कविताएं - साजीना राहत

साजीना राहत -  कवि, नाट्यकर्मी, कविताएं देश की लगभग सभी पत्रिकाओं में प्रकाशित उर्दू और अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद कार्य।


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           समयराग


किस्सा यूं बयान होता है


कि एक बर्फ का पहाड़ था


जिसके अंदर एक आग का दरिया बहता था


बारह घंटे का चक्कर काटकर रोज़


सूरज ज़मीन के उस खित्ते पर चमकता था


जहां वह बर्फ का पहाड़ था


बर्फ पिघलती गई उसमें से एक नदी निकली


कलकल छलछल


पत्थर टीले जंगल झरने


वादी वादी वह बहती गई


उसके किनारों पर आबादियां बस गईं


मांओं की कोख में दूध की धार उतरी


बच्चों ने चमकता सूरज देखा


 किसानों ने अपने अपने हल - बैल खोल लिए


हरियाली थी, अनाज था


पत्थर था, आग थी


जंगल था, राग था


पंछी थे, आसमान था


बच्चों के सपनों में परियां उतरती थीं


जानवर हमजोली थे,


शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते थे


रोटी रोटी काम काम


काम दो काम दो


रोटी दो रोटी दो


फैक्ट्रियों में धड़धड धड मशीनें चलने लगी


रुकती ही नहीं थी


आदमी का हुजूम बढ़ता गया


पहले शोरगुल हुआ फिर कोलाहल


फिर चीख - पुकार


हाथ कट गया             शोर हुआ


हाथ कट गया             नारा लगा


हाथ कट गया            मुट्ठियां तन


नदी तालाब सूख रहे थे


किसान आकाश में टकटकी लगाए सोच रहे थे


इन्द्र वहां था या धरती पर?


फिर देवताओं ने सभा बुलाई


इन्द्र चिन्तित


असुरों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है


सत्ता खतरे में


और एक फकीर बिना रुके बिना थके


गाए जाता था


चीथड़े उसको ढंकते थे या हंसते थे उसपर ?


पांवों की फटी दरारों में


कीचड़ - मिट्टी या समय था?


उसके पास सांसों की एक धौंकनी थी


और एक बेहाला


जिसपर रात रातभर जागकर


वह जाने कैसा राग छेड़ता


कि लोग अपने-अपने घरों से निकल पड़ते


उनकी रंगों में जो गिरवी पड़े खेतों की मिट्टी बहती थी


सिरकटी लाशों की


जो राख बहती थी


वह सब उसकी बेहाला छेड़ती


लहूलुहान उंगलियों का राग बन गया था


बर्फ का पहाड़ अब भी था


उसके अंदर का दरिया अब इस आबादी में था


जहां शोर था


चीख पुकार थी


भूख और राक्षसी हंसी थी


इन्द्रासन था


और चीथड़ा पहने वह फकीर


बेहाला पर समयराग छेड़ता