'स्मृति/गोष्ठी - समय से गहनतम सरोकार

लखनऊ का कैफ़ी आज़मी एकेडमी सभागार हिंदी के यशस्वी लेखक दूधनाथ सिंह पर यादगार चर्चा का गवाह बना जिसका आयोजन जनवादी लेखक संघ और तदभव पत्रिका ने किया था।


      कथाकार-दूधनाथ सिंह पर केंद्रित पहले सत्र की शुरुआत करते हुए आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा कि दूधनाथ जी का आखिरी कलाम' उपन्यास एक रचनात्मक विस्फोट था। इसका प्रकाशन हिंदी के लिए नई परिघटना थी। वह पारंपरिक उपन्यासों की श्रेणी में नहीं था।


       बाबरी मस्जिद की घटना ने संविधान की स्थापनाओं को ध्वस्त कर दिया था।९२ की उस परिघटना के ३ दिन पहले दूधनाथ जी फैजाबाद में थे। उन्ही दिनों के घटनाक्रम को उन्होंने उपन्यास में आधार बनाया। सांप्रदायिक शक्तियों ने धर्म को जिस तरह अपनी गिरफ्त में लिया उसकी परिणति थी वह घटना।


       दिल्ली के राजीव कमार ने साठोत्तरी कहानी आंदोलन के संदर्भ में दूधनाथ जी की चर्चा करते हुए कहा कि वहां अपने समय से उनका सरोकार गहनतम है। समय की गहरी प्रतिध्वनि है। गाँधीवादी शैली से उन्हें इनकार हैं। शिप्रा किरण (बी.बी.यू. लखनऊ) बोलीं कि उनकी कहानियों में विडम्बनाओं में चेखव और व्यंग्य में परसाई याद आते हैं। 'हुंडार' और 'माई का शोकगीत' कहानियों में स्त्री प्रश्न आज की कहानियों से अधिक मुखर है जहां तमाम प्रताड़नाओं के बाद भी स्त्री अपनी पीड़ा को व्यक्त करने में नहीं रूकती।


       जलेस, लखनऊ के अध्यक्ष नलिन रंजन सिंह ने कहा कि दूधनाथ जी की कहानियों के चरित्रों को पहचानने की कोशिश उसके फलक को सीमित करना है।


       कहानीकार प्रियदर्शन मालवीय ने कहा कि दूधनाथ जी अपनी कहानी कोरस में कहते हैं कि यह एक ऐसा समय है जिसमें हमें न बोलने की आदत डालनी पड़ रही है। यही इस वक्त की चुनौती भी है।


       जलेस के राष्ट्रीय संयुक्त महासचिव आलोचक संजीव कुमार ने पूर्व वक्ताओं के हवाले से जोड़ते हुए भी बातें कीं। उन्होंने राजीव कुमार द्वारा दूधनाथ जी की साठोत्तरी कहानियां को अपने समय में ही धंसी हुई कहानियां कहने पर अलग राय रखी। उन्होंने कहा कि यह स्वीकार            


करना चाहिए कि उस पीढ़ी की कहानियां अक्सर मर्दाना दृष्टिकोण का शिकार रही हैं। लेकिन आगे उन्होंने इसे बदला भी। ‘सपाट चेहरे वाला आदमी' से आखिर ‘माई का शोकगीत' तक दूधनाथ जी पहुंचे। 


     तद्भव के संपादक अखिलेश ने कहा कि दूधनाथ जी के कथाकार व्यक्तित्व को समझने के लिए यह मानना होगा कि यथार्थ के भभके में आना खतरनाक है। यह एक सेकंडरी इमेजिनेशन भी है। सुखान्त उस दौर की अंतिम श्रेष्ठ कहानी है जिसके दो ड्राफ्ट तैयार हुए थे। उसके बाद एक लंबा अंतराल उनके लेखन में आता है। वे अपने पुराने औजारों को तेज करके नये औजारों की खोज में आगे बढ़ जाते थे।


     काशीनाथ सिंह ने अपने मित्र-साथी कथाकार पर यक्षीय भाषण देते हुए कहा कि वह अपना जीवन क्रिएट करते थे और कहानियों के माध्यम से वे प्रतिशोध ही करते थे जो क्रिएशन ही था। उन्होंने आखिरी कलाम को दो अलग-अलग उपन्यासों की विषयवस्तु बताया कि शुरू का हिस्सा एक अलग और बाद का बाबरी विध्वंस का हिस्सा अलग लगता है।


      इस सत्र का संचालन जलेस, लखनऊ के सचिव ज्ञान प्रकाश चौबे ने किया।


      दूसरे सत्र में कविता और नाटक पर चर्चा की शुरुआत युवा लेखक डॉ. विंध्याचल यादव ने की। उन्होंने कई कविताओं का सन्दर्भ देकर कविता में टाइम और स्पेस को लक्षित किया और कहा कि वे जबरदस्त विशेषणों और विम्बधर्मिता के कवि हैं।


      उनकी कवितादृष्टि के बारे में मैंने पाया वे मनुष्य के जीवन की निर्मम उदासीनता को रंगों से भर देना चाहते हैं। ‘कृष्णकांत की खोज में दिल्ली यात्रा' में कवि की अपनी विसंगति की खोज है। उनकी बाद की कविताओं में जीवन के साथ मृत्यु का गझिन रचाव है।


      कवि-प्राध्यापक अनिल कुमार सिंह (फैजाबाद) ने कहा कि उन्होंने हमे पूरी दुनिया की कविता से परिचित कराया। यहां दूधनाथ जी का विध्वंस भी हुआ है। वे कहते थे कि सिनिसिज्म होना साहित्य लेखन के लिए जरूरी है जो कई बार उनके व्यवहार में भी होता था।


     नाटककार सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ ने दूधनाथ जी के नाटक यमगाथा पर कहा कि उनका रंगमंच से गहरा रिश्ता रहा, उन्होंने ‘आधे-अधूरे' का निर्देशन भी किया। कई और बातें वो नहीं कह सके।


    इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि दूधनाथ जी का संकट निराला, पन्त, महादेवी थे जिनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन इन पर लिख कर किया। अब ताल पढ़ाया जाता है छंद नहीं पढ़ाया जाता। दूधनाथ जी दोनों के विद्यार्थी थे। इस सत्र का सञ्चालन तरुण निशान्त ने और धन्यवाद प्रताप दीक्षित ने किया।


    कथाकार, कवि, आलोचक दूधनाथ सिंह पर केंद्रित दो दिवसीय आयोजन के दूसरे दिन 'आलोचक-संपादक दूधनाथ सिंह' पर बात की शुरुआत फैज़ाबाद से आए कवि विशाल श्रीवास्तव ने स्मृतियों से अपनी बात शुरू करते । हुए ‘महादेवी' पर केंद्रित किया, कि २००९ पर आई इस ब्र का सूत्र ‘निराला : आत्महंता आस्था' से भी जुड़ता है। इस किताब में आलोचना की भाषा अत्यंत प्रांजल और पठनीय है। इसका विस्तार पूरे । छायावाद और रीतिकाल से भी जुड़ता है। वेदना और पीड़ा को खंडित करते हुए वो बीसवीं सदी की समस्त स्त्रियों की आवाज भी है। कविता की स्त्री का चेहरा तो आंसू से भीगा है लेकिन गद्य की महादेवी अत्यंत दृढ़ और मजबूत दिखती हैं। महादेवी की कविता मृग मरीचिका की तरह भी है।


    युवा आलोचक प्रियम अंकित ने कहा कि हमारी आलोचना परंपरा के ऐसे आलोचक नही है जिन्होंने हिंदी आलोचना की परंपरा के बीज-शब्द दिए हों।


     सीकर (राजस्थान) की अमृता जोशी ने कहा कि दूधनाथ जी के संपादन कर्म में उनका आलोचकीय व्यक्तित्व ज्यादा मुखर है। ‘अनहद' के संपादक कवि संतोष चतुर्वेदी ने दूधनाथ सिंह के संपादन-कर्म को अपनी । बात का आधार बनाया कहा कि वे एक सफल संपादक दिखते हैं। दूधनाथ जी ने प्रेमचंद के दो जीनियस जैनेन्द्र और भुवनेश्वर में से एक भुवनेश्वर के लिए महत्वपूर्ण काम किया।


    दिल्ली वि.वि. के प्रोफेसर और ‘पक्षधर' के संपादक विनोद तिवारी ने इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए कहा कि किसी रचनाकार के जाने के बाद उसका मूल्यांकन सबसे महत्वपूर्ण होता है। दूधनाथ जी अपने पूरे रचनाकर्म  में  समय  के   साथ  मौजूद  हैं 1  समय की ' शार्पनेस '  को दूधनाथ जी बखूबी करते हैं। दूधनाथ जी अपने आलोचनात्मक लेखन में भी उतने ही क्रिएटिव हैं। उन्होंने प्रायः कवियों को ही अपने अलोचनाकर्म के लिए चुना, कथाकारों को नही।


    इस सत्र का संचालन सुशीला पुरी ने किया।


     दूसरे सत्र में संगठन, संपादन और संस्मरण के केंद्र में बातें हुईं।


      दूधनाथ जी के अंतिम विद्यार्थी डॉ. विभु प्रकाश सिंह ने दूधनाथ जी के साथ अपने १० वर्षों के सानिध्य का जिक्र किया कि शत्र पैदा करना उनका शगल था और वो अपने शत्रुओं से प्रेम करते थे। प्रीति चौधरी ने कहा कि वो प्रिय सत्य से प्रिय सत्य की ही रचना कर रहे थे।


     विख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह ने कहा कि मुझे किस्सा साढे 6 चार यार नहीं लिखना चाहिए था। आखिरी कलाम छपने के बाद मेरे और । और उनके बीच एक तरह की दरार भी पैदा हो गई थी। उन्होंने अपने, कालिया जी और दूधनाथ जी के बीच गलतफहमियों और उन्हें हल करके पुनः याराना की वापसी के बारे में बताया।


    कवि अनिल त्रिपाठी ने कहा कि दूधनाथ जी की आखिरी किताब 'सबको अमर देखना चाहता हूँ' विशुद्ध रूप से विभिन्न व्यक्तित्वों का रेखांकन है। वरिष्ठ आलोचक रघुवंशमणि ने दूधनाथ जी की कहानियों को अपनी बात के केंद्र में रखा और कहा कि वे मानते थे कि कोई भी लेखक पतनशील हो जाता है तो व्यवस्था के साथ खड़ा हो जाता है।


    सुधीर सिंह ने भी कुछ बातें की।


   सत्र का अध्यक्षीय वक्तव्य कथाकार शिवमूर्ति ने दिया कहा कि लेखक शिकारी होते हुए भी अकेले हो जाते हैं।


                                                                                                                                                            प्रस्तुति : सुधीर सिंह