शिक्षा : एम.ए., पी.एच-डी., बी. एड. जन्म : 20 मई 1971 नवादा-805110 (बिहार) क्षेत्र : लेखन, अध्यापन, चित्रकर्म एवं रंगकर्म । कृति : जयनंदन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व (आलोचना)
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जब से मेरी माँ गुजरी है, तब से मेरे बाबूजी के दिन-रात का चैन उड़-सा गया है। एक तरह से उनकी जिंदगी के सारे तार उलझ कर रह गए हैं। पूरे पैंतीस वर्षों तक डाकबाबू की नौकरी करने के बाद रिटायरमेंट लेकर अपने बाल-बच्चे, नाती-पोते एवं अपनी जीवन-संगिनी के साथ जिंदगी का असली आनंद लेने के लिए उन्होंने अपनी सारी तरुणाई अपने सपनों का एक घर बनाने में लगा दिया था।
आज उसी घर के ओसारे में एक किनारे पड़े ढीले ओधमान वाले खटोले पर वे किसी फंकी हुई चीज की तरह अपने बचे हुए दिन एवं राते काट रहे थे, जिनके अगल-बगल घर के फालतू सामानों के ढेर पड़े थे - बिल्कुल बाबूजी की तरह।
'आज किसना की माँ रहती तो अपनी शादी के पूरे तीस साल तो हो ही जाते।'' शायद इसी सोच के कारण बाबूजी को मेरी माँ की याद आ रही थी। उसके बारे में सोचते-सोचते उनकी आँख का कटोरा तो डबडबा गया लेकिन गला सूखने लगा था। बस इसी कारण उनसे यह गलती हो गई कि वे अपने पोते को अपना जान कर पुकारने लगे “छोटू...बेटा छोटू...अरे एक लोटा पानी दिहां (देना) बेटा।''
कुछ देर क्या, बहुत देर तक कोई जवाब नहीं मिलने के बाद बाबूजी ने आँगन की ओर अपने पाँव बढ़ा दिए यह कहते हुए कि - "छोटू...अरे एक लोटा पानी चाही बेटा।'' ।
...कि जाने किधर से मंझली की फुफकार सुनाई पड़ी - ‘‘मिल रहलो पानी, जरी सबर (सब्र) नञ कर सकला हल ? बेटी-पुतहू के घर है आउ हनहना के घुसल आ रहला हा। जरी सन (थोड़ी-सी) देरी में कि परान (प्राण) जा रहलो हल?''
इतना सुनने के बाद बाबूजी उलटे पाँव अपने कमरे में आकर खटोले पर पसर गए। वे सोचने लगे, कितना अच्छा होता कि सचमुच मेरे प्राण चले ही जाते। कम-से-कम इस नरक से छुटकारा तो मिल जाता।।
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आज तीस तारीख है। शायद इसी कारण बाबूजी को सुबह-सुबह घी लगी। रोटी और भिण्डी की सब्जी के साथ एक कटोरा दूध भी मिल गया था। हाथ में पानी का लोटा लिए पोता बार-बार उनकी खुशामद कर रहा था - ‘‘बाबा...उठ जा। हथवा धो ला। दुधवा में कुच्छू (कुछ) पड़ जइतो।''
बाबूजी जानते थे कि एक पेंशन के दिन ही उनका ये मान-आदर जम के होता था। फिर, कल होते ही उनकी जिंदगी में अंधेरा छा जाता था - पूरे उनतीस दिन के लिए।
पेंशन उठाने के दिन एक और खास बात होती थी। वो यह कि उस दिन बाबूजी अपने पुरानी संगी-साथी से मिल बतिया लेते थे। एक-दूसरे से अपने-अपने सुख-दुख बतिया कर मन हल्का कर लेते थे। सबसे अधिक मन हल्का तो बाबूजी का होता था - किरण की माँ से मिल के।।
किरण की माँ से बाबूजी की बातचीत तब से थी, जब से उनके पति डाक-तार विभाग में ही बाबूजी के साथ काम किया करते थे। विभागीय परीक्षा पास करके दोनों ही एक साथ डाकिया से क्लर्की में आ गए थे। बाद में मेरे बाबूजी डाकपाल बन के शेखपुरा चले गए जबकि उनके पति अपनी । बीमारी के कारण अगली परीक्षा पास नहीं कर सके थे। वे नवादा में ही रह गए। दोनों की दोस्ती तब भी बरकरार रही।
बाबूजी शनिवार की रात नवादा लौट आते। उनका हर इतवार उन्हीं के यहाँ बीतता। इस तरह वे हर इतवार का जैसे इंतजार करते रहते। कभी-कभार जिद करके मैं भी बाबूजी के साथ उनके यहाँ चला जाता। किरण की माँ अपने हाथ से ढूँस-ढूंसकर मुझे खिलाती थी - अपने बेटे की तरह।
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आज किरण अपनी ससुराल में बस रही थी जबकि उसकी माँ अपने पति की याद में यहाँ। किरण के पिताजी डायरिया की भेंट चढ़ गए थे। शायद इसी कारण बाबूजी को किरण की माँ से सहानुभूति थी कि मेरा तो बुरा ही सही, लेकिन भरा-पूरा परिवार तो है लेकिन उस बेचारी का कौन है? उनका अपना कोई बेटा नहीं था। सो, शायद मुझमें वह अपने बेटे का चेहरा देखती थी। यही कारण है कि वह भी मुझे अच्छी लगती थीं - अपनी माँ की तरह।
उधर किरण की माँ के मन में भी मेरे बाबूजी के प्रति शायद यही विचार था कि बेचारे कितने हँसमुखिया थे। अब तो इनके चेहरे पर से मुस्कान ही लोप हो गया है। इतना बड़ा परिवार, लेकिन इनका अपना कोई नहीं...बेचारा!
अन्य सारे दिन तो बाबूजी पुराने संगी-साथियों से मिल-बतिया कर, पेंशन लेकर और किरण की माँ से मिलकर अपने जीवन की रिक्तता और अपनों से मिलनेवाले पराएपन एवं खालीपन को भूल, अपने मन को हल्का महसूस कर लेते थे। लेकिन, आज वह बात नहीं थी।
आज उन्हें इस बात का पता चला कि किरण और उसके पति को उसकी माँ और मेरे बाबूजी का मेल-जोल अच्छा नहीं लगता था, और, इसीलिए वे लोग उन्हें अपने घर बुला रहे थे - सदा के लिए। किरण की माँ का इस घर से अपने पति की यादों के रूप में जुड़ाव था, सो उन्होंने उनके पास जाने से मना कर दिया। पता तो यह भी चला कि किरण अपनी माँ के इस चलन से बड़ी दुखी थी और इसी कारण वह अपने इस घर तक को बेच डालने का फैसला कर चुकी थी कि तब तो माँ को उसके साथ चलना ही पड़ेगा।
अपनी जिंदगी की खुशियों के एकमात्र स्रोत पर इस तरह छाई हुई इस काली बदली के बारे में सोच-सोचकर बाबूजी का लगाव से जिंदगी से छूटता ही जा रहा था। उनके आदमी बाबूजी के कभी सहकर्मी थे, साथी थे। इसी कारण उनसे बाबूजी का लगाव था। दोनों एक-दूसरे से सुख-दुख बतियाकर राहत महसूस करते थे। बस इतनी-सी ही तो बात थी और उसे आज के बच्चों ने जाने क्या नाम दे दिया था।
इन्हीं विचारों में खोए बाबूजी पेंशन लेकर घर लौट रहे। थे कि जाने किसने उनका रुपया और पेंशन-बुक का थैला झटक लिया कि पता ही नहीं चला। बाबूजी जोर-जोर से चिल्लाने लगे। उनके चिल्लाने का जब कोई सुफल नहीं मिला, तब वे बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोने लगे। उनके आसपास भीड़ जमा हो गई। लेकिन, अब क्या हो सकता था। बड़े बुझे मन से वे घर लौट आए।
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आँगन में बाबूजी चोर जैसे खड़े थे और बच्चे से जवान तक, घर के सभी लोग ताना मार-मारकर उनका सीना छलनी किए जा रहे थे।
“मुनिया के मइया, करुआ के बाऊ, मिसिर बाबा सभे तो पेनसनमा ले के चल अइलथीं। कहाँ किनको साथे कुच्छू होलइ?'' सँझला बिफर रहा था।
छोटका तो सरासर बाबूजी को ही दोष दे रहा था-''अरे असल बात है कि ई सबसे अलगे चलऽ हथिन...सबके साथे न चलऽ हथिन। ऊ एगो कहावत है ने - लीक लीके सब चले, लीके चले कपूत। लीक छोड़ के तीन चले-शायर, शेर, सपूत।।''
मँझली को जैसे बहुत दिनों से सोची हुई बात को आज ही उगलने का बड़ा अच्छा बहाना मिल गया था - सपूत कहो हो बउआ, सपूत नञ, कानी गाय। कानी गैया के अलगे बथान। ऊ भतरखौकी (पति को खा जानेवाली) से बतियाय से मन भरइ (भरे) तङ (तब) ने? ओकरे (उसी) में देरी हो जा होतइ !"
''हम तो कहऽ हियो दीदी कि बाऊजी अप्पन सभे पैसवा ओहे निरबंसी (निर्वंश) के दे देलथू होत आउ एहाँ आ के ड्रामा कर रहलथं हे।'' सँझली अलग ही अंदाजा लगा रही थी।
सबों के ताने का कारण भी था। उस पेंशन के पैसे से कोई सूट खरीदनेवाला था, तो कोई अपने कमरे में पंखा लगवाने वाला था। सबों की फरमाईश जुड़ी हुई थी उस पेंशन के पैसे से। लेकिन, अब तो सब के सपना में जैसे आँपना (ढक्कन) लग गया था।
उस दिन बाबूजी का दाना-पानी बंद कर दिया गया था। अगले दिन बाबूजी ने अपनी मरजी से भोजन छोड़ दिया था। नतीजा ये हुआ कि वे बीमार पड़ गए। उनकी भूख मर गई थी, जीने के अरमान मर गए थे और अब जैसे वे खुद के मरने का इंतजार कर रहे थे।
उनके दाना-पानी पर तो इस घर में पहले से ही आफत थी, अब उनकी देख-भाल कौन करता...? जाने कैसे इस । बात का पता किरण की माँ को चल गया और अपने आँचल छिपाकर वे चार रोटी ले आई कि अपने दर्द की तरह इसे भी मिल-बाँटकर वहीं उनके साथ ही खाएँगे।
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मैं अपने घर रोह से दूर शहर नवादा में एक छोटी-सी पाठशाला चलाता था और वहीं अपनी पत्नी तथा पुत्र के साथ रहता था।
गर्मी की छुट्टी हो गई थी, सो अपने घर आ गया था। घर आने के बाद अन्य दिनों की तरह मैं सबसे पहले बाबूजी के कमरे में ही घुसा। उनकी हालत देखकर मैं सिहर गया। उनका शरीर सूखकर काँटा हो गया था। हमें देखते ही किरण की माँ उठकर खड़ी हो गई। मैंने पाँव छूए - किरण की माँ के भी और बाबूजी के भी। मुझे देखते ही बाबूजी मुझसे लिपट कर फूट-फूटकर रोने लगे। पूछने पर वे तो टाल गए लेकिन किरण की माँ से मुझे सारी बातों का पता चल गया।
सारी बातें सुनकर मैं भीतर तक हिल गया। मुझे लगाकि उनके साथ होने वाले प्रत्येक दुर्व्यवहार का दोषी मैं ही हूँ, जो उन्हें इन अमरलत्तड़ों के बीच छोड़ दिया। ये लोग इनसे ही हरे-भरे हैं और इन्हीं को सब मिल कर खत्म करने पर पड़े हुए हैं। मेरी पत्नी ने जैसे मेरे मुँह की बात कह दी-''बाऊजी हमरा से जे नीमक-सतुआ बनतो से खिलइबो। चलऽ नवदवे में रहिहऽ।''
बकि बेटा, एहाँ....एहाँ सब कैसे छोड़ के....'' बाबूजी इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी अपने घर को छोड़ कर नहीं जाना चाह रहे थे। ये उम्र ही ऐसी होती है कि आदमी अपनी जन्मभूमि एवं कर्मभूमि को छोड़ कर अन्यत्र नहीं जाना। चाहता है।
लेकिन, नई पीढ़ी उनकी इस चाहत को वही नाम दे देती है जो मंझली बहू दे रही थी-''एहाँ छोड़ के, सीधे-सीधे कहो ने, ई मंगजरौनी (जिसकी माँग उजड़ गई हो अर्थात विधवा) के छोड़ के। अजबे कलजुग हे कि आदमी बुढ़ारी में भी नुक्का-चोरी करे में नञ शरमा हे।''
ये सुन कर गुस्से से फट पड़ा मैं, ‘‘मॅझली, ख़बरदार जो मेरे बाबूजी और इन पर कोई अनाप-शनाप इल्जाम लगाई तो...!''
छोटका भी क्यों चुप रहता, बोल ही पड़ा - “इसमें इल्जाम की क्या बात है? आखिर मेरे घर के मामले में इसे इतना दखल देने की क्या जरूरत है...क्या ये मेरी माँ है?''
बात बर्दाश्त से फालतू हो गई थी। किरण की माँ शायद यही सोच कर वहाँ से जाने लगी थी। मुझसे उनकी बेइज्जती नहीं सही गई और जाने मुझे क्या हुआ कि मैंने उनका हाथ पकड़ लिया। जाने किस भावावेश में मेरे भी मुंह से निकल गया - *“हाँ, ये मेरी माँ है...और सुन लो तुम सब...कि इन्हें मैं बहुत पहले से अपनी माँ मान चुका हूँ और अब सचमुच की माँ बना कर रहूँगा...''
“भइया, आपकी खोपड़ी सड़ गई है क्या? आपने ये सब सोच भी कैसे लिया? मेरी पाँच-पाँच बेटियाँ हैं, कल इनके घर कैसे बसेंगे? समाज क्या कहेगा?'' मॅझला भाई लगभग भड़क उठा।।
सँझले ने तो अपना फैसला ही सुना दिया-“अरे ये तो सब दिन नाटक-नौटंकी करते रहे, अब घर को भी तमाशा बना कर ही दम लेंगे। आपको बाबूजी से बहुत हमदर्दी है तो रहा करे लेकिन सुन लीजिए-मेरे रहते ये सब नहीं होगा...''
“देखिए भाई, आपलोगों का तो अपना-अपना घर बस चुका है-अब मेरा भी ख्याल कीजिए। अभी बाप की ही शादी होगी तो मुझे कौन पूछेगा? ये सब द्वापर युग में ही होता था। दूसरा देवबरत बनिएगा तो घर की मर्यादा का छिया-लेदर हो जाएगा...हॅह...बाबूजी की शादी।''- यह कहते हुए छोटा भाई मुँह बिचकाकर वहाँ से खिसक लिया।
शेष अन्य भी एक-एक करके वहाँ से भुनभुनाते हुए चल दिए और मैं एक क्षण के लिए वहाँ किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में आ गया...लगा कि अचानक-से मैं पूरी दुनिया में अकेला हो गया हूँ। फिर, मैंने खुद को समझाया कि मैं आज की परिस्थिति के ठीक विपरीत एक नया काम करने जा रहा हूँ। अत: विरोध होना तो स्वाभाविक ही है।
सारी जिंदगी हम बाल-बच्चों की खातिर खुद दु:ख उठाने वाले बाबूजी की जिंदगी में हरियाली उगाने के ख्याल से मैंने किरण की माँ और बाबूजी दोनों से बात की।
मेरे इस प्रस्ताव पर खीझ कर ही सही, दोनों ने अंततः मुस्कुरा ही दिया।