लघु कथा - रोटी की कीमत - राधेश्याम भारतीय

प्यारे लाल कई सालों से दिल्ली में रह रहा था। आज जब वह शहर आया तो अपने परम मित्र रामभज से मिलने उसके घर पहुँच गया। परिवार की कुशलक्षेम जानने के बाद नौकरी पेशे के बारे पूछा?''


     "भाई साहब पिछले साल सेवानिवृत हो गया थालड़का कहीं जमकर काम धंधा नहीं कर रहा था। दो महीने यहां, चार कहींसोचा था इसका रोजगार जमवा दें। बस रिटायरमैंट पर मिले पैसे से उसकी दुकान खुलवा दी थी। पर.........।''


       ‘‘पर क्या?''


        ‘दुकान चली ही नहीं।''


        ‘रामभज भाई, कई बार किस्मत दो कदम आगे चलती है.......।''


        ‘‘किस्मत भी बनाए से बनती है भाई साहब। दुकान तो ठइया मांगती और वह कभी जमा नहीं। उसका जो भी मित्र आता उसी के साथ हो लेता। कई बार तो पड़ोसी को यह कहकर कि अभी आया ऐसा जाता कि शाम तक लौटता। मैं दुकान पर जाता तो सूखी लकड़ी-सा जलता। पर आजकल के बच्चों से कुछ कहते भी डर लगता है।''


        " दत्तामल जी का क्या हाल है?''


        ** वे तो बड़े मजे में हैं। उन्होंने वह दुकान बेच दी है...''


        “क्या उनकी भी दुकान.......?'' रामभज के कहने से पहले ही प्यारे लाल ने अपनी आशंका व्यक्त की।


        “नहीं भाई। ऐसा न कहो। उन्होंने तो बहुत तरक्की की हैवह छोटी दुकान बेचकर और कुछ पैसा मिलाकर दो दुकानें खरीद ली हैं। दोनों बच्चों के अलग-अलग करोबार शुरू कर दिए हैं।''


        “कमाल है भई! उन लोगों के पास तो इतना धन भी नहीं था। देश विभाजन पर जब वे इधर आए थे, तो खाली हाथ थे।''


        “यह बात तो सही है। भगवान भी मेहनत करने वालों का ही साथ देता है। पर असल बात तो और ही है?''


       " वह क्या?'' प्यारे लाल ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा।


        “भूख ! उन लोगों ने भूख देखी है..... वे रोटी की कीमत समझते हैं। जबकि हमारे बच्चे......इतना कहते हुए रामभज के चेहरे पर मायूसी छा गई थी।