फूलचन्द गुप्ता - 30 अक्टूबर 1958 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के अमराई गाँव में जन्म। प्राथमिक शिक्षा गाँव में हीसन् 1970 में पिता के साथ अहमदाबाद आ गएउच्च शिक्षा अहमदाबाद में। एम.ए. (हिन्दी), एम.ए, (अंग्रेजी भाषा-साहित्य), पी-एच.डी.। बी.आर. एस. महाविद्यालय में अंग्रेजी में प्रोफेसर। दस कविता संग्रह सहित विभिन्न विधाओं में पुस्तकें।
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हमने सूरज के लिए
हमने सूरज के लिए बहुत सारी कविताएँ लिखीं
सूरज को मालूम नहीं था
हम उसे सूरज कहते हैं।
जाहिर है उसने हमारी लिखी एक भी कविता नहीं पढ़ी
हमने चाँद, तारों और अन्य तमाम ग्रहों के बारे में बहुत-सी
कविताएँ लिखीं
हमने ईश्वर के लिए भी नई नई कविताएँ लिखीं
नतीजा नहीं निकला।
उन्हें पता नहीं था हम उन्हें इन्हीं नामों से पुकारते हैं
फिर हमने शैली बदली
हम भाषा में बदलाव लाए
मुहावरे, छंद, तर्ज, लय, आरोह अवरोह सब बदल कर
हमने नदियों के बारे में ढेरों कविताएँ लिखीं
नदियों को मालूम न था
हम उन्हें नदी के नाम से पहचानते हैं
अब हमने पैंतरे बदले
और पहाड़ों, जंगलों, चिड़ियों, गिलहरियों
और न जाने किस किस के बारे में बहुत बहुत बहुत सारा
लिखा
और लिखते लिखते पूरा जीवन न्योछावर कर दिया
जहाँ तहाँ कविताओं के ढेर लग गए
पर हमें संतोष नहीं हुआ
किसी ने भी हमारा लिखा नहीं पढ़ा
अपरिचय एक भयानक अदृश्य माहौल
हर किसी के बीच तारी रहा
जिनके लिए हमने कविताएँ लिखी थीं उनके नहीं
हमारे अस्तित्व का संकट था।
इसका सामना करना हमारे लिए मुमकिन न था
हम बस इसी सच्चाई से चिंतित थे
फिर हमने क्रोध, आक्रोश, नफ़रत, उपेक्षा प्रेम,
समर्पण इत्यादि, इत्यादि, इत्यादि के साथ
झुंझलाते हुए
मजदूरों, किसानों, शोषितों, शासितों दलितों और तमाम
वंचितों के हितों में उनके लिए कविताएँ लिखीं
हम तमाम वर्ग, वर्ण,तमाम लिंग और तमाम किस्म
के कवियों ने मिलकर
कंधे से कंधा मिलाकर कविताएँ लिखीं
कविताओं के ढेर लग गए
लिहाजा
सारी पृथ्वी पट गई कविताओं से
लेकिन नतीजा फिर वही
ढाख के तीन पात!
उन्हें मालूम ही नहीं था
हम उन्हें ही मजदूर, किसान, दलित, शोषित, शासित, वंचित
के नाम से पुकारते हैं।
कि वे हमारे दिए गए नाम से अस्तित्व में हैं।
दलदल में डूबे लोग
मैने देखा
दलदल में डूबते हुए लोगों को
और देखता रहा
बौखलाया हुआ
वे बड़ी देर तक पुकारते रहे
सहायता के लिए
जब नहीं सुनी किसी ने उनकी गुहार
वे स्वयं हाथ-पैर मारकर
दलदल से बाहर आए
और गंदले पानी वाले पोखर में
डुबकी मार, नहाकर
चले गए खुश होकर
कपड़े निचोड़ते हुए
उन्हें जाते देखकर
मैंने पीछे से पुकारकर रोकना चाहा उन्हें
मैं खुद आकंठ डूब चुका था तब
तक उसी दलदल में ।
कमजोर रणनीति
अपने-अपने हथियार लिए
हम घेर रहे थे
जंगल के सूअरों को
सूअर जो रौंद रहे थे
गांव, शहर, धरती, आकाश।
जैसे-जैसे हमारा घेरा तंग हो रहा था
सूअर अदृश्य होते जा रहे थे
हम खुश थे।
और सोच रहे थे।
हमारे डर से छिप रहे हैं सूअर
हम खुश थे।
अपनी रणनीति से हम आश्वस्त थे
धीरे धीरे सूअर अदृश्य हो गए
हमारी नज़रों से दूर
हमारी पकड़ से बाहर
लेकिन यह हमारा भ्रम था
अभी हम निश्चिन्त ही हुए थे
कि अचानक हमने देखा
हम स्वयं घिर गए हैं।
सूअरों के बहुत बड़े घेरे में
असंख्य सूअरों की भीड़ बड़ी तेजी से
उमड़ती दौड़ती आ रही है हमारी ओर
हममें से अधिकांश स्वयं सूअर में तब्दील हो गए हैं।
सूअरों के अथाह सागर की ऊँची-ऊँची लहरों की
चपेट में आ गए हैं हम सब!
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