कवितांए - पंखुरी सिन्हा

 पंखुरी सिन्हा  - जन्म : 18 जून 1975 शिक्षा : एम ए, इतिहास, सनी बफैलो, पी जी डिप्लोमा, पत्रकारिता, एस.आई.जे.सी. पुणे लगभग सभी प्रमुख पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित


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       मौसम मेरी बालकनी में


कहने को तो बहुत कुछ कहा जा सकता है


लेकिन केवल इतना


कि मौसम मेरी बालकनी में


जैसे बिल्कुल ही नहीं होता


बंदी गृह में


ये मैं पहले भी कह रही थी


बंदी गृहों की सफाई


उनके खुलेपन की बात कहते


कि वह काल कोठरियां नहीं हों


और सरकारी मनमानी


का ताकत घर नहीं


और घर, नौकरी पेशे हों


बंदी गृहों के बाद


ऐसे नहीं कि फिर मौसम ही हो


और छत नहीं


इतना हो मौसम


कि बस वही हो


लेकिन फिलहाल


मौसम मेरी बालकनी में........................


           खेती का सम्मोहन


बड़ा अद्भुत है


खेती का सम्मोहन


खुलेपन का


मौसम में बोने, काटने, उगाने का


मौसम की यों बाहों में लहलहा जाने का


बिल्कुल वैसा, जैसा दूर से दिखता है गाँव 


गीतों, गाथाओं में पढ़ा हुआ नहीं


न जाना, न अनजाना


बस प्रवेश को तैयार


भीतर जाने पर


दुसाध टोली के आगे


अगर ठमकते हों पाँव


तो बात केवल जाति प्रथा में विश्वास की नहीं


है..................................


                   एक हाथ से खींची गई तस्वीरें


अजब अनर्गल बातों का बना हुआ था दिमाग


जिनकी आवृत्ति की जा रही थी हर रोज़


अनर्गल की आवृत्ति हर रोज़


जिनके अगल बगल से बचकर निकला नहीं जा सकता था


दाएँ, बाएँ होकर


इतना सीधा और तीखा था आक्रमण


कि बस सामना ही करना था


अजब अनर्गल बातों का


जूते, चप्पलों की बनी हुई


उनके खोलने, पहनने


घरों के दरवाजों पर छोड़ने, बदलने


मंच के नीचे जमा उनके ढेर की भी


उनकी एक हाथ से ली गई तस्वीरों की


मानो एक ही हाथ बचा हो


पैर के चले जाने के बाद


उस हादसे के बाद


जिसमें पैर चले गए हों


और अब हर तस्वीर हो बेहद राजनैतिक


और हर बात बनी हुई हो


नंगे पाँवों और लम्बी दूरियों की


या बहुत ठंडी ज़मीन और नंगे पाँवों की


या बहुत पथरीली जमीन और नंगे पाँवों की


डूबती जमीन और दह गए चप्पलों की


बह गए घरों की भी


पानी से फूली


उपलाती, आदमी और जानवर की देहों की


लेकिन पानी के ज़रा सा घर से निकलते ही


फिर वही


और तस्वीरें भी फिर वही एक हाथ से


एक ऐसी हीरोगिरी में


जिसके तहत लड़के एक हाथ से


बाइक चलाते और टांग गवांते


और गुमवाते हैं.........................


            बातों का पहुँचना


 


कुछ बातों के पहुँचने की भी बातें थीं


डाक के पहुंचने की तरह


बल्कि सेना के भी पहुँचने की तरह


पहाड़ के ऊपर


या पहाड़ के नीचे


जब वह पैदल पहुँचती है


घाटी की पहचान करती


वाकिफ होती


बातें करतीआबो हवा से


ताकि वह अजनबी न लगे


वह सारी प्रक्रिया जिसे अकक्लीमेटाईजेशन


कहते हैं


रूपांतरित करती बातों को


अनूदित से ज्यादा आसान बनाती


परिवेश में ढालती


आबो हवा में


स्थानीय विश्वासों में


बातों की स्थानीयता बताती


उन्हें कुछ ग्राह्य बनाती


ताकि एक दम फिरंगी न लगे


डाक से आईं विकास गाथाएं


और उन्हें कार्यान्वित करने की लिपि


कुछ अपठनीय आदेश सी


और भी विकास के किस्से


औरतों की बगावत गाथाएं भी ...............


       तस्वीरें खींचने-खिंचवाने वाले


फिर मुझे पक्के तौर पर ये यकीन हो गया


कि वे लोग तस्वीरें लेते रहे


कैमरे भर के लिए


यानी तस्वीरों का कैमरे में कैद हो जाना


उनका ले लिया जाना भर


काफी होता था


पहुँच जाती थीं


लोगों तक तस्वीरें


जैसे बात का कंप्यूटर पर


लिख लिया जाना


उनके चोरी हो जाने के बराबर था


पर ये अजब कौतुहल था


यह कुछ कैमरे की हैकिंग जैसी बात थी


यह कैसे संभव थायह तो बिलकुल असंभव था


तस्वीरों के भीतर एक बहस थी


यह सच था या बहसें सुलझ रही थीं


तस्वीरों के इर्द गिर्द


यह ज्यादा बड़ा सच


तस्वीरें खींचकर


लोग बहस कर रहे थे


बातें आगे बढ़ा रहे थे


उलझा रहे थे


तस्वीरों से हो रही थीं बातें


तलवारें भांजी जा रही थीं


तस्वीरों के भीतर


लोग खिंचवा रहे थे


आड़ी तिरछी तस्वीरें


और हो रही थीं बातें


टेढी, मेढ़ी और गडू मडु.............


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