कविताएं  - जयप्रकाश मानस

जयप्रकाश मानस  - जन्म : 2 अक्टूबर 1965, रायगढ़, छत्तीसगढ़ मातृभाषा : ओडिया शिक्षा : एम.ए (भाषा विज्ञान) एमएससी (आईटी), विद्यावाचस्पति (मानद) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य की सभी विधाओं में रचनाएं प्रकाशित। अनेक पुस्तकें प्रकाशित विभिन्न भाषाओं में रचनाएं अनूदित। सम्प्रति : छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी


                                                                   ---------------------------------


           बिम्ब कुलबुलाते हैं खिड़कियों के आसपास


दूर कोई खिड़की खुली -


अलगनी पर मचलते दुपट्टा-सलवार


पुकारती रोशनी थी या उसके चेहरे की चमक


अपलक निहारती रहीं


किसी अभूले दृश्य की पुनरावृति की आस में पुतलियाँ


कि जैसे अभीच्च अधसुखे बालों पर वह कंघी फेरे


कि जैसे अभीच्च नैनों पर काजल वह उकेरे


और इधर मन के द्वार चहके विहंग अनगिनत सबेरे


बिन होंठ खोले जैसे कोई प्रेम गीत हो।


बिन साज जैसे वन का सबसे अनुपम संगीत हो


अब कहाँ


बिम्ब कुलबुलाते हैं


खिड़कियों के आसपास


पुरानी कहानियों के नाम किसने लिख दिया वनवास?


            तब तो मैं खुश होऊ


गाभिन गाय घर लौटे


आँगन फुदके गौरेया - कोदो चूगे।


कल से थकी-मांदी चंदैनी गेंदा फिर महके


बहुएँ ले आएं कुएँ से पानी के साबूत मटके


छुटकी नए शब्दों से संग चौखट में फटके


तब तो मैं खुश होऊ 


खुश होऊँ कि पत्नी के संग ननद हँसे


खुश होऊँ कि विधवा काकी के मन अब भी काका बसे


खुश होऊँ कि बड़की की मंगनी बिन सोना-चाँदी


खुश होऊँ कि माई के चंदा को न राहू ग्रसे


खुश होऊँ कि दादी-दादा की आँखें धंसी-धंसी न दिखें


पिताजी को पटवारी ना यूँ धौंस दिखाए


कभी भी छीन लेगी सरकार जमीन, कहके गुर्राए


तब तो मैं खुश होऊ


तब तो खुश होऊँ कि फ़सल सिर्फ मेरी अपनी है।


तब तो खुश होऊँ कि खेत न गिरवी रहनी है।


खुश होऊँ कि मेरे मन में दाने बहुत हैं।


खुश होऊ कि हर दुख के खिलाफ गाने बहुत हैं।


          बाबूजी से बस्स यही सुना है।


जितनी लंबी-चौड़ी जमीन थी था


उतना ही लंबा-चौड़ा आकाश


दादाजी के पास


बीज उठते-पैठते उतनी ही गहराई


फल-फूल उमगते


उतनी ही गहराई से रस लेकर


उतने ही जमीन-आकाश से यश लेकर


झरते-गिरते असमय कभी तो


उतनी ही जमीन


उतना ही आकाश


उतने ही गहरे तक


उदासी रच-रच जाती


दादाजी दिखते लेकिन उससे कम उदास


 


जब-जब दाने हँसते-खिलखिलाते


तो 


कहीं अधिक जमीन


कहीं अधिक आकाश


कहीं अधिक गहरे तक


हँसी-खुशी अपनी धाक जमातीं


दादाजी की मूछे उससे कहीं अधिक मुस्करातीं


बाबूजी से बस्स यही सुना है।


मूछे आने पर यही गुना है।


         अंत में कुछ भी जरूरत कहाँ कभी किसे


मिले न मिले -


कंठ को दो बूंद पानी


कांधे बिठाने दो-चार आदमी


नख से शिख ढंकने पाँच-छह फ़ीट की मार्किन


लाई संग पैसे छिड़कने सात सगे मतलबी हरामी


अंत में


अंत में कुछ भी ज़रूरत कहाँ कभी किसे


मिले न मिले


देह को हल्दिया उबटन


बोतल में पपड़ाई सात-सात नदियाँ


विदाई के वक्त बेमन विलाप करने वाली स्त्रियाँ


टूटी-फूटी पुरानी खटिया, खटिए पर घी के दीए


अंत में


अंत में कुछ भी जरूरत कहाँ कभी किसे


मिले न मिले


पितरों के साथ पिंडदान


लोभी-लालची पंडित के मुँह गरुड़ पुराण


दसगात्र के दिन खीर पूरी मालपुआ, मौज करे समधियान


अंत में


अंत में कुछ भी ज़रूरत कहाँ कभी किसे


अंत से पहले है ज़रूरत


अंत के पहले हैं सपने


अंत से पहले है दुनिया


अंत से पहले है भविष्यत्, अंत के पहले हैं अपने ।


अंत के बाद कहाँ माटी


अंत के बाद कहाँ सोना


अंत से पहले ही हँसना


अंत से पहले ही रोना ।


        ढूँठ पर चिरैयों की छानी होना


सफलता का मतलब -


होता नहीं केवल सफल होना


असफल होते-होते केवल


अगली बार सफल होना


जैसे


पत्थर पर पानी बोना


जैसे -


हँठ पर चिरैयों की छानी होना


जैसे -


वर्षों के बाद सपनों में नानी होना


जैसे -


समूचे विध्वंस के बाद कोई एक कहानी होना ।


                                                                                                                  सम्पर्क : एफ-3, छग माध्यमिक शिक्षा मंडल आवासीय परिसर,


                                                                                                                                         पेंशनवाड़ा, रायपुर-492001, छत्तीसगढ़                                                                                                                                                                        मो.नं. : 9424182664