डॉ. अन्नपूर्णा शुक्ला - डॉ. अन्नपूर्णा शुक्ला सहायक प्रोफेसर वनस्थली विद्यापीठ (राजस्थान) । पुस्तकें वानगो और निराला चित्रकला एवं काव्य की अंतरंगता, किशनगढ़ की चित्रशैली, जलरंग चित्रण पद्धति। सोलह विभिन्न सम्मान, 27 अवार्ड्स।
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फुर्सत से सोचना
बादशाहत अभी भी
धंसी पड़ी है उसके अंदर
जिसके अंदर का जनाजा
पहले से ही निकल चुका है,
रफ्ता रफ्ता वो दहलीज़ के
उस पार जा रहा है,
जहां जुर्म नग्न पेशेवरों की वकालत कर रहा है,
बरखुरदार जरा रास्ते
बदलने की सोंचिए,
पेशा भी बदलिए,
पेशा बदलते ही पोशाक भी बदल जाएगी,
फिर तो तुम
आईना भी देख सकोगे अपनी नग्न आँखों से,
लेकिन तुम ऐसा करोगे नहीं
तुम्हारी नीयत में खोट है,
तुम सही गलत का नज़रिया ही खो चुके हो
तुमने सोचा कि तुम'
इंसानियत को खा कर अपने वजूद का
तमगा लटकाओगे,
अपनी गंदी वैचारिक दीवानगी से
संवेदनाओं को खरोचोंगे,
इसीलिए मैं तुम्हारी नीयत को
काले धब्बों से ढंक देती हूँ
तुम्हारे वजूद को
बेनाम कर देती हूँ,
मुझे पहचानो
फुर्सत से सोचना मेरे बारे में,
मैं आदि भी हूँ,
मैं अंत भी हूँ,
मैं शिव भी हूँ,
और और
मैं काल भी हूँ,
तुम्हारा,
नजरबंद
मुझे नजरबंद कर दिया गया है
कुछ ख्वाहिशों के लिए,
आलम यह है कि
'नजरबंद तो कर लिया
अब पटके कहाँ,
क्योंकि कुछ अवसरवादियों
का यह आदेश था और
मुझे नजरबंद कर लिया गया,
मजेदार बात तो यह है कि
मैं उन्हीं के आसपास हूँ
क्योंकि मैं नजरबंद हूँ
मैं कहीं जा नहीं सकती,
वे मुझे फेक नहीं सकते,
वो उलझ गए
अपने ही बुने जाल में,
मेरा हर कदम बन्द आखों से था,
उनका हर कदम खुली आँखों से था,
फिर भी फासले बहुत थे,
वो सतह पर थे और
मैं गहराई में,
अंतर बस यह था कि
मैं सत्ता का सत्य थी
और वो
सत्ता का असत्य,