'कहानी - दूसरा अध्याय - डॉ. कविता विकास

स्वतंत्र लेखिका व शिक्षाविद कृतियाँ : दो कविता संग्रह (लक्ष्य और कहीं कुछ रिक्त है) प्रकाशित। साझा कविता संग्रह हृदय तारों का स्पंदन, खामोश, खामोशी और हम, शब्दों की चहलकदमी औरसृजक प्रकाशित। कृति ओर, कादम्बिनी, पुरवाई, अक्षर पर्व, परिकथा, साहित्य अमृत, परिंदे, वागर्थ, चौराहा, प्रसंग, इंद्रप्रस्थ भारती, कथाक्रम, रेवान्त, गगनाञ्चल आदि साहित्यिक और लघु पत्रिकाओं व दैनिक समाचार पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।


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मेरी संस्था के वार्षिक समारोह के आयोजन की तैयारियाँ हो रही थीं। इस संस्था को ज्वाइन किए हुए मुझे ढाई साल होने को आए हैं पर मेरी लगन और मेहनत देख कर मुझे कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया है। मेरी कार्यप्रणाली से लोग खुश रहते हैं। मुझे बखूबी जिम्मेवारी निभाने के लिए पुरस्कृत भी किया जाएगा और, इस अवसर पर मेरा दिलोजान बेटा मनीष भी आ रहा है। और तो और, समारोह के मुख्य अतिथि शहर के नामी वकील श्री आत्मा शुक्ल होंगे जो इस संस्था के ट्रस्ट के प्रेसिडेंट हैं। यानी मेरे लिए दोहरी खुशीमैंने तो हफ्ता भर पहले से तैयारी आरम्भ कर दी थी। महँगी साड़ी, मैचिंग चूड़ी-बिंदी, फेशियल करवाना आदि-आदि। कभी-कभी शर्म भी आती कि पचपन साल की उम्र में यह सब शोभा देगा क्या? पर दिल था कि मानता ही नहीं। लगता, मैंने अभी-अभी तो अपनी ज़िन्दगी शुरू की है। वह सब बनाव-श्रृंगार दो दशक पहले कर लेना थीपर, समय कभी अनुकूल नहीं रहा मेरे लिए। तभी संस्था की उपाध्यक्ष नीलम दी मेरे कमरे में आईं। नीलम दी ने कुछ समय पहले मेरे हॉस्टल में शिफ्ट किया था। यूँ तो हम बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे पर उनके साथ बैठ कर बात करने का कभी अवसर नहीं मिला। कमरे में आते ही उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और बधाइयों के साथ ढेर सारी शुभकामनाएं दीं। “जानती हो माया, तुम्हें देख कर लगता है हम पिछले जन्म की बहनें हैं। पता नहीं तुमसे क्यों इतना अपनापन लगता है।'' नीलम दी ने कहा- “हाँ दी, मुझे भी ऐसा लगता हैआखिर आप ही ने तो मुझे यहाँ की गतिविधियाँ समझाई थीं, जिन पर मैं अमल कर रही हैं।'' ' अच्छा, तुम इस समारोह के निमंत्रण कार्ड पर मुख्य अतिथि का नाम देख कर चौक क्यों गई थी, क्या तुम उन्हें जानती हो?'' “हाँ दी, उनका नाम देखते ही मुझे आज से तीन साल पहले की घटना याद आ गई जब मैं उनके कक्षा के बाहर एक बेंच पर बैठी अंदर जाने की अपनी बारी का इंतजार कर रही थीचपरासी ने जैसे ही मेरा नाम पुकारा, ‘माया शर्मा'', मैं अंदर दाखिल हुई। उनके सामने अपनी बात रखने से झिझक रही थी, आखिर इतना कड़ा फैसला जो लेने जा रही थीउन्होंने एक बारगी मुझे समझाया भी, “जब जीवन के पच्चीस साल बिता दिए, बच्चे सेट्ल्ड हो गए, तो अब बची हुई ज़िन्दगी भी गुजर जाएगी। अलग रहने का फैसला गलत न हो जाए।''


       नीलम दी शायद आज मेरी आपबीती सुनने आई थीं,सो उन्होंने कहा, “पूरी बात बताओ माया,आखिर क्या घटा हैतुम्हारे साथ'' “सोच लो, बढ़ती उम्र में सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। फिर अकेली औरत को जुमाने की दुश्वारियां भी झेलनी होती हैं।'' मैंने कहा, “वकील साहब, दुश्वारियां तो मैंने परिवार में रहते हुए भी अकेले झेली है तब जुमाने वाले कहाँ थेआप मेरी बात सुनें, फिर कोई सलाह देना।'' वकील साहेब ने कहा, “वैसे तो तुम्हारी अर्जी से मुझे संकेत मिल गया है, फिर भी तुम कल आओ, कल ऑफिशियली दफ्तर बंद रहेगा। भीड़-भाड़ नहीं रहेगी।''


      उस समय शाम के पाँच बज रहे थेमैं घर की ओर चल पड़ी। जैसे ही दरवाजा खटखटाया सासु माँ ने दरवाज़ा खोलते ही कहा, “माया, दूध दे दे।'' ननद जी ने फरमाइश की, “अदरक वाली चाय बना देना।'' थोड़ी देर बाद रोहन आए और वही चिर-परिचित शक्की अंदाज़ में पूछा, “कहाँ से आ रही हो? घर से बाहर थी न, पहनावा ही बता रहा है।'' खैर, चुपचाप अपने काम में लगी रही। व्यंग्य सहने की आदत पड़ गई थी।


       रात में बिस्तर पर पड़े-पड़े कई पुरानी बातें याद आती रहीं। बगल में सोए रोहन को देखा, उम्र की रेखाएँ ललाट और गालों पर झुर्रियां बन उमड़ गई थीं। अट्ठावन से ऊपर होने को आए पर क्या मजाल कि तेवर में कोई नरमी आई हो। वही शकमिज़ाज़ी, वही रूखापन। जीवन के तैतीस साल साथ बिता देने के बाद भी दोनों के बीच स्वभाव और अंदाज की विभिन्नताओं से जो रेखा खींची हुई थी, वह मिट नहीं पाई थी। सुबह के नौ बजे रोहन को किसी काम के सिलसिले में बाहर जाना पड़ा। उनके निकल जाने के बाद मैं भी वकील साहब के दफ्तर की ओर निकल पड़ी। वह मेरा इंतजार ही कर रहे थे। मुझे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, “तो तुम बुलंदशहर से हो, मैंने भी अपनी प्रैक्टिस की शुरुआत वहाँ से की थी। बातों-बातों में मेरे चाचा जी वकील साहब के मित्र निकल गए। मैंने अपनी बात आरम्भ की, “जी, मैंने वहीं से पढ़ाई की और मास्टर्स के बाद मेरी शादी हो गई। विवाह के समय मेरे ससुराल वालों ने पिताजी पर अपनी जो सरल और सौम्य छवि बनाई थी, वह इतनी गहरी थी कि बाद के मेरे दु:ख-दर्द उन पर कोई असर नही डाल पाए। उन्हें अक्सर लगता कि मैं ज्यादा पढ़ी-लिखी हो कर तर्क से विषय का विश्लेषण करती हूँ, मुझमे कोई सहनशक्ति या सामंजस्य बिठाने का सामर्थ्य नहीं है। बाद में मैं अपने मायके से पूरी तरह कट गई।


                                                                                                  


विवाह के बाद हम बिलासपुर आ गए और एक छोटे से फ्लैट में रहने लगे। रोहन मुझे कहीं भी अकेले नहीं जाने देते। बहुत दिनों तक इसे मैं उनका पसेसिव होना समझती थी। पर नहीं, मैंने बाद में जाना कि मेरी खूबसूरती के प्रति एक किस्म का डर था उनमें कि लोग उन्हें मुझसे कमतर न समझे। एक दिन मैं उनके साथ क्लब गई। मैंने खूब अच्छा श्रृंगार किया था। मुझे अच्छे-अच्छे कॉमेंट्स मिलने लगे। इनके एक मित्र ने मजाक में कह दिया, “अरे, एक कौवे को हंस का साथ मिल गया। भाभी तो बहुत सुन्दर हैं।'' उस दिन घर आकर इन्होंने मुझे वैसा मेकअप दुबारा करने से मना कर दिया। कई दिनों तक इनका मूड उखड़ा रहा। दो-तीन दिनों बाद छोटी ननद का आगमन हुआ। मैंने अपनी ओर से कोई कसर नही छोड़ीखूब आदर-सत्कार किया जब कि ननद हर बात में नुक्स ही निकालती थी। जाते-जाते दोनों भाई-बहनों में जाने क्या बात हुई कि रोहन वह साड़ी जिसे मैंने क्लब जाने के लिए पहनी था, निकाल कर उसे दे दीमैंने बहुत मना किया क्योंकि वह साड़ी मेरी माँ की दी हुई थी, मुझे बेहद प्यारी थीमेरे विरोध करने पर इन्होंने घर में तूफान खड़ा कर दिया। ऐसा होहल्ला मैंने कभी नहीं देखा था। ‘‘सब कुछ ठीक हो जाएगा'' की उम्मीद पर मैंने वह साड़ी ननद को दे दी। कहते-कहते मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। नीलम दी ने पानी का गिलास मेरी ओर बढ़ायामैं थोड़ी देर रुक गई। पर लगता था अंदर की कोई बड़ी ताकृत मेरा समर्थन कर रही थी। आज मैं सब कुछ बता कर अपना दर्द हल्का करना चाह रही थी। “दी, सासु माँ के अत्याचार भी कम न थे। यूँ तो मेरे मायके में मेरी बातों को ज्यादा तरजीह नहीं दी जाती थी। फिर भी जब मैं माँ-पापा से फोन पर बात करती तो सासु माँ आस-पास ही मंडराती रहती थी ताकि माँ से यहां की कोई शिकायत न कर सकें। इसी बीच तबियत गड़बड़ रहने लगी। जाने वह कौन सा पल था जब तमाम विभिन्नताओं के बावजूद मैंने रोहन के सामने आत्म समर्पण कर दिया था। शारीरिक इच्छाओं का दमन क्या इतना मुश्किल होता है, यह मैंने तब जाना जब गर्भवती हुई। मनीष को पल-पल अपने गर्भ में बड़ा होता देख बड़ी संतुष्टि होती। मातृत्व के अहसास ने तोजीवन के सब दु:ख-दर्द भर दिए थे। रोहन भी बच्चे को खूब मानते। बच्चे के प्रति उनका वात्सल्य तो नज़र आता पर मेरे प्रति वही बेरुखी।'' मेरी बातों को अब तक ध्यान से सुनने वाली नीलम दी के चेहरे पर अचानक रोष दिखाई देने लगा। उसने मेरे हाथों को थाम लिया।


     समय बीतता गया। हमारा तबादला भैरोगढ़ हो गया। कंपनी की ओर से दिए गए अपार्टमेंट के चौथे तल्ले पर हमें फ्लैट मिला। वहाँ मनीष का दाखिला एक कान्वेंट स्कूल में करवा दिया गया। बड़ा होता बच्चा अक्सर मुझसे पूछता, माँ, मेरे दोस्तों की मम्मियां बहुत सज-धज के आती हैं,तुम क्यों इतना सादा रहती हो?'' मैं उसे समझाती, ''बेटा, अंतस की खूबसूरती असली होती है। मुझ पर मेकअप नहीं सूट करता।'' फिर भी रोहन से छिपा कर कभी-कभी बेटे का दिल रखने के लिए रास्ते में लिपस्टिक-बिंदी लगा लेती। मनीष की दिनचर्या के साथ तालमेल मिलाते हुए समय तेजी से बीतता गया। मैं मनीष को बच्चा समझती, सोचती वह पिता की हरकतों से नावाकिफ है। पर नही, एक दिन वह बोल पड़ा, “माँ, तुम पापा की बातों का विरोध करती हो, पर मन ही मन। उन्हें जवाब क्यों नही देती? आखिर तुम्हारा भी बराबर का अधिकार है घर पर, पापा पर, अपने आप पर।'' मैं उसे समझाते हुए कहती, “बेटा, घर की शांति बनाए रखने के लिए किसी एक को तो शांत होना ही होगा।'' बेटा कहता, ‘‘माँ, मौन होना एक बात है और जीवन के सभी रंगों का असमय बेरंग हो जाना कुछ और। तुम्हें भी तो लगता है कि पापा को शक करने की बीमारी ने उन्हें मनोरोगी बना दिया है। तुम अंदर ही अंदर खोखली होती जा रही हो और पापा इसे अपनी जीत मानते हैं।'' मेरा बेटा सचमुच अट्ठारह साल का जवान हो गया था, इसे मैंने उस दिन जानामैंने उसे गले लगाते हुए कहा, “तू फ़िक्र न कर। अगले साल तुम आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जा रहे होइधर मैं संभाल लँगी। जब तुम अपने पैरों पर खड़ा हो जाओगे, मेरा सपना पूरा हो जाएगा। शायद तुम्हारी कमी पापा के स्वभाव को बदल कर मेरे करीब ला दे।'' “वाह रे भारतीय नारी, कितनी आशावान हो तुम माँ, जबकि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा'' उस दिन मैंने महसूस किया कि मनीष को यहां से दूर भेजना ज़रूरी है ताकि बिना किसी तनाव के वह अपना करियर बना सके।


     इस बीच एक दिन चचेरी ननद के बेटे की शादी में हमें उनके शहर जाने का न्योता मिला। रोहन ने खुश होकर कहा, “शादी के लायक साड़ियाँ और गहने आदि रख लो। वहाँ बन-संवर के रहना। कोई वहाँ तुम्हारी उदासीनता पर बात न उठा दे?'' मेरे मुंह से अनायास निकल पड़ा, “उन्हें भी तो हमारे रिश्ते की असलियत पता चले। आखिर उदासीन किसने बनाया मुझे? मैं तो अब भी आपके साथ जीवन के एक-एक पल का रस लेना चाहती हूँ, पर आप ही जाने किस काम्प्लेक्स से घिरे हुए हैं।'' लगभग चिंघाड़ते हुए रोहन ने मुझे भद्दी सी गाली दी, “मुंह लगती है, औकात ही क्या है। तुम्हारी? मेरे टुकड़ों पर पलने वाली औरत!'' 'औकात, टुकड़ों पर पलना। क्या पत्नी की यही हैसियत है? बस एक बार मनीष की नौकरी लग जाए, फिर देखना तुम कहाँ और मैं कहाँ रहूंगी?'' इतना कहकर मैं कमरे से बाहर चली आई। उस दिन से रोहन के प्रति जो वितृष्णा हुई, वह कभी खत्म  नहीं हुई। ननद के यहां शादी में भी सारे रस्मों को निभाते हुए मैंने एक दूरी बनाई हुई थी। बारात के समय एक अच्छी सी साड़ी पहन कर मैंने खुले बाल रखे और हल्का-फुल्का श्रृंगार भी किया। लड़की वालों में से कई लोगों ने रोहन के सामने मेरी तारीफ़ की। लड़की की माँ ने तो यहां तक कह दिया कि इस पूरे समारोह की रौनक मैं ही हूँ। ‘‘इतने घने-लम्बे बाल आज कल कहाँ देखने को मिलते हैं? काश मेरी बेटी के भी ऐसे ही बाल होते। बड़ी अलग सी खूबसूरती पाई है तुमने, ‘लड़की की माँ ने कहा। मैं मुस्कुरा कर सबकी प्रशंसा समेट रही थी। सब कुछ संपन्न होने पर हम लौट आए। शादी की थकान के कारण जल्दी नींद आ गई।


     सुबह मेरी आँखें देर से खुलीं। मेरी आदत है बेड पर से उठने के पहले मैं अपने बालों को आगे कर सुलझाती हूँ। जैसे कंधों पर हाथ फेरा, छोटे-छोटे बाल सामने आ गए। मैं अवाक रह गई। मेरे कमर तक लटकने वाले सुन्दर बाल काट दिए गए थे। मैं फफक कर रो पड़ी। रोहन दूसरे कमरे में खिड़की से बाहर देख रहे थे। मैंने उनके पास जा कर उन्हें झंझोड़ते हुए कहा, “क्यों काटा आपने मेरे बाल? जिसे मैंने बड़े जतन से पाला था, बदलते फैशन का कोई प्रभाव नहीं पड़ने दिया था, इस एक जमा-पूँजी का आज स्वाहा हो गया।'' कहते-कहते मैं बेहोश हो गई थी। उस समय मेरा बेटा मेरे पास था। मुझे होश आया, फिर बहुत देर तक हम एक-दूसरे का हाथ थामे रोते रहे। नीलम दी, उस अपमान को भूल पाना मेरे लिए नामुमकिन है। मेरे बेटे के भी सब्र का बाँध टूट चुका था। उसने पिता को अपशब्द बोलते हुए पुलिस में रिपोर्ट करनी चाही। लेकिन मैंने उसे रोकते हुए कहा, “घर की बातें बाहर क्यों उछालते हो? कम से कम पिता जी तुम्हें तो चाहते हैं। एक बार तुम्हारा भविष्य सुरक्षित हो जाए, फिर हम कुछ करेंगे।'' रोहन की ओर से मैं बिलकुल टूट चुकी थी। हल्के-फुल्के संवाद अब और भी कम हो गए थे। मनीष का उच्च शिक्षा के लिए लन्दन जाना तय हो गया था। उसे स्कॉलरशिप मिला था। उसकी मानसिक शांति के लिए मैं चाहती थी कि वह जल्द लंदन चला जाए। जितनी जल्दी हो सके घरेलू परेशानियों से उसे निजात मिल जाए। एक अच्छी बात इन दिनों यह रही कि उसने फ्री टाइम में मुझे कंप्यूटर चलाना सिखा दिया।


     नियत समय पर मनीष लंदन चला गया। घर का खालीपन जैसे काटता रहता था। एक दिन दस बजे के करीब जैसे ही रोहन ऑफिस को निकले और मैंने दरवाजा बंद किया, दस्तक हुई। मुझे लगा उनका कुछ छूट गया होगा जिसे लेने आ रहे हैं। पर नहीं, दरवाजे पर कोई अजनबी खड़ा था। ''मैं शीतांश शर्मा,आपके बगल वाले फ्लैट में आया हूँ। अभी हफ्ता भर ही बीता है। मुझे दुध लेने में बड़ी परेशानी होती है। दूध वाला सुबह आठ बजे के बाद आता है, जब मैं दफ्तर चला जाता हैं। क्या आप यह पतीला रख लेंगी,वह यहीं दे दिया करेगा।'' “जी अच्छा,'' कह कर मैंने पतीला ले लिया। वह एक बजे वापस आ जाता। इस बीच मैं पतीले को गर्म भी कर देती। पतीला लेते समय उसने बताया कि वह स्थानीय कॉलेज में व्याख्याता है, अभी शादी नहीं हुई है। उसने नियम बना लिया कि एक बजे जब वह दूध का पतीला लेता,उसी समय दूसरे दिन के लिए दूसरा पतीला थमा देता, ताकि सुबह-सुबह


                                                                                                                         


आठ बजे के बाद आता है, जब मैं दफ्तर चला जाता हैं। क्या आप यह पतीला रख लेंगी,वह यहीं दे दिया करेगा।'' “जी अच्छा,'' कह कर मैंने पतीला ले लिया। वह एक बजे वापस आ जाता। इस बीच मैं पतीले को गर्म भी कर देती। पतीला लेते समय उसने बताया कि वह स्थानीय कॉलेज में व्याख्याता है, अभी शादी नहीं हुई है। उसने नियम बना लिया कि एक बजे जब वह दूध का पतीला लेता,उसी समय दूसरे दिन के लिए दूसरा पतीला थमा देता, ताकि सुबह-सुबह मुझे नहीं उठाना पड़े। मुझे उसके साथ बात करना बड़ा अच्छा लगता। कुछ दिनों बाद तो मुझे एक बजने का जैसे इंतजार होने लगा। फिर एक दिन मुझे घर की साज-सफाई में कुछ देर हो गई। जब मैं नहा कर निकली, कॉल बेल बजने की आवाज़ हुई। जल्दी में मैंने तौलिये से बालों को लपेट लिया और दरवाजा खोला। सफ़ेद साड़ी और सफ़ेद तौलिये में मुझे देखते ही उसके मुंह से निकल पड़ा, “माशा अल्ला... क्या खूबसूरती पाई है आपने ! बिलकुल जूही की कली की तरह।'' उस दिन एक अलग सा भाव उसकी आँखों में दिखादूसरे दिन इतवार था। उस दिन शीतांश घर पर था, इसलिए उसे दूध का बर्तन देने की जरूरत नहीं पड़ीपर वह पूरा दिन बेचैनी में बिता। सोमवार की सुबह रोहन के जाते ही मैंने उसके फ्लैट का दरवाजा खटखटाया। उसके दरवाजा खोलते ही मैंने कहा, ''पतीला दे दीजिए, फिर मैं काम में लग जाऊँगी।'' उसने कहा, “आजकल यह पतीला मुझे बहुत प्रिय हो गया है क्योंकि इसमें आपके हाथों की खुशबू समा जाती है।'' “अच्छा!'' मैंने भी शरारत से कहा। शीतांश का हँसना-बोलना,मेरी तारीफ़ करना मुझे बहुत अच्छा लगता था। मुझे महसूस होता कि मैं उम्र के पचासवें पड़ाव पर भी सुन्दर लगती हूँ, किसी को भाती हूँ। उसके ख्याल मात्र से मैं रोमांचित हो जाती थी। अकेले में मुस्कान, खिली हुई सूरत और मस्त मिज़ाजू। यह क्षणिक बदलाव रोहन से छिपा नहीं था। उसके आक्रोश या व्यंग्य को जो मैं चुपचाप सहती आई थी, अब जवाब देने लगी थी।


       एक दिन ऑफिस के लिए निकलने के बाद रोहन वापस लौट आया, शायद कुछ छूट गया था। यह वही समय था जब शीतांश पतीला पकड़ा कर मुझसे बात कर रहा थाउसके किसी बात पर हम जोर-जोर से हँस रहे थे। हमे यूँ बातें करते देख वह सकते में आ गया। मैंने शीतांश का परिचय करवाया। शीतांश ने कहा, “मैं आपका पड़ोसी हूँ।'' पिछले एक महीने से यहाँ रह रहा हूँ। “मेरी ओर इशारा करते हुए कहा, '' भाभीजी से पूछ कर अपनी गृहस्थी के लिए ज़रूरी सामान धीरे-धीरे ख़रीद रहा हूँ। ‘‘उन्हें दूध का पतीला देकर कम से कम एक चिंता से तो मैं मुक्त हो गया। मैं चाहती थी कि वह एक बार मेरी ओर देखे, ताकि इशारे से उसे चुप रहने के लिए बता देती। पर रोहन के स्वभाव से अपरिचित उसने समय-समय पर मेरे द्वारा दी गई सभी मदद का उल्लेख कर डाला। मेरी तारीफ़ करते हुए शीतांश ने कहा, “आप बहुत लकी हैं सर जो इतनी अच्छी भाभी जी मिली हैं। मैंने तो बाबूजी को बता दिया है कि मेरे लिए लड़की खोजना तो इनके जैसी ही कद-काठी हो।'' रोहन ने चुपचाप हामी भरी और माफी मांगते हुए अंदर आ गए कि ऑफिस जाने में देर हो जाएगी। उनके पीछे-पीछे मैं अंदर आ गई और दरवाजा बंद कर लिया। अंदर आते ही गुते हुए रोहन ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, “अच्छा तो यह प्रेम प्रसंग महीने भर से चल रहा है। इसलिए चेहरे की चमक बढ़ गई है आपकी।'' मैंने जवाब दिया, “पड़ोसी होने के नाते मैंने उसकी मदद की है। कितनी साफगोई थी उसके विचारों में,यह नही दिखा।'' “तो तुमने कभी इस बारे में बताया क्यों नही?'“क्योंकि मैंने इसकी जरुरत नहीं समझी। मैं भी जब मनीष को स्कूल से लाने जाती थी, चाबी मिस्टर वर्मा को दे जाती थी कि वह महरी को दे देंगे। क्या यह बात मिस्टर वर्मा ने कभी बताई आपको?'' मैंने कहा। इस पलटवार की अपेक्षा उन्हें नहीं थी। फिर तो जो तांडव नृत्य आरम्भ हुआ, पूछो मत, गुस्से में उसने सारा सामान फेकना शुरू कर दिया और भद्दी-भद्दी गालियां देनी शुरू हो गई। क्या लैम्पशेड, क्या तकिया-कुशन,सभी को पटक डालाऔर मुझ पर थप्पड़ों की बौछार। मैंने बचाव के उपाय किये पर कमजोर पड़ती गई और बेदम सी हो गई। मेरी पूरी देह में नीले-नीले निशान हो गए। चेहरा सूज गया। वह तो महरी जब ग्यारह बजे आई तब उसने मुझे सहारा दिया। घर को समेट कर दवा आदि दी।


       तीन दिन लगातार बुखार में मैं पड़ी रही। महरी की सेवा से ही जब थोड़ा उठने लायक हुई तब बेटे को मेल किया। “बेटा, इतने दिनों तक स्वाभिमान को एक ताक पर रख कर मैंने पापा के हर जुल्म को सहा। पर अब और नहीं। उन्होंने मुझ पर हाथ उठा कर अपने को मेरी नज़र में बिलकुल गिरा दिया। मैं अपमान नहीं सहूंगी अब। मैंने उनसे तलाक लेने का फैसला किया है।''


      बेटे का जवाबी मेल आया, “माँ, तुम्हारे फैसले का स्वागत करता हूँ। तुम अपनी ज़िन्दगी जीने के लिए स्वतंत्र हो। यह कदम तो तुम्हे बहुत पहले लेना चाहिए था। पर मैं जानता हूँ कि तुमने मेरी परवरिश की खातिर इतना सब सहा है। अपना ख्याल रखना और सारी जानकारी देते रहना।'' मनीष की बातों से बहुत बल मिला। मैंने तत्काल वकील साहब के पास जाने का फैसला कर लिया। वकील साहब ने मेरी पूरी बात सुनकर कहा, “तुम्हे जल्द तलाक मिल जाएगा, पर यह तो बताओ कि तुम जाओगी कहाँ? क्या करोगी?'' मैंने कहा, “फिलहाल तो सेविंग के पैसे से काम चलाऊंगी और कोई नौकरी भी ढूंढ लूंगी।'' वकील साहब ने कहा, ''मेरी एक संस्था है जो लाचार महिलाओं के लिए काम करती है। मैं उसके ट्रस्ट का प्रेजिडेंट हूँ। मैंने तुम जैसी अनेक महिलाओं को वहाँ काम दिलाया है। यह अंतर्राष्ट्रीय संस्था है। तुम चाहो तो इसे ज्वाइन कर सकती हो।'' मुझे मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई। फिर रोहन का घर छोड़कर मैं यहां आ गई। मैंने यहां के तौर तरीके और काम के अनुरूप तुरंत ढाल लिया। हॉस्टल में आप सबका साथ मिला। यह अनोखा अनुभव रहा। मनीष ने भी लंदन में नौकरी ज्वाइन कर ली। वह अक्सर आता है।


     अबतक सांस रोके मेरी कहानी सुनती आई नीलम दी ने मुझे बाँहों में भर लिया। बहुत दिनों बाद अपना अतीत याद आया थादीदी को मुझ पर गर्व हो रहा था कि पचपन साल में तलाक का निर्णय लेकर आखिर बची हुई ज़िन्दगी अपने अनुसार जीने का फैसला कितना सटीक और रोमांचक थाआखिर वर्षों से दबा मेरा हुनर देर ही सही, अपना आयाम तो पा रहा था। मैं संतुष्ट थी। जीवन का दूसरा अध्याय आनंद से पूर्ण था।


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