कहानी - बहुवंश - गोविन्द उपाध्याय

जन्म : 15 अगस्त, 1960 (कानपुर, उत्तर प्रदेश) साढ़े तीन दशक से भी ज्यादा समय से कहानी लेखन में सक्रिय। देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों का निरंतर प्रकाशन। आंचलिक कथाकार के रूप में विशेष पहचान। कुछ कहानियों का बांग्ला, तेलगू, ओड़िया और उर्दू में अनुवाद। कृतियां : पंखहीन, समय रेत और फूकन फूफा, सोनपरी का तीसरा अध्याय, चौथे पहर का विरह गीत, आदमी, कुत्ता और ब्रेकिंग न्यूज़, बूढ़ा आदमी और पकड़ी का पेड़, नाटक तो चालू है, चुनी हुई कहानियां, बड़े कद के लोग और घोंसला और बबूल का जंगल (दस कहानी संग्रह)


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अभी-अभी मास्टर साहब प्रतपवा की दुकान पर बैठे थे। गोयड़ा और रखातू का खेत धांग कर आए थे। नौ बज रहे थे। मार्च का दूसरा सप्ताह था। अभी से आग बरसने लगी थी...मई-जून में क्या होगा। प्रताप की छोटी और गंदी सी चाय की दुकान है। प्राइमरी स्कूल के बगल में ही खर-पतवार की एक अस्थाई झोपड़ी डाल रखी है जिसमें बच्चों के लिए एक-दो रुपए वाली नमकीन की पुड़िया, सस्ती टॉफी, मसाले वाला चना मिलती है। वैसे पान मसाले की पुड़िया भी थी और हर समय चाय की सुविधा..। सुबह-शाम जलेबी-पकौड़ी भी बनाता है। मास्टर साहब इस दुकान के दिनभर में चार चक्कर तो लगा ही ले रहे हैं। दो महीने पहले तक वह इस दुकान की तरफ देखते तक नहीं थे। आते-जाते प्रतापवा जरूर ‘पायलग्गी' कर लेता, 'गुरुजी प्रणाम्।' और मास्टर साहब हाथ उठाकर या सिर हिलाकर आगे बढ़ जाते। जरूरत भी क्या थी, सब कुछ समय से घर में ही मिल जाता था। लेकिन इस समय.....सारी व्यवस्था ही बिगड़ी हुई है।


     मास्टर साहब बहत्तर पार कर चुके थे। गोरे-चिट्टे छ: फुटिया मास्टर साहब किसी जमाने में आकर्षक रहे होंगे। अब तो झुर्रिआए चेहरे पर एक अजीब सी दीनता टपकती थी। प्रताप ने उन्हें देखते ही चूल्हे पर का काला चीकट भगोना उतार कर तखत पर रख दिया और तखत के नीचे से एक स्टील का छोटा सा साफ-सुथरा भगोना उठाकर अंगीठी पर चढ़ा दिया। मास्टर साहब चाय बनने का इंतजार करने लगे।


     मास्टर दलपत सिंह कुसमही जूनियर हाई स्कूल के हेड मास्टर पद से एक दशक पहले रिटायर हुए थे। उनके पढ़ाए हुए जाने कितने लड़के डाक्टर इंजीनियर बन गए। लेकिन खुद के बेटे को कुछ नहीं बना पाए। शायद इसी को चिराग तले अंधेरा कहते हैं।


     जिस वर्ष धनेश पैदा हुए थे, उसी साल उनकी मास्टरी की नौकरी लगी थी। लड़का दलपत सिंह के लिए भाग्यशाली मान लिया गया। उसके चार साल बाद विद्या पैदा हुई। धनेश महतारी पर गए थे। मां की तरह उनका भी रंग दबा था। कद भी वह मां का ही पा गए थे। पाँच फुट से थोड़ा ज्यादा। पिता के व्यक्तित्व से बिलकुल मेल नहीं खाता। न अंदर से न बाहर से।


   विद्या बाप की जेराक्स कॉपी थी। गोरी-चिट्टी तीखे नाक-नक्श वाली ...। धनेश तो मैट्रिक में ही पलथिया के बैठ गए। विद्या ने स्नातक किया और जैसा कि उस समय चलन था, उसके हाथ पीले कर दिए। दलपत सिंह का ही विद्यार्थी था वह, एन डी ए क्वालीफाई किया था। शादी के समय कैप्टन हो गया था। विद्या चली गई।


धनेश, जब पांचवी बार भी दसवीं में नहीं निकल पाए तो हाथ खड़े कर दिए, “हमरे भाग में नही लिखा है पढ़ाईलिखाई। बाबूजी से बोल दो अम्मा, ज्यादा पीछे पड़ेंगे तो गंडक नदी में कूद जाएंगे।''


    बस पढ़ाई से पीछा छूट गया। इकलौती औलाद थे। मास्टर साहब ने सोचा कि कहीं सचमुच ऊंच-नीच हो गया तो सारी जिंदगी पछताना पड़ेगा। पत्नी भी यही कहती, “सबका दिमाग एके जैसा नहीं होता है। भगवान की दया से कवनो कमी है का...। एतना छोड़ जाएंगे कि दू पीढी तक दाल-रोटी की कमी नहीं होगी।''


    पत्नी आज जिंदा होती तो पता चलता कि दो पीढी कौन चलाए, मास्टर साहब द्वारा संचित धन, धनेश के लिएही कम पड़ गया है।


    धनेश अब पढ़ाई से मुक्ति पा गए थे। घर में बैठ कर क्या करते। चौराहे पर बैठने लगे। फिर नेतागिरी का भूत सवार हुआ और सीधे क्षेत्र के सांसद के यहां बैठक में भाग लेने लगे। होली, दशहरा, दीपावली से लेकर ईद तक में चौराहे पर बधाई का बड़ा सा बैनर लगवातेसबसे बड़ी तस्वीर होती दिल्ली वाले बड़े नेता जी की। उसके बाद क्षेत्र के सांसद की और दूसरी तरफ मुस्कराते तथा हाथ जोड़े उनकी खुद की तस्वीर सुशोभित होती।


     धनेश सिंह नेता हुए या नहीं, शादी जरूर तय हो गई। रिश्ता अच्छा था। इसलिए मास्टर साहब ने भी बिना ज्यादा हील-हुज्जत के शादी कर दी। लड़की के बाप रेलवे में गार्ड थे। गोरखपुर में सरकारी आवास में रहते थे। लड़की शहर से गांव में आ गई जिसका दर्द वह आज-तक नहीं भुला पाई थी। शादी के तीसरे महीने से उसने कहना शुरू कर दिया, **भुच्च देहाती लोग हैं। ना खाने का ढंग, न पहनने का ढंग। पइसा होने से क्या हुआ।''


    मास्टर साहब के कान में बात पड़ी, लेकिन उस पर ध्यान नहीं दिए। लेकिन पत्नी कहां चुप रहने वाली थी, “ठीक कह रही हो बहुरिया। काहे से कि गोरखपुर विदेश में है ना। जब तुम्हारा परिवार इतना हाई-फाई था तो काहें हमारे यहां रिश्ता लेकर आए ...।''


   लेकिन धनेश सिंह हाई-फाई बनने की पूरी कोशिश करते। बहू के आने के बाद खर्चा बढ़ गया था। हालांकि तब पैसे की कोई दिक्कत नहीं थी। धनेश सिंह उसी समय साझे में ठेकेदारी शुरू किए थे। सांसद निधि के कुछ ठेके भी उन्हें मिल गए। शुरू में थोड़ा फायदा भी हुआ। मास्टर साहब ने राहत की सांस ली, “चलो लड़का दो पैसा कमाने लगा। एक बार लाइन पकड़ ले तो फिर सब ठीक ही रहेगा।''


   लेकिन फायदा ज्यादा टिकाऊ नहीं रहा। लगातार तीन ठेकों में तगड़ा झटका लग गया। लाखों का घाटा हो गया। दोनों साझेदार एक-दूसरे को बेईमान ठहराते रहे। चौराहे पर लाता-मुक्की हुई और दोनों अलग हो गए। चूंकि सारा रुपयेपैसे का हिसाब-किताब धनेश ही देखते थे। पार्टनर ने टोपी उनको पहना दिया, “सारा हिसाब-किताब धनेश नेता देख रहे थे तो झेलेगा कौन ...?''


    कमर टूट गई दलपत सिंह की। भविष्य के लिए संजोकर रखे गए धन का एक बड़ा टुकड़ा, ठेकेदारी के इस घाटे को पूरा करने में निकल गया। इधर सांसद जी भी अगले चुनाव में चित्त हो गए। धनेश सिंह का नेतागिरी से भी मन उचाट हो गया, “खाली बड्के नेता का चमचेगिरी न कर रहे थे। कभी दिल्ली चलो' या 'लखनऊ चलो'। नेता जी तो हुकुम दनदना देते थे। फिर लोगों को पुचकारोचल भाई हम सबकी भलाई के लिए ही हो रहा है। जेब से पैसा लगा कर ले गए। मिला का..घंटा ? ठेकेदारी में तो अपने ही घुसेड़ा लग गया। इससे तो अच्छा है, बाप-दादा की खेती ही ठीक से कराई जाए''


    घर में दो बेटियों का आगमन हो चुका था। मास्टर साहब रिटायर हो चुके थे। अब पेंशन ही बची थी। खर्चे पर कोई लगाम नहीं थी। दलपत सिंह अपना हाथ-पांव ढीला कर दिए थे, “का फायदा। कुछ भी बोलो, धनेश ताल ठोक कर लड़ना शुरू कर देते हैं। उसके बाद होता वही है, जो वे चाहतेहैं। इससे अच्छा है, बोला ही न जाए। जैसा करेंगे, वैसा भरेंगे। अब मुझे कितना दिन जीना है।''


    लेकिन पत्नी यह सब देखकर जरूर विचलित हो जाती थी। भविष्य को लेकर बहुत आशंकित रहती। आय का कोई स्रोत न हो और धन को दोनों हाथों खर्च किया जाए। ऐसी स्थिति में बड़ा से बड़ा खजाना भी कितने दिन साथ देगा। फिर उनकी क्या औकात है।


    धनेश के पास यह सब सोचने की अकल कहां थी। उनके पास तो ‘माले मुफ्त, दिले बेरहम' वाला हिसाबकिताब था। दलपत सिंह खेती-बाड़ी संभालते। उनका ज्यादा से ज्यादा समय बाहर ही बीतता। घर धीरे-धीरे कुरुक्षेत्र का मैदान बनने लगा था। सास-बहू का दिनभर वाक् युद्ध चलता रहता। कोई किसी से कम नहीं था। ज्यादातर लड़ाई के पीछे बुढ़िया ही थी। दिनभर बड़बड़ाती रहती। जब बात बर्दाश्त के बाहर हो जाती तो बहू भी धोती खूटियां कर मैदान में उतर जाती। यह सिलसिला भी कभी-न-कभी खत्म ही होना था। सास धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगी और एक दिन ऐसा भी आया कि बुढ़िया स्थाई रूप से निपट गई।


    वह जाड़े का समय था। दिसंबर का महीना। यह महीना हर तरह से बहू के लिए शुभ निकला। दूसरे सप्ताह के सोमवार को सोम सिंह का जन्म हुआ। यानी मास्टर साहब के खानदान में वारिस का आगमन हुआ। खूब धूम-धड़ाका हुआ। धनेश और दलपत सिंह ने बहुत दिनों बाद एक साथ खुशी मनाई। बुढ़िया इस खुशी को सहन नहीं कर पाई और ठीक सोलहवें दिन, दिसंबर महीने के चौथे सप्ताह के सोमवार को मोह माया से मुक्ति पा गई।


   बहू के लिए यह भले ही सुखद था, लेकिन मास्टर साहब कई महीने तक शोक ग्रस्त रहे। किसी के जाने से थोड़े ही जीवन रुकता है। धीरे-धीरे जीवन की गाड़ी फिर पटरी पर आ गई थी। पत्नी के चले जाने के बाद घर के अंदर चलने वाला महाभारत भी समाप्त हो गया।


    समय रुकता थोड़े ही है। धनेश के बच्चे बड़े होने लगे थे। बड़ी बेटी पांचवी में थी, छोटी तीसरी में और सोम सिंह भी बस्ता लेकर बहनों के पीछे-पीछे जाने लगे थे। धनेश सिंह ने कई धधे किए। लेकिन सफल नहीं हो पाए। उल्टे पिता के संचित धन का कुछ अंश और कम हो जाता। पिता के आगे बार-बार हाथ फैलाने वाला झंझट उन्होंने समाप्त कर दिया था। ए टी एम बनवा लिया था। पूरा पेंशन अब वह अपने इच्छानुसार खर्च कर सकते थे। खाली एफडी बाप के कब्जे में थी और उनके जीते जी वह बिना उनके हस्ताक्षर के नहीं निकाल सकते थे।


    धनेश को लगता कि उनके असफलता के पीछे का मुख्य कारण अशिक्षा है। यदि वह भी पढ़े-लिखे होते तो शायद किसी और दुनिया में होते। छोटी बहन जब कभी आती तो उसके दोनों बच्चों को अंग्रेजी में गिटपिट करते देखते, बहन-बहनोई का जीवन शैली देखते ...और तब उन्हें अपनी अशिक्षा वाली अवधारणा और मजबूत लगने लगती।


    धनेश ने सोच लिया चाहे कुछ भी हो जाए। वे अपने बच्चों की शिक्षा में कोई कमी नहीं होने देंगे। इसके लिए मोटी फीस चाहिए थीधनेश को जैसे ही पैसे की जरूरत महसूस होती, अम्मा के कमरे में रखी अलमारी कौंध जाती। उसकी चाबी बाबूजी पता नहीं किस जगह रखते थे। उन्हें आज तक नहीं मिली। उसके लॉकर में एफडी के कागज थे और बहू के कब्जियाने से बच गए अम्मा के जेवर भी।


    धनेश सिंह ने जब से बाप की पेंशन पर कब्जा किया था। मास्टर साहब पूरी तरह से उनके मोहताज हो चुके थे। सारा जीवन बहुत रंगबाजी से रहे थे। उनके पास दर्जन भर से ज्यादा धोती-कुर्ते थे। जिनकी धुलाई शहर के लांड्री में होती थी। अब हालात यह थे कि पेंशन का सारा पैसा धनेश सिंह के मेंटीनेंस में खप जाता, मास्टर साहब के बारे में उन्हें कहां सोचने की फुरसत थी।


    वह तो विद्या थी, जो पिता के लिए चिंतित रहती और उनकी दवाई से लेकर कपड़े-लत्ते तक का ध्यान रखती थी। अब मास्टर साहब पहले जैसे नहीं रह गए थे। वह बेटी को बस डबडबाई आंखों से देखते हैं। एक बार उन्होंने अपने दामाद से कहा भी था, “बाबू, आज मेरी सिर्फ यह बेटी होती...। मैं दुनिया का सबसे खुशनसीब इंसान होता ...।''


   धनेश को कभी-कभी लगता कि विद्या बाबूजी के एफडी के चक्कर में है। बिना किसी स्वार्थ के कोई इतना सेवा काहे करेगा। या फिर हो सकता है, उन्हीं के पैसे उनपर खर्च कर रही हो। विद्या का आना धनेश को अच्छा नहीं लगता था। पहले वह वर्ष में एक बार ही आती थी। अब दो-तीन बार हो जाता है। लेकिन वह विद्या को मना नहीं कर सकते थे। यह सोचकर कि लोग क्या कहेंगे'यही हाल मास्टर साहब का भी था। मास्टर साहब का बस चलता तो वह विद्या के पास जाकर रहते। कम-से-कम रोज के इस खटराग से फुरसत मिल जाती। लेकिन लोक-लाज के कारण वे ऐसा नहीं कर पा रहे थे- “कैसा नालायक बेटा है ....जो बुढ़ापे में बाप कोनहीं रख पा रहा है।''


   इधर गांव में एक नया चलन शुरू हो गया। लोग बच्चों को शहर के स्कूल में पढ़ा रहे हैं। वहीं कमरा लेकर रहते। वंडर वर्ड, सेंट थाम्पसन, मैरी केयर... जैसे मिलते-जुलते नामों के बहुत से स्कूल खुल गए थे। ये स्कूल मोटी फीस लेते और ‘दो दूनी का चार' की जगह टू टू जा फोर' पढ़ाते थे। उसमें गांव के लोग अपनी गाढ़ी कमाई लगाकर नौनिहालों को दाखिला करा रहे थे और उस उज्ज्वल भविष्य की कामना कर रहे थे, जिसे आना ही नहीं था।


    धनेश सिंह के भी तीनों बच्चे शहर में पढ़ रहे थे। गाँव तक स्कूल बस आती थी। लेकिन धनेश सिंह को मजा नहीं आ रहा था, ‘‘ई साला का हुआ। लग्गी से पानी पिलाने से कहीं प्यास बुझती है। आधा समय तो बच्चा लोगन का आने-जाने में ही निकल जाता है। शहर में रूम लेकर रहना हीपड़ेगा। आखिर बच्चों के भविष्य का सवाल है।''


    पत्नी भी यही चाहती थी, *"हम तो आपको कबसे कह रहेथे। आप ही कान में कडुआ तेल डाल कर बहिर हो गए हैं। अब नवका जमाना है। शुरू से बच्चा लोगों पर ध्यान नहीं रखा जाएगा त ऊ कवनो लायक नहीं रह जाएगा।''


    मास्टर साहब को पता चला तो बहुत तेज गरजे, “का समझते हो धनेश..? हम कोई कुकुर हैं। इतने बड़े मकान को रखाएँगे। आ तुम लोग हमारे ही पैसे से शहर में फुरगुद्दी उड़ाओगे। अब नहीं चलने वाला यह सब। हम विद्या के पास चले जाते हैं। मेरा ए टी एम वापस करो। नहीं तो हम ही ब्लाक करा देते है। आखिर सहने की भी कोई सीमा होती


     धनेश तो अवाक रह गए, ‘‘ई अचानक बाबूजी के अंदर बजरंग बली कहां से प्रवेश कर गए हैं। इतना विकराल रूप बना लिए हैं। जैसा कह रहे हैं, सचमुच यदि वैसा कर दिए तो हम कहीं के नहीं रहेंगे।''


     धनेश सिंह भले खामोश हो गए थे, लेकिन उनकी पत्नी को ससुर की नौटंकी अख़र रही थी, “अभी तो कुकुर नहीं समझते थे। लेकिन असली गार्ड की बेटी होऊंगी तो कुकुर


बनT के छोड़ोंगी ।''


     मास्टर साहब चाय के बहुत शौकीन थे। दिनभर में पांच-सात कप तो पीते ही थे। बहुरिया ने चाय बिल्कुल बंद कर दिया था, “जेतना दूध होता है, ओतना बच्चे भर का नहीं होता हैफिर ई चाय-फाय के लिए दूध कहां हो पाएगा।''


     घर में चाय बंद हुआ तो प्रतपवा की दुकान का सहारा लेना पड़ा। जब चाय की तलब लगती, प्रताप के पास पहुंच जाते।


     बहू को लगा ससुर पिघलने वाले नहीं है। खाली चाय भर रोकने से काम नहीं चलने वाला हैबहू ने खाने में वह सब पकाना शुरू कर दिया, जो मास्टर साहब को बिल्कुल पसंद नहीं था। मास्टर साहब शुरू से खाने-पीने के शौकीन आदमी थे। बहू स्वादिष्ट भोजन बनाती थी। अब अचानक यह सब...।


    ऐसा नहीं कि दलपत सिंह इसके पीछे के मूल कारण से अनजान थे। समझ वह सब रहे थे। शाम को हर दूसरे-तीसरे दिन धनेश सिंह उनके सामने आत्मरुदन करना न भलते. “साला मेरा जीवन तो इस गांव में बरबाद हो गया। हम तो पढ़-लिख नहीं पाएसोचा था, बेटा पढ़-लिख लेगा। लेकिन उसके भाग में न जाने का लिखा है..?''


     मास्टर साहब की कई बार इच्छा हुई कि बोल दें, ‘दलपत सिंह का भाग खराब था, जो तुम्हारे जैसा बहुवंश पैदा हो गया जिसे मरते दम तक बैताल की तरह अपनी पीठ पर ढोना है।''


     जैसे-जैसे समय बढ़ता जा रहा था। बहू का धैर्य जवाब देने लगा था। वैसे तो मास्टर साहब घर जाते ही नहीं थे। घर में तभी प्रवेश करते, जब भोजन करना होता था और अब स्वादहीन भोजन के साथ, बहू के कुनैन जैसे स्वर भी हजम करना पड़ रहा था, “कैसे लोग हैं...जिन्हें परिवार की चिंता ही नहीं है। केवल अपने बारे में सोचते हैं। पैसा का लाद के ले जाएंगे। लेकिन नाहीं ना..खाली अपने सुख-सुविधा का ध्यान है। दुनिया जाए भाड़ में।'' भोजन करते और घर से बाहर


    मास्टर साहब चुपचाप भोजन करते और घर से बाहर निकल जाते। पहले बच्चे उनके पास आकर बैठते थे। अब उन्होंने भी आना बंद कर दिया था। कपड़े भी अब उनको खुद धोने पड़ रहे थे। बहू ने वह भी धोना बंद कर दिया था। एक भरे-पूरे घर में अकेले रह गए थे। एक अदृश्य सा तनाव पूरे घर को निगला पड़ा था। अब मास्टर साहब भी विचलित होने लगे थे। क्या सचमुच वे स्वार्थी होते जा रहे हैं? क्या सब कुछ स्वयं को केंद्र में रख कर सोचते है? सही तो कह रही है बहू। लोग अपने बच्चों के भविष्य के लिए क्या-क्या नहीं करते और वह सिर्फ अपने बारे में सोच रहे हैं। यदि धनेश चाहते हैं, शहर में रहकर बच्चों को पढ़ाना तो पढ़ाएं। वे रह लेंगे अकेले।


    आखिकार युद्ध में हारे हुए सिपाही की तरह उन्होंने समर्पण कर दिया, “बहू, मैं बहुत बूढा हो चुका हूँ। अब बहुत दूर तक नहीं सोच पाता। नए जमाने के चलन से तो बिलकुल नावाकिफ...। जो तुम लोगों को उचित लगे करो।''


    बहू मास्टर साहब की बात सुनकर आश्चर्यचकित थी, ‘बुढऊ को यह ब्रह्म ज्ञान कहां से प्राप्त हो गया। कल तो ऐसे फुफकार रहे थे कि हम लोगों को घर छोड़ते प्रलय आ जाएगा।''


     बहू का मोबाइल खनखनाया और धनेश सिंह तक खबर पहुंच गई, “बाबूजी मान गए हैं।'' उस दिन प्रतपवा की दुकान पर नहीं गए मास्टर साहब।


     उस दिन प्रतपवा की दुकान पर नहीं गए मास्टर साहब। पहले की तरह कई बार चाय उनके पास आने लगी। शाम को बाहर दालान में भी मांस भूनने के खुश्बू आ रही थी। बच्चे दलपत सिंह के इर्द-गिर्द खेल रहे थे। बहुत लंबे समय बाद घर खिलखिलाने लगा था।


     आज बाप-बेटा साथ में भोजन करने बैठे। धनेश भावुक हो गए, “बाबू जी आप जरा भी चिंता नहीं करिएगा। हम बीच में आते रहेंगे। हरिन्द्रा की महतारी दोनों टाइम खाना बना दिया करेगी। का करें बाबूजी... सोमवा को हम बड़का हाकिम बनाना चाहते हैं। यह तभी संभव है, जब पढ़ाई की सही व्यवस्था हो।''


    मास्टर साहब बकरा का भुना हुआ कलेजी चबाने में मगन थेभोजन सचमुच बहुत स्वादिष्ट था। लगता था कई युग बीत चुके, ऐसा भोजन किए हुए।


     यह मार्च का अंतिम सप्ताह था। अप्रैल से दाखिला शुरू हो जाता है। धनेश ने मन-ही-मन सोचा कि अच्छा हुआ बाबूजी को समय पर अकल आ गई, नहीं तो यह साल भी निकल जाता।


     वीरवान के, होत चीकने पात'। सोम सिंह की नालायकी पर सोम सिंह, बाप की तरह थे। वो कहावत है- ‘होनहार किसी तरह का संदेह नहीं था। आगे कोई चमत्कार हो जाए


                                                                                                                                         


तो दूसरी बात है। यह बात मास्टर साहब भी समझते थे। जब अकल बंट रही थी तो सोम सिंह नदारद थे। पहली-दूसरी की पढ़ाई में ढहने-ढिमलाने लगे थे। ऐसे लड़के को धनेश सिंह बड़ा अफसर बनाने का ख्वाब देख रहे हैलेकिन उसमें उनका क्या दोष है, खुद मास्टर साहब भी तो धनेश सिंह को लेकर कुछ ऐसा ही स्वप्न पाले थे। हर पिता देखता है।


    पैसे का खेल था। सोम सिंह का दाखिला बड़का स्कूल में हो गया था। बेटियों का भी नाम लिख गया। धनेश का पूरा परिवार शहर आ गया। दलपत सिंह नौ कमरे वाले मकान में अकेले रह गए। हरिन्द्रा की महतारी दोनों समय का खाना बना देती। चाय-नास्ता के लिए प्रतपवा जिंदाबाद।


    मास्टर साहब से कोई धनेश सिंह के बारे में पूछता तो हंसते हुए कहते, “हमारे बहुवंश अपने बहुवंश को बड़का हाकिम बनाने शहर गए हैं।''


                                                                                                                                                                                सम्पर्कः एफ.टी.-211, अरमापुर इस्टेट,


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