'लेख - समकालीन कविता का देशान्तर - भरत प्रसाद

जन्म : 25 जनवरी 1970 ई. ग्राम : हरपुर, जिला : संत कबीर नगर (उत्तर प्रदेश) शिक्षा : एम.ए., एम.फिल., और पी-एच. डी. (हिंदी विभाग) जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110007 रुचियाँ : साहित्य, सामाजिक कार्य और पेंटिंग साहित्य की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में लेखों, कहानियों और कविताओं का निरंतर प्रकाशन।


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भारतवर्ष की समकालीन कविता विश्व कविता का ही एक चमकदार, स्मरणीय और सशक्त पक्ष है। हिन्दी सहित पंजाबी, मराठी, गुजराती, उड़िया या तेलगू साहित्य में कविता का मौजूदा स्वर प्रगतिशील बेचैनी का स्वर है। यह प्रगतिशीलता माक्र्सवाद से प्रेरित होते हुए भी उससे आगे और अलग हटकर जीवन-सत्य को परखती और प्रकट करती है। फैशन, चलन, व्यक्तित्व और संगीत जिस तरह सीमाविहीन होते हैं, ठीक उसी तरह साहित्य सृजन की शैलियाँ, उसे प्रेरित करने वाली विचारधाराएँ और उसके अन्तर्गत उठाए जाने वाले विषय। यूरोप में जब रोमांटिक युग का उदय हुआ, तो कुछ वर्षों के फासले पर बंगाल की खाड़ी के रास्ते से कल्पनावादी भावधारा ने बंगला साहित्य में दस्तक दी जिसके सबसे उद्दाम गायक बने रवीन्द्रनाथ ठाकुर।


      समकालीन विश्व कविता लगभग ५०-६० वर्षों का श्रेष्ठ इतिहास मानी जा सकती है। जिसके केन्द्र में युद्ध की विभीषिका, गुमनाम आदमी का जीवन संघर्ष, स्त्री की आकांक्षा, उसके अधिकार दैहिक और मांसल प्रेम, पर्यावरण, प्रकृति का पुनर्सम्मान, नैतिक मूल्यों का पुनर्जागरण और वैयक्तिक उलझनों, कंठाओं, आत्मसंघर्ष और सपनों की अभिव्यक्ति मुख्य रही है। किन्तु इन सब प्रवृत्तियों से अलग और विशिष्ट प्रवृत्ति रही है-राजनीतिक चेतना। पिछले ५० वर्षों के दौरान जिस दर्जे की और जितनी प्रखर राजनीतिक चेतना विश्व कविता में प्रकट हुई है। - वैसी पहले किसी भी दौर में नहीं देखी गई। यह संयोग मात्र नहीं है कि इसी काल खण्ड़ में ‘नागार्जुन' राजनीतिक चेतना के शिखर कवि के रूप में स्थापित हुए। विश्व-फलक पर ऐसा ही श्रेय पाब्लो नेरूदा, बर्नोल्ट ब्रेष्ट, नाजिम हिकमत, शिंबोस्क, महमूद दरवेश इत्यादि को बेहिचक दिया जा सकता है। क्रमशः बढ़ती अतः बदलती शताब्दी के अनुसार ज्यों-ज्यों राजनीति में दुहरा, तिहरा, सौहरापन आया, जैसे-जैसे वोट, कुर्सी और नोट की पालिटिक्स ने सत्ता जमाई-वैसे-वैसे समकालीन कवियों की राजनीतिक समझ सूक्ष्म, प्रखर और परिपक्व होती  चली गई।


      देशज वेदना के गायक


         चिली के विश्व-प्रसिद्ध कवि नेरूदा वैसे तो आम जनता की वेदना के प्रतिबद्ध गायक माने गए, किन्तु उन्होंने न सिर्फ शब्द के दम पर बल्कि जीवन कर्म के बल पर भी खुद को जिस राजनीतिक चेतना का दार्शनिक व्यक्तित्व प्रस्तुत किया - वह अपने आप में विरल उदाहरण है। लगभग ५००० कविताओं का काव्याकाश खड़ा कर देने वाले नेरूदा को सर्वाधिक प्यार देश की मिट्टी से है, जंगली प्रकृति से है, फसलों-खेतों-घासों-वृक्षों वनस्पतियों से है, पक्षियों और जीव-जन्तुओं से है या फिर गिट्टी बिछाने वाले, लोहा गलाने वाले श्रमिकों से, कह पाना बेहद कठिन। अपने रचनाकार की शुरुआत नेरूदा ने रोमैंटिक, प्रेमाकुल और मांसल प्रेम कविताओं से की। और अन्त के शिखर को छूते-छूते क्रांति चेतना के समर्पित गायक के रूप में तब्दील हो उठे। उनकी रचनात्मक मेधा से मंत्रमुग्ध होकर लिखी गई प्रशस्तियों की लम्बी कतार है। जबकि खुद पाब्लो अपने बारे में कितना सन्तुलित और आत्म-मुक्त वक्तव्य देते हैं- यह गौर करने लायक है - * “कठिन साधना, लम्बी खोज और लिखित । शब्द की भूलभुलैया से गुजरने के बाद मैं अपनी जनता का । कवि हो सका । मेरा पुरस्कार यही है।''


     पाब्लो नेरूदा का सर्जनात्मक वैविध्य वाकई आश्चर्यजनक है। ऐसा कवि जिसमें प्रौढ़ता है तो जादुई कच्चापन भी, मांसलता है तो अलौकिक चिंतन भी, प्रकृति की भक्ति है तो धर्ममुक्त अध्यात्म भी, सूत्रात्मकता है तो खालिस वर्णनात्मकता भी। ‘लिख सकता हूँ कविताएँ', घूमते हुए, माच्चु पीच्चु के शिखर, और कितना जिएगा? प्रजनन और कुछ नहीं, जनता, रूको ओ पृथ्वी, यही है सादगी और लौटते हुए' शीर्षक कविताएँ नेरूदा की विलक्षण काव्यदृष्टि को अमर सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं। 'मंथन' कीजिए ‘जनता' शीर्षक कविता की इन पंक्तियों पर - रथों के टुकड़े-टुकड़े हो गए थे/ युद्ध ने नेस्तनाबूद कर दिए दरवाजे और दीवारें शहर हो गया था मुट्ठी भर राख/ सारी पोशाके धूल बन गई थी और मेरे लिए वह मौजूद है। मिट्टी गारे में जिन्दा है। जबकि पहले सब कुछ। अमिट लगता था, सिवा उसके। (रुको ओ पृथ्वी, पृ. १२७)


     विश्व कविता का लौह मूर्तिकार


      फिलिस्तीन देश, गैलिली प्रांत, अलबिरवा नामक गाँव - यह अपने देश के राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात महमूद दरवेश का प्रथम परिचय है। १३ मार्च १९४१ को जन्मे महमूद को समकालीन विश्व कविता का अमिट सृजनकार माना जाता है। मात्र १९ साल की उम्र में ‘पंखहीन चिड़िया' काव्य-कृति की रचना कर महमूद ने अपनी आगामी दस्तक का संकेत दे दिया। इनकी कई प्रारम्भिक कविताएँ ‘अल जदीद' पत्रिका में निरन्तर प्रकाशित होती रहीं। प्राचीन विश्व कविता में अरबी कवियों का अपना विशेष स्थान रहा है। स्वयं दरवेश भी ‘आबेद-अल-वहाव', 'बयाती' और ‘बदर' जैसे मूल्यवान


पाब्लो नेरूदा


अरबी कवियों से खासे प्रभावित रहे। यद्यपि उनकी रचनाशीलता का मुख्य स्वर साम्राज्यवाद के खिलाफ रोम-रोम से विद्रोह और युद्ध की अमानवीय विभीषिका को तार-तार प्रस्तुत कर उसके प्रति घनघोर घृणा का जोश उत्पन्न करना है। कुल ३० काव्य कृतियों और ८ गद्य रचनाओं के शिल्पकार महमूद का सारा जीवन ही फिलिस्तीन की आहत-क्षत-विक्षत आम जनता को समर्पित कहा जा सकता है। अपने मकसद को उच्च स्वर देने के लिए महमूद ने अलजदीद, अलफज्र और अल कार्मेल नामक तीन साहित्यिक-वैचारिक पत्रिकाओं का संपादन भी किया। ‘परिचय पत्र' महमूद की प्रतिनिधि कविताओं में से एक है। १ मई १९६५ अर्थात् मजदूर दिवस के दिन नाजरेथ के सिनेमा हाल में खुद महमूद द्वारा किया गया इस कविता का पाठ एक घटना के रूप में अमर हो चुका है। लीव्स ऑफ ओलिव्स' (१९६४) इनका प्रारम्भिक काव्य संग्रह है। इस संग्रह की सर्वाधिक प्रसिद्ध कविता है - ‘अदर बारबेरियन विल कम'। प्राचीन अरबिक कवियों के गहरे प्रभाव के कारण उनकी प्रारम्भिक कविताएँ क्लासिकल रंग की चमक देती हैं। धीरेधीरे महमूद दरवेश अरबी कविता की क्लासिकी से मुक्त हुए और १९७० के बाद इनकी रचनाओं में मुक्त काव्य शिल्प का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देने लगा। दरवेश ने प्रसिद्ध हिब्रू कवि यहूदा अमीखाई को अपना प्रिय कवि माना और उनसे रचनात्मक प्रतिस्पर्धा की बात भी कुबूल की। वैसे तो दरवेश के सृजन को शब्दों-पन्नों और व्याख्यों में बांधा नहीं जा  सकता किन्तु कुछ काव्य संग्रह जिन्होंने इस राष्ट्रीय कवि को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी, वे हैं - 


मजमूद दरवेश


वर्ड्स ऑफ  गैलिली, ए लव फाम फिलिस्तीन (१९६६), द एण्ड ऑफ द नाइट (१९६७) माइ विलव्ड अवेकेन्स (१९६९), राइटिंग इन द लाइट ऑफ द गन (१९७०), बर्स आर डाइंग इन गैलीली (१९७०), आइ लव यू, आइ लव यू नाट (१९७२), सैण्ड एण्ड अदर पोयम्स (१९८६) तथा इलेवन प्लेनेट्स (१९७२ ई.) । गद्य रचनाओं में इनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति है - मातृभूमि के बारे में कुछ बातें (१९७१)। दूसरी अन्यगद्य कृति जिसे कवि को सशक्त गद्यकार की छवि देने वाला कहा जाता है - वह है - ‘फेयरवेल वॉर, फेयरवेल पीस (१९७४)। ‘इन द प्रजेंस ऑफ एब्सेंस' को दरवेश की अंतिम गद्य कृति माना गया। ‘निर्वासन' उनकी प्रसिद्ध लम्बी कविताओं में से एक है। कायरता, पलायन, भयग्रस्तता, असहायता जैसे काले-पीले-स्याह भाव जो अनिवार्यतः युद्ध और आतंक की विभीषिका से पैदा होते हैं - दरवेश ने पूरी शिद्दत के साथ अपनी कविताओं में दर्ज किया। ‘घेराबंदी की हालत' (२००२) काव्य संग्रह की कुछ पंक्तियाँ गौर करने लायक हैं -


      मैं चीखेंगा अपने अकेलेपन में।


      सोते हुओं को जगाने के लिए नहीं


      बल्कि इसलिए कि मेरी चीख जगा दे मुझे


      अपनी बंदी कल्पना सै।


(साभार - ब्लॉग - पढ़ते-पढ़ते, अनुवाद - मनोज पटेल)


      सुप्रसिद्ध पुर्तगाली उपन्यासकार ‘जोसे सारामागो' ने महमूद दरवेश की पहली पुण्यतिथि पर फिलिस्तीनी महाकवि को याद करते हुए लिखा - ‘‘फिलिस्तीनी जनता के कष्ट और उनकी शाश्वत अभिलाषा से उपजी दरवेश की कविताओं में एक सुघड़ सुन्दरता है जो अक्सर हमें चंद साधारण से शब्दों के सहारे अनिर्वचनीय गूढ़ क्षणों में ला छोड़ती है। ठीक किसी डायरी की तरह जहाँ कोई भी व्यक्ति कदम-दर-कदम आँसू की बूंद-दर-बूंद ऐसे लोगों की दुर्गति का, साथ ही गहरे किन्तु दुर्लभ खुशी के क्षणों का भी सुराग पा सकता है, जो पिछले साठ सालों से एक यंत्रणा से होकर गुजरे हैं।''


                                                                                                                                      (ब्लॉग - पढ़ते-पढ़ते ;अनुवाद - मनोज पटेल)


      बात कहने का अंदाज


      पाब्लो नेरूदा और निकानोर पार्रा चिली में जन्मे ऐसे शिखर हैं, जिन्हें आधुनिक स्पेनिश कविता के दो ध्रुवान्त कहा जा सकता है। पार्रा की विलक्षणता इसी से ऑकिए कि वे खुद को कोई कवि नहीं बल्कि प्रति-कवि कहलाना पसन्द करते थे। आगे चलकर यह कृति लैटिन अमेरिकी साहित्य की रचना के रूप में स्थापित हुई। २००६ में उनकी सम्पूर्ण कविताओं का संकलन - ‘कम्पलीट वर्क एण्ड मोर' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। ऐसी प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ जिन्होंने निकानोर को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई वे हैं - मैनिफेस्टो-१९६३, रशियन सांग्स-१९६७, द टीचर्स-१९७१, आर्टि फैक्ट्स-१९७२, पालिटिकल पोएट्री-१९८३, ह्वाइट पेजेस-२००१। १९६७ ई. से पार्ट ने छोटी कविताएँ लिखना प्रारम्भ किया, जो कि जापानी काव्यशैली ‘हाइकू' का आभास देती हैं। इसका एक उदाहरण ‘बंद करो बकवास/ कोई हद होती है। २००० सालों से चला आ रहा है झूठ (ब्लॉग - पढ़ते-पढ़ते ; अनुवाद - मनोज पटेल)


       सूत्र कविता का प्राण कवि का वह सिद्ध-चिंतन है। जो कि न जाने कितने गहरे और असाधारण आत्ममंथन का निचोड़ होता है। इसलिए श्रेष्ठ लम्बी कविता खड़ा करना जितना कठिन है, उतना ही कठिन तत्वपूर्ण लघु कविताएँ लिखना। मध्यकाल को छोड़ दें तो आधुनिक शायरी के क्षेत्र में मिर्जा गालिब के बाद कोई नया कोहिनूर-ए-शायरी चमकता हुआ दिखाई नहीं देता। ‘देखन में छोटे लगे' का मुहावरा हाइकू, गजल और शायरी के साथ ही लागू होता है। अपने मजाकिया अंदाज में पार्रा किस तरह पते की बात कह ले जाते हैं - तनिक देखिए - ‘ईसा मसीह के दिखाए रास्ते पर चलो जिनके कोई औलाद नहीं थी/ या सीधे-सीधे परम पिता परमेश्वर के आदर्श का पालन करो। जिनके लिए एक ही  औलाद काफी थी (कविता - जनसंख्या विस्फोट को रोकने का सूत्र - अनुवाद - मनोज पटेल, स्रोत उपरोक्त)


     जहाँ लिबर्टी एक स्टैच्यू है, मंहगाई, भिखारी, आत्मा को शान्ति मिले, पोप की कविताएँ तथा ‘एक ताबूत की स्मृतियाँ उनकी उल्लेखनीय कविताओं में से एक हैं। पार्रा की कविताओं में एक धीमा-गहरा व्यंग्य, विनोद और हास्य है- विसंगतियों, जड़ताओं, विवेकहीनता और कुव्यवस्था के प्रति। खीझ भरी हंसी और इनकार का आत्मविश्वास इनकी कविताओं में मुखरित होता हुआ अवश्य देखा जा सकता है। कविता के शिल्प में अनोखे और कुछ हद तक चौंका देने वाले निकानोर पार्रा को कई बार नोबेल पुरस्कार' के लिए भी नामित किया गया। वैसे - स्पेन का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ‘सर्वेन्तीज पुरस्कार' पाने वाले पार्रा आज विश्व की किसी भी भाषा में परिचय के मोहताज नहीं हैं।


जन प्रेम का नैतिक बल


     जुलाई १९३४ को पश्चिमी नाइजीरिया के योरूवा नामक जिले में जन्मे वोले शोयिंका को 'जनकवि' का दुर्लभ सम्मान प्राप्त है। अपने प्रारम्भिक जीवन में शोयिंका को १८-१९ सदी के पूर्ववर्ती कवियों का अनुकरण करते देखा जा सकता है। अपने युवा काल में विश्व साहित्य का अनथक अध्ययन करके शोयिंका ने सृजन की अविस्मरणीय शैली विकसित की। उनकी चेतना को जापान, चीन, तथा भारत के महान प्राचीन । साहित्य ने पर्याप्त उर्वर बनाया। समूचा अफ्रीका महाद्वीप ही एक लम्बे काल तक ब्रिटेन का उपनिवेश रहा है, जिसमें नाइजीरिया जैसे छोटे, अल्पविकसित देश को शामिल किया जा सकता है। शोयिंका की धमनियों-शिराओं में देश की गुलामी का दर्द कैसे संकल्प बनकर बहता था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है, कि ब्रिटेन के साम्राज्यवाद के खिलाफ इस जनकवि ने सीधी लड़ाई छेड़ी। उनकी कविताएँ भी साम्राज्यवाद की दमनकारी नीति और रंगभेद जैसी जघन्य आपराधिक मानसिकता के खिलाफ प्रतिरोध रचती हैं। एक वक्त ऐसा भी आया जब उन्हें मृत्युदण्ड की सजा भी। मिली जिसके कारण शोयिंका को बेवतन होना पड़ा। १९८६ । में साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने वाले शोयिंका पहले। अश्वेत कवि बने। कैदी जीवन की यातना और आत्मपीड़ा । को सृजनबद्ध करने के लिए शोयिंका ने ‘पोयम्स फ्राम प्रीजन' पुस्तक लिखी। ‘द मैन डाइड (आदमी मर गया है) उनकी आत्मकथा है, जिसका प्रकाशन १९७१ ई. में हुआ। शोयिंका कुछ समय के लिए सम्पादक भी बने और अनुवाद पत्रिका का सम्पादन किया। अपने सम्पादकीय में शोयिंका ने नीग्रो समाज पर ढाए जाने वाले जुल्म और हिंसा परस्त सैनिक शासन की साहसिक निन्दा की। ‘मिथ लिटरेचर एण्ड अफ्रिकन वर्ल्ड' वह पुस्तक है जिसमें प्रतिरोध और हिम्मत का प्रतिमान रचने वाले कवि के धारदार लेख सम्मिलित हैं। देश में मशाल जलाने वाली पुस्तकों पर सरकारी प्रतिबंध लगा दिया जाना लगभग प्रत्येक क्रांतिकारी लेखक के इतिहास की नियति है। शोयिंका के साथ ऐसा ही कुछ हुआ। लग गया प्रतिबंध, वो भी नाइजीरिया की अदालत के द्वारा- वह पुस्तक, वह आग है - ‘आदमी मर चुका है। यह जनकवि अपने देश की धड़कनों से कभी जुदा न हो पाया, उनके लिए अवाम की पीड़ा, मुट्टियों में कसाव लाने और कागज पर बगावत की इबारत रचने का मूल कारण थी। वे असंख्य नाइजीरियाई जन जो कि अपने स्वाभाविक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं - शोयिंका उम्र ढल जाने के बाद भी उनसे कदम ताल मिलाते हुए संघर्ष कर रहे हैं।


     जूलियस न्येरेर के प्रति, मेरी धरती के लिए फूल, जीवित समाधि, बहुत ही तनिक प्रेम से, भोर, ऋतु, जैसी कविताएँ शोयिंका को अपनी जन प्रतिबद्धता पर अडिग रहने वाले निडर कवि का अक्स प्रदान करती हैं। अपनी इन चन्द पंक्तियों में शोयिंका ने किस तरह लोकमूल्य का बीच पिरोया है - ध्यान देने लायक है - रोटी है सबके लिए रोटी पृथ्वी की/ पृथ्वी द्वारा/ पृथ्वी ही समूची जनता है। (ब्लाग - पहली बार; अनुवादः वरिष्ठ कवि विजेन्द्र)


      स्पष्ट राजनैतिक चेतना की तीक्ष्ण चमक उनकी कविताओं में लगातार देखी जा सकती है। ये कविताएँ किसी कला की उपज नहीं, न ही साहित्यिक कसौटियों की मोहताज हैं बल्कि उनमें न्याय की खुद्दारी है, सच्चाई की ठसक है, ईमानदारी का आक्रोश और जनप्रेम का नैतिक बल है जो कि शोयिंका को अनिवार्य कवि बनाने के लिए काफी है।


दुर्लभ सहजता के माहिर कवि


     मार्च १९२३ को सीरिया में जन्मे निजार कब्बानी को आज समूचा विश्व अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के कवि के रूप में समादृत करता है। अरबिक राष्ट्रवाद के अतिरिक्त स्त्री पक्षधरता, प्रेम और सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति उनके समूचे सृजन की चिरस्थायी विशेषताएँ हैं। 'द ब्रन्टल टोल्ड मी (ब्रन्टल ने मुझसे कहा) कवि का पहला काव्य संग्रह है जो कि विद्यार्थी जीवन में ही प्रकाशित हो चुका था। निजार में स्त्री-सौंदर्य के प्रति एक दुर्लभ ठवसकदमे भी है, जिसका प्रमाण है स्त्री के अंग-प्रत्यंग की रागात्मक प्रशंसा। कब्बानी के युवा जीवन काल में ही उनकी बड़ी बहन को बेमेल विवाह से आहत ।


निजार कब्बानी


होकर आत्महत्या करनी पड़ी, जिसका विषम घाव निजार को जीवन भर शालता रहा और व्यावहारिक एवं रचनात्मक दोनों स्तरों पर निजार जड़ सामाजिक रूढ़ियों से लड़ने के लिए अपने संकल्प को मजबूत करते रहे। देश प्रेम का प्रत्यक्ष उदाहरण पेश करते हुए उन्होंने अपना अन्तिम संस्कार सीरिया। के दमिश्क' शहर में सम्पन्न कराने की इच्छा जीवित रहने के दौरान जाहिर की थी। केवल १६ साल की उम्र में ही निजार के भीतर काव्य सृजन का नवोन्मेष आरम्भ हो चुका था। लगभग ३४ काव्य कृतियों के महारथी निजार निश्चय ही अपने । देश के शिखर-प्रहरी कहे जा सकते हैं। चाइल्डहुड ऑफ ब्रेस्ट-१९४८, पोयम्स-१९५६, माइ विलव्ड-१९६१, बुक ऑफ लव-१९७०, सौ प्रेम पत्र-१९७०, कानून के खिलाफ कविताएँ-१९७२, प्रेमी का शब्दकोश-१९८१, आइ मैरिड यू लिबर्टी-१९८८, क्या तुम मेरे शोक का विलाप सुन रहे। हो?-१९९१ निजार की प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ हैं। इतना ही क्यों? जब कविताओं में अपनी आकंठ मचलती बेचैनी को। नहीं बाँध पाए तो गद्य रचने के लिए कलम उठाई और लिख डाली नायाब गद्य-कृतियाँ। इनमें - माइ स्टेारी विद पोएट्री, कविता क्या है?, कविता, सेक्स और क्रान्ति, कविता हरी रोशनी है, पक्षी को वीजा की जरूरत नहीं तथा ‘मेरी कविता और मेरे जीवन में स्त्री' अविस्मरणीय हैं। प्रेम के प्रति गहरे, अनोखे और कल्पनाशील एहसासों से लदे-भरे निजार किस । तरह शब्दों में अपनी खासमखास अनुभूतियों को पिरोते थे, इसका एक नमूना देखिए - मेरी कविता और तुम्हारा चेहरा! दो अशर्फियाँ हैं सोने की दो कपात हैं और दो फुल कनेर के हैरान हूँ अभी तक कि कौन है सबसे खूबसूरत ? (ब्लॉग - पढ़ते-पढ़ते; अनुवाद : मनोज पटेल)


    यकीनन कब्बानी दुर्लभ सहजता के माहिर कवि हैं। शब्दों और वाक्यों के बहाने बात जो कहनी है - वो सीधेसीधे स्वाभाविक कथन के अंदाज में रखने की खासियत कब्बानी को सबसे अलग चेहरा देती है। सृजन को जहाँ अनिवार्यतः कला के अधीन माना जाता है - वहाँ अभिधा शैली में रचना करना आत्मघाती कदम मान लिया जाता है, किन्तु आमजन को सदैव वही साहित्य भाया है और मनोमस्तिष्क पर छाया है, जो अभिधा शैली में सहज अभिव्यक्ति करके सधी हुई जीवन-दृष्टि और परिपक्व दार्शनिकता का नजारा पेश करता है। निजार ने प्रेम को इज्जत बख्शने का संस्कार बड़ी तैयारी से सीखा और एक परिपूर्ण प्रेमी की तरह हृदय, मस्तिष्क, शरीर, विवेक और संवेदना के साथ प्रेम से प्रेम किया। उनके प्रेम में यदि मांसलता की प्रेमान्ध वासना चीखती तो निश्चय ही उन्हें असहज प्रेम का गुलाम कवि घोषित कर दिया जाता, किन्तु ऐसा कहे जाने से निजार ने खुद को बचा लिया। राष्ट्रप्रेम मानो उनकी धमनियों से रिसकर कलम में बहता है।


     विश्व कविता के आकाशवत् परिदृश्य को केवल पाब्लो नेरूदा, महमूद दरवेश या निकानोर पारी से कतई नहीं समझा जा सकता। यह अवश्य है कि विश्व कविता की मिठास का आनन्द लेने के लिए ये कवि दही के अलौकिक स्वादमय आश्चर्य की तरह अवश्य हैं। अधिक विस्तार में न जाते हुए भी कुछ ऐसे देशान्तरी कवियों का उल्लेख आवश्यक है - जिन्होंने कविता के नए प्रदेशों को खोजा, नई लकीर खींची, नया नक्शा पेश किया और कविता को नया चेहरा, पृथ्वीमय अक्स प्रदान किया। उनमें - नाजिम हिकमत (जनवरी - १९०२ - जून - १९६३, (तुर्की कवि), येहूदा आमिखाई (मई - १९२४ - सितम्बर - २०००, इस्रायली कवि) दून्या मिखाइल (१९६५ - पुस्तक 'द वार वक्र्स हार्ड', (इराकी कवयित्री) वेरा पाव्लोवा (१९६३ - मास्को, रूसी कवयित्री) लैंग्स्टन हृयूज (फरवरी - १९०२-१९६७ अमेरिकन कवि) इतालो काल्विनो (अक्टूबर - १९२३ - सितम्बर - १९८५, इटैलियन कवि) चेस्लाव मिलोश (१९११-२००४ पोलिश कवि) सादी यूसुफ (१९३४ में जन्म-बसरा) का नाम २०वीं सदी के विश्व साहित्य के इतिहास में सदा के लिए अविस्मरणीय हैं। ।


                                                                                                                         सम्पर्क : एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय


                                                                                                                        विश्वविद्यालय, शिलांग-793022, मेघालय


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