स्मृ ति - ले - खक को कायर नहीं होना चाहिए - दीबा

शोधार्थी, हिंदी विभाग, शोध समिति की सचिव अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अलीगढ़, उत्तर प्रदेश


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साहित्य में दिखावे और पक्षपात के विरोधी, एक सर्वश्रेष्ठ पिता, एक कुशल पति और एक सच्चे मित्र दूधनाथ सिंह साहित्य में जनपक्षधरता के हिमायती रहे हैं। उनके जाने से साहित्य की जो क्षति हुई है वह शायद ही पूर्ण हो।


      हिंदी के चार यार के रूप में ख्यात ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह और रवीन्द्र कालिया ने हिंदी साहित्य को इतना कुछ दिया कि उनकी जगह कोई और नहीं ले सकता। इन्होंने लेखकों की एक नई पीढ़ी तैयार की। इन चार यारों में से एक दूधनाथ सिंह आज हमारे बीच ने नहीं हैं केवल बची हैं तो उनकी स्मृतियां और उनको जिंदा किए हुए उनकी रचनाएं। मुझे याद है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में दूधनाथ सिंह की शोक सभा में बोलते हुए वरिष्ठ मार्क्सवादी आलोचक प्रोफेसर प्रदीप कुमार सक्सेना ने कहा था कि ‘एक लेखक का जीवन उसकी मृत्यु के बाद शुरू होता है। प्रदीप सर का इशारा लेखक की रचनाओं की ओर था जो उसे जिंदा रखती हैं और उन यह रचना की क्षमता है कि वो उसके लेखक को पाठकों के बीच कब तक जिंदा रखती है.। दूधनाथ सिंह का असल जीवन अब शुरू हो चुका है और इसमें कोई संदेह नहीं के उनकी रचनाओं में वो नयापन है, वो क्षमता है जो उनको हमेशा पाठकों के बीच जिंदा ही नहीं रखेगी अपितु आने वाली लेखकीय पीढ़ी के लिए प्रेरणा भी बनेगी.।।


     एक कायर व्यक्ति कभी अच्छा लेखक नहीं हो सकता या यह कि एक लेखक को कायर नहीं होना चाहिए। इस दृष्टि से मेरा मानना है कि एक कायर व्यक्ति कभी अच्छा लेखक नहीं बन सकता, हाँ वह ऐसी चंद किताबें जरूर लिख सकता है जिनको रख कर पाठक भूल जाता है। यथार्थ समझने, कहने और लिखने का साहस एक अच्छे लेखन की पहली शर्त ओर एक अच्छे लेखक की पहली जरूरत है और इस जरूरत पर पूरा उतरते हैं दूधनाथ सिंह..। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन में सच से कभी मुंह नहीं फेरा। यही कारण रहा के वे हमेशा साहित्य में दिखावे और पक्षपात के विरोधी और जनपक्षधरता के हिमायती रहे। दिखावे और पक्षपात के कारण ही दूधनाथ सिंह गलत बातों पर अक्सर आक्रामक हो जाया करते थे। उनकी इसी प्रवृत्ति को देखते हुए महादेवी वर्मा ने एक बार उनको सलाह दी थी कि लेखकों को खासतौर पर दो चीजों से बचना चाहिए; बेमतलब पत्राचार से ओर समीक्षा को टिप्पणियों पर उत्तेजित होने से। पर दूधनाथ सिंह का व्यक्तित्व कहाँ किसी के इशारों पर चलने वालों में से था, वे अपनी ही धुन में रहने वाले एक सच्चे और साहसी लेखक थे। रवीन्द्र कालिया लिखते हैं कि आजकल फिर पत्र लिखने का जुनून उस पर सवार है। दिन भर पत्र लिखता है और पचौरी जैसे पेशेवर लिखाड़ तक के लेख का पोस्टमार्टम कर डालता है। रोकने पर भी वह उत्तेजित हो जाता है। कि वह साहित्य में वैचारिक व्यभिचार और भाषिक दुराचार बर्दाश्त नहीं करेगा। इस प्रदूषण को रोकना ही होगा।


        बहुमुखी प्रतिभा के धनी दूधनाथ सिंह के कलम से साहित्य की लगभग सभी विधाओं ने आकार पाया। दूधनाथ सिंह को कथा साहित्य पढना इतना प्रिय नहीं था जितना काव्य। यही कारण रहा कि उन्होंने महाकवि निराला, महादेवी वर्मा, पन्त व मुक्तिबोध आदि की कविताओं पर इतनी अच्छी आलोचनात्मक पुस्तकों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया। ‘महादेवी' तथा ‘निराला : आत्महंता आस्था' जैसी श्रेष्ठ आलोचनात्मक पुस्तकों में उन्होंने इन कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व को एक नई दृष्टि दी। वे नयापन उनके व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था जो उनकी रचनाओं को अलोकित करता है। हिंदी साहित्य में महादेवी वर्मा के साथ जहां एक ओर यह अन्याय किया कि उनके महत्वपूर्ण काव्य को 'नीर भरी दुख की बदली' में समेट दिया, वहाँ दूधनाथ सिंह एक ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने महादेवी जी के काव्य को नई दृष्टि से परखा। इस नएपन का ही उदाहरण है कि महादेवी वर्मा के काव्य के मैं और तुम को जहां अधिकतर लोग घिसी पिटी पद्धति पर चलते हुए रहस्यवाद से जोड़ते रहे, वहीं दूधनाथ सिंह ने अपनी पुस्तक 'महादेवी' में इसे यथार्थ से जोड़ उनको आधुनिक और सेक्युलर स्थापित किया।


      इसी तरह महाकवि निराला पर लिखी गई अपनी पुस्तक “निराला : आत्महंता आस्था में दूधनाथ सिंह नयापन खोज लाते हैं। प्रगतिशील चेतना का सम्बन्ध केवल प्रगतिवाद से ही है, इस धारणा का खंडन दूधनाथ सिंह की इन पंक्तियों के आधार पर करते हैं 'मैंने मैं शैली अपनाई/देखा दुखी एक निज भाई। प्रगतिवाद पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं कि 'निराला के काव्य में आया हुआ सर्वसाधारण के प्रति यह अगाध प्रेम तथाकथित प्रगतिवाद की देन नहीं है। यह कविता उनके प्रारम्भिक दौर की कविता है जब हिंदी में प्रगतिवाद का कहीं नामोनिशान भी नहीं था।' इस आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि एक अच्छा और सच्चा शोधकर्ता दूधनाथ सिंह में छिपा था।


      एक अच्छी रचना साहित्यिक समाज में हलचल जरूर पैदा करती है। उसकी सफलता इसी में है और एक रचनाकार की सफलता इस पर निर्भर करती है कि वह अपनी , कही लिखी बातों पर कब तक और कितनी मजबूती से टिका रहता है। इस दृष्टि से दूधनाथ सिंह की की रचनाएं भी सफल रहीं और रचनाकार के तौर पर दूधनाथ शिंदे सिंह भी। उनकी कहानी नमो अन्धकारम और निष्कासन ने विवादों का सामना किया पर यह दूधनाथ सिंह का मजबूत लेखकीय व्यक्तित्व ही था कि वे डिगे नहीं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि ‘में बार-बार कह चुका है कि नमी अंधकारम या निष्कासन सिर्फ रचनात्मक सच्चाइयां हैं, लेकिन लोग नहीं मानते। उनका दबाव है कि मुझे अपना नैतिक गुस्सा हमेशा के लिए नष्ट कर देना चाहिए। मैं मरना पसन्द करूंगा लेकिन इस तरह की नाजायज़ सलाहें मानने से मैं इनकार करता हूँ।


     मेरी दृष्टि में हिंदी साहित्य ने एक परफेक्शनिस्ट को खो दिया है, जिसका स्थान कोई नहीं ले सकता। भले दूधनाथ सिंह हमेशा के लिए खामोश हो गए हैं पर पाठकों के बीच चीखते हुए उनकी रचनाएं उनकी जिंदा रखेंगी।