समीक्षा - शिक्षा-व्यवस्था, तन्त्र और सामाजिक अर्थशास्त्र की कहानियां - डॉ. नेहा भाकुनी

गंभीर सिंह पालनी के सद्य:प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘मेढ़क तथा अन्य कहानियां' में कुल ग्यारह कहानियां हैंये कहानियां शिक्षा-व्यवस्था, तन्त्र और सामाजिक अर्थशास्त्र के विद्रुप चेहरों और उसे जूझते मनुष्य की बानगियां प्रस्तुत करती हैं।


    संग्रह की पहली कहानी मेंढक हमारी शिक्षाव्यवस्था की परत-दर-पर कलई खोलती है। इस कहानी में विद्यार्थियों के भटकाव का सफल चित्रण है। जिस तरह से मेंढक उछलता-कूदता यहां-वहां भटकता है और उसकी कोई दिशा नहीं होती, वैसे ही विद्यार्थी गण को भी हमारी शिक्षा-व्यवस्था कोई दिशा नहीं देती जिसके अभाव में वे मेंढक की तरह यहां-वहां निरर्थक भटकते रहते हैं।


    गांव के बच्चे प्राइमरी कक्षाओं से ही छठी कक्षा में जाने पर साइंस की पढ़ाई वाले कॉलेज में एडमिशन लेने का सपना देखने लगते हैं। कक्षा नौ में तो साइंस के वर्ग में एडमिशन के लिए होड़ लगी रहती है। हर बच्चा इस गलतफहमी में रहता है कि वह डॉक्टर बनेगा लेकिन इंटर पास करते-करते अधिकांश बच्चों के सपने बिखर जाते हैं। कहानी ‘शिक्षा व्यवस्था को मानव-द्रोही' व स्वप्नद्रोही खलनायक के रूप में प्रस्तुत करती है।


    ‘मेंढ़क' कहानी वर्ष १९९१ में 'वर्तमान साहित्य' के कहानी-महाविशेषांक (अतिथि संपादक : रवीन्द्र कालिया) में प्रकाशित होकर बहुत चर्चित हुई थी और प्रख्यात् साहित्यकार व संपादक कमलेश्वर जी ने इसे बीसवीं सदी की कालजयी कहानियां' में शामिल किया था। कहानी अपने प्रकाशन के २७ वर्ष बाद आज भी प्रासंगिक है और अपना कालजयी होना प्रमाणित करती है।


   भारत के गांवों और शहरों में ऐसे लाखों विद्यार्थी हैंजो विज्ञान पढ़ना चाहते हैंबाद में वे भयावह मोहभंग और हताशा के शिकार हो जाते हैं। कहानी का एक पात्र लटूर सिंह भैंसा-गाड़ी में ईंटे ढोने का काम करता है। जब वह अपनी एक सहपाठिनी संध्या के इंजीनियर पति के निर्माणाधीन बंगले में ईंटे लेकर पहुंचता है तो विद्यार्थी जीवन की उसकी प्रेमिका संध्या उसे पहचानती तक नहीं। वह कथावाचक के समक्ष बिफर पड़ता है- ‘डॉक्टर तो क्या, वार्ड-ब्वॉय या कम्पाउंडर भी नहीं बन पाया मैं तो।..... अगर ऐसा ही पता होता तो क्यों साइंस साइड में टैम खराब करता। आर्ट साइड लेकर हाई-स्कूल व इंटर कर लेता तो कहीं बाबू तो लग ही जाता। तब के पूरे बैच में केवल एक लड़का ही डॉक्टर बन पाया है।'


    कहानी लटूर सिंह समेत समस्त भारतीय विद्यार्थियों की त्रासदी को बयां करती है।


    संग्रह की दूसरी कहानी ‘बस ड्राईवर तेजाब सिंह कहानी' बड़े ही रोचक ढंग से कही गई है और पाठक को अंत तक आते-आते यह पूरा विश्वास हो जाता है कि यह एक सच्ची कहानी है। यही कहने की कला' लेखक की सफलता है। कहानी एक प्रश्न छोड़ जाती है- 'जिन लोगों के हाथ में कोई स्टीयरिंग होता है, क्या उन्हें पुरानी लकीरों पर ही चलते रहना चाहिए या कभी इस बारे में भी सोचना और तय करना चाहिए कि सही लकीरें कैसी हो सकती हैं?'


    कहानी समाज व तन्त्र के उस भयावह चेहरे को भी प्रस्तुत करती है जो शराब पीकर बस चलाने और गाली गलौज करने वाले, बस का डीजल चुराकर बेचने वाले ड्राईवर की कोई कम्प्लेण्ट कभी नहीं करता और देखता रहता है, यह सोचकर कि ऐसा तो सभी करते हैं लेकिन जब वह एक अच्छा काम करने के लिए कदम उठाता है तो निलम्बित कर दिया जाता है।


   तीसरी कहानी 'रैबीज' पारिवारिक संबंधों की कहानी है। खोखले और संवेदनहीन होते चले जा रहे संबंधों का कडुआ सच यह सामने रखती है। कुत्ते की लार में होने वाले 'रैबीज' के वायरस से भी खतरनाक वायरस मनुष्य के स्वार्थी होते चले जाने का है- कहानी इस समाज का एक नया ही चेहरा हमारे सामने रखती है जहां मनुष्य के भीतर का अपराध-बोध तक खत्म होता जा रहा है।


    'नाक' कहानी का मुख्य पात्र आम सिंह तथा उसके गांव के लोग एक अलग ही दुनिया में मगन हैं। वे ऐसे विषयों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए हुए हैं जो उनके सीमित दायरे में जीने का परिचय देते हैं। कहानी की भाषा बहुत ही रोचक है। देखिए- “उस रोज जब लगा था कि खुदागंज से भगवान जी ने श्रीमान आम सिंह के लिए टूक-कॉल भेज दी है, तब गांव के तजुर्बेकार लोगों ने आम सिंह की घरवाली और बच्चों को सलाह दी थी कि उन्हें शहर के सरकारी अस्पताल में ले जाना ठीक नहीं है। बेकार में ही पुलिस-केस बन जाएगा। ..... घर के बर्तन-भाँडे तक बिक जाएंगे।'


   ‘नैनीताल एक खूबसूरत शहर है' शीर्षक कहानी नैनीताल शहर के खूबसूरत चेहरे के पीछे छुपे एक और बदरंग चेहरे की कहानी है। यह दिखलाती है कि खूबसूरती का विज्ञापन करने वाला कितने बदसूरत हालात में जी रहा है। वह पर्यटकों को नैनीताल की खूबसूरती के बारे में बतलाता है, उन्हें शानदार होटलों के आलीशान कमरे दिखलाता हैलेकिन स्वयं बहुत ही घटिया कमरे में रहने को विवश हैजिसमें फ्लश वाली लैट्रीन तक नहींकहानी नैनीताल शहर में मौजूद पुराने राजाओं-महाराजाओं के महलों के होटलों में तब्दील होने और आम-आदमी की आवासीय समस्या का भी चित्रण करती है।


   ‘भगवान का नाम', 'बुनने वाली उंगलियाँ और ‘शिक्षक दिवस' शीर्षक कहानियां भी नैनीताल शहर का परिवेश लिए हुए हैं लेकिन उनके द्वारा दिए जाने वाले संदेश अलग-अलग हैं। भगवान का नाम' में कटाक्ष का एक नया ही प्रयोग है जो भगवान का नाम जपने की सीख देने वालों की पोल खोलता है। शिक्षक दिवस' कहानी एक समाजसेवी की पोल खोलती है जो एक स्कूल का संचालक भी है। 'बुनने वाली उंगलिया' कहानी हमारे सामने सच्चाई का निर्मम रूप रखती है कि हमारी आर्थिक-सामाजिक-व्यवस्था में पुरस्कृत होने के पात्र व्यक्ति को पुरस्कार न मिलकर किसी और को ही मिलता है।


   'भाई' कहानी में रक्त संबंधों में मिठास के बजाए उपजी खटास और कडुवाहट की दास्तान हैकहानी फ्लैशबैक में चलती है और नाटकीय अन्त लिए हुए हैं।


   “लौटना' कहानी में नायक अभावों की जिन्दगी जीता है। विपन्नता में उपजा घटनाक्रम एक बार उसे बेईमानी की राह में चलने हेतु विचलित करता है मगर उसके भीतर छुपा उसका मूल चरित्र अन्ततः उसे ऐसा करने से रोक लेता हैऔर वह बेईमानी की राह से लौट आता है।


   ‘तिलस्म' कहानी का तिलस्म तब हमारे सामने आता हैजब हम पाते हैं कि अत्यन्त क्रुद्ध हो चुका कहानी का नायक गाली-गलौज और मार-पीट पर उतारू होने को ही होता हैकि तभी अचानक सामने आए एक सद्यः विवाहित जोड़े को देखकर उसके भीतर का शिष्टाचार जाग उठता है और वह शांति पूर्वक लौट आता है।


   संग्रह की सभी कहानियां रोचकता लिए हुए हैं। और पठनीय हैं। एक सौ बारह पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य मात्र ५० रुपये है। प्रकाशक का यह प्रयास हिन्दी साहित्य को जन-जन तक पहुंचाने के लिए एक अच्छा कदम है।


                                                                                                                                                                समीक्षित पुस्तक : ‘मेंढक तथा अन्य कहनियां',


                                                                                                                                                           साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, वर्ष : २०१८, मूल्य : ५० रुपये