कहानी - अलविदा - रामकठिन सिंह

जन्म : 1 फरवरी 1942, ग्राम-ताजोपुर, जनपद-मऊ (उ.प्र.) शिक्षा : एम.एस-सी. (कृषि), पी-एच.डी. (जर्मनी) कार्यक्षेत्र : कई वर्षों तक हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में अध्यापन एवं शोध कार्य, नरेन्द्र देव कृषि विश्वविद्यालय, फैजाबाद में निदेशक (शोध), राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी, नई दिल्ली के सचिव, उपाध्यक्ष आदि पदों पर कार्य करने का अनुभव। सम्प्रति : निदेशक, नन्द एजुकेशनल फाउण्डेशन फार रूरल डेवलपमेंट (नेफोर्ड)


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योगेश्वर प्रसाद जी की अपने मोहल्ले में बड़ी इज्जत थी। छोटे-बड़े सभी उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते। आखिर ऐसा हो भी क्यों न! वे थे ही ऐसे व्यक्ति। सभी के सुख-दुःख में शामिल होना और जरूरत पड़ने पर हर मदद के लिए तैयार रहना तो जैसे उनके स्वभाव के अंग बन गए थे। पर अब वे उस मोहल्ले को क्या, उस शहर को ही छोड़कर जाने वाले थे। वैसे तो मोहल्ले के लगभग आधे दर्जन बुजुर्ग जो उनके साथ रोज सुबह टहलने जाते, अपनी सुबह की चाय योगश्वर बाबू के साथ उनके घर पर पीकर ही अपने-अपने घरों को जाते, पर उस शाम की चाय के लिए उन्होंने खासतौर पर अपने दोस्तों को घर आने की दावत दी थी। उनकी पत्नी ने चाय के साथ-साथ तरह-तरह के पकौड़े और मिठाइयों का प्रबन्ध कर रखा था। मजेदार बात तो यह थी कि किसी को तनिक भनक तक नहीं थी, कि आखिर किस खुशी में इस चाय-पार्टी का आयोजन किया गया है।


     खैर! जब चाय-नाश्ता हो गया तो बात मंगरू चाचा ने ही शुरू की। योगेश्वर प्रसाद जी के बाद यदि कोई दूसरा व्यक्ति उस मोहल्ले में सबसे ज्यादा पापुलर था, तो वह मंगरू चाचा ही थे। मंगरू चाचा मोहल्ले के खुबरी माने जाते थे। मोहल्ले की क्या, पूरे शहर की ताज़ा खबर उनके पास होती, जो वे उन लोगों को बताया करते थे। योगेश्वर जी के लिए तो मंगरू चाचा राम के लिए हनुमान-जैसे थे। उनके घर के बाहर का सारा कामः जैसे बिजली जमा करने से लेकर बैंक से पैसे निकालने तक के सभी काम वे ही करते थे। उनके नाते योगेश्वर जी को बड़ी सहूलियत रहती। इधर-उधर भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ती और सभी काम समय से हो भी जाते। योगेश्वर जी भी मँगरू चाचा का बहुत ख्याल रखते थे। लोगों को आश्चर्य था कि मंगरू चाचा जैसे खुबरी को भी योगेश्वर जी की चाय-पार्टी के राज़ का पता नहीं था। उस दिन मंगरू चाचा ने ही सबसे पहले प्रश्न उठाया,-दद्दा! किस खुशी में यह पार्टी दी है आपने ! मँगरू चाचा योगेश्वर जी को दद्दा कहकर ही सम्बोधित करते थे। योगेश्वर जी ने.एक गहरी साँस ली और कहा, ‘मित्रो! असल में मैं और मेरी पत्नी ने इस शहर को छोड़कर जाने का निर्णय लिया है।' ‘क्या?' जैसे सब एक साथ बोल पड़े थे। योगेश्वर जी ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, 'बात यह है कि हमारे बेटे-बहू चाहते हैं कि चूंकि अब हम रिटायर हो गए हैं, तो यहाँ अकेले रहने की बजाए अच्छा होगा कि हम उनके साथ रहें। हमारे पोता और पोती दोनों का विशेष  तौर पर आग्रह है कि अब हम अपनी बाकी की ज़िन्दगी उनके साथ रह कर ही बिताएँ। इतना कहकर योगेश्वर जी चुप हो गए। उनका गला भर आया था और आँखें छलछला गई थीं। कुछ देर के लिए वहाँ सन्नाटा-सा छा गया। योगेश्वर जी से उम्र । में बड़े पाण्डेय जी ने बात को आगे बढ़ाया, 'योगेश्वर, यह तो सौभाग्य की बात है कि किसी के बेटे-बहू अपने माँ-बाप को अपने साथ रखना चाहते हैं। जैसे-तुम्हारे बेटे-बहू। अन्यथा आजकल के बच्चे अपने माँ-बाप को अपने साथ रखने को कहाँ तैयार होते हैं। अब जबकि तुम्हारे बच्चे तुम्हें बुला रहे हैं, तो तुम जाओ, पर तुम्हारे बिना यह मोहल्ला अनाथ-सा हो जाएगा।' अरे ऐसा न कहें पाण्डेय जी! योगेश्वर रुआंसे होकर बोले। योगेश्वर जी का जाना हमें खलेगा तो बहुत, पर ऐसा थोड़े ही न होगा कि वे अब यहाँ कभी आएँगे ही नहीं। कभी-कभी अपना मकान देखने के बहाने तो इन्हें आना ही पड़ेगा, किसी और ने टिप्पणी की। 'दद्दा नहीं रहेंगे तो क्या हुआ, मैं तो यहीं रहूँगा न। मैं उनके मकान की देखभाल भी करूंगा और मकान का किराया पहुंचाने के बहाने इनसे जाकर । मिल भी लिया करूंगा। क्यों दद्दा! ठीक कह रहा हूँ न।' मॅगरू चाचा ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा। इसी तरह कई अन्य लोगों ने भी अपने-अपने उद्गार प्रकट किए। ऐसा लग रहाथा जैसे यह चाय-पार्टी उनकी बिदाई के लिए रखी गई थी। अन्त में, योगेश्वर प्रसाद ने सबके सौहार्दपूर्ण व्यवहार के लिए धन्यवाद दिया और यह कहकर सबको चौंका दिया कि वे अपना मकान बेच कर ही यहाँ से जाएँगे। उन्होंने बताया कि उनके बेटे का परिवार अभी दो कमरों के किराए के मकान में रहता है। हमारे वहाँ जाने से उन्हें बड़े मकान की आवश्यकता होगी। और फिर जब यहाँ से जाना ही है, तो मकान किसलिए रखना! मकान बेच कर उससे मिले पैसों से हम वहाँ एक बड़ा -- मकान खरीद लेंगे और आराम से रहेंगे।'


      योगेश्वर जी की बात सुनकर वहाँ उपस्थित सभीजन सन्न रह गए। जो लोग यह सोच रहे थे कि मकान के बहाने ही सही, योगेश्वर जी कभी-कभार यहाँ आते-जाते रहेंगे और उनसे मुलाकात होती रहेगी, उनकी यह आस भी टूट गई। सब चुप थे। कोई कुछ बोला नहीं। थोड़ी देर बाद पाण्डेय जी ने । अपने मन की बात कही। उन्होंने कहा, 'योगेश जी! यह तो ठीक है कि आपके बेटे ने आपको अपने साथ रहने के लिए बुलाया है। पर आप अपना मकान बेच कर जाएँ, यह बात कुछ जंचती नहीं है। बुढ़ापे में सहारे के लिए अपने पास कुछ ठोस होना जरूरी है। कौन जाने, कब, कैसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाए! आपने अपना मकान बेचने का जो निर्णय लिया है, वह मुझे सही नहीं लगता। पर निर्णय तो आप ही को लेना है न।' खैर, योगेश्वर जी से बिदा लेकर उनके सभी साथी अपने-अपने घरों को चले गए।


     योगेश्वर प्रसाद जी के मकान की इतनी कीमत मिल गई थी कि उनके बेटे को अलग से पैसों का इन्तजाम नहीं करना पड़ा। तीन कमरों का एक अच्छा-सा फ्लैट शहर के पॉश इलाके में ले लिया गया। एक अच्छाई यह भी थी कि घर के पास ही एक सुन्दर-सा साफ-सुथरा पार्क था, जहाँ योगेश्वर बाबू रोज सुबह-शाम टहलने जाते थे। दादा-दादी के आ जाने से उनके पोता व पोती कुछ ज्यादा ही खुश थे। देखा जाए तो किसी भी परिवार में सबसे करीबी और प्यारा रिश्ता दादादादी और पोते-पोतियों का ही होता है। सुबह-सुबह बच्चों को स्कूल जाना होता। दादी सुबह के नाश्ते और बच्चों के टिफिन तैयार करने में बहू की मदद करतीं। सब काम समय से हो जाता। दादाजी बच्चों को साथ ले जाते और उन्हें स्कूल बस में बैठा आते, और फिर वहीं से पार्क में टहलने चले जाते। धीरे-धीरे वहाँ उनके कई दोस्त भी बन गए थे। अब वे सुबह-शाम अपनी वृद्ध-मण्डली के साथ पार्क में घूमते और घर-परिवार से लेकर देश-दुनिया की राजनीति तक के विषयों पर चर्चा करते। दिन अच्छे बीतने लगे। सोचते, लखनऊ का मकान बेचकर बच्चों के साथ आकर रहने का उनका निर्णय सही था।


    बेटा और बहू दोनों नौकरी करते थे। सुबह निकलते, तो शाम को ही घर लौटते। माँ ने घर के भीतर का और पिताजी ने बच्चों के सारे काम सँभाल लिए थे। वे बच्चों की सारी जरूरतें पूरा करते। चाहे वे स्कूल की किताबें-कापियाँ हों, बैग हों, कपड़े हों, स्कूल की फीस हो अथवा टाफियाँ या चॉकलेट। पहले जब उनकी बहू घर आती, रास्ते से घर के लिए सभी जरूरी सामान जैसे: सब्जियाँ, मिर्च-मसाले यहाँ तक की आटा-चावल-दाल सब लेकर घर आती। पर धीरे-धीरे उसने यह काम बन्द कर दिया। वह अपने ससुर जी को फोन करती और कहती, ‘बाबूजी! मुझे आने में देर हो जाएगी। आप सब देख लीजिएगा; घर के लिए कुछ सामान चाहिए तो मंगा लीजिएगा। मंगा लेने का मतलब था खुद खरीद कर ला देना। धीरे-धीरे यह परिपाटी-सी हो गई। अर्थात्, घर की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेदारी बाबूजी की। बाबूजी को बुरा नहीं लगता। चूंकि उन्हें अच्छीखासी पेंशन मिलती थी, इसलिए वे आसानी से सब काम कर लेते थे। उन्हें अपने बेटे या बहू से कुछ माँगने की जरूरत नहीं पड़ती। पर यह बदलाव यहीं आकर नहीं रुका। पहले बहू जब काम से वापस शाम को घर लौटती, तो हाथ-मुह धो कर किचन में चली जाती। चाय बनाती और कुछ खाने की चीजें भी। फिर सभी लोग साथ में बैठ कर चाय पीते । पर अब उसका रवैया बदल गया था। वह घर में घुसती, अपनी सैण्डिल-चप्पल एक तरफ फेकती और फिर या तो सोफे पर या अपने बैड पर धम्म से गिरती। लम्बी-लम्बी साँसे लेती और फिर कहती, ‘मम्मी जी! बहुत थक गई हूँ। प्लीज़, एक कप चाय बना दीजिए। साथ में कुछ खाने को भी दे दीजिएगा।' मम्मी मना नहीं करतीं। इसमें उन्हें कुछ बुरा भी नहीं लगता। वे चाय बनातीं और कुछ खाने को लेकर अपनी बहू को दे आतीं। धीरे-धीरे यही रूटीन बन गया। सब की जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी पिताजी और मम्मी जी की हो गई थी। इसके बावजूद वे दोनों खुश थे। उन्हें कोई शिकवा-गिला नहीं था।


   इसी आपाधापी में सात-आठ साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला। अब बच्चे बड़े हो गए थे। पोती १० साल की और पोता १२ साल का हो गया था। अब तक तो योगेश्वर जी ही उनका होमवर्क कराते और पढ़ाते रहे थे। पर अब उनको कोचिंग स्कूल में दाखिल करा दिया गया है। बच्चे स्कूल से घर आते, थोड़ा-बहुत नाश्ता करते और फिर कोचिंग के लिए चले जाते। योगेश्वर बाबू तो अभी भी उनको पढ़ा सकते थे, पर बहू को लगता- दादाजी के साथ बच्चे बिगड़ जाएँगे। सीरियस नहीं हो पाएँगे। इसलिए कोचिंग सेण्टर जाना ही उचित समझा गया। एक और समस्या भी सामने आ रही थी। चूंकि बच्चे बड़े हो गए थे, तो दोनों के लिए अलग-अलग कमरों की आवश्यकता लगने लगी थी। बेटे-बहू रात-दिन । इसी सोच में डूबे रहते कि कैसे एक दूसरा बड़ा मकान लिया जाए। एक दिन जब सभी साथ बैठकर डिनर कर रहे थे, तो बहू ने बात शुरू की। उसने कहा, 'हमें अब एक बड़े, चार कमरों वाले मकान की जरूरत है और बच्चों के हित में होगा कि इसका इन्तजाम जल्द-से-जल्द कर लिया जाए। 'तो ले लो एक बड़ा मकान, इसमें दिक्कत क्या है? आखिर तुम दोनों अच्छा कमाते हो, फिर इस मकान की भी अच्छी कीमत मिल जाएगी। इतने में तो एक चार कमरों का मकान मिल ही जाएगा।' ‘पापा, यह इतना आसान नहीं है, जितना आप सोच रहे हैं। आप ही बताइए, यदि हम अपनी सारी कमाई मकान में लगा देंगे, तो बच्चे जो अब बड़े हो रहे हैं, उनकी सारी जिम्मेवारियाँ हैं, उनको हम कैसे निभा पाएँगे !' उनके बेटे ने अपना पक्ष रखा। कुछ देर सब चुप रहे। फिर पापा ने कहा, ‘तो, कुछ लोन ले लो।' पापा की बात रोहन को बिल्कल अच्छी नहीं लगी। उसने कुछ रोष प्रकट करते हुए कहा, ‘पापा, लोन तो मैं कतई नहीं लूंगा! आप खुद सोचिए, हमारे ‘पापा, लोन तो मैं कतई नहीं लूंगा! आप खुद सोचिए, हमारे बच्चे अभी छोटे हैं, हमारी पूरी जिन्दगी शेष पड़ी है, लोन ले लें और ईश्वर न करे


           कि ऐसा कुछ हो, पर यदि कल को मुझे कुछ हो गया, फिर बच्चों का क्या होगा?आप जरा यह भी तो सोचिए।' ‘तो फिर और विकल्प ही क्या है, नया मकान खरीदने का?' पापा ने कहा। कुछ देर फिर सन्नाटा रहा। फिर बहू ने धीरे से कहा, 'एक विकल्प है पापा।' ‘कौन-सा विकल्प?' पापा ने पूछा। बहू ने कहा, ‘पापा जी! आप मुझे गलत मत समझिएगा, पर जैसा मैंने कहा एक विकल्प जरूर है।''तो बताओ न, क्या विकल्प है? इसमें सकुचाने की क्या बात है?' पापा ने कहा। अब जब पापा ने कह ही दिया है कि मैं उस विकल्प के बारे में बताऊँ तो मेरे कहने में कोई हर्ज नहीं है, उसने मन-ही-मन सोचा और कहा, 'बाबूजी! आपने अपनी पेन्शन का एक तिहाई भाग कैश कराया था जिसे आपने फिक्स डिपोजिट में डाल दिया था। यदि वह डिपोजिट तोड़ दिया जाए, तो हमें लोन लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी।' बहू की बात सुनकर योगेश्वर जी दंग रह गए। सोचा, यदि मना करता हूँ, तो बेटा-बहू बुरा मान जाएँगे और यदि हाँ करता हूँ। तो अपने पास कुछ बचेगा नहीं, और खुदा-न-खास्ता कल को कोई जरूरत पड़ गई, तब क्या होगा! वे इसी उधेड़बुन में थे कि उनकी पत्नी ने कहा, “ठीक ही तो कह रही है बहू।इसमें सोचने की क्या बात है। वह पैसा इन्हें दे दीजिए। मकान खरीद लिया जाएगा और इनको लोन भी नहीं लेना पड़ेगा। वैसे भी अब हम दोनों को पैसों की जरूरत ही क्या है? फिर हमारी जरूरतें पूरी करने के लिए बेटे-बहू तो हैं न।' 'हाँ, हाँ। मैंने कब मना किया, ए जब चाहें वह पैसा ले लें। आखिर उस मकान में हमलोग भी तो रहेंगे न।'


     महीने भर के भीतर वे लोग चार कमरों वाले नए फ्लैट में शिफ्ट कर गए। अब दोनों बच्चों का अपना-अपना कमरा था। बच्चे बहुत खुश थे। बेटे-बहू के पास पैसों की कमी तो थी नहीं, सो उन्होंने अपने घर को बड़े सलीके से सजाया। लक्ज़री के सभी सामान मौजूद थे घर में। पर नए घर में आने के बाद भी मम्मी-पापा की जिम्मेदारियाँ यथावत बनी रहीं। धीरे-धीरे उनकी भी उम्र बढ़ रही थी। योगेश्वर जी तो ठीक ठाक थे, पर पत्नी के घुटनों का दर्द बढ़ता जा रहा था। वे भी तो दिन भर घर में चलती-फिरती रहतीं। किचेन में घण्टों खड़ा रहतीं और बच्चों की फरमाइशें पूरी किया करतीं। पर अब उनकी मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं। उनके घुटनों का दर्द जब असहनीय हो गया, तो एक दिन योगेश्वर जी ने रोहन को बताया। अगले दिन रविवार था, रोहन अपनी माँ को एक आथपिडिक सर्जन के पास ले गया। डॉक्टर साहब ने उनके घुटनों की अच्छी तरह जाँच की और उनसे उनकी दिनचर्या के बारे में पूछा। फिर उसने कुछ दवाइयाँ लिख दीं और बतायाकि माँ जी के घुटनों का यथाशीघ्र ऑपरेशन कराना आवश्यक है, अन्यथा वे बैठक हो जाएँगी। डॉक्टर ने बताया कि इस ऑपरेशन में लगभग पाँच लाख रुपए लगेंगे, पर ऑपरेशन के बाद उनका दर्द दूर हो जाएगा और वे अपना रूटीन कार्य आसानी से कर सकेगी।


    डॉक्टर के यहाँ से वापस आ कर मम्मी जी अपने कमरे में जाकर लेट गई। वे कुछ थका-थका महसूस कर रही थीं। योगेश्वर जी उनके लिए किचेन से पानी लेने जा रहे थे, तो देखा कि बेटे-बहू के बेडरूम का दरवाजा आधा खुला है और वे मम्मी के बारे में बातें कर रहे हैं। उन्होंने बहू को कहते सुना, ‘अब पाँच लाख रुपए कहाँ से आएँगे? फिर पाँच लाख कोई पाँच सौ तो होते नहीं! वैसे भी मम्मी जी को कौन-सी मैराथन-दौड़ में भाग लेना है। घर में ही तो रहना है न। हाँ, अगर उन्हें किचेन में काम करने में दिक्कत है, तो हम एक रसोइया रख लेते हैं। हजार-पन्द्रह सौ देना पड़ेगा, वह फिर भी सस्ता पड़ेगा।' ‘बात तो ठीक कह रही हो। रोहन ने पत्नी की हाँ में हाँ मिलाया। बेटे-बहू की बात सुनकर योगेश्वर जी को लकवा-सा मार गया। उनके हाथ से गिलास छूटकर फर्श पर जा गिरा। वे स्वयं गिरते-गिरते बचे, इसलिए कि उनका हाथ सोफे पर चला गया था। गिलास के गिरने की आवाज सुनकर बेटे-बहू बाहर ड्राइंग रूम में आ गए। रोहन ने बढ़कर पापा को सँभाला। ‘क्यों क्या हो गया, चक्कर-वक्कर तो नहीं आ गया था?' रोहन ने पूछा। योगेश्वर जी तब तक सम्हल चुके थे। ‘नहीं, मुझे कुछ नहीं हुआ है, वे सीधे खड़े होते हुए बोले। 'शुक्र है, नहीं तो एक और मुसीबत खड़ी हो जाती, बहू ने मन-ही-मन सोचा।


      दूसरे दिन से खाना पकाने वाली एक मेहरी आने लगी। माता जी को दवाइयों से दर्द कुछ कम हुआ था। वह रोज सुबह-शाम गर्म पानी से अपने घुटनों को सेंकतीं और तेल-मालिश करतीं। इससे भी कुछ आराम मिलता और वे अपने रोजमर्रा के कार्य आराम से कर लेतीं। उनके घुटनों के ऑपरेशन की बात घर में फिर कभी नहीं हुई। अगले कुछ महीने बिना किसी बड़ी परेशानी के बीत गए। पर उम्र का क्या करें! उम्र के साथ छोटी-बड़ी व्याधियाँ तो लगी ही रहती हैं। कुछ समय से उनको साँस सम्बन्धी कुछ समस्याएँ शुरू हो गई थीं। साँस फूलती, खाँसी आती और शाम होते-होते हल्का बुखार चढ़ जाता। घरेलू नुस्खे जैसे- काढ़ा अथवा शहद के साथ अदरख का रस आदि लेने से कोई फायदा नहीं हो रहा था। एक दिन शाम को जब सब ड्राइंग रूम में बैठ कर चाय पी रहे थे और माताजी अपने कमरे में लेटी थीं कि अचानक उनको जोर-जोर से खाँसी आने लगी। यह क्या है, पापा? मैं कई दिनों से देख रहा हूँ, मम्मी को खाँसी आ रही है। आप उन्हें किसी डॉक्टर को दिखा क्यों नहीं देते ? अरे सामने की गली में ही तो डॉक्टर मेहरोत्रा बैठते हैं, अच्छे फिजीशियन हैं, आप माँ को उन्हें दिखा क्यों नहीं देते।' रोहन ने कुछ झुझलाकर कहा। 'ठीक है, कल दिखा दूगा,' योगेश्वर जी ने कहा और अपनी चाय वहीं छोड़ कर एक गिलास पानी लेकर बैडरूम में जाकर पत्नी को दिया। उन्होंने पानी पीया, तो साँस में कुछ राहत मिली। बड़ी देर तक योगेश्वर बाबू चारपाई पर बैठकर पत्नी का सिर सहलाते रहे।


    दूसरे दिन चाय-नाश्ते के बाद जब सब चले गए, तो योगेश्वर जी अपनी पत्नी को लेकर डॉक्टर मेहरोत्रा के क्लीनिक पर गए। डॉक्टर मेहरोत्रा ने उनकी अच्छी तरह जाँच की और क्या-क्या तकलीफें हैं, उनसे पूछा। फिर उनकी पर्ची पर कुछ दवाइयों के नाम और कई आवश्यक जाँचें लिख दीं। योगेश्वर जी के पास कुल आठ सौ रुपए थे, जिनमें से चार सौ रुपए मेहरोत्रा साहब की फीस और दो सौ पचास रुपए की दवाइयाँ लीं। क्लीनिक में ही लैब थी, सोचा पता कर लें कि जाँच पर कितना खर्च आएगा। काउण्टर पर बैठी लड़की ने उनके हाथ से पर्चा लेकर उस पर लिखी जाँचों के अनुसार हिसाब लगाकर बताया कि कुल ३,२७०/-रु. खर्च आएगा। ठीक है।' योगेश्वर जी पर्ची लेकर पत्नी के साथ घर आ गए। शाम को रोहन जब घर लौटा तो उसने माँ के बारे में पूछा। योगेश्वर जी ने सारी बातें बता दीं। तो ठीक है, कल सुबह ए सब जाँचें करवा लीजिएगा।' पर दूसरे दिन भी जाँच हो नहीं पाई। असल में योगेश्वर जी के पास जाँच के लिए पूरे पैसे नहीं थे। सोचा, अगले हफ्ते जब पेंशन आ जाएगी, तो जाँच करा लेंगे। उस दिन शाम को घर आते ही रोहन ने जाँच के बारे में पूछा। ‘जाँच हो नहीं पाई !' पिताजी ने धीरे से कहा। ‘पर क्यों? जाँच क्यों नहीं हो पाई !' रोहन ने पूछा। योगेश्वर जी चुप रहे, तो रोहन ने फिर वही प्रश्न दुहराया। अब योगेश्वर जी क्या करते, उन्हें बताना ही पड़ा। कि उनके पास पूरे पैसे नहीं थे। उनकी बात सुनकर रोहन गुस्से से लाल हो गया। ‘आपके पास ३,२७०/-रु. नहीं थे? आपको हर महीने ४०-४५ हजार रुपयों पेंशन के मिलते हैं। मैंने कभी आपको कोई बड़े पैसा वाला काम करते देखा नहीं। फिर इतना सारा पैसा जाता कहाँ है? क्या आप अपनी पेंशन से ऐसे छोटे-मोटे इलाज भी नहीं करवा सकते ?' योगेश्वर बाबू चुप रहे। आखिर क्या कहते ! क्या रोहन को पता नहीं है कि घर के सारे खर्चे के साथ-साथ बच्चों की फीस, कापी-किताबों से लेकर उनके कपड़े और रोज की फरमाइशें सभी कुछ वे अपनी पेंशन के पैसों से ही पूरा करते हैं। जब से वे यहाँ आए हैं, अपने अथवा अपनी पत्नी के लिए तो उन्होंने दो पैसे की भी कोई चीज नहीं खरीदी। खरीदते भी कैसे! महीना बीतते-बीतते पेंशन का सारा पैसा तो खर्च हो जाता है। हजार-पाँच सौ रुपए भी नहीं बचते। उन्हें याद आया जब वे अकेले पत्नी के साथ लखनऊ में रहते थे, तो पैसों की कमी का एहसास उन्हें कभी हुआ ही नहीं। हमेशा कुछ पैसे उनके बैंक में पड़े रहते। इसके बावजूद कि उनके यहाँ तो रोज ही सुबह-शाम मित्र-मण्डली इकट्ठा होती और चाय-नाश्ते का दौर चलता रहता; पिकनिक मनती, और कभी-कभी पूरा ग्रुप साथ में सिनेमा देखने जाता। ‘कितने खुश थे तब हम लोग'। उन्हें याद आया तो उनकी आँखें नम हो आईं। यहाँ जब से अपने बेटे के पास आए हैं, उनकी जिन्दगी बस घर की चारदिवारी में बन्द होकर रह गई है; जबकि बेटे-बहू, और कभी-कभी बच्चे भी, बाहर खाना खाने और घूमने


                                                                                                              


जाते रहते हैं। पर मम्मी-पापा को घर की रखवाली के लिए घर पर ही रहना पड़ता है। वे अभी इन्हीं विचारों में खोए हुए थे कि रोहन गुस्से में पैर पटकता हुआ वहाँ से उठ कर अपने बेडरूम में चला गया और बड़ी देर तक न जाने क्या-क्या बड़बड़ाता रहा।


     थोड़ी देर बाद योगेश्वर जी भी उठ कर अपने कमरे में चले गए। पत्नी ने देखा कि उनका चेहरा बहुत उतरा हुआ है। उन्होंने उनके कंधे पर हाथ रख कर ढाँढस बंधाया। योगेश्वर जी ने सोच लिया था कि अब उन्हें क्या करना है। पढ़ने-लिखने का शौक तो उन्हें पहले से ही बहुत था। उनकी बड़ी इच्छा थी कि रिटायरमेण्ट के बाद वह अपने पठन-पाठन और लेखन पर ध्यान देंगे। पर उन्हें समय ही नहीं मिला। उन्होंने अपनी इस रुचि को साकार करने का संकल्प लिया और बहुत सोचसमझ कर आगे की योजना बनाई। उनकी पत्नी भी उनकी योजना से सहमत थीं। अपने एक मित्र के सहयोग से उन्होंने सारा इन्तजाम कर लिया था। एक दिन जब उनके बेटे-बहू काम पर चले गए और बच्चे स्कूल चले गए, तो उन्होंने टैक्सी बुलवाई और निकल पड़े अपने गन्तव्य की ओर।


     रोज की भाँति बच्चे लगभग तीन बजे घर आ गए थे। दरवाजे पर लगा ताला देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए। दादा-दादी तो घर छोड़कर कभी कहीं जाते नहीं, फिर आज क्या हो गया! खैर, उन्हें पता था कि घर की चाभी कहाँ रखी जाती है, इसलिए उन्हें ताला खोलकर घर में घुसने में कोई दिक्कत नहीं हुई। भूख बहुत तेज लगी थी, सो उन्होंने बिस्कुट खाकर पानी पीया। सोचा आज घर में कोई नहीं है, थोड़ी देर टी.वी. ही देख लिया जाए। टी.वी. सेट मम्मी डैडी के बेडरूम में लगा हुआ था। बेडरूम में जाकर, रिमोट से टी.वी चालू कर वे बेड पर बैठे ही थे कि उन्हें वहाँ एक लिफाफा दिखाई पड़ा। लिफाफा खोलकर जब उन्होंने उसमें रखे कागज को पढ़ा, तो उनके होश उड़ गए। पत्र में लिखा था,-हम लोग घर छोड़ कर जा रहे हैं। हमें हूँढने की कोशिश मत करना। बच्चों का ध्यान रखना। ईश्वर तुम लोगों को सुखी रखे- योगेश्वर प्रसाद।


    पत्र पढ़कर बच्चे घबरा गए। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। वे अपने दादा-दादी को बहुत प्यार करते थे। दादा-दादी का इस तरह घर छोड़ कर चले जाना उनके लिए एक पहेली-सा लगा। उन्होंने अपने पापा को और फिर अपनी मम्मी को फोन कर दादा-दादी का घर छोड़ कर चले जाने के बारे में बताया। न तो रोहन को और न ही उसकी पत्नी को विश्वास हुआ कि मम्मी-डैडी ऐसा भी कर सकते हैं। पर ऐसा ही हुआ था। वे अपने-अपने ऑफिस का काम छोड़ कर जल्दी ही घर पहुँच गए। बच्चे अपनी मम्मी-डैडी से चिपक कर रोने लगे। रोहन ने मम्मी-डैडी का पत्र पढ़ा और अपनी पत्नी की ओर बढ़ा दिया।


     किंकर्तव्यविमूढ़ रोहन और उसकी पत्नी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें! पिताजी के बारे में किससे पूछे कि वे कहाँ गए हैं। शायद अपनी पुरानी जगह लखनऊ या फिर बुआ के घर। तीसरी कोई संभावना नहीं दिखती। रोहन ने मन-ही-मन सोचा। पर उसने फोन करके पता करना सही नहीं समझा। क्योंकि हजारों सवाल खड़े हो जाएँगे। पुलिस के पास गुमशुदगी की रपट लिखाना भी उनके लिए मुसीबत का कारण बन सकता था। पुलिस भी कितने सवाल करेगी और क्या हम उनके जवाब दे पाएँगे? नहीं। उसने सबसे पहले लखनऊ और फिर अपने बुआ के यहाँ जाकर खुद जानकारीप्राप्त करने की योजना बनाई। दूसरे दिन सुबह ही वह लखनऊ के लिए निकल पड़ा। वह उसी मोहल्ले में पला-बढ़ा था। वहाँ के सबलोग उसे जानते थे। अतः सबकी नजरों से बचता- बचाता वह सीधे पाण्डेय जी के घर पहुँचा। रोहन को देखकर पाण्डेय जी फूले नहीं समाए। ‘कैसे हो रोहन बेटा! कितने वर्ष हो गए तुम्हें देखे! योगेश्वर जी कैसे हैं, स्वस्थ हैं न। क्या उन्हें कभी हमारी याद नहीं आती?' पाण्डेय जी के प्रश्न से रोहन को यह ज्ञात तो हो गया था कि उसके मम्मी-पापा यहाँ नहीं आए हैं। कुछ समय वहाँ बिताकर उसने पाण्डेय जी से विदा लिया। चलते-चलते पाण्डेय जी ने रोहन से कहा था, कि कुछ दिन के लिए ही सही। अपने मम्मी-पापा को एक बार यहाँ जरूर भेजना। ‘ठीक है अंकल' रोहन ने सक्षिप्त, उत्तर दिया। लखनऊ से ही वह अपनी बुआ के घर इलाहाबाद चला गया। पर वहाँ भी पापा के बारे में कोई खबर नहीं मिली, तो वह अपने घर कानपुर लौट आया। अन्त में, उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा। वे जानते थे कि ज्यादा खोज-विनोद उनके लिए घातक सिद्ध होगी। धीरे-धीरे समय बीतता गया और उनके मम्मी-पापा उनकी यादों से ओझल हो गए।


    इस बात को बीते कई वर्ष हो गए थे जब योगेश्वर जी लखनऊ शहर छोड़कर अपने बेटे के पास चले गए थे। लखनऊ के लोग तो उन्हें भूल-से गए थे। अचानक एक दिन मंगरू चाचा को एक चिट्ठी मिली जो ऋषिकेश से भेजी गई थी। मंगरू चाचा को काफी हैरानी हुई थी चिट्ठी पाकर। ‘ऋषिकेश से चिट्ठी कौन भेजगा मुझे'। लिफाफा खोल कर जब उन्होंने पत्र को ऊपर-नीचे देखा तो पता चला कि पत्र उनके दद्दा योगेश्वर जी ने लिखा है। मंगरू चाचा की खुशी का ठिकाना न रहा। वे जल्दी-जल्दी पत्र पढ्ने लगे। पत्र में उनके लखनऊ छोड़ने के दिन से लेकर आगे के दिनों तक की कहानी विस्तार में लिखी हुई थी। जैसे-जैसे पत्र आगे पढ़ते गए, वैसे-वैसे मँगरू चाचा का रोष बढ़ता गया। अपने बच्चों का घर छोड़कर चले जाने के पीछे के कारणों को जानकर मंगरू चाचा का खून खौल उठा। ऋषिकेश में एक गुमनाम जिन्दगी, किसी आश्रम में आध्यात्म व योग का अध्ययन और अभ्यास, प्रवचन और प्रभु-सेवा से लेकर योगेश्वरानन्द बनने तक की यात्रा का जिक्र किया गया था उस पत्र में। वे पत्र पढ़ते जा रहे थे और उनकी आँखों से आँसुओं की धार बहती जा रही थी। पत्र की अंतिम पंक्तियाँ पढ़ते-पढ़ते मंगरू चाचा को बेहोशी छाने लगी थी। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि उनके दद्दा अब इस दुनिया में नहीं रहे। हाँ, यही लिखा था उन्होंने अपने पत्र की अंतिम पंक्तियों में। ‘पत्र पढ़कर हमें ढूंढने के लिए परेशान मत होइएगा, क्योंकि यह पत्र आपको मेरी मृत्यु के पश्चात् ही प्राप्त हो पाएगा, उसके पहले नहीं। अलविदा! मेरे दोस्त ‘‘योगेश्वर।''


                                                                                                        सम्पर्क : 1, देवलोक कालोनी, चर्च रोड, विष्णुपुरी, अलीगंज,


                                                                                                          लखनऊ-226022, उत्तर प्रदेश, मो.नं. : 9721719736