कविताएं  - पुरु मालव

पुरु मालव  - मूल नाम : पुरुषोत्तम प्रसाद ढोड़रिया शिक्षा : एम.ए. (हिंदी), बी.एड प्रकाशन : पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। सम्प्रति : शिक्षा विभाग राजस्थान में कार्यरत।


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      भूखे शेर


हम भूखे शेर हैं


शहर में हमारा रूप-रंग बदला


चाल-ढाल बदली


तौर-तरीके बदले


मगर मिज़ाज नहीं बदला


हमारी बर्बरता और जंगलीपन


बरकरार है अब भी


हमने शिष्टता और सभ्यता के पीछे


छुपा रखे हैं अपने पैने दाँत


नुकीले पंजे


और एक अदद हवस


हम स्वच्छंद और बेखौफ विचरते हैं।


शहरी -जंगल में जहाँ-तहाँ


चौराहों पर, बाजारों में,


मेलों में, उत्सवों में


दुकानों में, दफ्तरों में,


स्कूलों में, कालेजों में,


मोहल्ले में, पड़ोस में,


बसों में, ट्रेनों में हर कहीं


पर तुम हमें पहचान नहीं पाओगे


हम एकान्त में, पीछे से, छुपकर


या घात लगाकर वार नहीं करते


अब हम बड़ी शालीनता से


सार्वजनिक तौर पर


बिल्कुल आमने-सामने


इस तरह दबोच लेंगे तुम्हें


कि किसी को भनक तक नहीं लगेगी


और फिर कहीं नोच-खसोट कर


फेक जाएंगे किसी चौराहे पर


 


खेत


खेतों से अन्न उपजा


पेट भरा


पर मन नहीं भरा


जरूरतें बड़ी और बड़ी होती गईं


खेत छोटे और छोटे होते गए


हमने कहा, अन्न नहीं पैसा उगलो


पर खेत चुप रहे


खामोशी से अन्न उपजाते रहे


अधीर होकर


गहराई तक हमने


और बो दिए लालसाओं के बीज


थक हार खेतों ने पैसा उगला


जेबें भरी पर मन नहीं भरा


हमने कहा, और, और ज्यादा


और जमीन की गहराइयों से


चूस निकाला पानी


रेत की तरह बिखेर दिया


रासायनिक उर्वरक खेतों में


पानी की तरह बहा दिया कीटनाशी


पर मन नहीं भरा


हमने कहा, और, और ज्यादा


और जमीन की गहराइयों से


चूस निकाला पानी


रेत की तरह बिखेर दिया


रासायनिक उर्वरक खेतों में


पानी की तरह बहा दिया कीटनाशी


आखिर बेदम हो गए खेत


पैसा उगलते-उगलते


हमने कहा, और, और भी ज्यादा पर खेत चुप ही रहे


बंजर और विषैली धरती से


उगलते भी क्या


हमने कहा, पैसा नहीं, अन्न तो उपजो


पर अब खेत इस स्थिति में भी नहीं


        विदा


आखिर रुकती भी कितने दिन


और किन बहानों से


जबकि रीत गए उत्सव-त्योहार


बढ़ने लगी है धीरे-धीरे


पिता की आकुलता


माँ की पीड़ा


भाई की चिंता


भाभी की झुंझलाहट


पड़ोस की फुसफुसाहट


फिर एक दिन


गाँव-घर की यादें समेट कर


जब निश्चय कर लेती है जाने का


एक उदासी-सी छा जाती है माहौल में


उमड़ आते हैं दु:ख के बादल


“थोड़े दिन तो और ठहरती


अभी-अभी तो आई थी


मगर कितने दिन?


गाँव भर की औरतें


साथ-साथ चलती


गाँव के बाहर तक आती हैं विदा करने


मुड़कर देखती है वो एक बार


पीछे छूट चुके घर, गाँव, दुआर को


और अचानक फूट पड़ती है रुलाई


गले लग-लगकर रोती है सबसे


साझे दु:ख में बह उठती हैं औरतें


बस की खिड़की से देखती है


पीछे छूट चुकी दुनिया को


गाँव की औरतें लौट गईं घरों को


मगर अभी तक खड़ी है माँ


जड़ होकर


स्थिर नज़र से तकती हुई


सब पीछे छूटता जाता है


धीरे-धीरे धूल के गुबार में गुम होता हुआ


         कच्ची सड़क


तब यहाँ कच्ची सड़क थी बिल्कुल कच्ची


बिल्कुल कच्ची


धूल भरी


भरी दुपहरी में


अलसाई-सी पड़ी रहती


कि अचानक सन्नाटों को चीरते


बैलों की घण्टियों के करुण स्वर


और सिसकती बैलगाड़ी की रफ्तार से


हड़बड़ा कर उठ बैठती


आहट लेना सुनती कभी


रात की खामोशी को बंधती


जूतियों की चरमराहट


और उसका पीछा करते


पाजेब की खनकाते दो पाँवों की लय


फिर भिनसारे में


भन्नाती आवाजें


लोगों का कोलाहल


लाठियों की चहलकदमी


कभी उदास नज़रों से तकती


स्थाई दु:खों के साथ


अस्थाई घरों को लादे


खानाबदोश जिंदगियों के


ऊँघते काफिले को


कभी स्पष्ट सुनती


जंगली जिनावरों से ज्यादा


जंगल के पहरेदारों से खौफ खाती


जवान आदिवासी औरतों की बेचैन सरपट


भाग्य-भरोसे सुरक्षित


सड़क किनारे खेलते


धूल फाँकते बच्चों की


पीठ पर धमौड़े लगाती


खींच कर ले जाती माँओं की पीड़ा


और दनादन गालियाँ बकते


पिताओं की ठकुराई


अनगिनत स्वर-दृश्यों की साक्षी


तब यहाँ कच्ची सड़क थी


बिल्कुल कच्ची


धूल भरी


                                                                                        सम्पर्क : कृषि उपज मण्डी के पास, अकलेरा रोड, छीपा बड़ौद,


                                                                                                जिला-बारां-325221, राजस्थान, मो.नं. : 9928426490