लगभग पचीस तीस साल का रचनात्मक जीवन व्यतीत कर चुके वरिष्ठ कवि चन्द्रेश्वर की अपनी पहचान वैचारिक प्रतिबद्धता और ईमानदारी है। लिखते रहे छपते रहे, जन संगठनों और लेखक संगठनों में कार्यकर्ता रहे मगर पद और लाभ के लिए संगठनों और मंचों का उपयोग नहीं कियाअपनी 'कविता'' के लिए बिल्कुल नहीं किया। यही ईमानदारी किसी कवि को समर्थ रचनाकार बनाती है। यदि चन्द्रेश्वर का दशक देखा जाए तो नब्बे से दो हजार के बीच वह ठहरते हैं। उनका पहला कविता संग्रह “अब भी'' दो हजार दस में प्रकाशित हुआ था। इससे पूर्व नाट्य आन्दोलन पर उनकी किताब १९९४ में छप चुकी थी। “अब भी'' की कविताएँ नब्बे के दशक और दो हजार के दशक की हैं क्योंकि उनका नवीनतम कविता संग्रह ‘‘सामने से मेरे जिस संसार में पाठक को दाखिल करता है, जिस जमीन और ताप का बोध देता है, वह जमीन दो हजार के बाद की जमीन है। इस कविता संग्रह के सारे रंग, सारे विधान और भाव निर्मितियाँ दो हजार के बाद की उथल पुथल से स्पन्दित हैं। संग्रह की कविताओं को पढ़कर कोई भी पाठक ‘समय'' का अनुमान कर सकता है। लगभग ७८ कविताएं हैंबड़ी कविताएँ भी हैं। लम्बी कविता एक भी नहीं है। चन्द्रेश्वर समय के बिखराव और विडम्बनाओं को जिस शिल्प के साथ प्रस्तुत करते हैं, उस शिल्प में ‘‘लम्बी'' कविताओं के लिए अवकाश कम होता है। शिल्प एक माध्यम है, यह कविता की प्रभावोत्पदकता और अलहदा पहचान का कारण होता है। चन्द्रेश्वर ने कविता के किसी भी फार्मेट को गैरजरूरी नहीं समझा। फैण्टेसी, मिथक, प्रतीक, चरित्रगाथा, तनाव, अन्तर्लय, लोकछन्द, लोकगीत, सपाटकथन, वक्रोक्ति सबका अपनी अपनी जगह सन्तुलित और सटीक प्रयोग है। सारे फार्मेट भाषाई नियन्त्रण के साथ समय के संघर्षों और यातनाओं का ताप निखारते हैं। ताप और भाषा दोनों के प्रति चन्द्रेश्वर सजग हैं। यहाँ व्यवस्था की दी हुई और व्यवस्था की सहयोगी मिथ्या भाषा नहीं है बल्कि प्रतिबद्धता और ईमानदारी की श्रममूलक संस्कृति से सींची हुई मौलिक भाषा है। कवि की वेदना और समझ भाषा के सहारे फैलकर जीवन की अपराजेयता के प्रति कवि का विश्वास अभिव्यक्त करने लगती हैं। कवि की मूल संवेदना और ताकत यही है कि वह कटु यथार्थ का भोक्ता होकर, पराजयों, यथास्थितियों को ढोते हुए भी ‘‘नियति'' और ''हताशा'' जैसी अवस्थितियों में नहीं हँसता। वह परिवर्तन के द्वन्द्व'' में अटूट निष्ठा रखता है। युग विभीषकाओं का चित्र खींचकर भी वह सम्भावनाओं का शक्तिशाली स्थापत्य रचता है। उनकी एक कविता है“पिछला''। पिछला शब्द अतीत का बोधक है जबकि कविता संग्रह ‘‘सामने से मेरे'' का आशय है वर्तमान जो कवि के सामने से गुजर रहा है। कवि ‘‘सामने'' को निरपेक्ष नहीं रखता। उसे पिछले से मुक्त भी नहीं करता बल्कि अतीत और वर्तमान को आपस मे सापेक्ष रखता है। यही है वैचारिक और वैज्ञानिक नजरिया। कोई भी घटना या दुर्घटना एकदम नई नहीं होती, उसके पीछे तमाम ऐतिहासिक और सामाजिक शक्तियों का द्वन्द्व काम करता है। इसलिए वर्तमान को हम इतिहास बोध के साथ ही समझ सकते हैं ‘‘मेरी हर नई सुबह में शामिल है। पिछली सुबह / मेरे हर नए दिन में शामिल हैपिछला दिन / मेरी हर नई शाम में शामिल है। पिछली शाम / मेरी हर नई रात में शामिल हैपिछली रात''। कविता संग्रह में विचारधारा नारेबाजी की तरह नहीं आई। वह विषय और भाषा की छाया में छिपी है। विचारधारा का जब भाषा में विलय हो जाता है, बनावट व्यवहार और ध्वनि संकेतों का किसी चमत्कार से कोई नाता नहीं जाता है। भाषा वैसा ही व्यवहार करती है जैसा पाठक चाहता है। यही चन्द्रेश्वर की कविताओं में भी है।
‘‘सामने से मेरे'' जिस प्रतिरोध का सृजन करता है, वह आजकल के फैशनेबल कवियों की तरह उबाऊ, जड़ औरअसमर्थ प्रतिरोध नहीं है। उसके पीछे मनुष्यता भाईचारा, प्रेम की अविरल छाया है। प्रतिरोध की जड़ में प्रेम है। प्रतिरोध के स्थापत्य में प्रेम को बचाए रखने की जिद है। प्रेम का यही प्रण मनुष्य को बचाए रखने का आयोजन करता है जिसका प्रतिफलन कविता के रूप में होता है। चन्द्रेश्वर इसी अपेक्षित और जरूरी प्रगति के कवि हैं। प्रतिरोध का जन्म जब खिन्नता और हताशा में होता है तब कविता अपनी शर्तों से मुक्त होने लगती है। अन्तर्लय समाप्त होकर वाक्य बयानों में तब्दील होने लगते हैं। सब कुछ चित्र विचित्र जड़ा हुआ बनाया हुआ, टाँका हुआ सा प्रतीत होने लगता है। मैं ऐसी कविताओं को बैनरबाजी और पोस्टरबाजी कविता कहता हूँ। आजकल ऐसी कविताओं में आप प्रतिरोध की छलभाषा आसानी से खोज सकते हैं। मगर चन्द्रेश्वर ‘‘प्रेम'' को जीवन और जगत् से जोड़कर देखते हैं, प्रेम में छाए संकट की गहरी शिनाख्त करते हैं। इसलिए प्रतिरोध की आवेशमय अवस्थितियों में भी कविता अपने आपको कविता बनाए रखने में सफल हो जाती है और कवि अन्त तक कवि बना रहता है। उनकी एक कविता हासिल प्यार है ‘‘किसी कोशिश में ही / दिखती / जिन्दगी /प्यार बना रहता है। प्यार / जब तक उसे पाने / या हासिल करने की / दिखती है कोशिश'' इस कविता संग्रह में जो जिस प्रतिरोध का आगाज है, वह इसी कोशिश को बनाए रखने की रचनात्मक जिद हैहालाँकि प्रेम कविताएं कविता संग्रह के अन्त में हैं लेकिन वह अपनी व्यंजना और व्यापकता के कारण समूचे संग्रह में ध्वनि की तरह गूंजती रहती है। मानवीय मूल्यों और आपसी भाईचारा पर हो रहे फासिस्ट हमलों और आवारा पूँजी की नापक हरकतों के कारण कवि का गुस्सा देखने और पढ़ने की चीज नहीं महसूसने की चीज है। विशेषकर हासिल प्यार, प्यार, न हो सामना घटाव से, कितना सुख, कितने आसपास, कला गाँव में, घर के सामने की राह, राह के बारे में, जैसी बीसों कविताओं में ‘‘प्रेम'' की भूमिका और उसके अपरूपों को परखा जा सकता है
दूसरी बात कि प्रेम महज विधान नहीं है। वह अपनी समूची परिणितियों और काव्य प्रतिमानों संरचनाओं के साथ उपस्थित है। प्रेम आत्मीयता का कारण होता हैआत्मीयता व्यक्ति को उसकी जमीन उसके परिवेश और उसके लोक के प्रति लगाव का कारण होती है। “कला गाँव में'' और ‘‘कालिख'' कविता में इस लगाव के लोकपक्षीय रूप को देखा जा सकता है। यहाँ गाँव वह नहीं है जो रोमेन्टिक और भाववादी कविता में दिखता है। जहाँ केवल ऐन्द्रिक सुखबोध और कल्पनातीत संरचनाओं का बाहुल्य है। यह गाँव उत्तर आधुनिक भूमंडलीकृत, हिन्दुस्तान का गाँव है। हालाँकि कवि गाँव का विधान आधुनिक और यथार्थ करता है मगर लगाव उस रूप से करता है जहाँ प्रेम का वास्तविक सांस्कृतिक पक्ष था। ऐसी कविताएँ जहाँ कवि लोक की वास्तविकताओं पर संवाद करता है, वहाँ वह सांस्कृतिक सवाल भी खड़ा करता है। वह उस संस्कृति के प्रति बेचैनी दिखाता है जिस संस्कृति को सत्ता और पूँजी के आदमखोर निगल चुके हैं। प्रेम के विस्तार का दूसरा पक्ष है कवि की चरित्र आधारित कविताएँ। चरित्र कथा का तत्व हैंलेकिन लोकधर्मी काव्य परम्परा में लोक के प्रति आत्मीयता और लोक की वास्तविकता व यथार्थता अभिव्यक्त करने के लिए चरित्रों का सहारा लेने की पुरानी परम्परा है। गोस्वामी तुलसीदास के राम चरित्र ही थे जिसके माध्यम से उन्होने भारत में सांस्कृतिक समन्वय की बात रखी। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र कहा करते हैं कि जिस कविता में चरित्र नहीं है, मैं उस कविता को लोकधर्मी नहीं मानता। केदार,त्रिलोचन, नागार्जुन, विजेन्द्र, मानबहादुर सिंह, भगवत रावत, मलय, लगभग हर बड़े लोकधर्मी कवि ने चरित्रों के माध्यम से अपनी बात कही है। चन्द्रेश्वर की कविताएँ भी चरित्र का विधान करती हैं। अपने चरित्रों के कारण उनसे आत्मीयता के कारण कवि लोकधर्मी कविता की विशाल परम्परा में अपने आपको खड़ा कर देता है। एक समर्थ कवि की यह पहचान होती है कि वह अपने आपको परम्परा से जोड़कर समय के साथ खड़ा होता है। इसी बात का संकेत मैंने उनकी कविता ‘‘पिछला'' के सन्दर्भ में किया है कि वह इतिहास के आधार पर वर्तमान में प्रवेश करते हैं।
“सामने से मेरे'' की कई कविताएँ चरित्र का विधान करती हैं लेकिन प्रतीकात्मक रूप से मैं तीन चरित्रों का उल्लेख करूंगा-पहलवान चाचा, कामरेड जमाँ खान, साथी कमला प्रसाद। इनमें पहलवान चाचा उनके गाँव का चरित्र है, कामरेड जमाँ खान उनके संगठन का चरित्र है तो कमला प्रसाद रचनात्मकता का चरित्र है। तीन चरित्रों के माध्यम से कवि तीन तरह की समस्याओं पर बात करता है। वह पूँजी और फासिस्टों के आपसी गठजोड़ द्वारा नष्ट की जा रही साझी संस्कृति का प्रतिरोध पहलवान चचा के माध्यम से करता है। पहलवान चचा मुसलमान हैं ‘‘मुहर्रम में बाना बनैठी गदका खेलते / तो बनते दशहरे की रामलीला में ।हनुमान भी।'' यह प्रेम और आपसी सहिष्णुता हमारी साझा संस्कृति है जिसे सत्ता के आतातायी मंसूबों ने खत्म कर दिया है। यह चिन्ता हमारे हिन्दुस्तानी आत्मीयता पूर्ण विश्वास को बनाए रखने की चिन्ता है। दूसरा चरित्र उनके संगठन का है, जुमा खान, वह कामरेड है, पूँजी के खिलाफ लड़ते हैं जमीनी कार्यकर्ता हैं। तमाम अवसरवादी अन्य पार्टी का टिकट लेकर विधायक मन्त्री बन जाते हैं। जमा खान अपने संगठन में अपनी सियासी जमीन में अविचल खड़ा रहता है। इस कविता के माध्यम से संगठनों में काबिज अवसरवादियों के चरित्र की आलोचना की गई है। आज वाम दल ऐसी ही समस्या से जूझ रहे हैं। तीसरे चरित्र हैं, कमला प्रसाद। कवि ने इनके साथ अपनी आत्मीयता और प्रेम के बहाने कमला के व्यक्तित्व का स्मरण किया है। इन तीनों कविताओं द्वारा कवि की चरित्र गढून क्षमता को भली प्रकार परखा जा सकता है। जब चरित्र गढून क्षमता को भली प्रकार परखा जा सकता है। जब चरित्र केवल आत्मीय होते हैं तो कमजोर होते हैं। आत्मीयता के साथ सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते हुए कवि के सरोकारों को व्यजित करना श्रेष्ठ चरित्र की पहचान है और इस पहचान को अर्जित करने में चन्द्रेश्वर पूरी तरह सफल रहे हैं। “सामने से मेरे'' का मूल स्थापत्य प्रतिरोध है। यह प्रतिरोध अपनी साझा विरासत भाईचारा प्रेम को बचाने के लिए है। इसलिए कवि अपनी बात किसी भी फार्मेट में करे, वह अपनी चिन्ता को ही मुख्य पटल पर रखता है। इस चिन्ता का सबसे सकारात्मक और सामयिक पक्ष है चन्द्रेश्वर की वे कविताएँ जिनमें वे ‘‘फैण्टेसी'' और ‘‘मिथक'' का साझा व अर्थवान प्रयोग करते हैं। यहाँ फैण्टसी छिछली नहीं है। काव्य चमत्कार व कलात्मक उछलकूद की बजाए कवि वैचारिकता सामयिकता और प्रतिरोध तीनों का सामन्जस्य रखता है। ऐसी कविता संग्रह की शुरुआत में हैं। उनका नायक है ‘‘राजा जी''। यह राजा जी राजतन्त्र का राजा नहीं है बल्कि भूमंडलीकृत लोकतन्त्र का चुना हुआ नायक है। यह चरित्र भी है, मिथक भी, प्रतीक भी। इस राजा की व्याख्या हर तरीके से हो सकती है। लोकतन्त्र का वर्तमान स्वरूप किसी से छिपा नहीं है। जनता के वोट से चुने गए नरेशों का चरित्र इस राजा जी के चरित्र से मिलता जुलता है। ‘‘राजा जी की थीं दो ही भुजाएँ / वे हरकत में आती थीं सेल्फी लेने के लिए'' इस श्रृंखला में समय बोध इतना सक्रिय और गतिशील है कि ये कविताएं एकदम ताजी और अभी की प्रतीत होती हैं। राजा जी की दो आँखें, राजा जी के दो कान, राजा जी की नाक, राजा जी की दो भुजाएँ, राजा जी का सिर, राजा जी का पुरस्कार, गन्दी बात, मेरे साहब मेरे राजा जैसी कविताएँ, इसी शिल्प और प्रयोग की हैं। इन कविताओं में भाषा के विलक्षण और विविधधर्मी प्रयोग सहज ही देखने को मिल जाते हैं। जीवन जगत् और समय से जुड़े रहने की मंशा और भावों, विचारों व लोक के प्रति अटूट आस्था से भरा पूरा समर्पण ऐसे प्रतिरोध को सार्थक बनाता है। सार्थकता के साथ-साथ देश काल के तमाम तनावों संघातों का चरित्र विधान के रूप में उपस्थित होना स्पष्टवादिता का नया सौन्दर्यशास्त्र भी रचता है।
सामने से मेरे हमारे समय का ज्वलन्त दस्तावेज है। यही वह सदी है जिसमें साम्प्रदायिक फासीवाद इस देश, मुल्क का भाग्य विधाता बना, किसानों ने आत्महत्याएँ की, युवा बेरोजगार हुए, भ्रष्टाचार ने आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया, धर्म और जाति की खांई बढ़ी, लेखक मारे गए। इस कविता संग्रह में वर्ष दो हजार के बाद की सारी घटनाओं का अक्स हैकवि ने आदमी के भीतर समय के भय को पहचाना है और समय की हिंसा को पहचाना है। वह आदमी के लिए चिन्तित है, जिस लोकतन्त्र के लिए हजारों कुर्बानियाँ दी गई, उस लोकतन्त्र के लिए चिन्तित है, भीड़ में तब्दील होते आदमी को लेकर चिन्तित है। देशभक्ति के अराजक रूप से चिन्तित है। सामने से मेरे ऐसी तमाम चिन्ताओं का कविताकरण करता है जिनसे हर एक संवेदनशील व्यक्ति पीड़ित है 1
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