अपनी बात -गांधी और लेखन के सरोकार - गोपाल रंजन,

गोपाल रंजन,


सृजन सरोकार ने एक वर्ष पूर्ण करने के बाद अगले वर्ष में प्रवेश कर लिया। एक वर्ष के अल्प समय में ही इसने अपने पाठकों का भरपूर प्यार अर्जित किया है। आज जबकि साहित्य के लिए विपरीत परिस्थितियां सामने हैं, किसी पत्रिका का अपने पूरे कद में उपस्थित रहते हुए अपनी यात्रा को आगे बढ़ाना कम जोखिम भरा नही है परन्तु सुधी पाठकों, संवेदनशील रचनाकारों और उत्साही सहयोगियों के साथ ने इसमें निरंतर ऊर्जा भरी है जिससे आगे और आगे जाने की आकांक्षा प्रबल होती जा रही है, कठिनाइयां पाथेय बनती जा रही हैं।


       किसी भी पत्रिका का प्रकाशन धारा के विपरीत तैरने का प्रयास है। आज भी सार्थक और जनपक्षधर लेखन की कमी नहीं है परन्तु सार्थक मंच की कमी के कारण उस लेखन से पाठकों का परिचय पूरी तरह नहीं हो पा रहा है। सामान्य तौर पर यह कहकर हम अपना पीछा छुड़ा लेते हैं कि साहित्य के प्रति कितने लोगों की रूचि है? हम किसके लिए रचनाओं को सामने लाने की कोशिश करें? व्यवस्था से टकराकर अपनी सुविधाओं को तिलांजलि देकर हम क्यों पानी पर लाठी मारें? यह नकारात्मक सोच अपने आप में हमारी हताशा, हमारी कायराना सोच और जन के प्रति गैर जिम्मेदारी का परिचायक है। सच्चाई यह है कि हर कठिन दौर में लेखन अपनी ऊँचाइयों पर गया है। आज भी उस लेखन की जरूरत है जो इस पूंजीवादी व्यवस्था से टकरा सके, लेकिन टकराने के लिए ताकतवर लेखन की जरूरत है, जन सरोकारों से प्रतिबद्ध और वैज्ञानिक सोच से लैस लेखन की।


    आज के इस दौर में जब गांधी पूरी तरह नकारे जा रहे हैं, उनकी प्रासंगिकता और बढ़ गई है। विडम्बना यह है कि पोस्टरों में गांधी को चिपका कर उनको महज नारों में सीमित करने की साजिश हो रही है। उनकी उन काल्पनिक बातों पर ही सबसे अधिक चर्चा हो रही है जो पूँजीवादी व्यवस्था को पूरी तरह उपयुक्त लगता है, उनकी बुनियादी सोच का तो कहीं जिक्र ही नहीं है। गांधी का सपना एक ऐसी व्यवस्था कायम करने का था जहां मनुष्य को मनुष्य की तरह ही बरता जाए। एक ऐसा समाज बने जिसमें किसी को किसी की दया की जरूरत ही न हो। ऐसा तभी संभव है जब गांधी की आर्थिक नीतियों पर अमल किय जाए। परन्तु यह तो व्यवस्था के लिए कहीं से भी सुविधाजनक नहीं है, गांधी की नीतियां तो पूंजीवाद के विरोध में है। फिर यह सोचना कि गांधी को याद करने का मतलब उनमें विश्वास व्यक्त करना है, मूर्खतापूर्ण है।


     गांधी १९४८ में नहीं मरे थे, उन्हें तो लगातार तिल तिल मारा जा रहा है। पूरी दुनिया दो हिस्सों में बंटी है। यह विभाजन व्यापक है। शोषक और शोषित, अमीर-गरीब और ऊंच-नीच : खासकर भारत जहां गांधी सबसे अधिक तस्वीरों में है, यह विभाजन बड़ा स्पष्ट है। एक हिस्से को यह एहसास कराने का प्रयास कुछ हद तक सफल प्रयास हो रहा है कि हम तुम्हारे प्रभु हैं और तुम्हारा कल्याण हम ही कर सकते हैं। तुम्हारा स्थान पैरों के पास है, भले ही सारे संसाधन तुम्हारे हो परंतु उनका उपभोग करने का अधिकार सिर्फ हमारा और हमारे वर्ग-बन्धुओं का है। हां, यदि तुमने अपने संसाधनों पर हक जमाने की तनिक भी कोशिश की तो तुम्हें न केवल तुम्हारे अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा वरन तुम्हारे जीने का हक भी सीमित कर दिया जाएगा।


    बीसवीं सदी के अंतिम दशक में इस षड्यंत्रकारी वर्ग के लिए बड़ा मुफीद दौर आया और सभी खिड़कियां खोल दी गई। वैश्वीकरण का सूत्रपात कर पूंजीवादी व्यवस्था को आधिकारिक रूप से पूरी तरह स्थापित कर दिया गया। यद्यपि पहले भी यही व्यवस्था कायम थी परंतु तब तक समाजवाद का मुलम्मा चढ़ा हुआ था। एक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना का शोर था। परंतु नई आर्थिक नीतियों के लागू होने से खुलकर खेलने का माहौल उपलब्ध हो गया। अर्थव्यवस्था मांग केन्द्रित हो गई और इस बात की कोई परवाह नहीं की गई कि कितनी और किस उद्देश्य के लिए मांग को उचित और वांछनीय माना जाए। इसका परिणाम यह हुआ है कि ऐसी परियोजनाओं और प्रक्रियाओं में वृद्धि हुई है जिनकी पारिस्थिकी और सामाजिक लागतें बहुत नुकसानदेह है। आर्थिक वैश्वीकरण की नीतियों में यह शामिल था कि आत्म निर्भरता के एक आत्मकेन्द्रित मॉडल की बजाए निर्यात और आयात पर पहले से ज्यादा ध्यान दिया जाएगा, विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों को विदेशी निवेश के लिए खोला जाएगा, नियमन व्यवस्था का उदारीकरण किया जाएगा और निजी क्षेत्र में निवेश की जगह निजीकरण को बढ़ावा दिया जाएगा। वैश्वीकरण के बाद पिछले लगभग तीन दशक में यह प्रक्रिया और भयावह हो गई है। आयात बढ़ा है, निर्यात कम हुआ है। यही नहीं, निर्यात की अधिक मात्रा कच्चे माल की होती है जबकि विलासिता के उपभोक्ता सामान का आयात बढ़ा है। आज हालत यह है कि उद्योग बंद हो रहे हैं, श्रम कानूनों का सरलीकरण हुआ है, बेरोजगारी बढ़ी है, क्योंकि माल तैयार करने की तुलना में माल आयात करना सस्ता सौदा है। इस प्रक्रिया में पूरा देश गैर जरूरी सामान का कूड़ेदान बनकर रह गया है। क्या गांधी इसी भारत का सपना देख रहे थे? क्या उन्होंने कभी सोचा था कि हिन्दुस्तानी लोग पंगु कर दिए जाएंगे और उन्हें भीख और दया पर जीवित रहना होगा! समस्या बड़ी है और जटिल भी। यह सर्वविदित है कि पूंजीवाद में मनुष्य केवल एक पुर्जा होता है, उसे जीवित प्राणी समझा ही नहीं जाता; उसका महज उपयोग किया जाता है। हमें भले खुद मुख्तार का दर्जा देने की घोषणा की जाती हो, सच यही है कि इस व्यवस्था में हमें गंगा औजार बना दिया गया है, जिसकी कोई धड्कन नहीं होती।


    यही वह समय है जब गांधी को जीवित करने की सबसे अधिक जरूरत है। सवाल यह है कि यह होगा कैसे? वैसे तो आजादी की लड़ाई के वक्त गांधी ही सबसे बड़े हथियार थे और उस समय लोगों को यह लग भी रहा था कि भारत की समस्याओं का हुल गांधी की नीतियों में ही निहित है। भारतीय जनमानस और यहां की मिट्टी की समझ जितनी गांधी को थी, शायद अब तक वह समझ और किसी में विकसित नहीं हो पाई, इसीलिए गांधी में लोगों का जो विश्वास था, वह गलत भी नहीं था। केवल आर्थिक नीतियों पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक यथार्थ पर भी उनकी गहरी नजर थी। उन्होंने समाज के अंतिम व्यक्ति तक को अपने हृदय की गहराइयों तक महसूस किया। परन्तु आजादी के बाद ही उनकी नीतियों से विचलन की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई, वह पिछले सात दशकों में पूरी तरह स्पष्ट हो गई। गांधी कहीं गुम हो गए और उनकी तस्वीर बची रह गई।


   महात्मा गांधी को जीवित करने की ताकत केवल लेखन में है और लेखन खुद भंवर में फंसा हुआ है। इसलिए पहले लेखन को उबारना होगा, लेखन के सरोकारों को व्याख्यायित करना होगा और उसकी जिम्मेदारियों को उजागर करना होगा। पूंजीवाद ने लेखन को कब्र में पहुंचाने के बहुत सारे सामान मुहैय्या करा दिए हैं। विचारों को मारने के लिए लेखन को मारना जरूरी है, यह व्यवस्था अच्छी तरह जानती है लेकिन यहीं पर एक रौशनी उभरती है, क्या हम उन्हीं उपकरणों का इस्तेमाल कर उन्हें मात नहीं दे सकते? यदि गहराई से देखें तो यह प्रयास झिलमिलाता हुआ, दूर से दृष्टिगोचर होगा। सार्थक लेखन जिसमें जन पक्षधरता एक जरूरी शर्त है, प्रतिबद्ध पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आ रहा है। उसमें वैचारिक स्पष्टता है और जरूरी सवालों की पड़ताल भी। सवालों की पड़ताल के लिए गांधी के साथ मार्क्स की भी जरूरत है। इनकी दृष्टि से धरातल पर जाने के बाद सब कुछ साफ हो जाता है, लड़ाई लेखन के माध्यम से ही संभव है, स्पष्ट लक्ष्य और पुष्ट वैचारिकता के माध्यम से सार्थक हस्तक्षेप हो सकता है, सृजन सरोकार इससे वाकिफ है और वर्तमान अंक में भी इस हस्तक्षेप की उपस्थिति नजर आती है।


    पिछले दिनों मित्र कवि, पत्रकार मजीद अहमद अचानक हमसे विदा हो गए। मुस्कराता चेहरा जिसे देखते ही मन प्रसन्न हो जाता था जिनसे संघर्ष की प्रेरणा मिलती थी, वही लड़तेलड़ते हार गया; अपने दु:ख को कभी साझा ही नहीं किया। सृजन सरोकार ही नहीं, साहित्य के लिए भी मजीद अहमद का जाना बहुत बड़ी क्षति है। नमन!