लघु कथा - बेटी का दर्द - कृष्ण चन्द्र महादेविया

रत्नी कनैतण की बेटी स्कूल से लौटकर उसकी टांगों से लिपटी रोती ही जाती थी। मां के प्यार करने और पुचकारने का भी कोई असर न दिखता था। बस एक ही रट लगाए थी।


      ‘बता न मां, मेरा नाम क्यों नहीं रखा?..... बिना नाम की क्यों रखा मुझे। बिना नाम की क्यों रही मैं... बता न मां।'


      नाम रत्नी कनैतण का दिल भर आयाबेटी का जानबूझकर कोई नाम न रखने का अपराध बोध उसे भीतर ही भीतर कचोटने लगा था। फिर भी वह तरह-तरह का प्रलोभन देकर एक बार फिर बेटी को चुप कराने का प्रयास करने लगी, पर बच्ची रोती ही जाती थी। आखिर थकहारकर रत्नी कनैतण उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरती बोली- 'बेटी, तुम्हारा नाम इसलिए नहीं रखा कि तुम्हारे बाद फिर बेटी पैदा न हो, बेटा ही हो। देख अब मेरे पेट में तेरा भैया है। नाम का क्या है तुम भी तो हमारी प्यारी बेटी हो न।'


      ‘नहीं हूँ प्यारी बेटी, मेरा नाम रख दिया होता तो भैया नहीं आना था क्या?' रोने से चुप होकर बच्ची बाल सुलभ गुस्से में बोली।


       'हां, तुम्हारा नाम रख दिया होता तो भैया नहीं आना था। देवता के गुरू ने यही कहा था और पूरे घर-गांव में यह पक्का विश्वास है।


       ‘मांऽऽ ! यदि आपके पेट में भैया नहीं दीदी ही होगी तो क्या उसका भी नाम नहीं रखोगी?' अपनी मां की आंखों में झांकते बच्ची ने कहा।


       'चुप कर चुडैल, तेरा मंह जले, अशभ बोलती हैरांडू।' रत्नी कनैतण लाल-पीली होकर एकाएक चिल्लाई। थप्पड़ मारने को उठा उसका हाथ कांपती बेटी की कातर आंखों को देखकर उठा ही रह गया। बेटे की आशा में फिर पांचवी बेटी हुई तो उसका नाम ? सोचकर रत्नी कनैतण अब कांपने लगी थी।


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