कविताएं - डॉ. उषा वर्मा

डॉ. उषा वर्मा  - जन्म : 26 जनवरी 1953 प्रोफेसर नालंदा महिला कॉलेज, बिहार शरीफ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएं और कहानियां प्रकाशित।


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         मैं और दादाजी


गोलू ने ऊंगली पकड़ी


और, उछल गया नाली के पार


मैं भी उछला,


टूट गई छड़ी, ऐंठ गया घुटना


मुरक गई कलाई, छिटक गया चश्मा


गिर गई देह,


तब भी मेरे हाथ ने पकड़ लिया


गोलू को फिर से,


थाम ली उसकी


कुलाचे मारती देह


वह गिर न पाया, मुंह की खा न पाया,


बच गया, हंसता खिलखिलाता सुरक्षित


हम जा रहे थे, खरीदने


नमक, हरी सब्जियाँ, बॉल बैट,


टॉफियों की कई किस्में


बैलून और बतासे भी,


एक हाथ में झोला और छड़ी


एक हाथ में नाजुक कलाइयां


गोलू की,


भागती रफ्तार सँभालती गोलू की,


मेरी हथेलियाँ,


मेरे हाथ झाँक रहे थे


संतुलन बना रहे थे


कुत्ते के बाहर, बरगद की जड़ों से उभरी


शिराएँ, पंजों को छाप चुकी थीं,


चल रहे थे पैर गंतव्य की ओर डगमगाते


वे भी थे पंजों के ही समरूप,


मैं चौंका,


मैंने देखा, ये मेरे हाथ पैर नहीं थे


न मेरी देह थी,


झुर्रियों से भरा भंवराया चेहरा


मेरा था क्या?


रूखी, चमक खोई त्वचा


मेरी थी क्या?


यह तो मेरे दादाजी थे


दादाजी कब आ गए यहाँ?


मेरी देह मैं?


कभी जानने की फुर्सत न मिली


कब आ गए, कैसे प्रवेश पा गए


है कोई खास क्षण, दिन तारीख वर्ष


जब दादाजी आए होंगे


आनेवालों की तरह? नहीं


आते रहे धीरे-धीरे


समय काल की साँसों में खिंचकरं


मेरी ही आवाज मुझसे बोली


तो मैं कहाँ? मैं अकुलाया था


हूँ न! मैंने खुद कहा, झट


मैं भी तो यही हूँ


लाल चेकदार शर्ट में


उछलते, कूदते, भागते


कदमों में


शोर मचाते


खुशी से तालियाँ बचाते गोलू, मैं


कौन है? मैं ही हूँ न !


बॉल बैट, चाकलेट और न जाने क्या-क्या,


चाहतों का तूफान लिए


फरमाइशों का निनाद करते मचलता गोलू।


            मेरा सूरज


बहुत धुंध और कोहरे के बाद


आज निकला है सूरज


आहिस्ता आहिस्ता मुस्कुराता


कुछ बोलता, कुछ शर्माता


लपकती हैं ठंडी हवाएँ


शीत के इशारों पर


अभी सूरज में ताकत नहीं, हँक लो उसे,


साम्राज्य हमारा है


दुनिया को बाँध लो अपनी मुट्ठी में


कँपकँपाती ठंड इठलाती है


सिहराती है देह


हिलते हैं पत्ते झुरमुरों के


ओस की जमी परतें


झरती हैं


कुनमुनाती है तितलियाँ


चुपके से आते हैं बौर


खिलती है सरसों


गेहूँ की बालियों में भरता है दूध


चने मसूर की बर्फीली देह


अड़कर खड़ी हो जाती है


खिलने को तैयार है टेसू


पीले अमलतास तैयार


चूमने को धरती


सूरज ने भरोसा दिया है


सूरज ने भरोसा दिया हैजगत में जीने का रस भर गया है


तुम्हारे उन शब्दों की तरह


जो उग आए हैं सूरज बन


मेरी बर्फीली अंधेरी राहों में


मन का पाला पिघल गया है


मेरा सूरज निकल गया है।