जन्म : गढ़वाल में सन् 1978 प्रारंभिक शिक्षा रूद्र प्रयाग एवं ऋषिकेश में। हेमवती नन्दन बहुगुणा, गढ़वाल विश्वविद्यालय से अंग्रेजी एवं हिन्दी साहित्य एवं उ.मु.वि.वि. हल्द्वानी, नैनीताल से संस्कृत विषय में स्नातकोत्तर उपाधियाँ प्राप्त। हिन्दी विषय में कुमाऊ विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. एवं इसी विषय में नेट एवं सेट की उपाधियाँ भी प्राप्त।पन्द्रह वर्षों से राजकीय सेवा में अध्यापनरत हैं। प्रथम कहानी संग्रह 'रंगों की तलाश 2016 में प्रकाशित हुआ था। अभी तक 8 शोध पत्र, अनेक लेख, कहानियां एवं कविताएं विभिन्न राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
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आज सुबह से एक अजीब सी बेचैनी महसूस कर रहे थे। हवा में भी घुटन सी थी। वैसे भी इन शहरों की हवाओं में धूल-धक्कड़-धुंए की वजह से हमेशा ही घुटन सी रहती है, चाहे मौसम कोई भी क्यों न हो? ‘सीने में जलन आँखों में तूफान सा' हर पल इन शहरी हवाओं की विशेषता है। सुबह अपने बगीचे में खिले तरह-तरह के गुलाब भी जिन्हें स्नेह से वह अपने बच्चे ही कहते हैं, उन्हें आज कोई सुकून नहीं दे पाए। बगीचे की हरी-मखमली घास पर टहलने से भी कोई राहत जब महसूस नहीं हुई तो वह बाहर निकल आए थे सड़क पर, इस आशा में कि हो सकता है इस समय अपने किसी हम उम्र के साथ घूमकर उन्हें सुकून मिले। अप्रैल का प्रथम ही सप्ताह था, होने को तो बसन्त अभी पूरी तरह से गया भी नहीं था, पहाड़ों में सुना इस बार बाँज खूब खिला है, कल ही गाँव से लौटे पड़ोसी नेगी जी बता रहे थे। लेकिन यहाँ शहर में तो सूर्यदेव का पराक्रम दिन-प्रतिदिन बड़ता ही जा रहा है। अब बदलते मौसम का असर था या जाने कुछ और पर उन्हें सुबह से ही लग रहा था, कोई चीज है जो सीने को कस रही है-खोल रही है, मुट्ठी भींचने और खोलने की क्रिया में मुट्ठी के अन्दर जो दबाव होता है, कुछ ऐसा ही....। थोड़ी देर टहलने के बाद भी बेचैनी कम नहीं हुई। सुबह से ही हवा भी कुछ रुकी-रुकी सी लग रही थी उन्हें....। इस समय दिन के १२:२० हो गए थे। सोचा, डॉक्टर को दिखा आऊँ, लेकिन पत्नी से क्या कहेंगे...? इसी सोच ने उन्हें सुबह से रोके रखा है। पत्नी पहले से ही बिस्तर पर है.... अब कैसे और क्या करें ....? झूठ बोलें ?
इस उम्र में पत्नी से झूठ भी तो नहीं बोल पाएंगे, जानते हैं वह खुद भी....। कभी बोला भी तो नहीं। झूठ उससे तब भी नहीं जब वह तीस वर्षीय एक विवाहिता के साथ-साथ एक बच्चे की माँ थी और उनके जीवन में कुछ समय के लिए ही सही एक बाहरी हवा का झोंका आ गया था....। तब भी कहाँ झूठ बोल पाए थे जब उनकी सख्त मिज़ाजी और ईमानदारी का फल उनके ही मातहत ने उन्हें बेइज्जत करके दिया था....। वह चाहते तो जीवन के झरोखों में उड़ आए इन चाहे-अनचाहे पक्षियों को बिना पत्नी को बताए उड़ा सकते थे..., लेकिन न जाने क्या था उसकी आँखों में कि बस सब फट पड़ता था झरने की तरह. झर-झर-झर...। इस झरने में कई बार तो पत्नी के साथ-साथ उनकी आँखों का पानी भी झर जाता था, लेकिन पहाड़ी झीलों की निश्छलता लिए हुए पत्नी की आँखों से जब भी उनकी आँखे मिलतीं ... मन की कलुषता अपने आप ही धुल जाती थी। जीवन में लगभग छत्तीस वर्ष से
उनके मन की कलुषता गई थी...। अब न वह धोती हुई वे आँखें अब अस्थिर सी हो गई थी...। अब न वह झीलों वाली गहराई थी न स्थिरता..., बस अब तो लगातर लहरें पलकों के तटबन्धों से टकराती रहती है। आखिर कब तक? कितने झंझावातों को सहकर कोई झील उपने तटबन्धों में बंधी रह सकती है? और वह झंझावात भी तो वही लेकर आए थे... उन्हें आज भी याद है जब वह अपने रिटायरमेंट के दिन ऑफिस पहुँचे तो वहां भव्य स्वागत की जगह उन्हें मिला तिरस्कार...। कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा... आखिर क्या गलती थी उनकी? मात्र इतनी कि उन्होंने अपने कार्यालय में न खुद बेईमानी की, और न अपने अधीन किसीको करने दी? कितने ही फण्ड थे जिनका वह अपनी इच्छा से इस्तेमाल कर अपनी जेबें भर सकते थे? कई बार चपरासीबाबुओं से लेकर अधिकारियों ने तक उन्हें अपने-अपने ढंग से समझाने की कोशिश की लेकिन वह थे कि अड़ियल-टट्ट की तरह टस से मस होने को तैयार नहीं थे। बीच रास्ते में पड़े हुए इस बंदर की पूंछ उठाने की हिम्मत तो किसी में थी नहीं सो मन ही मन कसमसाते रहते थे, और वे थे कि इस कसमसाहट का आनन्द लिया करते थे...। इसी आनन्द को उनके रिटायरमेंट के दिन ऑफिस वालों ने सदा के शोक में बदल डाला। उनके हाथ फूलों के ‘बुके' के लिए उठे लेकिन हथकड़ी के बोझ से कटी शाख की तरह ढलक गए। वह कुछ समझ पाते-इससे पहले उन्होंने पत्नी की आँखों में देखा वे झीलें तटबन्ध तोड़कर छलक पड़ी थीं, एक अजीब सा तूफ़ान घिरता दिखाई दिया उन्हें उन आँखों में। वे दो आँखें जो जीवन की समस्त हलचलों को किनारे लगाने को आतुर अब नए शान्तिपूर्ण जीवन की आशा लिए हुए थी... उनके व्यावसायिक जीवन को विदा कहने के लिए आईं थी। उन आँखों में पति की ईमानदारी के लिए सम्मान की लहरें सगर्व हिल्लोर मारा करती थी...लेकिन इस समय वह दोनों ही आँखे बिल्कुल अजनबी सी लगीं उन्हें और फिर वह अपनी चेतना को नहीं संभाल पाए। होश आया तो वह हॉस्पिटल के नीरस सफेद बिस्तर पर नीरस सफेद दीवारों से घिरे थे। हाथ अभी भी भारी थे.... उन पर ऑफिस के इमरजेन्सी फण्ड से पाँच लाख रुपए के गबन का आरोप था... पाँच रुपए भी जिस व्यक्ति ने कभी किसी से नहीं लिए थे वह आज पाँच लाख हड़पने का दोषी था......!
उनकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था- क्या? कब? कैसे? कौन? कहाँ? प्रश्नों में उलझे घर पहुँचे तो पत्नी की स्थिरता-निश्छलता गायब थी। वह पागलों की भाँति कभी खिलखिलाकर हंसती तो कभी गुमसुम हो जाती। आज उन्हें अहसास हो गया था कि असाधारणता या अति इसीलिए वर्जित कही गई है। आज पहली बार उन्हें पत्नी की गहरी निश्छल और शान्त आँखों से शिकायत थीकाश! वे आँखे सामान्य होती तो आज यह असामान्यता उन्हें देखने को नहीं मिलती.... पत्नी के हालात कुछ ऐसे थे कि अपने बारे में सोचने तक की फुर्सत उन्हें नहीं थी। बस एक ही बात रह-रह कर उन्हें सताती कि जिस असामान्यता पर उन्हें कभी गर्व था, वही असामान्यता उनके दु:खों का कारण बनी।
ऐसा नहीं था कि असामान्यता सिर्फ उनकी पत्नी में थी... वह स्वयं भी तो असामान्य ही थे। एक गरीब मजदूर शिल्पकार का बेटा... अपनी लगन और प्रतिभा के बल पर सरकारी सेवा में रीजनल डायरेक्टर के पद पर गया, यह असामान्यता ही तो थी। असामान्यता प्रतिभा को लेकर भी थी.... आरक्षण के बल पर पद प्राप्त एक व्यक्ति प्रतिभा की बात करे ? यह असामान्यता ही तो थी। कौन विश्वास करता कि वह सामान्य सीट पर चुनकर आए हैं। प्रमोशन भी परीक्षा उत्तीर्ण कर साक्षात्कार का सामना कर सामान्य सीट पर ही पाया है। किस-किस को सार्टिफिकेट दिखा सकते हैं आखिर......? उनसे बड़े अधिकारी, जिन्हें उनके डॉक्यूमेन्ट्स' पर हस्ताक्षर करने होते थे वे तो जाँच पड़ताल कर किसी तरह आश्वस्त हो भी जाते लेकिन मातहत ...? सबकी नजरों में सदैव एक क्रोध और घृणा का भाव... मुँह सामने नहीं... पीठ मुड़ते ही महसूस करते वह...। इतने सालों की नौकरी के बाद तो अब यह तिरस्कार- घृणा सामान्य सी हो गई थी। उनको तो आदत थी। उन्हें ही क्या, कई पीढियों से इस तिरस्कार के आदी रहे थे वे। उनके तो खून में ही सहने की क्षमता विकसित हो गई थी....। लेकिन उनका क्या कर सकते थे वे जिन्होंने कभी झुकना या जी हुजूरी करना सीखा ही नहीं। जिन्होंने हमेशा अपनी सेवा करवाई या अपनी बड़ी-बड़ी मूंछों पर ताव देकर अपनी वीरता के इतिहास को दोहराया? वे लोग उनके आगे जी हुजूरी करें, वे जानते थे कि यह सम्भव नहीं है, इसलिए कभी किसी से इतनी घनिष्ठता रखी ही नहीं कि काम के अतिरिक्त मातहत कोई और बात कर सके। लेकिन अन्तर्यामी मनुष्य हो ही नहीं सकता... होता, तो कभी झुकता किसी पत्थर के आगे...?
मातहतों ने इस ‘बचने' के व्यवहार को उनकी ‘अकड़ समझा और ठान ली कि कभी तो यह अकड़ खत्म होनी ही चाहिए। ‘अकड़' ही होती तब भी चलता, लेकिन इससे भी बड़ी असामान्यता थी ईमानदारी“अपना तो आगा-पीछा कुछ है या नहीं....नहीं ही होगा इसलिए जलता है सबसे'' कई बार उन्होनें सुना था दीवारों से टकराते शब्दों को पूँजते ।
“अरे इसीलिए तो ईमानदारी का चोला पहना है स्साले ने'', ये उन्हीं लोगों के शब्द होते जो सामने आने पर सिर उठाए बिना हर बात पर ‘‘जी सर, जी सर'' किया करते थे। कितने रंग होते हैं इन्सान के, और खाली बदनाम है गिरगिट, वह सोचकर मन ही मन मुस्कराते, डरते थे वे इन्सान की इस रंग बदलने की फितरत से, लेकिन जाने क्यों एक विश्वास रहता कि यदि- 'मैं सही हूँ तो मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता'यही असामान्य विश्वास उन्हें ले डूबा। पता नहीं कब बड़े बाबू ने उनके हस्ताक्षर उस 'इमरजेन्सी फण्ड' वाले चैक पर करवाए और .....। आँखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा शरीर धीरेधीरे शिथिल सा हो रहा था... बाँया हाथ और पैर ज्यादा सुन्नता की ओर बढ़ रहे थे ...दिमाग में रक्त के थके ....जल्दी इलाज न हुआ तो....उन्होंने डॉक्टर को फोन मिलाया....एम्बुलेन्स की ध्वनि दुर से गुंजती सुनाई दे रही थी...पनी की ओर नजर डाली वह चैन की नींद ले रही थी....हिम्मत जुटाकर फोन की ओर बढ़े विदेश में रह रहे बेटे को फोन लगाकर इतना ही बोल पाए- मेरी तबीयत खराब....हड़बड़ाना नहीं...तेरे आने तक तेरे मामा लोग हमें सम्भाल लेंगे पर जल्दी आने की कोशिश... १' फिर महसूस हुआ कि शरीर और धीरे-धीरे दिमाग एम्बुलेंस की सायरन की धुन पर ढल रहा था।
सम्पर्क : रा.बा.इ.कॉ. द्वाराहाट, अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड