हिन्दी एक लचीली भाषा है। अन्य भाषाई शब्दों को अपने में मिलाने से परहेज नहीं करती। हिन्दी साहित्य का मिजाज़ भी कुछ ऐसा है कि वह जितनी दिलचस्पी हिन्दी साहित्यकारों से रखता उतना ही हिन्दी साहित्य इतर लोगों से भी। कहना असंगत न होगा कि हिन्दी साहित्य को जितना साहित्येतर लोगों ने समृद्ध किया, उतना शायद कोरे हिन्दी साहित्यकारों ने नहीं। डॉ. हरिवंशराय बच्चन, रामविलास शर्मा, मुर्दहिया, मणिकर्णिका के लेखक तुलसीराम, फिराक गोरखपुरी आदि महान् कवि/लेखकों ने अलग-अलग विषयों के वैचारिक धरातल से आकर हिन्दी साहित्य को अनोखे स्वाद और संदेश के साथ जो कुछ दिया, वह हिन्दी साहित्य की एक धाती हैजिसे विस्मृत नहीं किया जा सकता।
कुछ ऐसी ही पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाले आज के युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी हैं जिनका प्रथम कविता संग्रह ‘पहली बार' ज्ञानपीठ से छपा, अब यह दूसरा कविता संग्रह साहित्य भंडार से प्रकाशित 'दक्खिन का भी अपना पूरब होता है हमारे हाथों में है। दोनों में बुनियादी फर्क यह हैकि पहली संतोष चतुर्वेदी को कवि बनाती है तो दूसरी भावों विचारों का विस्तार है।
संग्रह की कविताओं से गुजरने के उपरांत यह बात हमारे जेहन में सहज विद्यमान हो जाती है, कवि की लेखनी की स्याही समाज के गाढेपन को नहीं उकेरती बल्कि उन लोगों की हिमायती है जिन्हें साहित्यकार साहित्य में दर्ज करने से नाक-भौंह सिकोड़ते रहे। अर्थात कवि उपेक्षा की दुनिया से अपेक्षा की उम्मीद जगा रहा है। कविता 'मोछ नेटुआ' पाठक को समाज के उन वर्गों तक ले जाना चाहती है जहां जाना दुर्गम तो है किन्तु अपरिहार्य भी। कवि ‘मोछु नेटुआ' के माध्यम से पेशेवर जनजातीय चरित्र के साथ-साथ समाज के चरित्र को उजागर करता है जिसमें मोछु नेटुआ की जिजीविषा, जीवों के प्रति प्रेम के साथ-साथ आज के विषधर समाज की कलई खोलता है। कविताई वार्तालाप में समाज के जनजातीय, उपेक्षित, पीड़ित, दमित वर्ग की व्यथा-कथा कहती हुई जानवर से मान्यवर तक की खबर लेती हैं- कुछ पंक्तियाँ-
आप बिल्कुल सांचे कह रहे हैं मालिक
कभी इनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखती
लाज-शरम तो जैसे घोलकर पी गए है ये
दरअसल असली विषधर हैं ये समाज के
अमिट कलंक हैं हमारे आज के
कि बेअसर पड़ता जा रहा है सांप का जहर
और लगातार जहरीला होता जा रहा है आदमी
कि सांपों को तो आसानी से चीन्ह लेते थे हम
कि कौन गेहूवन है कौन करैत
लेकिन आदमी को आदमी की भीड़ से बीनकर
जहरीले तौर पर अलगा पाना
एकदमें से असंभव है मालिक।
पक्तियां सहज ही समाज को आईना दिखाती हैं। देखोअपना चेहरा तुम विकास के किस सोपान तक पहुंच गए हो। अपनी मनुष्यता/मानवीयता/ संवेदनशीलता के लिए अलग पहचान बनाने वाले प्राणी देखो, आज तुम्हारी मानवीयता विषधर सांप से भी जहरीली हो गई हैइसी कड़ी में कविता ‘मां का घर' औरतों के उत्पादन, श्रमशक्ति, सम्पत्ति तथा अन्य संसाधनों पर मर्दो के नियंत्रण के विरूद्ध एक सबल व सार्थक आवाज है जिस पर पुरूष सदियों से अपनी सत्ता जमाए बैठा है। पंक्तियां- हमने खंगाला जब कुछ अभिलेखों कोइस सिलसिले में/तो वे भी दकियानूसी नजर आए/ हमारे खेतों की खसरा खतौनी/हमारे बाग बगीचे/हमारे घर दुआर / यहां तक कि हमारे राशन कार्डों तक पर/ हर जगह दर्ज मिला/ पिता और उनके पिता का नाम- पंक्तियां पुरुष सत्तात्मक समाज में महिलाओं के अधिकारों की उपेक्षा का दस्तावेज है। एक तरफ जहां पुरुष यह कहते हुए नहीं अघाते, नारी पुरुष की जीवनसँगिनी होती है। उसके अभाव में परिवार, समुदाय, समाज की कल्पना करना असम्भव, वहीं जब सामाजिक सरोकारों में अधिकारों की बात आती है तो वही सिरे से खारिज कर केवल घूघट की वस्तु मानते हैं।
वास्तव में कवि संतोष चतुर्वेदी की कविताओं से गुजरने का आशय उन दूर- दराज इलाकों से होकर गुजरना है जहां अन्य व्यक्ति जाने से परहेज करता है । कविता ‘दशमलव' विषम संख्या' ‘ड' ‘प्रश्नवाचक चिह्न' ‘फर्क तो पड़ता है साथी' आदि ऐसी अनुभूति की कविताएं हैं। अगर गौर करेंतो ये चिह्न और प्रतीक अंकीय परम्परा हो या साहित्य की हमेशा तौहीन भरी दृष्टि से देखे जाते रहे है। लेकिन कवि यहां उनके अस्तित्व की लड़ाई लड़ता है। सुधी पाठकों को उनके महत्व का एहसास कराता है। अंकों के समूह में/बस एक बार ही आकर / नया मतलब नई पहचान दे जाते है उसे। हरदम के लिए - - - सुई की नोंक जैसी काया भी हो सकती है अहम। अहसास कराया तुमने ही यह दुनिया को।
इसी कड़ी में कविता ‘ड हिन्दी वर्णमाला के साथसाथ बचपन की पाठशाला की भी याद दिलाती है जहां पर ‘ङ' पहचान के बोझ से मुक्त रख 'ङ' मायने कुछ नहीं कहने पर गुदगुदी का एहसास दिलाता था। पर आज वहीं उम्र के इस पड़ाव पर पाठक/ आलोचक की हैसियत से गुदगुदी नहीं सोचने पर विवश करता है। कवि 'ङ' के दर्द को नहीं अपितु ङ अपने दर्द को कहने के लिए कवि को मोहरा बना रहा। क्योंकि वह अपनी तौहीन से उब चुका है। वर्णमाला के अन्य चार प्रारम्भिक वर्षों की भांति जुबान और मुकम्मल पहचान चाहता, अपने कुछ नहीं अपितु कुछ होने के मायने को सिद्ध करना चाहता है जिसे आज तक नसीब नहीं हुआ। अन्ततोगत्वा कविता अपने चरम पर पहुंचती है। ङ के साथ कवि की लेखनी की न्याय की पराकाष्ठा बड़े रोचक अन्दाज में होती है
तब से एक बच्चा/बार बार अटका जा रहा था 'घ' पर
चाहकर भी नहीं बुला पा रहा है 'च' अपनी ओर
बच्चा नहीं बढ़ पा रहा है एक भी या आगे
पसीने पसीने हुए जा रहे अक्षरविद
लिपिवेत्ता भी जता रहे है यह अनुमान
कि यहां होनी ही चाहिए कोई कंठ ध्वनि
जिससे बना रहे तारतम्य सृष्टि का
यह कवि द्वारा कराया गया ‘ड के पहचान का एहसास है जिसे नकारा नहीं जा सकता। इसी प्रवाह में कविता ‘फर्क तो पड़ता है साथी' मनुष्य को जीवन में समय के महत्व को सूचित कराता है। लिहाजा समय की चहारदीवारी में पूरी दुनिया सिकुड़ी हुई है। अन्तर इतना है कि जो समय के साथ कदमताल कर लिया, मंजिल पर पहुंच गयाजो समय और पुरानी मनहूस कहावतों का रोना रोता रहा सिवाय आरोप के उसके हाथ कुछ नहीं लगता। प्रस्तुत कविता के बहाने कवि संतोष चतुर्वेदी समय की सजगता को बताकर हमारे अन्दर उर्जा और ओज का संचार करते हैं- कुछ पक्तियां- एक सेकण्ड में कर लेती है प्रकाश की किरण/ तकरीबन तीन लाख किलोमीटर तक का सफर/ और स्थिर सी लगने वाली हमारी धरती काट लेती है सैकड़ों मील का चक्कर अपने सूर्य का/ इसी एक सेकण्ड के दौरान।
कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि आज के भौतिकवादी, पूंजीवादी चकाचौंध की दुनिया में वस्तु और व्यक्ति के अस्तित्व का संकट खड़ा हो चुका है। दुनिया पग दृष्टव्य हैपग पर गिरगिट की भांति रंग बदल रही है तो फर्लाग-फर्लाग पर सर्यों की भांति केचुल छोड़ रही है, ऐसे में असलियत क्या है? अबोध पहेली बन गई है। संग्रह दक्खिन का भी अपना पूरब होता है में संकलित ‘कीमतो की दौड़ से बाहर' ‘वे हमें अकेला कर देना चाहते है' कविताएं कुछ ऐसे अन्दाज की हैं। ‘कीमतों की दौड़ से बाहर' कविता में कवि बाजारवादी व्यवस्था और विज्ञापनों की दुनिया की तीखी भत्र्सना करता है। कवि कह देता है- बाजार में होना हमेशा एक संशय में होना है। वहीं कविता ‘वे हमें अकेला कर देना चाहते है आज के समय समाज पर एक प्रश्न खड़ी करती है, बार-बार सोचने पर विवश करती है। आज हमारे समाज में आखिर ऐसी कौन सी माक्र्सवादी, वामपंथी, पूंजीवादी, हिन्दुत्ववादी, एवं साम्प्रदायिक ताकतें हैं जो हमारे जेहन में विष घोल रही हैं, मानव को दानव बनाने पर तुली हैं। मधुरता के स्थान पर कठोरता, मानवीयता के स्थान पर अमानवीयता और प्रेम के स्थान पर नफरत का बीज बो रही हैं। कवि की चिंता सहज दृष्टव्य है -
उन्हें हमारे एकजुट होने से डर लगता है
वे हमें इतना अकेला कर देना चाहते हैं
कि हमारे पैरों में कोई कांटा भी चुभे तो हम आह भी न कर पाएं।
शून्य होती मनुष्यता और हावी होती तकनीक के बीच मनुष्य अपनी अस्मिता को लेकर दोलन गति कर रहा है। आज उसकी पहचान उनके कर्मों और नामों से नहीं बल्कि उनके घर के नम्बर और मोबाइल नम्बर से हो रही है।
कविता पूरी तफ्तीश है।
किसी भी कृति की सार्थकता बहुत कुछ उसके शीर्षक पर निर्भर करती है, क्योकि शीर्षक का चुनाव रचनाकार कथ्य की सम्पूर्णता से सहज तादात्म्य स्थापित करने वाले शब्दों के टुकडों से करता है। जैसा कि संग्रह की पहचान ‘दक्खिन का भी अपना पूरब होता है' न सिर्फ संग्रह की पहचान है बल्कि संग्रह के भीतर स्वरों का एक मुकम्मल जिरह है जिसे पढ़ने के उपरांत एक नए विचार की महक आती है। दृष्टि का एक नया आयाम दिखाई पड़ता है। कविता ज्यों ही अपना मुंह खोलती हैं, दक्षिण दिशा अपनी सदियों की पीड़ा, अन्याय, अपमान, तिरस्कार, बहिष्कार, अनादर एवं जातिगत धमकी बयां करती है। कवि बड़े सहज ढंग से सदियों के संताप कोअपनी लेखनी की स्याही बनाता है। साथ ही साथ हमारे दिलो दिमाग में सदियों से दक्षिण दिशा के प्रति कील मारकर बैठी खौफजदा दहशत (जैसे दक्षिण दिशा अशुभ है, आतताइयों की दिशा है, अछूतों का निवास स्थल है) को हरसम्भव निकालने का प्रयास है जिसमें न सिर्फ कवि की लेखनी हैअपितु कवि पूरी तरह खुद सम्मिलित है
अब छिन्द्रान्वेषी गण चाहे जो मीन-मेख निकालें
निन्दक जन चाहें जो बेसिर पैर की बातें उछालें
चलते चले जाएंगे हम अपनी राह
पंक्ति पूरी तरह हमारे अन्दर की जड़ता को तोड़ती हुई हमें प्रगतिशीलता के मुहाने पर ले जाती हैऐसे व्यक्तियों की मानसिकता पर करारी चोट करती है जो सृष्टि की दिशाओं में शुमार दक्षिण दिशा को आतताइयों अछूतों से जोड़कर देखते है। भाव यहीं नहीं ठहरते बल्कि यह बताने का नैतिक साहस रखते हैं कि जिसे तुम गंदगी, बदबू, अछूतों का हवाला देकर अपनी दृष्टि का वर्जित इलाका समझते हो ऐ महानुभाव जान लो दक्षिण का भी अपना पूरब होता है। वहां भी सूर्य निकलता है अर्थात प्रतिभाएं दक्षिण दिशा में भी सूर्य की भांति निकलकर अपनी आभा और ओज को साहित्य और समाज में प्रसारित कर रही है क्योंकि कमल कीचड़ में ही खिलता है। निश्चित ही पंक्तियां बेबाकी के साथ निम्न वर्गों के उत्थान की वकालत करती हैं, असमानता/ अपृश्यता की सीमा को तोड़ती हैं।
कविता ‘तालमेल' और 'पानी का रंग' पार्थक्य चलती हैं पर एक निश्चित बिन्दु के बाद समानान्तर दिखाई पड़ने लगती हैं। अर्थात् पानी के साथ-साथ पेपर का रंग और वजूद तय करती दिखाई देती हैं। जैसे ही काले अक्षरों ने डेरा जामया/पन्नों की दुनिया हो गई गुलजार - - - यह तालमेल का जादू था/ रंगीन बना दिया जिसने। रंगहीन को भी। कविता ‘पानी का रंग' लीक और सामान्य परिपाटी से हटकर अपनी अलग पहचान बनाती है। कवि की दो टूक यथार्थवादी लेखनी विज्ञान को भी पीछे छोड़ती हुई रंगहीन को रंगीन बनाती है। उन लोगों को भी और रंग देने का प्रयास करती है जो परिचय की दुविधा में पूरा जीवन काट लेते हैं।
कुछ घटनाएं समय के साथ घटती हैं और एक निश्चित अंतराल के बाद विलीन भी हो जाती हैं। मन में उन घटनाओं में छिपे एकाध प्रसंग हमेशा खटकते रहते है। कविता ‘पेनड्राइव समय और चाबी' ऐसे प्रसंगों की तह में जाती हैं। दोनों अपने सम्बन्धी पूरकों के कद से एक छोटे अंग जरूर हैपर पद और प्रतिष्ठा से छोटे नहीं हैं
समाहित हो सकती है इसमें
सैकड़ों गायकों के जीवन भर की तपस्या
छिपा सकता है जो आसानी से
हजारों लेखकों के उम्र भर का लेखन
अपनी खामोशी में चित्रित रख सकता है जो
तमाम चित्रकारों का चित्रमय जीवन
होना तो एक चाभी की तरह होना
तुम जब कभी अलोत होओ लोग याद करें तुम्हें शिद्दत से
खोजे पागलों की तरह तुम्हें
हर जगह हर ठिकाने पर
दोनों कविताएं बुनियादी अस्तित्व को रेखांकित करती हुई जीवन के मर्म को समझने के लिए बाध्य करती हैं। संग्रह की अधिकांश कविताएं हाशिए की ही बात करती हैंपर कविता ‘ओलार' और 'खाट बीनने वाले गांव की रीति नीति, रूप-रंग प्रकृति-विकृति का व्यग्यात्मक चित्र खिचती हैं। कविता 'ओलार' चौड़े पूंजीवादी राजमार्गों को छोड़कर पतले गांव-गिराव की खबर लेने वाले रास्ते, लोगों को अपनी-अपनी मंजिल तक पहुचाने वाले इक्के/तांगे वाले तथा उसमें सवार लोगों के माध्यम से आज के समय समाज/व्यवस्था को चिकोटी काटती हुई आगे बढ़ती है। इसी तारतम्य में ‘खाट बीनने वाले' कविता कवि उन लोगों को कुर्बान करता है जिनके पसीने की एक-एक बूंद की ताकत से झोपड़ी से राजभवन, महल से ताजमहल, घर से गृहस्थी तक निर्मित हैऔर उसमें सन्निहित वस्तुएं भी।
कविता की पंक्तियां- खाट के कैनवास पर/बीनने वाले/कभी भी नही करते अपना कोई हस्ताक्षर/ जैसे रचता है कोई ऋषि ऋचाओं के नाम। वाकई दिल दिमाग को झकझोरने का कार्य करती हैं। स्थान विशेष से उठती हुई उन सभी कामगार, श्रमिकों / मजदूरों की आवाज बनती हैजिनका वजूद सिर्फ निर्माण की प्रकिया में सन्निहित है। चाहे वह चारपाई हो या विश्व की अजूबा इमारतें हो या सामान्य मकान। सबसे रोमांचक सत्य तो यह है कि कवि ने ऐसे लोगों को अपनी लेखनी का विषय बनाया जिनकी गवाही इतिहास के पन्ने देने में भी कतराते हैं।
संग्रह की कुछ कविताएं, जैसे 'निगाहों का आइना' ‘भगदड़ में ‘मुकम्मल स्वर' ‘सुराख' और 'जिदंगी' जो परिमाण की दृष्टि से लघु है लेकिन परिणाम की दृष्टि से एक सबल व सार्थक संदेश है। कविता ‘सुराख' हर बड़े की कमजोरी को इंगित करती है। मुकम्मल स्वर हर व्यक्ति/ वस्तु के निर्माण में छोटी से छोटी वस्तुओं की उपादेयता सिद्ध करता है। 'निगाहों का आइना' व्यक्ति वस्तु की वास्तविकता से रूबरू कराती है तो वहीं कविता ‘जिंदगी' असल जिंदगी को परिभाषित करती हैहर पल जीने का/दोहराव भर नहीं है जिन्दगी/ पारदर्शी सांसों की/मौलिक कविता है। अनूठीयह कहने की जरुरत नहीं है कि संतोष कुमार चतुर्वेदी के काव्य संग्रह ‘दक्खिन का भी अपना पूरब होता है' दृष्टि का एक नया आयाम है। अधुनातन भावों-विचारों की गहरी पड्ताल है। उपेक्षा की दुनिया से अपेक्षा की मुहिम है। जनजातियों, दलित, पीड़ितों, शोषितों, उपेक्षितों, स्त्रियों की एक मजबूत पैरवी है। ऊपरी तौर पर कविताएं बेहद सरल दिखती हैपर एक संवेदनशील पाठक को सरल रास्ते दिखाकर भावों विचारों की अतल गहराई में ले जाती हैं, फिर परत दर परत ऐतिहासिकता के साथ-साथ सामाजिक सूझ-बूझ की पहचान कराती हैं। रचना दृष्टि से यदि विचार करें तो संग्रह की कई कविताएं अपने विशालकाय शरीर से कवि को उनके दूसरे रूप की याद दिलाती हैं, पर प्रत्येक शब्दों में भाव इतने गुम्फित हैं कि लम्बे रास्ते में भी कविता मुरझाती नहीं, पग-पग पर करवट बदलते नये भाव चुहल करते रहते हैं। कहीं-कहीं कविताई वार्तालाप शान्तिप्रिय पाठकों को कचोट सकती है। कविता उन पाठकों को भी निराशा दे सकती है जिनकी निगाह में कविता आज भी सामाजिक समस्या नहीं अपितु प्रकृति की गोद में घंटों बैठना, कोयल की कूक सुनना प्रेम और रोमानियत में आकंठ डूबे रहना हैइन सबके बावजूद भी पूरी पुस्तक भावों की स्पष्टता और विचारों की बहुलता से सम्पृक्त है। समाज के सामान्य जनों का खुरदुरा यथार्थ है। कवि का इतिहासविद होना लेखनी में बाधक नहीं अपितु चार चांद लगाता है। लीक से हटकर सोचने की दृष्टि देती है ये कविताएं जिससे कवि साहित्य और समाज को केवल ओर से ही नहीं छोर से भी देखता है। दृष्टि की यही सक्रियता भाषा को सक्रिय करती है, जिससे पाठक भी सक्रिय होता है1
समीक्षित पुस्तक : ‘दक्खिन का भी अपना पूरब होता है', लेखक : संतोष कुमार चतुर्वेदी, प्राप्ति स्थल : साहित्य भंडार, चाहचंद, जीरो रोड, इलाहाबाद-२११००३, उत्तर प्रदेश
सम्पर्क : 1279बी, द्वितीय तल, किदवई नगर, अल्लापुर,
इलाहाबाद-211006, उत्तर प्रदेश
मो.नं. : 9598677625