यह एक कड़वी सच्चाई है कि धर्म और राष्ट्र के नाम पर दुनिया भर में जितना अधिक रक्तपात हुआ उतना किसी और नाम पर नहीं। वास्तव में धर्म की खोज मानव विकास के शुरुआती दौर में उन दार्शनिक, आध्यात्मिक, नैतिक सवालों की खोज के क्रम में की गई जो उस समय के मनुष्य के लिए पूरी तरह अबूझ थे। विकास की प्रक्रिया में जब साम्राज्य बनने शुरू हुए तो उसने धर्म को एक ऐसे साधन के रूप में बरतना शुरू कर दिया जो उसे और अधिक सुरक्षित तथा अभेद्य बना सके। इसी क्रम में राजत्व को 'दैवी सिद्धान्त' का ताना बाना ओढ़ाया गया। इसी क्रम में पुरोहितों ने यह बात लोगों के मन में भरी कि राजा गलतियाँ नहीं करता। यानी वह जो करता है सब सही करता है। ईश्वर के लिए भी यही कहा जाता है। वस्तुतः यह उस शासक वर्ग और पुरोहित वर्ग के बीच का गठजोड़ था, जो आपस में मिल जुल कर जनता पर अपना राजनैतिक वर्चस्व बनाए रखना चाहते थे। ऐसा पूरी दुनिया में हो रहा था। यूरोप इसका अपवाद नहीं था। पुनर्जागरण के पश्चात् यूरोप में एक नए स्वरूप में उभर कर सामने आई राष्ट्र-राज्य की अवधारणा को धर्म की कड़ी चुनौती से जूझना पड़ा लेकिन उसके शासकों ने भी धर्म को एक औजार के रूप में भरपूर इस्तेमाल किया। औजार इसलिए कि इन शासकों का मंतव्य राष्ट्र-राज्य की आड़ में अपने को कहीं अधिक मजबूत और निरंकुश बनाना था। इसी क्रम में इन शासकों ने परोक्ष तरीके से उन शक्तियों को भी प्रश्रय प्रदान किया जो धर्म के पाखंडों के खिलाफ़ थे और इसके ढांचे पर लगातार प्रहार करते रहते थे। कहना न होगा कि धर्म आज भी अपनी समूची कृतियों विकृतियों के साथ मौजूद है। कहाँ, क्या, कब, कैसे, क्यों, किससे का सच जानने की प्रक्रिया में विज्ञान के विकास ने इसके खोखले ढांचे पर कड़ा प्रहार किया। हालाँकि विज्ञान को संकीर्ण सोच से जूझना पड़ा हैयहाँ तक कि वैज्ञानिक सोच वाले लोगों को समय-समय पर तरह-तरह से इन धार्मिक लोगों द्वारा प्रताड़ित भी किया गया। लेकिन धर्म और विज्ञान के द्वन्द्व में आगे बढ़ा विज्ञान ही। कहना न होगा कि विज्ञान की अत्याधुनिक खोजों को अपनाने से धर्म के अलम्बरदार कभी नहीं चूकते। धार्मिक ठेकेदार आज उम्दा कार और कम्प्यूटर, मोबाईल अपनाने से नहीं चूकते। यह अलग बात है कि आम जनता को वे धर्म-रस की घुट्टी पिला कर मूर्ख बनाने का काम करने से आज भी बाज नहीं आते 1
धर्म को अक्सर ही संस्कृति और परम्परा से जोड़ा जाता है और इसका सहारा ले कर राष्ट्रवादी ताकतें लोगों को अपने पीछे खड़ा कर लेती हैं। अक्सर एक सवाल मन में उठता है कि एक राष्ट्र की परिभाषा क्या होती है? क्या राष्ट्र या मुल्क सिर्फ कागज पर बना एक नक्शा होता है जिस पर जान न्यौछावर करने के लिए देशवासी तत्पर रहते हैं। क्या देश मानवीयता से भी आगे की चीज है। क्या निर्जन जगहों पर भी देश की कल्पना की जा सकती है। इसी क्रम में यह पूछने का मन हो रहा है कि चाँद अथवा मंगल ग्रह पर कितने देश हैं।
किसी भी समय का रचनाकार अपने समय के इन सवालों से जरूर टकराता है। इस क्रम में कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक जरूरी कविता याद आ रही है - ‘देश कागज़ पर बना नक्शा नहीं होता'। यह सुखद है कि हमारे समय के जरूरी कवि सुभाष राय भी इस सवाल से टकराते हैं और ‘मुल्क का चेहरा' जैसी उम्दा कविता लिख पाने में सफल होते हैं। अपनी कविताओं में सुभाष उस मानवीयता के पक्ष में खड़े नजर आते हैं जो धर्म, संस्कृति, नैतिकता, परम्परा, राष्ट्र सबकी निर्मिति के मूल में है। इस लिहाज से देखा जाए तो सुभाष के लिए मानवीयता सब से उपर है। इस मामले में कवि आदि विद्रोही रहा है। कभी-कभी तो यह विद्रोह अपनों के जाहिलपने के खिलाफ भी करना पड़ता है। सुभाष राय का पहला कविता संग्रह ‘सलीब पर सच' वस्तुतः उस जाहिलपने के खिलाफ़ एक दस्तावेज़ की तरह है जिससे हमारे समाज का हर प्रगतिशील व्यक्ति जूझ रहा है। इस संग्रह का शीर्षक जैसे हमारे आज के समूचे समय को जस का तस रेखांकित कर दे रहा है। आज स्थापित सत्यों को भी झुठलाने का दौर है। दुर्भाग्यवश हमारे समय की सूचना-संचार की तकनीक इस झूठ को प्रचारित-प्रसारित करने का काम कर रही है। इसी क्रम में इतिहास के सत्य तक उलट-पुलट दिए जा रहे हैं। गाँधी और नेहरू जैसे महापुरुष खलनायक जैसे देखे जाने लगे हैं। और जो वस्तुतः खलनायक थे उनको महापुरुष घोषित करने-कराने के यत्न किए जा रहे हैं। सुभाष राय की कविता इसी झूठ के खिलाफ़ एक प्रतिवाद है।
आम तौर पर जब हम किसी कवि के संग्रह को समय की कसौटी पर कसने की कोशिश करते हैं तो कवि के उस व्यक्तित्व को उपेक्षित कर देते हैं जो उसकी कविता के शब्द-शब्द और पक्ति-पंक्ति में घुला-मिला होता है और जिससे उस कवि की कविता का वितान बनता है। सौभाग्यवश इस कवि को नजदीक से जानने का अवसर मुझे मिलास्वाभिमान, खुद्दारी और सच के पक्ष में खड़े होने की यह जिद ही थी कि सुभाष जीवन भर संघर्ष करते रहे। यह संघर्ष उनके पत्रकारीय जीवन में भी बना बचा रहा। इसीलिए वे मालिकान और संपादकों के कोप के भाजन भी बने लेकिन उन्होंने कहीं भी उसूलों से समझौता नहीं किया। कम लोग जानते होंगे कि यह कवि अपने जीवन के शुरुआती चरण में आर एस एस के गहरे प्रभाव में था। इसी प्रभाव में आ कर वे आपात काल में जेल भी गए। लेकिन इनका आर एस एस से मोहभंग हुआ और वैचारिकता के उस मोड़ पर मुड़े जो इन्हें मानवीयता की तरफ़ ले गया। वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी की राम कहानी भी कुछ इसी तरह की रही है।
संग्रह की पहली ही कविता है - ‘मेरा परिचय'। कवि का मानस इस कविता से ही पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। कविता की पहली ही पंक्तियाँ हैं - मेरा परिचय उन सबका परिचय हैजो सोए नहीं हैं जनम के बाद ... मेरा परिचय/ उन अनगिनत लोगों का परिचय हैजो मेरी ही तरह उबल रहेहैं लगातार।' आज देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऐसे लोगों का है जो हर तरह की सुविधाओं से वंचित हैं। जिनके सामने आधारभूत समस्याएँ हर पल मुँह बाए खड़ी रहती हैं। जो अन्दर ही अन्दर उबलते सुलगते रहते हैं लेकिन कुछ कर नहीं पाते। कवि अपने परिचय को और स्पष्ट करते हुए कहता है - ‘उनसे मुझे कुछ नहीं कहना/ जो दीवारों में चुने जाने से खुश हैं। जो मुर्दो की मानिन्द घर से निकलते हैं। बाजार में खरीददारी करते हैं। और खुद खरीदे हुए सामान में बदल जाते हैं। घर लौट कर सजी हुई काफिन में कैद हो जाते हैंचुपचाप/ जो सिक्कों की खनक पर बिक जाते हैं। चुराई हुई खुशी में खो जाते हैं। आज के समाज का एक बड़ा तबका ऐसा है जो ऐसा ही जीवन जीता है। वह कभी सुगबुगाता नहीं। जो मिलता है उसी में खुश रहता है। कोई नृप होय हमें का हानि' का पक्षधर ही नहीं बनता बल्कि नृप की खुशामदी के लिए बिकने को हर वक्त तैयार रहता है। यह यूं ही नहीं हैकि आज हमारे देश में अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। अरबपतियों का यह एलीट वर्ग शासन-सत्ता वर्ग सबको अपनी अंगुली पर नचाता हैआज जब शासक वर्ग निजीकरण को जीवन के एक मात्र विकल्प के रूप में खड़ा करने में प्राण-प्रण से लगा हुआ है तब सारी कहानी स्वयमेव ही स्पष्ट हो जाती है। शिक्षा, चिकित्सा, सड़क, यातायात, रेल, बीमा, बैंक इन सबमें निजी जगत आज हावी है। पहले एक कहानी गढ़ी जाती है कि निजी सेक्टर को उस क्षेत्र की बेहतरी के लिए आमन्त्रित किया जा रहा है लेकिन फिर बाद में जो परिदृश्य बनता है, उसमें पंचतन्त्र की वह कहानी खुद ब खुद याद आ जाती है जिसमें एक बन्दर दो बिल्लियों के बीच रोटी के संघर्ष में पञ्च बन कर सामने आता है और खुद ही सारी रोटी हजम कर जाता है।
संग्रह में कई छोटी कविताएँ हैं जो अपने कथ्य में कहीं अधिक बेजोड़ हैं। ऐसी ही एक कविता है - ‘समय'. समय को देखने की यह नज़र एक कवि के पास ही हो सकती है। ‘फूल के खिलने और मुरझाने की/ सन्धि पर खड़ा रहता है समय/ पूरी तरह खिला हुआ/ एक फूल मुरझाता हैऔर/ समय दूसरी सन्धि पर खिल उठता है।' यही समय की सामयिक सच्चाई भी है। यही समय की वह श्रृंखलाबद्ध अनंतता है जो उसकी अपनी मजबूती है। समय हमेशा आगे बढ़ता रहता है। एक पल के लिए भी ठहरने का उसके पास अवकाश नहीं। अतीत, वर्तमान और भविष्य आपस में कुछ इस कदर गुत्थमगुत्था हैं कि इन्हें एक दूसरे से अलग कर के नहीं देखा-समझा जा सकता। यही समय की खूबी है जो उसे बलवान बनाती है। समय उन राजमहलों तक को खंडहरों में बदल देता है जो कभी अपने समूचे वैभव के साथ खड़े हुएथे और जिनके होते ऐसा लगता था जैसे वे अपराजेय हों, समय से परे हों। हर कवि की तरह सुभाष भी मृत्यु से टकराते हैं। वे मृत्यु के सत्य को इस रूप में पहचानते हैं कि जीवन इसी से एक आकार लेता है। मृत्यु बिना जीवन निराकार हो जाता है। अपनी एक कविता ‘मृत्यु के साथ जीना' में वे लिखते हैं - ‘मृत्यु के बगैर जीना सम्भव नहीं/ जीने के लिए मरने की तैयारी बहुत जरुरी है।' इस कविता को अगर 'पेड' कविता से मिला कर पढ़ा जाए तो कवि का दर्शन जैसे स्पष्ट हो जाता है। जैसे पेड़ मर-मर कर जीवित हो उठता हैजमीन पर गिरे हुए अपने बीजों में उसी तरह मैं भी बार-बार मरना चाहता हूँ नयी जमीन में नए सिरे से उगने के लिए मैं जानता हूँ कि मृत्यु का सामना कर के ही जीवित रह सकता हूँ हमेशा।' जीवन की क्षणभंगुरता से सभी परिचित है। मृत्यु प्रायः आक्रान्त करती है। लेकिन आक्रान्त होकर आप जीवन से पलायन कर जाते हैं। और पलायन करना भी मौत ही होता है। ऐसे में आप रचनात्मक नहीं हो सकते। रचनात्मक तो वही हो सकता है जो मृत्यु का सामना भी जीवट से करने के लिए प्रतिबद्ध रहे।
संग्रह से गुजरते हुए हमेशा यह लगता है जैसे यह गहन जीवनानुभवों की कविताएँ हैं। खुद बकौल कवि इस संग्रह में उनकी १९७६ से ले कर २०१७ तक की कविताएँ हैं। साठ की वय पार कर चुकने के बाद पहला संग्रह प्रकाशित होना ही सब कुछ बयां कर देता है। आज जब हमारे समय के कवि अपना संग्रह छपवाने के लिए तमाम तरकीबें अपनाते दीखते हैं ऐसे में सुभाष राय का धैर्य काबिलेतारीफ़ है। उन्हें पता हैकि उकताहट साहित्य का मिजाज़ नहीं है। यह तो वह मैराथन दौड़ है जिसमें भाग लेने वाले धावक को अपनी समूची उर्जा बचा कर उतरना पड़ता है। सौ मीटर की दौड़ जैसी छोटी दूरी की दौड़ दौड़ने वाले उसी त्वरित गति के साथ मैराथन दौड़ कभी भी पूरी नहीं कर सकते।
सच तो यही है कि सच को हर दौर में सलीब का सामना करना ही पड़ता है। सुकरात हों या ईसा मसीह, सबको कभी न कभी इस यथार्थ से गुजरना पड़ा है। आलोच्य संग्रह का कवि इस यथार्थ से परिचित है और साथ ही सलीब से गुजरने के लिए तैयार भी। क्योंकि कवि को पता है कि इतिहास अन्ततः उन्हें ही याद करता है जो इस सच से टकराने का माद्दा रखते हैं।
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