जन्म : 18 जनवरी, 1955 जन्मस्थान : जलालपुर, बिहार शिक्षा : एम.बी.बी.एस. (आई.एम.एस./ बी.एच.यू.)हिन्दी और बांग्ला की लगभग सभी शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित अनेक पुस्तकें प्रकाशित पुरस्कार : सी.बी.टी., राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सद्भाव, प्राची पत्रिका द्वारा कहानियाँ पुरस्कृत। बांग्ला पत्रिकाओं द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। कथाबिंब द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार' 2013 एवं 2017 सम्मान : महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, द्वारा हिन्दी सेवी सम्मान संप्रति : निजी चिकित्सक
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१. एक : आनन्द कानन
चमक रही है काशी। दिव्य रूप अविनाशीगंगाघाटों पर अलग दमक। दिवाकर की प्रभाती प्रभा मानो उन पर फिसल रही हैं। एक शक्तिशाली पंप से लगातार गंगा से पानी खींच-खींच कर घाटों का परिमार्जन हुआ। निन्दकगण अवश्य कहते रहे, ‘भैया, उ कुल गंदाजल तो आखिर गंगाजल में ही न प्रवाहित हुआ !'
नगर सभा के अंतरंग ठेकेदारों ने मार्गों की प्लास्टिक सर्जरी पूरी कर दी है। जहाँ-जहाँ से काफिला गुजरेगा - वहाँ-वहाँ की काया पलट हो गई है। सड़क पर जितने जख्मे जिगर थे- तारकोल से भर दिए गए हैं। भले ही निंदक कहैं, ‘का हो राजा हिन्दुस्तानी, एक बारिश की बात तो छोड़ो, किसी गरीब के दो बूंद आँसू भी उन घावों के खड्जे तो पंजर की तरह निकल आएंगे।'
गंगातट पर अवस्थित पंडे, बड़े लोगन एवं होटलादि के मालिकों ने अपने अपने मकान तथा महलों का अपने व्यय से रंग रोगन कर दिया है। राम विवाह के पूर्व मिथिला की तरह नगर चमक रहा है।
यह सब क्यों न हो? शहंशाहे-बनारस की आज ताजपोशी है। काशी वासियों की नजरें उनके लिए ईरानी गलीचे की तरह बिछी हुई हैं। मनवा हरि दर्शन को प्यासा। मोर लगी थी कब से आशा। दो नैनों में रूप भरि गयौ। और रूप सखि, कहाँ समायौ?
कुछ ही दिन पूर्व पशु-पक्षी संसद का चुनाव सम्पन्न हुआ। नंदीकेश्वर सांड़ ने उसमें भारी मतों से विजय हासिल की हैउन दिनों उनका नारा ही था ‘काशी तो शिव की नगरी है। यहाँ सांड़ के सर पगड़ी है!'
अब इस नारे का मर्मार्थ क्या हुआ, यह तो वही जाने। इसमें पशु समाज का या काशी वासियों का कौन सा कल्याण अन्तर्निहित है - यह तत्व भी वही जाने, मगर वही जीते। बाकी हारे।
वाराणसी पुनराविष्कार (वाराणसी रिडिस्कवर्ड) में ब्रजमाधव भट्टाचार्य ने लिखा है-हमारे देश में वैदिक संस्कृत प्रचलित होने से काफी पहले से गंगा शब्द व्यवहार में था। प्राक् वैदिक मुंडारी भाषा में गंगा का अर्थ है नदीऔर, काशी को और कई नामों से जाना जाता था - आनन्दकानन, गौड़ीपीठ, रूद्रवासा, महाश्मशान वगैरह। भ्रमण संगी (बांग्ला) में लिखा है अठारहवीं सदी में काशी का नाम थोड़े दिनों के लिए महम्मदाबाद भी रहा। कोई कहता है महाजनपद युग में कासिस जनजाति के लोग यहाँ रहते थे, तो उसी से यहाँ का नाम हो गया - काशी। खैर, तो आज ......
चकित रह गया समूचा शहर / है गोबर न कहीं छटाक भर! और काशी की हृदयस्थली गुदौलिया में आए दिन नंगा घूमनेवाला बौड़म बंगाली यानी पागोल दादा को भी लज्जानिवारण के लिए एक पाजामा मुफ्त में मिल गया है। यानी काशी करवट ले रही है .......
२. पुष्पकावतरण
पुष्पक विमान से नंदीकेश्वर उतरे काशी की धरती पर।उनके साथ हैं सागर पार के गोरी चमड़ीवाले हिमभालू श्वेतांग।अगर श्वेतांग उनकी आवभगत से निहाल हो गए तो इस मुलुक में उन मशीनों से नाभिकीय बिजली घर बना देंगे, जो मशीनेंउनके अपने देश में भारी विरोध के चलते वे अब लग ही नहीं सकते। फिर तो दोनों मुल्कों के पशु-पक्षी गंगा के उस पार रामनगर किला के सामने एक साथ कूच करेंगे-लेफ्ट राइट.....लेफ्ट राइट.....। दौड़ेंगे, उड़ेंगे, खाएंगे, गाएंगे, मौज उड़ाएंगे...यानी युद्धाभ्यास करेंगे। रिहर्सल!
तो रामेश्वरम् के आगे चल पड़ा कारवां। इस रामेश्वरम् में लंका अभियान के पूर्व राम लक्ष्मण पधारे नहीं थेबस, यहाँ का शिव मंदिर पंचकोशी यात्रा के दौरान काशी परिक्रमा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है।
पथ पार्श्व में खड़ी हैं जाने कितनी गाएं, कितने बैल, बकरियां और भैंस-सब। और सड़क चौड़ी करने के नाम पर पेड़ों का कत्ले आम हो गया तो क्या हुआ, परिन्दे भी उनकी झलक पाने के लिए बेताब होकर पंख फरफरा रहे हैं, या किसी भैंस की पीठ पर बैठे-बैठे उनके कानों से निकाल निकाल कर कीड़ों के नूडल्स खा रहे हैं। बेचारी भैंस बारबार अपनी कनौती हिला रही है, ‘अबे हट।'
आगे शिवपुर में भारत गौरव पं. रविशंकर ने कभी एक बागवाला बंगला बनाया था, जो कि उनके एक इष्ट मित्र ने यह कहकर हथिया लिया, ‘पडितजी, आपके पास तो भगवान का दिया बहुत कुछ है।' फिर भोजूबीर स्थित उदयप्रताप महाविद्यालय के सिंह द्वार को बांए रखते हुए डी.एम. बंगलो के सामने से सब गुजर गए।
उधर की खस्ताहाल सड़कों का सूरते हाल बयां न किया जाए तो काशी गौरव बना रहे।
नए वरुणा पुल के उस पार खड़े लौह प्लेट से बने महात्मा के कट आउट ने शायद आँखें मूंद लीं। आगे स्टेट बैंक चौराहे के बीचो बीच खड़े डा. भीमराव अम्बेदकर भी हाथ उठाए शायद यही सोचते रह गए - अच्छा संविधान बुरे लोगों के हाथों में पड़कर बुरा हो जाता है। कमजोर संविधान भी भले लोगों के हाथों में कल्याणकारी बन जाता है!
अंग्रेजी जमाने का क्वींस कालेज और आजकल की संस्कृत यूनिवर्सिटी से आगे जगतगंज, जहाँ किसी जमाने में बैठकर संत रविदास अपनी कठौती में गंगा दर्शन किया करते थे, उसके पूरब में है लहुराबीर बाबा का मंदिर। वहीं दाहिनी ओर खड़े प्रेमचंद जाते हुए तमाम ‘जुलूस' और काशीवासियों की ‘लागडांट' देख रहे हैंचौराहे के बीचोबीच हैं चंद्रशेखर आजाद, जिन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान कहा था, 'जब से सुना मौत का नाम है जिंदगी, सर पर बांधे कफन कातिल को ढूँढता हूँ।' वे शायद शहीदे आजम से कह रहे हैं, 'अरे सर्दार, क्या ऐसी आजादी के लिए ही हम लोगों ने सर पर कफन बांध लिया था?'
भोजूबीर और लहुराबीर जैसे स्थानों के नामकरण के बारे में कहा जाता है-यहाँ आर्य और अनार्य संस्कृति और पूजन पद्धति का संगम हुआ है। एक जमाने में यहाँ के प्राचीन अधिवासी जन्म के स्रोत शिशु के रूप में ढाल कर बड़े-बड़े खंभों की पूजा करते थे। आज उन मंदिरों में देवी-देवताओं की मूर्तियां भी प्रतिष्ठित हैं। इसके आगे है कबीर मठ। कबीर और उनके चार शिष्यों की सुंदर प्रस्तर मूर्तियाँ पिपलानी कटरे की तिमुहानी में गाते बजाते चले जा रहे हैं। किसी के हाथ में इकतारा, तो कोई मजीरा बजा रहा है। लहुराबीर के पच्छिम में है पिशाचमोचन, जहाँ कुआर अमावस्या के दिनों पितरों को पिंड देने दूर-दूर से लोग आते हैं। उस मंदिर के तोरण द्वार के पास लिखा है - पिशाच मोचन वीमल (विमल नहीं) तीर्थ।और बगल में - ब्रम्ह (ब्रह्म नहीं) धाम ! जिस काशी में कभी दारा शिकोह और राजा राममोहन राय संस्कृत पढ़ने के लिए आए थे, आज वहाँ के ब्रह्मज्ञानियों का यही है सूरते हाल।
कबीर और उनके चेलों की मूर्तियों से उत्तर की ओर जो सड़क गई है, उसी में आगे जाकर बाईं ओर है'चंद्रकान्ता संतति' के रचयिता बाबू देवकीनंदन खत्री की हवेली। दाहिने है काशी गौरव पं. राजन साजन मिश्रा जैसे संगीत दिग्गजों के आवासयहीं आज भी है तबला सम्राट कठे महाराज, पं. किसन महाराज एवं पं. सामता प्रसाद यानी गुदई महाराज आदि की निवास स्थली। और उन मूर्तियों के आगे है बाबू शिवप्रसाद गुप्त जिला अस्पताल। बाबू शिवप्रसाद एक बड़े जमींदार एवं उद्योग घराने की संतान थे। उन्होंने ही काशी विद्यापीठ की स्थापना की थी१९२८ में काशी में आयोजित राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन का सारा खर्चा भी उन्होंने ही उठाया था। गांधीजी ने उन्हें 'राष्ट्ररत्न' की उपाधि दी थी।
यद्यपि आए दिन नगर के प्रतिष्ठित चिकित्सकों को वसूली के लिए हड़काया जाता है कि-'तुम्हारे नर्सिंग होम के अपशिष्टों का तुम कहाँ ठिकाना लगाते हो, जी? तो नगर निगम को उसकी रकम चुकाओ।' मगर उसी अस्पताल से सटे कूड़ाघर में अपशिष्टों का अंबार लगा रहता था। पहले ‘खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे' की स्टाइल में, पर आजकल 'हम तुम एक कमरे में बंद हो' की स्टाइल में एक कूड़ा कक्ष का निर्माण हो गया है। यह तो शिव ही जानें कि उनकी महक से सातवें आसमान में बैठे अल्लाह को भी नाक पर रुमाल लगाना पड़ता है कि नहीं, वार्ड में लेटे मरीजों का हाल तो जय सियाराम ! वहीं बाईं ओर बाल्टी और कंडाल की दुकान के ऊपर एक छोटे से फलक पर लिखा है- वारेन हेस्टिंग्स कभी यहाँ ठहरे थे (१७८१)। ‘बहती गंगा में शिवप्रसाद मिश्र ‘रुद्र' काशिकेय ने इसी घटना का जिक्र करते हुए लिखा है-‘घोड़े पे हौदा और हाथी पै जीन /जल्दी से भाग गैल वारेन हेस्टीन।'
यानी जब हेस्टिंग्स राजा चेतसिंह से जुरमाना वसूल करने काशी आए, तो राजमाता पन्ना ने गली-गली में महाजनों के मकानों में दस-दस सिपाही छुपा दिए। जंग की तैयारी की खबर सुनकर हेस्टिंग्स भागे और औसान सिंह की भूसेवाली कोठरी में छुपे बैठे रहे।
खैर, तो इन रास्तों से काफिला दौड़ता रहा......................
३. जसोदा का कन्हैया
कमच्छा बटुक भैरव मंदिर के प्रांगण के एक किनारे मंदिर के चबूतरे के नीचे से सोनहा कुत्ता निकल आया। बेचारे को बहुत भूख लगी है। आज मंदिर में ख़ास कोई आया भी नहीं है कि उसे दो-एक बिस्किट या लड्डू ही मिले। उसने भौंक कर अपनी माँ से कहा, ए माई, हम जरा बाहरे घूम कर आव थई।'
“अरे सोनहा, आज पता नाही शहर में का हो थौ। काँहे के बाहर जा रहा है?' उसकी अम्मां आँगन की धूप में निकल आई। दुबली-पतली काया। बच्चे तो तीन हुए थे। मगर एक पिल्ला तो दो महीने के होते होते सड़क के डिवाडर के दाहिने से धूम मचाते हुए प्रकाश की गति से जाने वाली एक बाइक के नीचे आ गया। बस खेल खतम। बचे दो। बिटिया सयान होते होते रेवड़ी तालाब के एक कुत्ते के संग भाग गई।
चूँकि सड़क पार उस मुहल्ले में हरे झंडे लहराते हैं और इस पार जोगिया। तो इधर के महन्त जी का पालतू टाइगर और मंदिर के बरगद के पेड़ पर रहनेवाला शाखामिरग आकर सोनहा की अम्मां को खरी खोटी सुनाते रहे,' अरे ऐसी बेटी को जनने से तो अच्छा था कि पैदा होते ही उसे नमक दे देती।'
‘अच्छा अम्मां, कुछ मिला तो तेरे लिए भी लेते आऊँगा।' सोनहा निकल पड़ा।
‘सँभाल के रहना, बचवा।' उसकी माँ भौंकती रह गई।
'कहाँ चले मोर बाँके राजा? प्यासे नैना, पास तो आ जा!' चाची चायवाली की बिल्ली बिलिया रानी चूल्हे की बगल से नीचे उतर आई।
असल में पैदा होते ही बिलिया की माँ भगवान को प्यारी हो गई थी, तो सोनहा के साथ साथ बिलिया ने भी उसकी माँ की छाती से अमृत पान किया था। और वह कोई इन्सान तो है नहीं, जिनमें एक ही माँ की छाती से दूध पीनेवाले माँ का ही टुकड़े-टुकड़े कर अपना हक जताते हैं। वह तो नासमझ जानवर है, इसीलिए आज भी वह सोनहा की माँ की छाती से सट कर सोई रहती है।
दोनों चल दिए .........
४. स्वागतम्
सड़क पर बड़े-बड़े स्वागत द्वार बने हैं। बंदनवार सजे हैं। इन्सानों को छोड़िए, सड़क के दोनों ओर, हर तिराहे और चौराहे के पास गाय, सांड, भैंसे, कुकुर, गधे, और मुर्गे आदि सब तो खड़े हैं ही, मुँडेरों पर कबूतर, बुलबुल, इके-दुक्क गौरेया और तोते वगैरह भी अड़ी जमाकर चू चू ,टें दें और गुटर कर रहे हैं।
सामने झक्कास रथों की रेलमपेल और इधर भीड़ में किचकाए हुए सोनहा और बिलिया। जितने लेवे अपनी अपनी मां से सट कर खड़े हैं, और उन्हें परेशान कर रहे हैं, ‘ए मांई, हमें कुछ्छो नांहीं लौकऽ थौ।'
एक बंदनवार के नीचे खड़े बिरसुआ सांड़ के नथुने फूलने लगे थे, ‘अमाँ यार, तब से गेंदे के फूल की खुशबू नाक में पैठ रही है, कैसे खुद पर काबू रक्खें? मन तो हो रहा है कि कुल माला वाला नोंच कर खा जाऊँ !'
“अबे चुप।' श्याम सुंदर भैंसे ने लांगूल चलाते हुए कंठ की घंटी-माला बजाई, ‘जेल की हवा खानी है? जानतानहीं, नंदीकेश्वर को कुछ न हो, इसलिए मथुरा, इन्दौर और नासिक - जाने कहाँ-कहाँ से उनके करीब सत्तावन हमशक्लों को बुलाया गया है? सभी का ड्रेस एक है।'
तुरंत एक बुलबुल पीटुरी करके गाने लगी, ‘बिराजे भूत भूत में राम! हुँदै राधा राम में श्याम !'
‘ऐ ऐ यह क्या हो रहा है?' श्याम सुंदर चौंक उठा।
उसके पेट के नीचे से सोनहा सड़क की ओर बढ़ गया,'अरे गुरू, हम्मे भी तो देखे दऽ।'
बिलिया छलाँग लगाकर बिरसुआ की पीठ पर चढ़ बैठी, ‘म्याऊँ। यहाँ से तो राधा चित्र मंदिर के बॉक्स रुम का नजारा है।'
'ऐ छोकरी, उतर। मेरी पीठ पर गुदगुदी हो रही है।' बिरसुआ गरदन उठा कर सर हिलाने लगा।
इतने में एक परलय होने लगा ......। चारों ओर से आवाजें आ रही हैं, “अरे रे रे! अरे हट् रे। ए पपुआ, ओके लाठी से हाँक।'
किसी ठेलेवाले से एक दर्जन केले उठाकर एक सांड़ अचानक सड़क पर निकल आया। सारे सिपाही सकते में आ गए, 'अरे ए बलीराम, उसे भगाओ।'
दनादन लाठियों की बारिश होने लगी, तेरी तो ...आजे तोके हियाँ आए के रहल?'
सुरभी गैया की आँखें छलछलाने लगीं, 'अरे मुए, पेट की खातिर उसने चार केले क्या उठा लिए तो ऐसे निर्दयी की तरह मारेगा? ये आदमी लोगन होते ही ऐसे। एक तरफ गौ माता गौ माता चिल्लाएंगे, दूसरी ओर चेन्नई में जल्लीकट्ठ मेले में सांड़ की दंगल करवाएंगे। वाह! हम आपस में लड़ मरें और वे सब मजा लूटें, ताली बजावें।'
‘हाँ मौसी' बिलिया भी म्याऊँ कर उठी, 'अरे बबुआ, जब गऊ को माता कहते हो, तो फिर उसका दान कैसा, हाँ? माँ का भी कभी दान होता है? छिः !'
'अरे जल्ली कट्ट में सांडों को बौड़ाने के लिए सब दारू पिला देते हैं। आँखों में मिर्च डालते हैं ताकि वे और तेज दौड़े' एक भेड़ को भी ताव आ गया।
जहाँ उमराव जान और शहनाई के शहंशाह बिस्मिल्लाह खान को सुपुर्दे खाक किया गया था, उस फातमान से आए एक हाथी अपनी सँड़ उठाकर ऐसे चिंघाड़ा कि पूरा बनारस थर्रा उठा, खाकी वर्दी की हवा गुम हो गई। उसने दीर्घ श्वास छोड़कर कहा, ‘अजी केरल के त्रिशूर में हमारे ऊपर कम अत्याचार होते हैं? दिनभर जंजीरों में बंधे खड़े रहो। कितनों का तो पैर में घाव बन जाता है, हड्डी टूट जाती है। जबकि हमसे ही मजदूरी करवा के मंदिर की रोजाना लाखों की कमाई होती है। और जानते हो, साले हमारा नाम कितना प्यारा-प्यारा रखते हैं - गणेशा, तो देवी, तो गजानन? वाह रे छल!'
बंदनवार के खंभे पर बैठे कबूतर लगे गुटर गू करने, ‘अरे हमारी बात छोड़ो। वे तो दूसरे इंसानों को भी मारने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। हिन्दू मुसलमान को, तो मुसलमान हिन्दुओं को। दंगा हर रोज !'
चंदन का तिलक लगाए हुए तोताराम शास्त्री ने चिल्लाकर कहा, 'उनमें भी दलित हो तो ऊँची बिरादरीवाले तुम्हारी मड़ई में आग लगा देंगे। और उधर कहीं शिया मस्जिद को सुन्नी जला देंगे, तो कहीं बहावी दूसरे मोमिनों का कत्ले आम करेंगे। पेशावर से लेकर सीरिया तक वही तमाशा ए जहन्नुम !'
बिरसुआ ने आह भरी, 'हे भोले शंकर, जनावर उ कुल हैं कि हम?'
फकरूद्दीन अंसारी के लड़ाकू मुर्गे ने भिनसारे ने अजान की स्टाइल में बांग दी, ‘इंसान से बड़ा जानवर और कौन है? साले सब मौकापरस्त ! अपनी मौज के लिए सब मुर्गा लड़ाते हैं, जुआ खेलते हैं, और इनका काँइयाँपन तो देखो-जो मुर्गा जीतता है, उसका मीट हजार बारह सौ में बेचेंगे ! हाय रे बेरहम!'
कीशुद्दीन बंदर ने टोपी ठीक करते हुए एक उसास छोड़ी, ‘इंसान अकेला जीव है, जो दूसरा कोई बेचारा बिन कपड़े के नगा रहे तो हंसता है, और खुद मौका मिलने पर नंगा दरिन्दा बन जाता है। अपनी चादर से सर ढंक कर उसने पुरवा से चाय की चुसकी ली, “आयत और सूरा जपने वाले वाह रे मजहबी, स्वात के सिंगोरा में मलाला जैसी मासूम बच्चिओं के सिर को निशाना बनाते हो, पेशावर के आर्मी स्कूल में बच्चों की लाशें बिछा दीं, फिर बाचा खान यूनिवर्सिटी में मुशायरा सुनते स्टूडेंटस को तुमने गोलिओं से भून डाला। अरे जालिमों, क्या तुम्हें सूरए यासीन (कुरान की एक सूरत जो मरते समय सुनाई जाती है।) के सिवा और कुछ याद नहीं है ?'
हुओं.....हुओं....हुओं.....मरघट पर हुँहुँआते सौ सौ सियार की तरह आवाज करते हुए चार सौ कुछ चार पहिए और बाइकों का काफिला निकल गया।
उसी समय दशाश्वमेध तक पहुँचने के रास्ते गुदौलिया के आगे काशी के प्राचीन होटल सेन्ट्रल लॉज के नीचे एक नाटक हो रहा था। यहाँ एक जमाने के प्रसिद्ध घोष बाबू की रंग पेंट की दुकान के सामने बनारस का प्राचीन लघु शंका गृह निर्मित है। वहीं एक चौपाया सारमेय तिपाया बने खड़ा था। चारों ओर पीतवर्णी मनुष्य कृत जलधारा एवं वायु में तैरती उसकी बू। और भी क्या क्या - राम जाने। लोग क्या करें, कहीं पानी का पुख्ता इंतजाम रहता ही नहीं। ऊपर एक झक्क सफेद टाइल्स पर लिखा है - स्वच्छ काशी सुंदर काशी!
लाठी लेकर एक पुलिस दौड़ कर आ गई, ‘अबे, तुझे यहीं मौका मिला था यह करने को? करोड़ों के ठेके देकर ये टाइल्स लगे हैं, और तू है कि -! अभी कारवां गुजरेगा, और तू बहार दिखा रहा है? चल भाग हियां से -!'
५. विहंगम दृश्य
दरभंगा के राजा के बनाए दरभंगा घाट के लंबे-लंबे तीन खंभों के सामने के बुरुज पर फूल और माला का मंच बनाकर ताजपोशी का इंतजाम किया गया है। यह वही जगह है, जहाँ सत्यजित राय की फिल्म ‘जय बाबा फेलूनाथ' की शूटिंग हुई थी। अंतिम दृश्य में खलनायक उत्पल दत्त चोरी की गणेश मूर्ति लेने बजरे से उतरते हैं और गोयंदा (जासूस) सौमित्र चटर्जी साधु के भेस में उनपर तमंचा तान देते हैं।
कीर्तन और कव्वाली के गाने हो रहे हैं। मंदिर शीर्षों पर या आकाशदीप के बांसों पर सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं, तो आकाश पर बाज की तरह ड्रोन कैमरा चक्कर काट रहा है - कहीं कोई आतंकी तो घात लगाकर नहीं न बैठा है।
गंगा मैया भले ही पानी के लिए तरसती हों, मगर घाटों पर लबालब भीड़ का सैलाब उमड़ रहा हैकेवल द्विपद मनुष्य ही नहीं, बल्कि चौपाये और परिन्दे -सभी नंदीकेश्वर की एक झलक पाने के लिए बेताब हो रहे हैं।
मंचासीन लोगों में शहंशाहे बनारस के बगल में श्वेतांग मंद मुस्कान के साथ तशरीफ धरे बैठे हैं। सामने गद्देदार श्वेत सोफों पर शोभित दक्षिण अफीका के बब्बर शेर, आस्ट्रेलिया के शुतुरमुर्ग और कंगारू, कनाडा के ग्रिजली भालू, श्रीलंकाई हाथी और जाम्बिया के जिराफ आदि अनेकानेक पशु कल तिलक तसल्ली से दृश्यावलोकन कर रहे हैं।
‘अबे हट, तू यहाँ कैसे बैठ गया, बे?' वहाँ शासक दल के किसान मोर्चे का अध्यक्ष बैललाल बांके बैल बैठा है। उनको और उनके जिगरी दोस्त जिले के कद्दावर नेता अश्वघोष घोड़े को ही नंदीकेश्वर के स्वागत मंच निर्माण आदि का ठेका मिला थाइसलिए दल विधायक कपीन्दर बवाल इनसे खार खाए बैठे हैं। बवाल ने बांके की गलबहियां डाले उसे खींच कर कहा, ‘साले, हाई कमांड को तेल लगा रहा है?'
नौबत यहाँ तक आ गई थी कि परसों बांके और अश्वघोष ने डीआईजी साहब को प्रार्थना पत्र दिया था -‘मान्यवर महोदय, कपीन्दर बवाल अपने गुर्गों से हमारी हत्या का षड्यंत्र रच रहा है। हमें बचाएं।'
डीआईजी बड़े पसोपेश में पड़ गए। वे शायद तलत महमूद का वह गाना गुनगुनाने लगे थे-जाएं तो जाएं कहाँ, समझेगा कौन यहाँ? मगर प्रारब्ध को कौन टाल सकता है? नियति को न बाध्यते?
अश्वघोष ने आव देखा न ताव। दोस्त की आबरू खतरे में देख उसका खून खौल उठा। घूम कर पिछली टांग से उसने जड़ दी एक दुलत्ती।
पानी में एक आवाज हुई - छप्प.....छपात...। और कपीन्दर बवाल सीधे ठंडे पानी में, ‘हाय बजरंगबली, तोड़दुश्मन की नली।
डीआईजी सकते में, 'अरे ओ कपीश जी! अजी भौंभौंलाल, जाओ पानी में कूद कर विधायक जी को बचाओ।'
नावों पर बैठे माझी मल्लाह लगे चिचियाने, ‘बचे बचनिया बच्ची, बड़ेला (अफसर) कुल गबचामड़ (उलझन) में हुअन !'
कपीशजी और भौंभौंलालखोटर (पुलिस) आखिर क्या करते? कूद गए पानी में -‘खाई है रे हमने कसम तुझे बचाने की। जान दे देखेंगे प्रताप कुर्सी पाने की।'
उधर दर्शक दीर्घा में खलबली ......
उन्होंने नजर उठाकर ऊपर देखा - दो कौए पूँछ उठाकर वो करके अब माथा घुमा-घुमा कर सामने के नजारे का लुत्फ उठा रहे हैं। छल-छल बहती गंग, सामने शहंशाहे-बनारस का मंच रंग बिरंग!
महाभारत में है, एक बार कौशिक मुनि पेड़ की छाँह में बैठे वेदाध्ययन कर रहे थे, तभी अचानक डाल पर बैठी एक बगुली ने उनके मस्तक पर वो कर दिया था। मुनि इतने कुपित हो गए कि उनका त्रिनयन खुल गया और वह बेचारा परिन्दा भस्मीभूत होकर रह गया। यह तो दीगर बात है कि उसके पश्चात् ऋषि के मन में दारूण अनुशोचना हुई -'अरे, मारे गुस्से के यह मैंने क्या कर डाला ?'
आज भी उस दुर्घटना की पुनरावृत्ति हो सकती थी। हुई नहीं। वह तो घोर कलि है, इसलिए।
‘की असो-भो!' बगल में बैठी बिल्ली दीदी सर पर पूँघट सरका कर बांग्ला में बोली।
‘ऐ चुप, ऐ चुप। यहाँ क्या तमाशा हो रहा है?' गड़बड़ी देखकर दो विशेष दस्ते के सिपाही आगे आ गए।
वृषभाचार्य उठ खड़े हो गए, उन दोनों की धृष्टता देखो। उस कौए ने हमारे ललाट पर -'
यह बात ? पकड़ साले के। उड़ने न पाए।'
लंगूर कमांडो ने बाज को इशारा किया, और उन दोनों ने मिलकर उन दोनों कौवों को धर दबोचा, ‘पता नहीं पड़ोसी देश का कोई आतंकवादी हों ये दोनों। यहाँ गड़बड़ी फैलाने आए हैं। कहीं भगदड़ मच जाए तो कितने लोग जान आँवाएंगे !'
बाज बोला, 'या रेकी करके पता लगा रहे हैं कि घाटों पर क’ लाख की भीड़ है।'
बूढे रासभ दादा ने देचू ढेचू किया, ‘पता नहीं आजकल ये आतंकवादी तो संसद वालों के बाथरूम में भी धमाका कर देते हैं। हाय अल्लाह! उस काम में भी अमन चैन नहीं?'
हथेली पर खैनी मलते हुए कपि हरिया पंडे ने खों खों कर एक दोहा सुनाया, “आतंकवादियों ने अब कैसा किया कमाल! नेता मैदान जाए वहाँ भी हो धमाल।'
सामने गंगा की लहरों के बीच धमाकेदार रंगारंग कार्यक्रम चल रहा था......
६. रोटी की तलाश
तीन दिनों से ढिंढोरा पीट-पीट कर सरगम गधा काशी की सड़कों पर मनादी कर रहा था.. डगडग.. डगडग, हर खासो आम को इत्तला दी जा रही है कि शहंशाहे - बनारस नंदीकेश्वर के काशी आगमन के अवसर पर उस दिन मार्ग के दोनों ओर अपनी अपनी दुकानें खुली न रक्खें.....एँ.....।' डुगडुग......डुगडुग.....
'हाँ भाई, पता नहीं किसी चायवाले के हियां केतली में ही कोई बम वम रख दे, तो -2' मिर्चा चबाते हए एक तोते ने तीतर से कहा।
तो नतीजा यह रहा कि आज भूखे पेट को रोटी नहीं मिली। सोनहा और बिलिया रानी सड़क छोड़ गली गली से होकर वरुणा के नजदीक अलईपुरा सिटी स्टेशन के पास कसाईबाड़े में पहुंच गए। इसी के पास वरुणा और गंगा का संगम है। एक जमाने में सौदागर अपनी जिन्सों से लदी नावों का लंगर यहीं मुहाने में डालते थे। तो इधर ही से काशी आबाद होना शुरू हुआ। मिट्टी का पुराना किला यहीं राजघाट के निकट स्थित है। और यहीं दक्षिण में ब्रह्मनाल या उत्तर मुं सरैया या जलाली पट्टी के आसपास ही काशी की आबादी ने बसना प्रारंभ किया था। बाकी तो श्मशान के पास कुछ भर, पासी या डोम आदि ही रहते थे। और औघड़ों की तो बात ही छोड़िए।
वरुणा के ऊपर बने पुराने पुल का नया नामकरण हुआ है - कामायनी पुल। इसी के आगे है सरैया का लाट भैरव। जहाँ एक ही अहाते में मस्जिद और मंदिर दोनों गलबाँही डाले खड़े हैं। और वह सड़क सीधे निकल गई है सारनाथ की ओर जहाँ गया से आकर बुद्ध ने सर्वप्रथम अपने पाँच दोस्तों को दीक्षा दी थी। ये वही दोस्त थे जो बराबर उन्हें ढोंगी आदि कहते थे। जाते जाते यह सड़क बाएं हाथ से एक ईदगाह को छूकर निकल जाती है। प्रेमचंद के हामिद और उसकी दादी अमीना (ईदगाह) को आप इधर ही कहीं देख सकते हैं।
७. हाय पेट, हाय पेट
‘तू यहीं ठहर, मैं जरा आगे देखता हूँ।' बिलिया को एक पान की गुमटी के नीचे बैठाकर सोनहा दौड़ा कसाईखाने के पीछे, ‘बिलिया, घबड़ाना मत। मैं गया और आया।'
मगर जीवात्मा सोचे कुछ, और परमात्मा को मंजूर होता है और कुछ। सोनहा कोई पचास कदम दौड़ा ही थाकि ........
'भौं भौं-', पीली कोठी और जैतपुरा छमुहानी के कुत्ते एक साथ झपट पड़े, ‘क्यों बे भार्या के भाई, इसको अपने जनक की जागीर समझ लिया है? जब मर्जी आए।'
छोटी-छोटी दम से अपने नितम्बों को हवा देते हुए कई सूअर भी कीचड़ से उठ खड़े हुए, 'चले आते हैं सब भुक्खड़! जैसे बांग्लादेशी हिन्दुस्तान में घुस आते हैं। अरे हमारा क्या होगा, कालिया ?'
‘बस भाई, आज भर कुछ ले जाने दो। मेरी अम्मां भी भूखी है, 'आज उधर की सारी दुकानें जो बंद हैं।'
‘चुप बे जसोदा का गोपाल। चल फुट, वरना -।' पाँच छह मुंह एक साथ सुरसा के मुंह की तरह खुल गए। हर मुंह में ऊपर नीचे दो-दो सुवा दाँत। छह जोड़ी आँखें धधकने लगीं जिघांसा से।
बिलिया दूर से सब देख रही थी। मन ही मन कहने लगी, ‘हक के लिए कोई नहीं लड़ता। मगर खुदगर्जी की लड़ाई में देखो - सब अंधे हो जाते हैं।'
'भौं भौं! खौं खौं!' सबों ने मिलकर सोनहा को दौड़ा लिया।
भूखा अभागा भागा। छुप गया नेशनल इंटर कालेज की चहरदीवारी के पास। इसी कालेज में कभी ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया' के लेखक अब्दुल बिस्मिल्लाह मुदर्रिसी करते थे।
ज्यों वे छह के छह जरा इधर उधर हो गए, सोनहा सव्यसाची के धनुष के तीर की तरह निकला और गोश्त का एक टुकड़ा उठाकर बिजली की फुर्ती से दौड़ निकला।
‘चोर, चोर ! अरे उ कुतौवा चोरी करके भागऽ थौ।' आसपास के मुँडेरे और दीवालों पर बैठे चील और कौए लगे चीं चीं और काँव काँव करने।
खतरों के खिलाड़िओं की तरह केबिल के तारों से झुलते हुए कई कपि शिशु खिखियाने लगे, ‘देख देख, सब उसे नोचेंगे, बकोटेंगे।'
इन्सानी उन्मादी हिंसा से जानवरों के बच्चे भी अछूते नहीं रहे।
‘पकड़ पकड़ स्साले के! हरामी कहीं केअबे तुझे छोड़ेंगे नहीं।' करीब चौबीस टाँगे उसके पीछे दौड़ रही थीं।
बिलिया भी समझ गई नीचे रहना खतरे से खाली नहीं है। वह लपक कर चढ़ गई एक बरामदे के ऊपर। फिर कूदते फाँदते छलाँग लगाते हुए अपने हमदम हमसफर को फॉलो करती हुई दूर निकल आई।
कसाईखाने के सामने बँधा एक ऊँट अपने जबड़ों को चलाते हुए पागुर कर रहा था। वह भी शायद गुनगुनाने लगा‘जीवन तेरा राग सुन चुका, मौत की पाजेब बजने दे । श्याम की मुरली थक गई तो ,.दरिया ए जमना थमनें दें !;
सोनहा उनके चंगुल से निकल आया। क्योंकि वे मारने के लिए दौड़ रहे थे और यह अपनी जान की हिफाजत के लिए, माँ को खिलाने के लिए.........
जेम्स प्रिन्सेप ने 'बनारस इलसट्रेटेड' में लिखा है आज जहाँ मछोदरी है, वहीं कभी मंदाकिनी की कई झीलें थीं। त्रिलोचन के पास उसी में से एक को पाट कर चावल, दाल, गेहूँ और तिलहन आदि की थोक मंडी का कारोबार शुरू हुआ। वही है आज के विश्वेश्वरगंज की आढ़त। और वहीं है
उत्तर की ओर मृत्युंजय महादेव मंदिर, तो दक्षिण की ओर शहर कोतवाल काल भैरव का मंदिर। वैसे तो तुलसी बाबा अस्सी के समीप तुलसी घाट पर रहते थे, मगर प्रिन्सेप साहब ने लिखा है - जिन दिनों मणिकर्णिका के आस-पास के जंगल को साफ कर लोग जमीन पर कब्जा जमा रहे थे, उस समय (१५७४) गोस्वामी जी जंगल के छोर पर इधर ही रहते थे। तो, काल भैरव के मंदिर के सामने फूलमाला की दुकानों में पीतल पर बने कटार जैसे मूंछोवाले काल भैरव के मुखड़े लटकते हैंगोल प्लेट के चारों ओर सूर्य की ज्योति की भाँति कुछ बने होते हैं और फूलों के साथ साथ फ्रेन्डशिप बैंड की तरह कलाई पर पहननेवाले छल्ले भी बिकते हैं। मंदिर के आँगन में हाथ में मोर पंख के छोटे-छोटे झाड़ लेकर साधु घूमते हैं, ‘आ जा बेटा, डर मत। तुझे सब भय से स्वयं बाबा निर्भय बनाएंगे। तेरी मुसीबतों से यह झाडू ही तुझे मुक्ति दिलाएगी
माएं आती हैं अपने बीमार बच्चों को लेकर कि काल भैरव के झाडू से झाड़ फेंक करने से बाबा उनकी औलाद को ठीककर देंगे ! सुख-दुख की राह पर आस्था, आशा और आरजू के चार पहियों पर मंत्रों-आयतें-अजान के आकाश के नीचे धूप-फूल-खुशबू के बीच से पंख-घंटा-ध्वनि और ढोलक की थाप की धूल उड़ाते हुए दीन धरम का रथसरपट दौड़ता रहता है...
८. लौटान
मेला खतम हो गया था। शृंगराज और भैरू सांड, और उनके चेले चपेटे कप्पी बंदर, बिक्को श्वान और कालू लंगूर दरभंगा से चौक होते हुए भैरोनाथ की ओर अपने अपने घर लौट रहे थे। सभी विजयी दल के कद्दवार नेता हैं। राह चलते सब नारा बुलंद कर रहे थे, ‘काशी का है कौन विधाता? नंदी हैं हम सबके त्राता!'
वे आकर गली के मोड़ पर पनवाड़ी की दुकान के सामने अड़ी लगाने गोल बांध कर खड़े हो गए, 'चार बिड़ा लगावा तो।' सामने पान की पीक से रक्त रंजित सड़कइतने में हाँफते हुए सोनहा वहाँ जा पहुँचा। खैर, चूँकि महामहिम का कारवां उधर मैदागिन चौमुहानी से गुजर जाएगा, इसलिए इधर की दुकानें खुली हैं।
'अरे गुरु, इ बेगाना कुतौआ केहर से आ गैल?' कप्पी ने खिचपिच कर कहा।
“अरे उस्ताद, ओकरे मुँह में का है?' नाक से सूंघते हुए बिक्को के मुँह में तो पानी आ गया।
भृगराज का माथ ठनका, ‘अबे रुक,ठहर ।'
‘का बे, तू कहाँ से एहर आ टपका?' भैरू ने देखा बिना तावबाजी के उसका पोजीसन शृंगराज से कमतर हो जाएगा।
‘पायँ लागी महाराज!' मुँह से उस गोश्त के टुकड़े को उतार कर सोनहा बोला, 'मैं इस कासी का ही छोरा हूँ।'
“अबे अपनी मां का खसम, तेरी काशी गई चूल्हे भाँड़ में। तु है किस मोहल्ले का? और इधर कैसे आ गया?' भैरू के सींग डमरू की तरह हिलने लगे।
अबे, उ का है? तू बाबा काल भैरव के मंदिर के पास का लेकर आया है,बे?' शृंगराज जोर से रँभाया
कालू लंगूर उछल कर पहुँच गया सोनहा के पास, 'अरे गुरु, इ तो कोई गाय का खुर है। अरे राम राम ! तेरा सत्यानाश हो बे। इस गली में बैठे गोमांस खाएगा?'
एक दुकान के बरामदे में खड़ी बिलिया अंधड़ में पत्ती की तरह काँपने लगी, 'हे भवानी, यह क्या होने जा रहा है? सोनहा अकेले इतने लोगों से कैसे लोहा लेगा?'
मगर तब तक जो होना था, वो हो गया।
शृंगराज की दहाड़ से काशी थरथराने लगी, ‘अबे तेरी हिम्मत कैसे हुई? हमलोगों के इलाके में गाय का गोश्त ले आने की? पकड़ स्साले के -!'
बस क्या था? उधर भैरू के सींग, इधर से कप्पी और बिको के दाँत, साथ में कालू का तमाचा-सब बरसता रहा।
बिलिया काँपती रह गईऔर लैला के सामने उसका मजनूं लहूलुहान होता गया।
क्या वह मर जाएगा? मगर क्यों? उसका अपराध क्या ? सही में तो वह खुर किसी भैंस का ही है। मगर फिर भी फिरकापरस्ती के आगे मुरलीधर की बंसी भी बेसुरा बन जाती है।
९. मदद की गुहार !
बिलिया हाँफते हुए दौड़ रही है। रास्ते में जो-जो मिले - ठठेरी बाजार की गाय, ज्ञानवापी के काकातुआ, तोते और गुदौलिया के अस्तबल के घोड़े - सब से कहती गई, ‘सब चलो भाई, गुंडे मेरे सोनहा की जान लेने पर तुले हैं। बचा लो, दादा!'
मुडेरों पर बैठे कबूतरों ने यह बात सुनी। वे उड़ कर सबसे कहते गए, ‘भैरू, भृगराज, कप्पी सब सोनहा के खून प्यासे बने बैठे हैं। उसे बचाओ!'
पिंजरा तोड़ कर तोते, तीतर और बटेर निकल आए। बंद दरबारों के ताले तोड़कर कबूतर और मुर्गे मुर्गियां बाहर आ गए। मानो जंजीरों को तोड़ने के दिन आ गए हों!
उधर कमच्छा मंदिर में खबर पहुँची, तो सोनहा कीमाँ दहाड़ मार कर रोने लगी, 'हे बटुक भैरो महाराज, तुम्हारे ही काल भैरव के चरणों के पास यह कौन सा पाप हो रहा है?' सब दौड़े उधर ...........
सब दौड़े उधर ...........
१०. कुरुक्षेत्र
मगर तब तकगंगातट पर सूरज ढलने लगा था। और सोनहा की जान भी सातवें आसमान की ओर कूच करने वाली थी। उसके तमाम जिस्म पर दाँत, खुर और सींग से बने घाव दशानन के दस मुख की तरह मुँह बाए पड़े थे। हर एक मुँह से खून रिस रहा था। माँ को देखते ही उसके मुँह से निकला, 'अम्मां, मैं तेरे लिए खाना लाने गया था। मगर इन जालिमों ने -'
‘यह तू ने क्या किया मेरे लाल? अरे, मैं एक दिन भूखी रह जाती, मगर तू ने तो मेरी कोख को ही उजाड़ दिया। उसकी माँ आकाश की ओर देखकर जाने किससे शिकायत करने लगी। शायद उसे ही निराकार और अज्ञेय भी कहा जाता है।
बिलिया की आँखों में आँसू की एक बूंद न थी। जुल्म के खिलाफ बगावत की भावना उसकी पुतलिओं में शोले बनकर नाच रही थी।
सोनहा ने उसकी ओर देखा। कौन कह सकता है कि वह मुस्कुराया या उसने अलविदा कहने की कोशिश की। उसका सर काशी की धरती को चूमने लगा।
बिलिया ने चिल्लाकर कहा, “भाई लोग, तुमलोग देख क्या रहे हो? बदला लो। एक साथ मिलकर इन हत्यारों से लड़ो!'
काशी की सड़क पर एक कुरुक्षेत्र बना हुआ था। एक तरफ काशी के पशु-पक्षी थे, तो दूसरी ओर कुछ सींग पूँछ वाले चौपाये दरिन्दे।
११. कहहिं पुरातन कथा कहानी
(अयोध्या कांड)
करीब साल भर पहले की बात है - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रिटायर्ड आचार्य कीरबुर्गी ज्ञानाचार्य (कीर यानी तोता) ने दक्षिण पूर्वी एशिया में प्रचलित भिन्न-भिन्न रामायण कथाओं पर लिखते हुए यह लिख दिया था कि थाईलैंड में रामा प्रथम और उनके पुत्र रामा द्वितीय नाम के राजाओं ने वहाँ की रामायण रामाकियेन की रचना की थी (१७९७) । वो रामायण वाल्मीकि रामायण से कुछ भिन्न है। उसमें है कि जब हनुमान सीता मैया की खोज में लंकापुरी में प्रवेश करते हैं तो विभीषण की कन्या, सुवन्नामखा नाम के रावण की जलपरी कन्या, यहाँ तक कि रावण महिषी मन्दोदरी के साथ उन्होंने वक्त गुजारे ।
इस पर शृंगराज, भैरू, कप्पि बिक्को और कालू तुनक गए, ‘भो-रीवाले रहेंगे हिन्दुस्तान में, और रामायण बाचेंगे थाईलैंड की? (‘लैंड' का उच्चारण भी भैरू ने असभ्य ढंग से किया)पवनपुत्र बाल ब्रह्मचारी रहलन । उनकर लँगोट कभी ढीला ना भैल, तिस पर तुर्रा यह कि......
जैसा कि 'काशी का अस्सी' में डा. काशीनाथ सिंह ने लिखा है जब गोस्वामी जी रामायण को घर-घर पहुँचाने के लिए मानस की रचना कर रहे थे, तो अस्सी के लुके इसी लहजे में बतियाते रहे, छिनरों के रहियन काशी में और लिखियन भाखा में?'
सही में इतिहास खुद को दोहराता है। कभी मर्मभेदी ढंग से तो कभी हास्यास्पद ढंग से।
जब आचार्य कीरबुर्गी ज्ञानाचार्य ने वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड का हवाला देते हुए लिखा कि उसमें भी महाकवि ने कहा है - जब माता जानकी को ढूँढ़ते हुए अंजनीसुत रावण के महल में पहुँचे, तो रावण के साथ अंतरंग स्थिति में सोती हुई उनकी महिषिओं को देखकर तथा दूसरी सोती हुई स्त्रिओं को गवाक्षों से देखकर पवनपुत्र को लगा कि वे धर्मभ्रष्ट हो रहे हैं -
‘परदार अवरोधस्य प्रसुप्तस्य निरीक्षणम् । इदम् खलुमम अत्यर्थम् धर्मलोपम् करिष्यति।'(वाल्मीकि रामायणः ५.११.३७)
तो इसी बात पर उन लोगों को मिर्ची लग गई और वे सब इतना बौखला गए कि एक दिन जब कीरबुर्गी भोर अँधेरे गंगा नहाकर लौट रहे थे, तो भैरू, शृंगराज, विक्को और कप्पी वगैरह ने मिलकर खड्ग और तलवार से आचार्य को .......। बस काशी की एक अंधी गली की हवा में उनके हरे हरे पंख किसी बेबस हाय-हाय की तरह तैरते रहे ........
फिर किसकी हिम्मत थी कि उन्हें अंदर करे? पुलिस आई । गाड़ी में बैठाकर ले गई। चाय पिलाई और जब वकील धूर्त शिरोमणि सियार साहब बेल का कागज लेकर आए तो मिनटों में वे सभी मगही पान चबाते हुए, मुस्कराते हुए चमचमाती गाड़ी में बैठ कर घर वापस आ गए। वो केस तो आज भी लंबित, प्रलंबित और स्तभित है......
और आज भी वे एक और का फैसला करने को आतुर थे।
१२. कहानी का अंत
इतने में नंदीकेश्वर और श्वेतांग का काफिला लौटने लगा। हुँओं....हुँओं.....चार सौ यानों का कारवां। पुलिस की भागदौड़ ......
मगर टाउन हॉल के पास थम गया काफिला.....।सामने भब्बड़...
डीआईजी कार से निकल आए, 'यह कौन ड्रामा हैजी? हटाओ सबको।'
मगर सिपाही कितनों को हटाते ? किस किस को मारते? एक लाश तो सड़क के बीचो-बीच पड़ी हुई थी। और कितनी लाशें बिछाते ?
‘पहले हत्यारों को पकड़ो!' काशी के पशु-पक्षी कहते रह गए। मगर लाठी चलती रही। वे घायल होते रहे।
बाएं नागरी प्रचारिणी सभा के सामने की तिमुहानी पर खड़े डा. श्यामसुंदर दास खत्री बाजार का तमाशा देख रहे हैं। उधर टाउन हॉल के सामने बापू और बा भी प्रस्तरवत खड़े हैं। पर सवाल तो यह है कि सारी बुराइयों के देखते हुए बापू के बंदर की तरह सिर्फ आँखें बंद कर लेना ही काफी है क्या?
उधर लहूलुहान गायें, बछड़े, कबूतर, तोते, बिल्लियां, कुत्ते और बंदर-सब सड़क पर पड़े-पड़े आखिरी सांस लेने लगे। मानो माइकेल ओ डायर ने आकर काशी की धरती पर दूसरा जालियांवाला बाग की सृष्टि कर दी हो।
श्वेतांग ने रथ की खिड़की से झाँक कर देखते हुए कहा, “ओह, कितनी बर्बादी है। इसीलिए तो आपलोग काशी को स्मार्ट सिटी बना नहीं पा रहे हैं। वहाँ कितनी सारी गायें, बैल और भैंसों की खाल पड़ी हुई है। कम से कम इन्हें जूते के कारखाने में तो भेज सकते हैं।'
नंदीकेश्वर लाफिंग बुद्धा की तरह मुस्कराए, 'घबड़ाइए नहीं जनाबइन खालों को उतरवाकर भेजने का ठेका हमारे होटल पहुँचते ही किसी को दे दिया जाएगा।'
विधायक कपीन्दर बवाल, अध्यक्ष बैललाल बांके और अश्वघोष उनके रथ के पास हाथ जोड़े खड़े हो गएकपींदर ने फट से कहा, 'मान्यवर, अबकी यह ठेका मेरे बेटे को मिलना चाहिए। आपके आशीर्वाद के बिना उसकी जीवन नैया कैसे पार लगेगी?'
'वाह मन्तरी जी, लाडले को भी विधायक बनाने की जुगत में जुट गए?' बांके का बांका वाक्य।
“अबे तू चुप रहेगा कि फिर नटई दाब दें?'
डीआईजी और सिटी एसपी-सबने लपक कर उन लोगों को अलग किया। कहीं कपिंदर फिर से कोई बवाल न कर बैठे।
किनारे सड़क पर हो रहे पूरे वाकया से बेखबर वह कारवां वरुणा किनारे के पाँच सितारा होटल की ओर चल पड़ा। तब तक उधर सड़क पर ......
कुरुक्षेत्र के तेरहवें दिन जब सप्तरथिओं ने मिलकर सोलह साल के अभिमन्यु को अन्यायपूर्ण तरीकों से मारा था, तो जिस तरह सुभद्रा और विराट पुत्री उत्तरा रो रही थीं, उसी तरह सोनहा की माँ और बिलिया गला फाड़ कर रोती जा रही हैं .........
काशी क्या, हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक, ब्रह्मपुत्र से लेकर द्वारिका तक, वर्तमान आर्यावर्त के कहीं भी जाइएगा, तो पाइएगा कि यह जंग जारी है। अगर पूछे - इस कहानी का अंत क्या है? तो जनाब, इसका अंत इस मामूली कलमकश के हाथों में नहीं है।
आज भी इस कुरुक्षेत्र की लड़ाई जारी है। सवाल तो यह है कि आप किस तरफ हैं?
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