र रहूँगी तुम्हें उतना चाहूंगी।'' कनु कैसे विश्वास दिलाए कि वह केशव के सिवा किसी को प्रेमिल भाव से नहीं देखती...देखना चाहती भी नहीं। जिस दिन ऐसा करना होगा उस दिन किसी के भी रोके नहीं रुकेगी। एक व्यक्ति को जबरन भले ही रोक लियाजाए लेकिन मन पर निषेध नहीं लगाया जा सकता न। केशव उसकी आँखें क्यों नहीं पढ़ पाता।


           हाँ, ठीक है रोहित से बात करने को उसने मना किया। था। लेकिन वह तो हर लड़के में कोई न कोई कमी निकाल । कर उससे बात करने को मना कर देता है। लेकिन कोई खुद आए तो क्या उसे दुत्कार दे? उससे बात न करे? क्या प्रेम का अर्थ कारागार में रहना है। क्यों हम अपना-अपना जीवन जीते हुए भी प्रेम में नहीं हो सकते? अपने प्रिय की इच्छा का सम्मान करने में और उसकी हर बात को सही-गलत का ध्यान किए बगैर मानने में कुछ तो भेद होता होगा।


          “तुम ठीक कहती हो मैं तुम्हें नहीं समझता।'' कनुप्रिया का ध्यान केशव की तेज़ आवाज़ से टूटा। ‘‘परंतु अब अच्छे से समझने लगा हूँ। तुम्हारे लिए मात्र में पर्याप्त नहीं हूँ। तुम्हें अपने आसपास लोगों का एक ज़खीरा चाहिए। उनमें से एक मैं हूँ। मैं तुम्हारे लिए क्या हूँ यह भी ठीक से समझ आ गया है।'' वह अचानक आक्रामक हो खड़ा हो गया था। ‘‘सेक्सटॉय हूँ मैं तुम्हारा। जब आवश्यकता हो तब प्रयोग कर लो। प्रयोजन सिद्ध हो जाए तो.....। लेकिन अब नहीं। अब मैं खुद को तुम्हें नहीं सौंपेंगा।''


         “तुम कैसी भाषा बोल रहे हो केशव। हम साथ हुए क्योंकि हम दोनों ने यह चाहा।'' कनुप्रिया हतप्रभ थी। केशव यह क्या कह रहा था। क्या वह उसे बस इतना ही समझता है। दोनों के प्रथम संसर्ग की स्मृति उसके आगे तैर गई। केशव झिझक रहा था। उसे चोट पहुँचाने के भय से उसे संकोच हो रहा था। कनुप्रिया ने उसे चूमते हुए कहा था, “शारीरिक पीड़ा सहनीय होती है यदि हृदय प्रेम से परिपूर्ण हो।''


          “तुम्हें बाद में किसी प्रकार का पछतावा तो नहीं होगा। मुझे अपराधी तो नहीं ठहरा दोगी।'' केशव ने पूछा था।


           “क्या हम अपराध कर रहे हैं? हम सिर्फ प्रेम कर रहे है?'' 


            और आज केशव कह रहा था, “तुम कितनी डेस्पेरेट हो यह प्रथम दिन ही मालूम हो गया था। क्या प्रमाण है तुम उसके बाद कभी किसी और के साथ नहीं हुई।''


            कनु यह सुनकर आहत थी। ‘‘मैं तुम्हारे सम्मुख अपनी आत्मा अनावृत्त कर खड़ी हूँ और तुम प्रमाण और साक्ष्यों में प्रेम तलाश रहे हो। सुनो, प्रेम में पड़कर कोई खुद को हमें सौंपता है तो हमें बजाए उस सौंपे हुए को तहस-नहस करने के, कोमलता से सहेज लेना चाहिए।''


            “नष्ट तो तुमने कर दिया है...सब कुछ। तुम्हें मेरा प्रेम क्यों नज़र नहीं आता। क्यों तुम्हारे लिए कोई और इतना ज़रूरी हो जाता है कनु। क्यों तुम मात्र मुझे नहीं चुन पाती। क्यों तुम्हें चुनाव करना पड़ता है। मेरे लिए तो तुम्हारे अतिरिक्त कोई मायने ही नहीं रखता। लेकिन तुम पूरा संसार अपने इर्दगिर्द चाहती हो। मैं कितनी ही बार चला गया परंतु अपने आत्म सम्मान को ताक पर रख हर बार इसीलिए लौट आया कि तुमसे प्रेम है। लेकिन अब न लौटना ही उचित है।'' कहते हुए केशव एक कुर्सी पर ढह गया था।


           “बात ज़रूरी या गैर जरूरी की नहीं है केशव। बात मेरे पर्सनल स्पेस की है। मैं तुमसे प्रेम करती हूँ पर मैं खुद से भी प्रेम करती हूँ। पहाड़ आकाश के विस्तार को रोकते प्रतीत होते हैं पर आकाश अनंत है। उसी प्रकार हमारा प्रेम भी कालातीत है। कोई हमारे बीच आ ही नहीं सकता। क्यों तुम्हारा प्रेम शर्तो में बँधा है। क्यों इतने संकीर्ण हो उठते हो तुम कि तुम्हें मेरा किसी से बात तक करना स्वीकार नहीं। यदि मुझे तुम्हें छलना ही होता तो यहाँ क्यों खड़ी होती मैं। जिस प्रकार तुम स्वयं को समझने का दावा करते हो उसी प्रकार मुझे क्यों नहीं समझ । पाते तुम। क्या मैं तुम्हारा ही अंग नहीं।'' प्रेम कोई भूखा पशु तो नहीं जो शिकार को अपने जबड़ों में कसे रखना चाहे। लेकिन केशव ऐसा ही व्यवहार कर रहा है...बहुत समय से। स्वयं भी तनाव में रहता है। उसकी आँखों के नीचे के काले घेरों को देखते हुए उसने सोचा।


         “भाप और कोहरे का रंग ज्यूँ एक सा होता है मगर उनकी तासीर अलग होती है वही हाल हमारे प्रेम का है। हम साथ हुए तो भी खुश नहीं रह सकेंगे।'' केशव ने अपना बैग खोला और एक छोटा फोल्डर निकाला। उसमें सैकड़ों छोटे- छोटे कागज़ रखे थे। उसने उन्हें एक-एक कर निकाल फाडूना शुरू कर दिया। कनुप्रिया ने एक कागज़ उठा कर देखा। वह एक नाटक का टिकट था जो उन्होंने पहली बार साथ देखा था। और जहाँ केशव ने उसका हाथ थामा था। उसी दिन दोनों का जीवन बदल गया था।


          दूसरा बिल होटल के एक कमरे का था। बहुत सारे । मतभेदों के बाद तय हुआ था कि उन्हें एक-दूसरे के साथ इस । तरह से वक्त बिताना चाहिए। शहर के बाहर जाना कठिन था पर उसकी ज़िद से पराजित हो उसने हामी भरी थी। केशव ने प्यार से अनुरोध किया था, “मैं तुम्हारे साथ एक दिन इस तरह बिताना चाहता हूँ जैसे वह हम दोनों का घर है। मैं तुम्हें करीब से महसूस करना चाहता हूँ। हम एक घर में पता नहीं कब रह पाएँगे इसलिए मैं तुम्हारे साथ सब कुछ जीकर देखना चाहता हूँ।'' कनुप्रिया के असमंजस को देख उसने सरगोशी की थी, “प्रेम कर चुकने के पश्चात् फिर से दो लोगों में विभाजित हो जाना मुझे पसंद नहीं। तुम्हारी देह को निर्वस्त्र करने के पश्चात् मैं उस पर अंकित नख क्षत, दन्त क्षत गिनते हुए उसे फिर सुसज्जित करना चाहता हूँ।''


         ऐसी अनेक स्मृतियों को सहेज रखा था उस फोल्डर ने। केशव ने चॉकलेट के रैपर तक संभाल रखे थे। कैसा कोमल और संजीदा मन पाया है केशव ने। वह अवश्य ही छोटी बातों से आहत हो जाता होगा। लेकिन युवा देह में बच्चों-सा मन लिए वह कब तक आपसी तालमेल को टालता रहेगा। कभी तो उसे सीखना ही होगा। रोज-रोज के झगड़ों से वह तंग। आ चुकी है। जिन बातों का अस्तित्व ही नहीं उन बातों का स्पष्टीकरण देते-देते थक चली है वह।


        कनुप्रिया ने झपट कर फोल्डर उठाया और सीने से लगा लिया। ‘‘क्यों कर रहे हो ऐसा? इतनी सी बात के लिए! मैं तुमसे प्रेम करती हूँ और तुम यह जानते हो। जीवन में अधिकतर जटिलताएं हम खुद पैदा करते हैं और फ़िर बेवजह । उन्हें ढोते चले जाते हैं। कभी ज़िम्मेदारी की तरह, कभी मजबूरी में तो कभी पछतावे के तौर पर। हमारा प्रेम का अंत इस रूप में मत करो। ब्रेक अप का अर्थ जानते भी हो तुम।'' जो क्षण हमारे लिए अनायास आता है वह क्षण कितने क्षणों से बंटा है यह उसकी निर्मिति करने वाला भी नहीं जानता होगा।


         “फोल्डर वापस कर दो कन्।'' थके लहजे में केशव ने कहा। ‘‘तटस्थ हो जाना सरल नहीं। तटस्थता चुन लेने के पश्चात् भी कुछ बातें आपको विचलन से भर देती हैं। दु:ख आपकी आत्मा में घुल जाता है। मैं प्रयत्न करूंगा कि मैं तटस्थ हो सकें लेकिन यह तटस्थता हमारे प्रेम को लील जाएगी। हम साथ नहीं रह सकेंगे कन्। तुम्हारी प्राथमिकताएँ अलग हैं और मेरी अलग। मैं कोशिश कर देख चुका हूँ लेकिन हम दोनों का बदलना न संभव है न जायज्।'' जिस व्यक्ति से हम प्रेम करते हैं जब उसी से प्रेम नहीं रह जाता तब उसे बदलने का हठ ही प्रेम को कब तक ढो पाएगा।


          प्रेम एक चोट में मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। वह हर चोट पर सर उठाता है। वह चोटिल होकर और फलता है। प्रेम वृद्ध भी नहीं होता। अंतिम साँस लेने से पहले तक वह यौवन के मद में चूर रहता है। प्रेम चिरयुवा है उन विरल प्रजातियों की भांति जो अपनी आयु पूर्ण कर मृत्यु अवश्य प्राप्त करते हैं पर जीर्णता उन्हें छू तक नहीं जाती। उन दोनों का प्रेम भी शिखर पर था। लेकिन बहुत-सी चोटें एक-दूसरे और स्वयं को देने के पश्चात् अब दोनों के प्रेम का अंतिम समय आ चला था। शिखर पर से मृत्यु प्राप्त किए प्रेम को ढलान की नियति नहीं सहनी होती।


          “खुश रहना।'' उसने कन् के माथे को चूम लिया।  कैसा जीर्ण-सा चुम्बन था जैसे किसी ने झरे हुए फूल को फिर से डाली पर सजाने का प्रयत्न किया हो।


            झुके कन्धों से धीमे कूदम रखता हुआ वह बहुत उदास लगा। यूं लगा जैसे वह आगे जाने की बजाए पीछे लौटना चाहता है। लेकिन अंततः हम वही करते हैं जो हम पहले, बहुत पहले स्वीकार कर चुके होते हैं अथवा अवचेतन में धारण किए होते हैं। उसने मुड़ कर देखा। उसकी आँखें हमेशा से कुछ छोटी थीं। कई बार अपने इर्द-गिर्द ईजाद की हुई भ्रम की दीवारों के बीच हम खुद को जानने वाले आख़िरी व्यक्ति होते हैं। कनुप्रिया ने उसे रोक कर गले लगा लेना चाहा पर ऐसा करने से शायद उसकी उदासी और बढ़ जाती। उसने उसे जाने दिया।


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