आलेख - लोक साहित्य में प्रकृति विमर्श - डॉ. सत्यप्रिय पाण्डेय

लोकसाहित्य विमर्शकार एवं असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, श्यामलाल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय


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‘निमिया के पेड जिनि काटेउ मोरे बाबा निमिया चिरैया बसेर' कहने वाला समाज पर्यावरण को लेकर आज के तथाकथित शहरी और बौद्धिक वर्ग से ज्यादा ‘कान्सस' था। वह पेड़ों के महत्त्व को समझता था, पेड़ काटने के खतरे को समझता था। यह गीत यों तो एक बेटी के विदा होने की पीड़ा से जुड़ा हुआ है लेकिन इसका मूल भाव प्रकृति प्रेम ही है। प्रकृति प्रेम के माध्यम से मनुष्य प्रेम को उद्घाटित किया गया है। बेटी की स्थिति उस नीम के पेड़ पर आकर बैठने वाली चिडियों की तरह है जो रात भर उस पर विश्राम कर सुबह उड़ जाती हैं। नीम का पेड़ उन्हें आश्रय देता है, पिता का घर भी पुत्री को थोड़े दिन का आश्रय देता है, फिर उसे पराए घर जाना होता है। इसमें नीम के पेड़ के साथ साथ चिड़ियों से भी बेटी का तादात्म्य स्थापित किया गया है और यह दिखाया गया है मनुष्य के जीवन में मनुष्येत्तर प्रकृति और जीव जंतुओं का भी उतना ही महत्व है, उससे रत्ती भर भी कम नहीं। इस तरह से यह गीत घर आँगन से होता हुआ वृहत्तर प्रकृति से जुड़ जाता है।


प्रकृति का देवता शिव का निवास कैलास है। उनका स्वरुप साक्षात प्रकृति के विराट वैभव से युक्त है मसलन वह भांग, धतूरा खाता है, कनेर, और मदार के पुष्प से प्रसन्न होता है। गाँव में बारात आने पर बरातियों को मदार का बीरा मारा जाता था, संभव है यह यह परंपरा शिव विवाह से जुड़ी हो। लोक ने धतूर और मदार जैसी निरर्थक और जहरीली वस्तु को भी इतना सम्मान दिया है। लोक उसकी उपयोगिता को सिद्ध करता है, शिव से जोड़कर। और यह इस बात का प्रतीक भी है कि इस प्रकृति में कुछ भी निरर्थक नहीं है। पीपल, नीम, तुलसी, आम, बरगद ये सब उसके लिए महज एक वृक्ष भर नहीं हैं बल्कि वे पूजनीय हैं, उनमें वह देवता का वास देखता है। वह उन्हें किसी कीमत पर क्षति नहीं पहुंचा सकता। आँगन में तुलसी का पौथा तो भारतीय संस्कृति का प्रतीक रहा है। तुलसी के समक्ष घी का दीपक जलाया जाता है, उसकी पूजा की जाती है। वह भारतीय समाज की पहचान रही है। वह महज एक पौधा भर नहीं है। वह लोक की आस्था और उसके विश्वास से बड़े ही गहरे जुड़ी रही है। पंजाब में इसके महत्व को इस रूप में देखा गया कि - तुलसी दीवा बालिया, मैनू मरदी सम्भलिया। यानी तुलसी ने मुझे प्राण दिया, जिलाया। तुलसी विष्णुप्रिया हैं। जलंधर की पत्नी वृंदा ही तुलसी के रूप में विराजमान है। वृदावन दरअसल तुलसी वन ही है। वृंदा की भक्ति से प्रसन्न हो विष्णु ने उसे अपनी भक्ति प्रदान की। तुलसी के साथ साथ पीपल का भी महत्व अक्षुण्ण है। पीपल में शिव का तो स्थाई वास माना ही गया है, साथ ही इसमें समस्त देवताओं का वास माना गया है। पीपल के महत्व को दिखाता एक दोहा देखें -


                                                                      पत्ते पत्ते गोविन्द बैठा, टहनी - टहनी देवता।


                                                                       मुंडते श्री कृष्ण बैठा, थन ब्रम्हा देवता।


      पीपल में दीपक जलाया जाता है, शिवरात्रि के दिन जल चढ़ाया जाता है। पीपल और नीम का विवाह कराने की भी परंपरा रही है। कार्तिक मास में तुलसी का भी विवाह कराया जाता है। वृक्षों से विवाह कराने की परम्परा बड़ी प्राचीन रही है, इसका सम्बन्ध उर्वरता से भी रहा है, ताकि वधू में उर्वरता आए, उसे संतान की प्राप्ति हो, उसका अनिष्ट दूर हो। दक्षिण में इस तरह की परम्परा रही है कि पीपल को ब्रह्मराक्षस मानाजाता है और नीम को मोहिनी राक्षसी। इन दोनों का परस्पर विवाह कराने से बाधा दूर होती है। यानी वृक्ष मनुष्य के अनिष्ट को दूर कर देता है, ऐसी मान्यता रही है। यह अपने आप में प्रकृति पूजा का दर्शन है। नीम में शीतला का वास माना जाता था और चेचक होने पर नीम की पत्ती लटकाई जाती थी, नीम में जल डाला जाता था, दूब और नीम की पत्ती पीसकर चेचक पर लगाई जाती थी, जिससे शीतलता मिले। नीम के वृक्ष की पूजा की जाती थी और यह मनाया जाता था शीतला माता इस प्रकोप को शांत करें। वह समाज अपने तरीके से रोगों का इलाज प्रकृति के माध्यम से करता था, कैसे प्रकृति विघ्न बाधाओं के साथ साथ रोग के उपचार का भी माध्यम थी, इसका जीवंत प्रमाण है हमारा लोक साहित्य।।


    प्रकृति पूजा प्रकृति के महत्त्व को परिभाषित करती है, इसे कोरा अंधविश्वास कहकर इससे किनारा नहीं कसा जा सकता है। समूचा वैदिक समाज प्रकृति पूजक समाज रहा है। प्रकृति के देवता की ही पूजा की जाती थी या यों कहें कि वे ही देवता उस काल के देवता थे जो सीधे प्रकृति से जुड़े थे अथवा उसके अधिष्ठाता थे चाहे वह इन्द्र हों, वरुण हों, अग्नि हों, मरुत हों, ये सभी प्रकृति के नियामक ही थे। उस काल के मनुष्य का जीवन सीधे-सीधे इनसे जुड़ा हुआ था, इन पर निर्भर था इसलिए इन्हें प्रसन्न करने के लिए हवन और यज्ञ किए जाते थे। इस तरह से प्रकृति पूजा अत्यंत प्राचीन रही है। और इसके माध्यम से प्रकृति की रक्षा का भाव मौजूद रहा है, उसे सम्मान देने का भाव रहा है, न कि आज की तरह उसे नष्ट कर उस पर विजय पाने का भाव। प्रकृति आलंबन के रूप में प्रेमी हृदय के भाव को अभिव्यक्ति देने का माध्यम भी रही है। विरहणी स्त्री का पति बचपन में जो नीम का पौधा लगा गया था, अब वह विशाल वृक्ष बन गया,उसमें फूल और फल भी आ गए किन्तु वह निष्ठुर लौटा ही नहीं -


                                                                            प्रेम प्रीति का विरवा चलेउ लगाय,


                                                                             सचन की सुधि लीजौ, मुरझि न जाय।


                                                                             पद्मावत के वियोग खंड में नागमती कहती है -


                                                                             पाके फेरे झरे नहिं आये।


         अवधी के एक लोकगीत में प्रसंग आता है कि एक स्त्री का पति उसके पास नहीं आता है तो वह बेचारी आगन में लगे जामुन के पेड़ से प्रार्थना करती है कि हे जामुन, तुममें फल लग जाता तो मेरा पति क्या जाने वही तोड़ने के बहाने घर के भीतर आ जाता तो मैं उसकी एक झलक पा लेती। और तो और प्रकृति उसकी चिरंतन संगिनी रही है, वह अपनी व्यथा कथा उससे कहकर अपने जी को हल्का करती है। अवधी के एक गीत में प्रसंग आता है कि एक बाँझ स्त्री अपनी पीड़ा को व्यक्त करते हुए गंगा से कहती है कि - गंगा एक लहरि हमै देतियु डुबि मरि जाइत। वह गंगा से परित्राण की उम्मीद करती है किन्तु गंगा उसे यह कहकर अपनी धारा में प्रवाहित करने से मना कर देती है कि वह उसकी तरह बाँझिन नहीं होना चाहती। अब गीत का एक पाठ यों भी हो सकता है। कि प्रकृति को यहाँ मनुष्य की ही भांति चेतन बताया गया है, इस बात के साक्ष्य और भी गीतों में प्राप्त होते हैं मसलन कौशल्या दसरथ से बांझपान की पीड़ा को बताते हुए कहती हैं कि - बगिया लगाए से कवन फल सुना हो राजा दसरथ, अमवाँन लागय टिकोरवा त कवने अरथ कय हो? यानी वृक्ष भी बाँझ होते हैं, लताएँ भी निष्फल होती हैं। बाँझ स्त्री की तुलना बाँझ वृक्ष से की गई है। इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है प्रकृति के प्रति लगाव का। दरअसल पूरी दुनिया के लोकगीतों में लोकसाहित्य में प्रकृति की दखल रहा है। प्रकृति का रूप, रस, गंध लोकसाहित्य की प्राण वायु रही है - “लोक कवि गाता है क्योंकि ईश्वर ने उसे मधुर स्वर दिया है। “सूर्य सूर्य चमकता है, बसंत आता है,जाता है। तेल के कोल्हू और मधुशाला दोनों में वह आनंद लेता है। गीतों की धुन में श्रम की पीड़ा तिरोहित हो जाती है।''१ प्रकृति का एक एक कण उसे सम्मोहित करता है। महुए की मादक गंध उसे मदमस्त कर देती है, कोयल की मधुर कूक उसे अपनी प्रियतमा के आलिंगन से खींच लाती है। मानो कोयल उसकी सौतन हो गई हो। एक चैती गीत देखें


                                                                             सेजिया से सैयाँ उठि भागा हो रामा, कोयल तौहरी बोलिया।


                                                                             रोज रोज बोलौ कौइल साँझ सबैरवा, आजु काहे बोलियु आधी रतिया हो रामा।


                                                                             सेजिया से . ......................................................................।


        ‘‘समूचा लोक संगीत, लोकगीत प्रकृति की ध्वनियाँ ही। तो हैं। पक्षियों की चहचहाहट, हवा की सरसराहट और पेड़ों का मर्मर संगीत प्रकृति की ध्वनि ही तो है और इस ध्वनि संगीत को लोक जीवन ने अपनी स्वर लहरियों में ढाला, उसे सजाया और फिर उसे गाया और इस गीत के समक्ष बड़े-बड़े गीत संगीतकार नहीं ठहरते। जिसको भी लोकसंगीत सुनने का अवसर मिला है, वह समझ सकता है इसकी सम्मोहक शक्ति को।'११ दुनिया भर के लोक साहित्य में प्रकृति की गंध पर बल दिया गया है। गंध हीन पुष्प को कोई नहीं पूछता। वह मृत पुष्प की तरह होता है। (किन्तु भारतीय लोक में ऐसा नहीं, यहाँ मदार और अरूस के पुष्पों की भी उतनी ही सार्थकता है जितनी गुलाब और चंपा की। दरअसल प्रकृति में कुछ निरर्थक है ही नहीं। यह बड़ा भारी अंतर है पाश्चात्य लोक साहित्य और भारतीय लोक साहित्य में, इसे रेखांकित करना आवश्यक है।) लेखक कहता है कि ''मैंने एक अंग्रेज बच्चे से पूछा कि तुम्हें गुलाब में सबसे ज्यादा क्या चीज पसंद है? उसने कहा ‘उसकी सुगंध' दूसरी बार यही सवाल दूसरे बच्चे से पूछा तो उत्तर था कि-वे बहुत अच्छा महकते हैं।''३ आर्मेनिया के एक लोकगीत में प्रकृति का आनंद कुछ यों व्यक्त किया गया है -


                                                                          सूर्य निकला सूर्यं निकला


                                                                           पेड़ों पर चिड़ियाँ चहचहा रही हैं।


                                                                           बत्तखें तालाब में तैर रही हैं।


                                                                           आलसी सौ रहा है।


                                                                           कर्मशील कार्य में संलग्न हैं।


                                                                           स्वर्ग का द्वार खुला, सोने का सिंहासन सजा


                                                                           क्राइस्ट उस पर आसीन हुए।


                                                                            चित्रगुप्त खड़े हैं, उनके हाथ में सोने की कलम है।


                                                                            वे अच्छा बुरा लिख रहे हैं -


                                                                            पापी रो रहे हैं और धर्मात्मा प्रसन्न हैं।


          आर्मेनिया के किसान जाड़े में बर्फ देखते हैं और गर्मी में वे फूल और पक्षियाँ देखते हैं। चिड़ियाँ और फूल उन्हें सबसे सुन्दर लगते हैं, इसलिए उन्होंने इन पर सबसे ज्यादा गीत रचे हैं। शायद ही उन्होंने ऐसा कोई गीत रचा हो जिसमें चिड़िया और फूल न आए हों। उन्होंने अपने सभी वनस्पति और मिथकीय प्रतीकों में अपने कोमलतम भावों की अभिव्यक्ति ही की है। आदिवासी लोकगीत तो प्रकृति के बीच ही रचे गए हैं। उनके गीतों में प्रकृति की विविध छटाएँ मौजूद हैं न केवल उद्दीपन के रूप में बल्कि आलंबन के रूप में प्रकृति उनकी सहचरी रही है। वह फूलों के खिलने, फलों के लगने और कोपलों के विकसित होने पर उल्लास और आनंद से झूम उठता है और कहता है -


                                                                               माँ यह कैसा महुआ है,


                                                                                जो पहले ही फूल गया?


                                                                                 माँ यह कैसा साखू है,


                                                                                 जिसमें देर से कली निकली?


                                                                                 बेटा यह फागुन का महुआ है,


                                                                                 इसलिए यह पहले फूला है।


                                                                                  बेटा यह चिति साखू है,


                                                                                  ( इसलिए ) इसमें पीछे से कली निकली।


                                                                                   वह बसंत से पूछता है कि -


                                                                                   जाड़े के बीत जाने पर तुम आए हो।


                                                                                    तुम राजा - रानी के समान सजे हो।


                                                                                  मैं बहुत दिनों से ( तुम्हारी ) चिंता ( प्रतीक्षा ) कर रहा था।


                                                                                   मगर आज (जाकर) चैत का चाँद उगा।


                                                                                   (वृक्षों से) पुरानी पत्तियाँ झाड़कर - (तुमने)


                                                                                    नई कोपलों की साड़ी पहना दी।


                                                                                    मैं जंगल के वृक्षों को देख आया।


                                                                                     उनमें कलियाँ, फूल और फल लग रहे हैं।


                                                                                     (तुम्हारी) हरी और लाल कोपलें चमक रही हैं।


                                                                                     तुमने कौन - सा तेल लगा लिया है?


                                                                                     जंगल के सुन्दर फूलों की सुगंध


                                                                                     (मेरी) छाती में घूम रही है।


       बारामासा गीतों की रचना प्रकृति को ही आधार बनाकर की गई है। मानव मन पर प्रकृति के प्रभाव का भी विमर्श है। कौन सी ऋतु प्रेमी हृदय और विरही हृदय पर कैसा प्रभाव डालती है, इसका सुन्दर निदर्शन बारामासा गीतों में देखा जा सकता है - एक गीत देखें -


                                                                                     चढ़ले माँस असाढ़ बादर घन घमंड दल साजि के।


                                                                                      हमें बिरहनी तेजि के पिया रहे कहीं छाइ के।


                                                                                       ...........................................................


                                                                                      कातिक में एक पाति लिखतु है रकत आंसु बहाई के।


                                                                                       जाहु कागा देश पिया के दुःख कहो समुझाइ के।


                                                                                       अगहन में एक सैज सूनी मैं अकेली ताकती।


                                                                                       जाके पिया परदेश छाए, रहौ सखि केहिं भांति से ।।


        इस तरह से हम देख सकते हैं कि समूचा लोकसाहित्य प्रकृति से किसी न किसी रूप में अवश्य जुड़ा रहा है, प्रकृति उसका प्राण रही है किन्तु आज विडम्बना यह है कि प्रकृति को नष्ट किया जा रहा है, उसे उजाड़ा जा रहा है, उस पर विजय पाकर मनुष्य उसका नियंता समझने की भूल कर रहा है, यों उसे इसका उत्तर प्रकृति यदा-कदा देती रहती है। आज पर्यावरण असंतुलन का संकट उत्पन्न हो गया है। ऋतुचक्र अस्त-व्यस्त हो गया है, पूरी दुनिया के लिए यह गंभीर संकट का विषय बना हुआ है। लोकसाहित्य का महत्त्व इस रूप में। भी है कि वह प्रकृति की रक्षा, उसके महत्व को रेखांकित करने का साहित्य है। इस रूप में वह प्रकृति के महत्व को न केवल समझने पर बल देता है बल्कि आज उस पर गहन विचार विमर्श करने और उसे संरक्षित करने का आग्रह भी । करता है क्योंकि प्रकृति के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं है, लोकसाहित्य प्रकृति और मनुष्य के चिरंतन साहचर्य का साक्षी रहा है और इस रूप में वह हमारी धरोहर  भी है।


सन्दर्भ :


1. Essay in the Study of folksongs , page,51 by Countess Evelyn Martinengo Cesaresco. 2. 63. I put the question to a troop of English children coming from a wood laden with spoils," what makes you like primeroses?" "the scent of them, was the answer. Essay in the study of Folk Songs, page , 50, by Countess Evelyn Martinengo Cesaresco.4. वही, पृष्ठ 63-645. वही, पृष्ठ 64 6. बाँसरी बज रही हैं, ( मुंडा लोकगीत ) पृष्ठ 15, 85, जगदीश त्रिगुणायत सम्पर्क : 13/258, ग्राउंड फ्लोर, वसुंधरा, गाजियाबाद, उ.प्र., मो.नं. 8150483224