आलोचना' - इलाचन्द्र जोशी का साहित्य और मनोविज्ञान - डॉ. यासमीन सुलताना नकवी

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए., डी.फिल., प्रयाग महिला महाविद्यालय, सेंट जोसेफ कॉलेज में प्रवक्ता। ओसाकर विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में कार्य कर चुकी हैं। कई कविता संग्रह प्रकाशित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएं, कहानियां प्रकाशित। कई सम्मानित समितियों की सदस्य, उत्तर प्रदेश सरकार के सौहार्द सम्मान सहित अनेक पुरस्कारों, सम्मानों से अलंकृत। भारत-जापान समन्वय मंच की पत्रिका साकुरा की बयार की प्रधान सम्पादक।


                                                                  ------------------------------इलाचन्द्र जोशी हिन्दी साहित्य जगत् के ऐसे महान् मनोवैज्ञानिक कथाकार, उपन्यासकार, कहानीकार, कवि, समीक्षक, सम्पादक, पत्रकार, डायरी-लेखक के साथ एक शुद्ध भारतीय आत्मसम्मान के साथ जीवन यापन करने वाले परिपक्व, सरल, सहज व्यक्तित्व के स्वामी मन जटिलताओं को हल करने वाले लेखक थे। उनके सामने छोटा से छोटा व्यक्ति भी मानवता की परिधि में बहुत महान् था। उन्होंने परिवार के सदस्यों, विशेषकर अपनी पत्नी को किसी गरीब या अछूत के प्रति उदारता की सीख दी जो उन्हें अपने परिवार से प्राप्त हुआउसको उन्होंने अपनी संतान में रोपा। इलाचन्द्र जोशी की पत्नी हरी प्रिया जोशी अपने धर्म, नियम, सोच-विचार के प्रति बहुत कठोर थीं। दूसरे शब्दों में कहें तो सच्चाई यह है कि वे छुआ छूत के दायरे में रहने वाली महिला थीं, मगर उनका मजहब कभी इंसानियत के बीच रोड़ा नहीं बना। उनकी रसोई अलग, जहाँ उनके सारे भगवान विराजते थे। भोजन बनाने के वस्त्र अलग। बहु-बेटों से भी धर्म के मामले में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं। मगर जब भी मैं उनसे मिलने गई, कभी ऐसा नहीं लगा कि उनके मानव धर्म में कहीं से किसी तरह की दूरी नजर आई हो या झलक मिली हो।


     जोशीजी के विचार बहुत उच्च कोटि के थे जिसे समझने के लिए खुले मन की आवश्यकता है। वह सदैव यही कहते थे- “बिना अंधकार की कल्पना किए प्रकाश के महत्व को नहीं समझा जा सकता। श्रीमती जोशी ने बताया था - ‘ताकुला में परिमल की मीटिंग थी। महादेवी वर्मा, पंत, निराला, साही, फादर कामिल बुल्के, जगदीश गुप्त, अन्य अनेक वरिष्ठ साहित्यकार, लोक भारती के ग्रोवर बन्धु उस साहित्यिक पर्वतीय कुम्भ मेले में एकत्र थे। सभी लोगों को जिम्मेदारी मिली थी। मुझे (प्रिया जी को) रसोई और भण्डार की व्यवस्था संभालनी थीमैं अपने घर की तरह रसोई बनाती और देख रेख करती। मैं रसोई में थीजोशी जी निराला जी के संग आए और रसोई के द्वार पर खड़े हो गए। निराला जी से कहने लगे- यह मेरी पत्नी हैं हरि प्रिया जोशी। बहुत आधुनिक हैं। कैसे खाना बना रही हैं। इतना कहकर आगे बढ़ गए। मेरी दशा क्या हुई होगी, गुस्सा तो बहुत आया उस समय। जब एकान्त में मिले तब मैंने पूछा- “आप निराला जी को क्यों लेकर आए? झट से बोल पड़े-इसलिए कि 'तुम्हारी इस तरह खाना बनाने की आदत छूठ जाए। ये ढाई गज की धोती उटकरा पहन कर रसोई धने की।'' मगर यासमीन। तुम्हारे जोशी जी तो कभी बदल ही नहीं सके स्वयं को। सदैव पत्नी धर्म निभाते हुए मुझे ही झुकना पड़ा। उनका जो मन चाहता था, वही वह करते थे।'


    एक बार मुझे इलाचन्द्र जोशी जी ने बताया, “मेरी बचपन से ही दूसरों की मुद्राओं को देखकर व्यक्ति-मनोजगत् के भावों को पढ़ने में रुचि रहती थी। मैं बड़े चाव से पढ़ता था। मनोवैज्ञानिक अध्ययन की आकुलता मुझमें जन्मजात रही है। ‘‘मेरी निजी मनोवैज्ञानिक उलझने मुझे विचलित किए रहती हैं। यही कारण रहा है कि मैं मनोविज्ञान से सम्बन्धित अध्ययन करता था। मेरे बड़े भाई डॉ. हेमचन्द्र जोशी इंग्लैण्ड से मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण पुस्तके मनोविज्ञान की भेजते थे। अलमोड़ा में मेरे दाया जी का बहुत बड़ा पुस्तकालय था। उसका भी मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा हैं।'' उन्होंने यह भी बताया कि मैंने बारह वर्ष की अवस्था में मनोवैज्ञानिक कहानी ‘साजनवाँ' लिख डाला था। इस लेखन की प्रेरणा मुझे अपने पड़ोस में रहने वाली एक अल्हड़ लड़की से प्राप्त हुईथी, जिसकी उम्र मात्र बारह वर्ष थी।


    मानव-मनोविज्ञान में जोशी जी की अपनी धारणाएँ हैं। समीक्षक उन्हें फ्रायडवादी कहते हैं जबकि यह अवधारणा बिल्कुल ही गलत हैं। जोशी जी कहा करते थे- ‘लोग खोजते नहीं, बिना सोचे कह देते हैं कि मैं फ्रायड से प्रेरणा लेताहूँ।' वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि बीसवीं सदी में साहित्यकारों को फायड ने व्यक्ति मन के विश्लेषण के लिएएक नया अस्त्र प्रदान किया हैं। यही कारण है कि उन्हें फ्रायड़ से प्रभावित होने पर सुने या कहे गए शब्दों और बातों से घोर घृणा थी। वे फ्रायड को भ्रष्ट ही नहीं, झूठा भी मानते थे।


    इलाचन्द्र जोशी के साहित्य में काम प्रवृत्ति का खुला स्वरूप देखकर आलोचक उन्हें फ्रायड़वादी मानते हैं लेकिन जोशी और फायड के सेक्स के सम्बन्ध में मौलिक भेद हैफायड ने ‘लिबिडो और इडियस' के सिद्धान्तों के द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि बचपन से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति के समस्त क्रियाकलाप काम प्रवृत्ति से परिचालित हैं। जोशी जी का मानना है कि सेक्स के सरलतम रूप से लेकर उच्चतम रूप को ठीक से पहचानने के लिए अनेक महत्वपूर्ण सीढ़ियों से होकर आगे बढ़ते जाना है। ---- जोशी जी यह भी मानते हैं कि व्यक्ति कुंठाओं में केवल मनोवैज्ञानिक कारण ही नहीं होते। मनोविज्ञान के साथ सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों की विकृतियों का सम्मिलित प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर बुरी तरह पड़ता हैं। जोशी जी के उपन्यासों में हमें व्यक्ति-मनोविज्ञान का यही रूप मिलता है।


    जोशी जी की एक छोटी सी पुस्तक है- 'दैनिक जीवन और मनोविज्ञान' जिसका प्रकाशन इण्डियन प्रेस से हुआ है, आठ आना मूल्य की यह पुस्तक अनमोल हैं। मन की परतों को खोलने के लिए यह दुर्लभ और महत्वपूर्ण हैं। जोशी जी ने इसमें मनोवैज्ञानिक शब्दावली का प्रयोग किया हैं, मनोविज्ञान के सिद्धान्तों को गहराई से दर्शाया है। मनोविज्ञान के बिखरे कणों को उन्होंने चुन-चुन कर अपने मनोविज्ञान को और पैना किया।


     वेदों में हमें जो अहम् की समीक्षा मिलती है, वह फायड के ईग्वे की तरह तुक्ष नहीं है। वेदों में अहम् ईश्वर का प्रतिरूप है। जोशी जी ने व्यक्ति के इस अहम् को अपने ढंग से निरूपित किया हैं। वे कहते हैं कि अहम् त्याग का भाव धीरे-धीरे इस हद तक बढ़ जाता है कि मानवता की सीमा को लांघ जाता है, फिर एक स्थिति ऐसी आती है जब मनुष्य अपने को ईश्वर या ईश्वर का छोटा भाई समझने लगता है। भारतीय दर्शन में प्राप्त संस्कारों की अवधारणा में भी इलाचन्द्र जोशी की अमिट आस्था थी। वे मानते थे कि व्यक्ति के संस्कार जन्म-जन्मान्तर से सम्बन्धित होते हैं -- पूर्व जन्म के संस्कार ही व्यक्ति के विकास और ह्रास की प्रतिक्रियाओं को परिचालित करते हैं।


     भारत में मनोविज्ञान के स्वरूप का प्रारम्भिक बिन्दु उपनिषद् काल से दिखाई पड़ता है जिसमें मनोविज्ञान का अध्ययन किया गया है। मानव मनोविज्ञान के अध्ययन के साथ-साथ उसके विभिन्न पक्षों पर विचार किया गया जिसमें मुख्य है 'जीव' और 'आत्मा'। श्री कृष्ण ने संवेग को दमन करने की सलाह नहीं दी अपितु उसे परिवर्तित करके प्रयोग करना बताया है। ऐसा करने से व्यक्ति पर किसी प्रकार का बुरा भाव नहीं पड़ता। कृष्ण ने यह भी बताया कि आत्मा सबल है और वह किसी भी पक्ष को अपने वश में कर सकती है। इस बात से जोशी जी पूरी तरह सहमत थे।


     जोशी जी अपने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार करते हैं कि व्यक्ति के सामने कई समस्याएं आ जाती हैं और व्यक्ति उनको सुलझा नहीं पाता तब उसका मानसिक संतुलन और अधिक खराब हो जाता है। ऐसा व्यक्ति आत्म हत्या करने पर उतारू हो जाता हैं। कभी-कभी बेरोजगारी भी आत्म-हत्या का कारण बनती है। एक समय ऐसा भी आया जब जोशी जी आर्थिक रूप से बहुत परेशान थे। उनके पास कोई काम नहीं था। कलकत्ता जाकर एक लाँड्री में काम किया। प्यारे धोबी के यहाँ गन्दे कपड़े की गठरियों पर जिसमें से भयानक दुर्गन्ध आती थी, रात में सोने की जगह मिली। वे स्वीकार करते हैं, 'ऐसी भावनाएं (आत्म हत्या की) मेरे अन्दर भी उठी थींनिपट बेकारी की स्थिति से गुजरने के कारण मैं विकट मानसिक संकट की स्थिति में फंस गया और अपने चारों ओर मुक्ति का उपाय खोजने में असफल होकर आत्म हत्या को ही एकमात्र मुक्ति-पथ मानने लगा था। --निराशा, निरुत्साह मुझे घेरे रहता। मैं सोच-सोच कर हैरान रहता कि मुझे जीना चाहिए या मरना चाहिए।'


अपनी इसी भावना को जोशी जी ने लज्जा (घृणामयी) उपन्यास में व्यक्त किया है- ‘राज (एक पात्र) के जीने की इच्छा क्यों मर गई, इसका कारण वह अपनी डायरी में लिखता ', 'दुख के प्रति क्यों मेरे मन में ऐसी चाह है। मैं सदा सुख और मृत्यु का ही चिंतन क्यों करता हूँ।----'निर्बलों का कष्ट और उसे बदल न सकने की अपनी सामर्थ्यहीनता भी राजू को आत्महत्या करने की प्रेरित करती हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक तत्व है कि अपनी वस्तु पर किसी अन्य का अधिकार अप्रिय लगता है। लज्जा (घृणामयी) राजू का अचेतन मन अपनी प्रिय बहन को डॉक्टर कन्हैया लाल के साथ घनिष्ट होते देख भयभीत हो उठता है- यह भय उसके अचेतन में ही है। वह अपनी डायरी में लिखता है -- इस निर्लज्जता तथा ढोंग से भरे आदमी से मैं अपनी समस्त अन्तर्रात्मा से घृणा करता हूँ।--- दीदी को अपने एकान्त कमरे में हँसी-खुशी की बातें करते देख मेरा हृदय जलकर भस्म हुए बिना कैसे रह सकता है। --- मेरी दीदी जो मुझे बचपन से कितना प्यार करती थी, यह बात देखते रहकर भी नहीं देखना चाहती।' राजू के चेतन और अचेतन में जो संघर्ष है, वह अत्यन्त मनोवैज्ञानिक है।' यही कारण है कि राजू आत्महत्या कर लेता है।


     इलाचन्द्र जोशी का उपन्यास जहाज का पंछी प्रसिद्ध कृति है। इसके कई पात्र हैं जो आत्महत्या करते हैं। अमला का पिंजरा बेकारी के कारण आत्म-हत्या करता हैं, जिप्सी उपन्यास की नायिका मनिया की माँ अपने पति का अन्य स्त्री से अवैध सम्बन्ध के कारण आत्म-हत्या कर लेती है। ऐसे ही अन्य रचनाओं के पात्रों की मनोदिशा बनी रहती है, चाहे वह कहानी हो या उपन्यास। जोशी जी के पात्रों की आत्महत्या और हत्या की कुंठाओं का विश्लेषण किया जाता है, तब कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं। जोशी जी का कोई उपन्यास या कहानी नहीं है जिसमें हत्या और आत्म-हत्या न हुई हो। इलाचन्द्र जोशी की शैली का यही कौशल है। उनका ताना बाना जो पाठक के सामने आता है, वह स्पष्ट करता है कि हत्या या आत्म-हत्या की घटना का कारण पात्रों की कुंठाओं का परिणाम है। इनके पात्रों में कुंठा के लगभग आर्थिक, सामाजिक, वंशानुगत एवं व्यक्तिगत कारणों के साथ अनेक बाह्य कारण का परिणाम सामने आते हैं। जोशी जी के लेखन की एक विशेषता और है कि उसमें चोरी, डकैती, छूरेबाजी जैसे अपराध को न दिखाकर सफेदपोश-अपराध को दिखाया गया है। जोशी जी का अपराधी पात्र हत्या में ही आत्म हत्या का भ्रम उत्पन्न कर देता है। ऐसी कई घटनाएं हैं जिसे न कोई पकड़ पाया और न समझ सका। इनके पात्रों की आत्महत्या की मनोवृत्ति में अस्तित्ववादी चिंतन का प्रभाव है जिसका मूल मुद्दा है मनुष्य की स्वतन्त्रता। जोशी जी का जो भी पात्र, आत्महत्या करता है, उसमें प्रसन्नता अधिक रहती है कि उसे पूर्ण-मुक्ति मिलेगी। यह अस्तित्ववादी चिंतन का प्रभाव है।


     इलाचन्द्र जोशी मनोविज्ञान की आरोपण प्रवृत्ति से पूर्णतः परिचित थे। आरोपण-प्रवृत्ति का प्रकाशन उन्होंने अपने पात्रों के स्वप्नों द्वारा किया है। जहाज का पंछी और ऋतु चक्र उपन्यासों में आरोपण प्रवृत्ति का प्रकाशन स्वप्नों द्वारा हुआ है। उसे स्वप्न में बचपन के कई दृश्य दिखाई देते हैं जिसमें सभी परिचित मर चुके हैं। नायक को पहचानना और भाग चलने की बात करना। उसकी आँखें खुलती हैं तब वह स्वयं के लीला के वर्ग के लोगों के समान स्वयं को नहीं पाता है। आरोपण की ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति को जोशी जी ने बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया हैआरोपण को मनोवैज्ञानिकों ने मन की एक गुप्त क्रिया माना है। जोशी जी ने अपने पात्रों में दिवा-स्वप्न देखने की आदत का उल्लेख किया है। दिवास्वप्नों द्वारा अपनी इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। मुक्तिपथ के राजीव एवं विजय अपने-अपने स्वप्नों में तल्लीन रहते हैं। सुबह के भूले की नायिका गिरिजा देवी अपने स्वप्नों को साकार करके फिल्मों की प्रसिद्ध नायिका बन जाती है। इलाचन्द्र जोशी ने स्वप्न को भूत, भविष्य और वर्तमान से जोड़ा है। यह भी सिद्ध करने का कार्य किया है कि स्वप्न मानसिक रोगों के परिचायक हैं। जोशी जी के उपन्यासों में कई प्रकार के पात्र होते हैं जिसमें मुक्ति पथ का नायक राजीव गरीबों के हित के लिए सदैव तत्पर रहता है और योजना बनाता रहता है। अपनी प्रेमिका सुनन्दा को भी इसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता रहता है। मुक्ति निवेश नामक संस्था के माध्यम से समाज कल्याण के लिए अनेकानेक कार्य करता हैं, वहीं विजय नामक व्यक्ति उतना ही गलत तरीकों से पैसा कमाने की हवस को जन्म देता रहता है। जहाज का पंछी नामक उपन्यास का नायक (मैं) भी पूरी तरह से गरीबों की सहायता के लिए क्या नहीं करता। यह पुरुष पात्र जो स्वस्थ अहम् का स्वामी और कलयाणकारी कार्यों का सम्राट है, जोशी साहित्य का चाणक्य है। नायक (मैं) भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करना चाहता है। वह न किसी अधिकारी से डरता है न भयभीत होता है और न गलत काम करता है और न किसी को करने देता है। २४ घंटे ईमानदारी के साथ समाज कल्याण के चिंतन में लगा रहता है। जोशी जी की व्यक्तिगत जीवन शैली ऐसी ही थी। उनके व्यक्तित्व की झलक इन दोनों पात्रों द्वारा प्रकट होती है।


       इलाचन्द्र जोशी के बाहर की तरफ बरामदा भी था। माघ का महीना था। कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। इलाहाबादी जाड़ा अपनी तरुणाई में प्रवेष्ठित हो चुका था। संगम स्नान करने के लिए कोई (अनजान) आदमी आया था। ट्रेन से उतरने में उसका पैर कट गया। पता नहीं वह कब और कैसे यहाँ तक पहुँचा रात में। सुबह जोशी जी ने उसे देखा, खून से लथपथ, झट अन्दर गए और अपनी पहनने वाली धोतीलेकर बरामदे की तरफ भागे। जैसे ही धोती फाड़ना चाहा, उसको पट्टी बांधने के लिए। प्रिया जी चिल्ला पड़ी-अरे! यह क्या कर रहे हैं? आपके पास दूसरी धोती नहीं है। कौन सुनता है। धोती के दो खण्ड हो गएपट्टी बंध गईयात्री को अस्पताल ले गए। काफी दिनों तक उसका इलाज होता रहाउसके खान-पान की भरपूर व्यवस्था होने लगीरोगी बहुत मीठी चाय पीता था। घर वालों की चाय अब कम मीठी बनने लगी। हरिप्रिया जोशी ने उस आदमी की बहुत सेवा की। उसका जख्म काफी हद तक ठीक होने लगाजोशी परिवार भी संतुष्ट था कि उनकी सेवा सफल हो रही है। एक रात वह आदमी भाग गया। यह घटना जब श्रीमती जोशी को मालूम हुई तो उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। जितना बोल सकती थीं जोशी जी को बातें सुनाती रहीं। जोशी जी सुनते रहे। बहुत तीखे स्वभाव की थीं, मगर थीं पति-भक्त इसलिए सब कुछ शिरोधार्य। कुछ दिन बाद एक आदमी ने उनके बरामदे में खड़ा होकर आवाज लगाई। हरि प्रिया जी ने दरवाजा खोला, पहचानने की कोशिश दूर-दूर तक नजर नहीं आई। उसके सिर के बाल लम्बे थे। चेहरा दमक रहा था। उसने नमस्कार करते हुए पैर छुए। उन्होंने पूछा- मैंने पहचाना नहीं, कहाँ से आए हो और कौन हो। उसने अपना नाम बताया। नाम सुनते ही तन-मन में आग लग गई। एक साँस में उन्होंने उसे बहुत कुछ कह डाला। उसने क्षमा मांगते हुए कहा यदि मैं बताकर जाता तो आप लोग जाने न देते और मैं कितने दिन आप लोगों पर बोझ बना रहता मां जी। अब मैं स्कूल में अध्यापन करने लगा हूं। मैंने पैर भी लगवा लिया है। यह सामान आप के लिए है। झोले में साड़ी, मेवा, मिठाई और फल था। जोशी जी देखकर बहुत खुश हुए कि उनकी सेवा से एक आदमी का जीवन बच गया। जहाज का पंछी उपन्यास के करीम चाचा की भूमिका कुछ इसी प्रकार की है।


       जोशी जी ने अहम् को फ्रायड के 'इगो' का पर्याय न मानकर भारतीय दर्शन के अहम् का प्रतिरूप माना है। वे इसे मानव-प्रकृति का मूल-तत्व मानते हैं। उनकी धारणा है कि यही तो मनुष्य की अत्यन्त शक्तिशाली प्रवृत्ति है। त्रतुचक्र उपन्यास के पात्र दादा के माध्यम से कहते हैं- 'अहम् ही यदि प्रचण्ड न हो प्रतिमा तो यह आत्मविश्वास आएगा कहाँ से।' जोशी जी अपने व्यक्तिगत अहम् को सदैव सामूहिक अहम् के साथ एकाकार कर देने की बात मानते हैं।


      उन्होंने भारत-विभाजन की समस्या का जिक्र मुक्ति पथ उपन्यास में करते हुए मनोवैज्ञानिक शैली में जनता की अनेक प्रकार की यातनाओं का विवरण दिया है। जोशी जी ने कभी जल्दबाजी में कुछ भी नहीं लिखा। उनकी साहित्यिक यात्रा कविता से आरम्भ होती है। पहला और अंतिम काव्य संग्रह ‘विजनती है। जोशी जी को अपनी बात कहने की पृष्ठभूमि इस विद्या में बहुत कम दिखाई इसके लिए उन्होंने उपन्यास और कहानी विद्या की ओर स्वयं को मोड़कर गद्य विद्या में उच्च स्थान ग्रहण किया। मनोवैज्ञानिक कथाकार के रूप में प्रथम श्रेणी के लेखक हुए।


      जोशी जी का मानना था कि अत्यंत गरीब, भूखा, भिखारी, पिछड़े वर्ग के मनुष्यों के अन्दर भी एक स्वस्थ अहम् सोया रहता है। जोशी जी का खान-पान विशेष प्रकार रहता था। वे मांसाहारी भी थे। पत्नी के नाक-भौं चढ़ाने पर कहते थे- खाने की वस्तु को बुरा नहीं कहते। निराला जी खाते हैं। वे अपने घर मजदूरों गरीबों को भी स्वादिष्ट भोजन कराने के पक्षधर थे। एक बार अपने माली को अपने हाथों पहाड़ी भोजन बनाकर उन्होंने खिलाया। उसने आवश्यकता से अधिक खा लिया। जिस कोठरी में वह रहता था वह उल्टी आदि से भर गई। दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध। सफाई कौन करे ? जोशी जी का आदेश पत्नी के लिए हो गया। वह भी जल्दी कहाँ चुप रहने वाली थीं। तर्क-विर्तक होता रहा। अन्त में जोशी जी ने समझाया- 'तुम्हें मालूम है, बापू कभी भी ऐसे कामों से पीछे नहीं हटते थे और उन्हें सदैव बा का सहयोग मिलता रहता था। तुम्हें भी पीछे नहीं हटना चाहिए। तुम कांग्रेस अस्पताल ले जाओ। इक्का के लिए चार आना भी दिया। हरि प्रिया जी को जाना ही पड़ा। उन्होंने ही मुझे यह सब बताया था।


      इलाचन्द्र जी को सदैव पैसे से उलझन होती थी, पैसा बोझ मालूम पड़ता था। इसके अनेक उदाहरण जहाज के पंछी, पर्दे की रानी, जिप्सी में मिल जाएंगे। जोशी जी का उद्देश्य था अपने साहित्य के माध्यम से मनोविश्लेषण द्वारा बहुत कुछकहना और बताना। उन्होंने व्यक्ति के मनोव्यापारों, अन्तर्द्वन्द्वों और कुंठाओं के साथ हीनग्रन्थि से कुंठित पात्रों के विकृत आचरण को बड़ी कुशलता से चित्रित किया है। गुलबिया, सुबह के भूले, उपन्यास की नायिका अपनी सहेलियों को अपने घर कभी नहीं बुलाती क्योंकि वह टिन शेड में अपनी गाय-भैंसों के बीच रहती है। अपने घर का गंवारू वातावरण वह सहन नहीं कर पाती और मन ही मन ठान लेती है कि वह अपनी सहेलियों से भी ऊपर उठेगी। बाद में वह हिन्दी फिल्मों की सुपर स्टार बन जाती है। दूध वाली झमिया की बेटी होने में अब गर्व का अनुभव करती है। अपने नए घर का नाम 'मातृ-मंदिर' रखती है।


     मनोवैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि जब व्यक्ति को किसी प्रकार का मानसिक आघात लगता है, जब वह हर ओर से निराश हो जाता है तभी उसकी सद्वृत्ति जाग्रत हो जाती है। व्यक्ति जिससे प्रेम करता है उसके लिए सब कुछ न्योछावर कर देता है। त्याग का भोग के नायक नृपेन्द्र रंजन का जब उदात्तीकरण होता है तब अपनी अकूत सम्पत्ति जनकल्याण के हित में दान कर देता है। यह कार्य वासनात्मक जुड़ाव से नहीं भावनात्मक लगाव के कारण होता है। जहाज के पंछी की नायिका लीला नायक के कहने पर अपनी सारी चल-अचल सम्पत्ति दान कर देती है। जोशी जी इसी मनोवैज्ञानिक सत्य के आधार पर अपने पात्रों का उदात्तीकरण कराते हैं।


    मृत्यु के कुछ दिन पूर्व उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था- 'यदि गम्भीरता पूर्वक विचार और विश्लेषण किया जाए तो जन-जन का यथार्थ घोर नरक के सिवाय और क्या है? मनुष्य अनजाने ही स्वर्गलोक के किसी अज्ञात कोने से राम रसायन निकालना चाहता है, वह चाहे महाभारत का युग हो या आज का प्रलय का युग। तब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचना चाहते हैं कि घोर नारकीय राक्षसी तत्वों द्वारा सचित व्यक्ति के भीतर भी भागवत रसायन निश्चित रूप से वर्तमान रहता है। जिस प्रकार महाभारत में तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और घोर संघर्षमय जीवन के मंथन के फलस्वरूप भगवत् गीता का उद्भव हुआ, उसी प्रकार आधुनिक जीवन संघर्षमय द्वन्द्वपूर्ण जीवन के मंथन द्वारा एक सुन्दर सौम्य शीत रस का किसी कुशल कलाकार द्वारा हो सकना सम्पूर्ण सम्भव है।


     नारी शक्ति के समर्थक जोशी जी ने स्वयं मुझसे एक भेट वार्ता में कहा था- ‘सुनो यासमीन! एक सत्य ऐसा आएगा जब सदियों से दबी रहने वाली नारी पुरुष वर्ग के नैतिक मिथ्या के प्रांगण में आग लगाए बिना नहीं रहेगी।' श्रीमती जोशी ने बहुत अधिक शिक्षा ग्रहण नहीं की थी। वह बहतु सन्दर कविताएं भी लिखती थीं। लिखकर उन्होंने नौका विहार करते समय महादेवी जी को सुनाया था। यह बात जोशी जी को बहुत अखरती थी। यही कारण है कि जोशी जी प्रत्येक स्त्री को शिक्षित करने का संदेश अपने साहित्य के माध्यम से देते रहते थे। उनके उपन्यास अधिकतर नागरिक परिवेश पर आधारित हैं। जहाज का पंछी, तुचक्र में उच्च शिक्षा का वातावरण स्पष्ट देखा जा सकता है। सुबह के भूले, निर्वासित और मुक्तिपथ में स्त्री शिक्षा का उपयुक्त वातावरण है। शारदा देवी, अमला आदि आगे चलकर समाज के लिए क्रान्तिकारी रूप धारण करती हैं। चेतन मन में उलझी गुत्थियों को सुलझाया है। किस प्रकार नारी न चाहते हुए भी परिस्थितियों का शान्तिपूर्वक सामना करती है, सामंजस्य के साथ। निर्वासित की नीलिमा लक्ष्मी सिंह के साथ धोखा खाने के बाद स्वपीड़ित स्थिति में दिखाई देती है और महीप अपनाने के लिए जब आगे बढ़ता है तब वह पीछे हट जाती है। वह आत्मग्लानि से भर जाती है कि उसने ठाकुर के धोखे को समझा नहीं।


     जोशी जी के महान् प्रेमी और उनकी प्रेम कथाएं कहानी संग्रह में नारी मनोभाव एवं नारी मनोविज्ञान का विस्तृत वर्णन हुआ है। अम्बपाली वेश्या है। गौतम बुद्ध के सम्पर्क में आने के बाद वह भिक्षुणी बन जाती है। चार्लोट ब्रोटे के हताश प्रेमी शीर्षक कहानी में स्त्री मनोदशा को जोशी जी ने इस प्रकार वर्णित किया है, 'नारीका मन ऐसा रहस्यमय है कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में वह समझती है कि वह उससे घृणा करती है, अक्सर उसी को वह अपने अन्तस्तल में सबसे अधिक चाहती है। जोशी जी की यह भी विशेषता है कि वह पतित से पतित और घृणित से घृणित नारी को बराबर करुणा और श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे--अपनी रचनाओं में उसी रूप में उससे चित्रित करते थे।


    इलाचन्द्र जोशी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी साहित्यकार थे। उनकी समीक्षा दृष्टि भी बहुत पैनी थी। उनका स्पष्टवादी रूप जग जाहिर है। एक पत्रकार के रूप में उनका दृष्टिकोण बहुत प्रखर है। धर्मयुग के प्रथम सम्पादक होने के कारण उनका नाम स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। उन्होंने आकाशवाणी में रहकर बड़े ही अनोखे ढंग से काम किया।


    माक्र्सवाद, गाँधीवाद, अस्तित्ववाद और मानवतावाद तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर एवं शरतचन्द्र के विचारों का प्रभाव उनके सम्पूर्ण साहित्य में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त गेटे, टालस्टाय और चेखब से भी वे प्रभावित थे। दास्तावस्की इनके प्रिय लेखक हैं। जोशी जी ने कई कहानियाँ रामानन्द चटर्जी के 'मॉर्डेन रिव्यु' के लिए लिखीं उनके कई लेख भी छपे हैं। यूनाइटेड एशिया पत्रिका में भी लेख प्रकाशित हुए। कई उपन्यास बंगला और मलयालम में अनूदित हुए। जोशी जी ने अनुवाद का भी बहुत काम किया है।