संस्मरण'-रक्से-मय तेज़ करो, साज़ की लय तेज़ करो - सन्तोष कुमार चतुर्वेदी

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास संस्कृति और पुरातव में डी. फिल। पत्रिका 'अनहद' के संपादक। आलोचना के क्षेत्र में एक स्थापित युवा नाम। सम्प्रति- एक महाविद्यालय में एसोसिएट प्राफेसर।


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हमारे समाज में आमतौर पर लेखक से तमाम प्रत्याशाएं की जाती हैं। यह प्रत्याशाएं कुछ इस तरह की होती हैं कि उस लेखक के बारे में तमाम मिथक गढ़ दिए जाते हैं। ऐसे मिथक जिनका वास्तविकता से कुछ भी लेना-देना नहीं होता। लोग भूल जाते हैं कि लेखक भी इसी दुनिया का हाड़-मांस वाला वह प्राणी होता है जो अपने लेखन के लिए सारा खाद-पानी उस समाज और देशदुनिया से ही जुटाता है, जिसमें वह रहता है। दूधनाथ सिंह ऐसे ही लेखक थे। थे इसलिए कि बीते १२ जनवरी २०१८ को वे हमारे बीच नहीं रहे। इक्यासी वर्ष की एक भरी पूरी उम्र को उन्होंने भरपूर जिया। लेकिन उनकी देह-धजा कुछ ऐसी थी कि वे कभी बूढे नहीं दिखे। अक्सर ऐसा होता कि दूधनाथ जी टी-शर्ट और जींस में लोकभारती या काफी हाउस में मिल जाते। उनका चिर-परिचित झोला कंधे पर पूरी जिम्मेदारी और लेखकीय वजन के साथ लटका मिल जाता। आमतौर पर यह परिधान भी दूधनाथ जी में खूब फबता। और हमें भी लगता यह ‘युवा तुर्क' हमारे बीच में अभी देर तक रहेगा और अपने आलोचकों की छाती पर मूंग दलता रहेगा। कुछ लोग इस बात से सतत परेशान होते रहेंगे कि कहीं वे उनके लेखन के विषय तो नहीं बनने वाले हैं। और दूधनाथ जी अपनी लेखकीय मस्ती के साथ मुस्कुराते और अपनी हनक के साथ इलाहाबाद में नजर  आते रहेंगे। लेकिन यही तो उनकी अदा थी। किसी भी मीटिंग में जब वे आते लीक को तोड़ कर अपनी बात रखते जो लेखकों में चर्चा और वाद-विवाद का विषय बना रहता। इसीलिए उनके स्वास्थ्य के खराब होने की बात को सुन कर सहसा विश्वास नहीं हुआ कि स्थिति इतनी खतरनाक है और वे खरामा-खरामा अपने जीवन की नौका के साथ बिल्कुल उस किनारे तक पहुँच गए जहाँ से लौट कर आ पाना सम्भव नहीं होता। हमें तो यह पूरा विश्वास था कि वे हमेशा की तरह इस संकट से भी बाहर निकल आएँगे और हमारे बीच अपने चिर-परिचित मुस्कान के साथ होंगे।


         इलाहाबाद में शायद ही कोई ऐसा लेखक होगा जिसके पास दूधनाथ जी से जुड़ा खट्टा-मीठा-तीखा-चटपटा संस्मरण न हो। स्वाभाविक रूप से मेरे भी अपने हिस्से के संस्मरण हैं जो त्रिविमीय हैं। इस संस्मरण में


          


                                        निर्मला ठाकुर, दूधनाथ सिंह और निदा फाजली


अपने हिस्से के संस्मरण हैं जो त्रिविमीय हैं। इस संस्मरण में वह सब कुछ है जो मानवीय संबंधों में आमतौर पर होता है। हालाँकि लेखक के तौर पर हमारी बिसात उनके सामने कुछ भी नहीं थी। अपने दो कविता संग्रहों के छपने के बावजूद मैं उनकी प्रतिक्रिया से आमने-सामने वंचित ही रहा। सच कहूं तो बड़ी हिम्मत जुटा कर मैंने अपने संग्रह उनको दे तो दिए लेकिन फिर उसके बाद यह हिम्मत कभी नहीं पड़ीकि उनके जैसे कद्दावर लेखक से अपनी कविताओं के बारे में पूछ सकें कि ‘कविता की तरह की कुछ बात बन पाई है क्या?' अभी कुछ दिन पहले पत्रकार-लेखक और अग्रज धनञ्जय चोपड़ा से मिलना हुआ। स्वाभाविक रूप से दूधनाथ जी की चर्चा चलने लगी। धनञ्जय जी ने बताया कि एक बार डेली न्यूज एक्टिविस्ट अखबार के दफ्तर में (जहाँ दूधनाथ जी का अक्सर आना होता रहता था)समाचार पत्र के सम्पादक जे.पी. सिंह और सुधीर सिंह के साथ एक बातचीत में इलाहाबाद में कविता के क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे कवियों में उन्होंने हरीश चन्द्र पाण्डे के साथ मुझ नाचीज का भी जिक्र किया था। यह जान-सुन । कर मुझे काफी अच्छा लगा। और यह सुनने के बाद उस पुरबिया अभिभावक की तस्वीर उभर कर मेरे सामने आई जो अपनी सन्तान के सामने कभी भी उसकी तारीफ नहीं करता। शायद इसके मूल में यह अवधारणा है कि अपनी तारीफ सन कर वह कहीं बहक न जाए और हमेशा बेहतरी के लिए प्रयास करता रहे। एक सजग अभिभावक की तरह दूर से ही सही वे अपनी नजर मुझ पर बनाए रखे, यह मेरे लिए गर्व की बात है। हाँ, तारीफ की बात को अगर अलग कर दिया जाए तो हाल ही में जब उन्होंने पूछा था कि तुम्हारा अगला कविता संग्रह कब तक आ रहा है? अब आना चाहिए और ध्यान रखना किसी अच्छे प्रकाशन से ही इसे आना चाहिए। तो मैंने इसे ही उनका मेरे प्रति स्नेह मान लिया था।


       इलाहाबाद तब धीरे-धीरे सूना होने लगा था। साहित्यिक रौनक कछ फीकी सी पड़ने लगी थी। एकएक कर साहित्य के पुरोधा रुखसत होने लगे थे। संभवतः सन २००६ का वर्ष था। सत्ताईस मार्च की मनहूस तारीख थी वह। मैं चित्रकूट स्थित अपने महाविद्यालय मऊ से अभी अपने कमरे पर लौटा ही था। (जगराम चौराहे के पास स्थित इस कमरे में एक लम्बे अरसे तक मैं रहा।) अचानक मार्कंडेय जी का फोन आया। ‘सन्तोष तुरन्त मेरे पास आओ। सत्यप्रकाश नहीं रहे। उनके घर चलना है। मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।' सत्यप्रकाश जी के निधन की खबर हम सबको स्तब्ध करने वाली थी। मैं अपनी थकान को दरकिनार कर तुरन्त राजापुर की तरफ चल पड़ा जहाँ एकाकी कञ्ज में मार्कंडेय जी रहा करते थे। जब मैं एकाकी कुञ्ज पहुँचा ‘दादा काफी विचलित दिखे थे। हम



                               मार्कण्डेय, शेखर जोशी और दूधनाथ सिंह


 तुरन्तएक रिक्शा ले कर सोबतिया बाग की तरफ सत्यप्रकाश जी के घर की तरफ चल पड़े। दादा ने रास्ते में बड़े कारुणिक स्वर में कहा कहाँ सत्यप्रकाश मेरे शव को कन्धा देता। यह दुखद है कि मुझे उसके शव को कन्धा देना पड़ेगा।' सोबतिया बाग पहुँच कर हमने सत्य प्रकाश जी के पार्थिव शव के दर्शन किए। दादा ने शरीर को प्रणाम किया। कुछ देर मौन खड़े रहे और फिर मुड़ कर मुझसे बोले - ‘घर चलो।' लौटते हुए दादा ने जैसे मौन साध लिया था। मैं जान बूझ कर उनसे कुछ बोलने के लिए कुरेद रहा था। जबकि दादा थे कि शोक में निमग्न सब कुछ भूले हुए थे। घर पहुँच कर दादा ने मुझसे कहा 'सत्यप्रकाश ने हम सब को बहुत अकेला कर दिया है।' सत्यप्रकाश जी के निधन के पश्चात् एक और व्यक्ति जो बहुत अकेला हो गया था वे थे - दूधनाथ सिंह।


       सत्य प्रकाश जी के न रहने के बाद दूधनाथ जी का मार्कंडेय जी के यहाँ आना कुछ अधिक ही बढ़ गया था। झूसी स्थित अपने आवास से चल कर अक्सर अपनी कार से मार्कडेय जी के यहां आते रहते थे। अक्सर शनिवार और इतवार को मैं भी मार्कंडेय जी के यहाँ 'कथा' के काम के सिलसिले में जाता और पत्रिका का हफ्ते भर का रुका काम निबटाता। कभी-कभार ऐसा भी होता कि दूधनाथ जी से ।। वहाँ पर मुलाकात हो जाती। लाई-चना के दौर के साथ चाय के साथ तमाम बातें होती। जब उन दोनों लोगों की बात होती, मैं लगभग श्रोता की भूमिका में होता। मार्कंडेय जी अपनी भाव-भंगिमा के साथ अपने अतीत को जैसे पूरी तरह जीवंत कर देते। हँसी-ठहाकों के साथ माहौल जैसे रंगीन सा बन जाता। दूधनाथ जी अपने चिर-परिचित अंदाज में कहते ‘जानते हो कथक्कड़ी में गुरु की बराबरी करने वाला हिंदुस्तान में कोई नहीं। इस बात पर यकीन करो कि कथक्कड़ी में गुरु का कोई जवाब नहीं।' (दूधनाथ जी मार्कंडेय जी को 'गुरु' ही कहा करते थे।) बातचीत का दौर इतना रोचक होता कि अक्सर ही लम्बा खिंच जाता। और यह तभी थमता जब नजरें घड़ी की सुइयों की तरफ जातीं। फिर चलाचली की बेला आ जाती। दूधनाथ जी कहते-चलो अब तो 'कथा' का तुम्हारा काम भी हो गया होगा। ‘जी' मैं संकोच के साथ कहता। दूधनाथ जी अपने साथ अपनी कार पर मुझे बिठाते और जगराम चौराहे स्थित मेरे कमरे के सामने उतार कर तब अपने घर झूसी के लिए प्रस्थान करते। यह क्रम न जाने कितनी बार चला होगा मुझे अब खुद इसकी याद नहीं। बैठकी में चाहे कितनी भी देर अब खुद इसकी याद नहीं। बैठकी में चाहे कितनी भी देर हो गई हो, कभी ऐसा नहीं हुआ कि दूधनाथ जी मुझे मेरे हाल पर छोड़ कर चल दिए हों।


      यादों का सिलसिला अपने गडुमड़ प्रारूप में कुछ लंबा ही है। मैं कभी भी हिन्दी का औपचारिक छात्र नहीं रहा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, पुरातत्व और संस्कृति विभाग' से एम. ए. करने के बाद मैं विभाग में ही डी.फिल. करने लगा था। कविताएँ बचपन से ही लिखा करता था। इसलिए साहित्य से जुड़ गया था। बी.ए. करने के साथ ही मेरी कविताएँ तब के प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने लगी थीं। दादा ने बाद में पता नहीं क्या देख कर मझे ‘कथा' के सम्पादन से जोड़ लिया था। इसी क्रम में मैं तब के इलाहाबाद के नए-पुराने प्रतिष्टित रचनाकारों के सम्पर्क में भी आया। तो बात यह कि जगदीशपुर के जगदीश पीयूष ने अपने यहाँ एक गोष्ठी का आयोजन किया। जिसमें दूधनाथ जी के साथ धनञ्जय चोपड़ा और मुझे भी आमंत्रित किया गया था। तय हुआ कि दूधनाथ जी की कार से ही जगदीशपुर चलना है। रास्ते भर बातचीत का सिलसिला अबाध रूप से चलता रहा। अचानक बीच । रास्ते में दूधनाथ जी ने मुझसे पूछ लिया - संतोष तुम तो मेरे जिले बलिया के रहने वाले । हो। भोजपुरी से परिचित होगे और बोलते भी होगे। अच्छा यह । बताओ - भोजपुरी के ‘हलब्बी' शब्द का क्या मतलब होता है? में संकोच में था कि क्या जवाब दें। मेरी हिचक को देखते हुए ५ धनञ्जय चोपड़ा की तरफ देखते । हुए वे खुद ही बोल पड़े - ऐसी लड़की जो मोटी-ताजी होने के साथ सुन्दर भी हो, उसे हमारी  भोजपुरी में ‘हलब्बी' कहा जाता है। दिल्लगी का दूधनाथ जी का यह अपना अनूठा अंदाज था जिसमें युवा से युवा व्यक्ति से भी वे दोस्ताना सम्पर्क स्थापित करने की नायाब । तरकीब जानते, आजमाते और सफल रहते।


     मार्कंडेय जी के निधन के पश्चात् मैंने स्वतंत्र रूप । से अपनी एक नई पत्रिका 'अनहद' की शुरूआत कर दीजिसे पहले अंक से ही पाठकों का स्नेह मिला। यह मेरे लिए अविश्वसनीय था। मैंने दरअसल अपने को आजमाने के लिए ‘अनहद' को शुरू किया था। संभवतः मार्कंडेय जी के प्रशिक्षण का ही नतीजा था कि अंक को लोगों ने हाथों-हाथ लिया। ‘अनहद' के दूसरे अंक (जो जनवरी २०१२ में प्रकाशित हुआ था) में अशोक भौमिक का जैनुल आबेद्दीन की कला के बारे में एक विस्तृत आलेख छपा था। एक दिन अशोक जी का दिल्ली से फोन आया। संतोष तुम इलाहाबाद के प्रतिष्टित लेखकों को भी ‘अनहद' नहीं देते हो क्या। (अशोक जी संभवतः मेरी इस जिद से परिचित थे कि कम से कम समर्थ लेखकों को पत्रिकाएँ खरीद कर पढ़ना चाहिए।) मैंने पूछा - ‘दादा क्या हुआ। किसको नहीं दिया। आप नाम तो बताइए।' अशोक जी ने थोड़ी तल्खी से कहा - दूधनाथ जी को मैंने अपने आलेख के बारे में फोन किया था। दूधनाथ जी को जब मैंने बताया कि अनहद में मेरा एक आलेख जैनुल आबेदीन की कला पर छपा है, उसे पढिएगा, तो दूधनाथ जी ने कहा - कौन अनहद? अशोक जी अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बोलते रहे - 'जब मैंने उनसे कहा कि इस पत्रिका को संतोष चतुर्वेदी निकालते हैं। दूधनाथ जी ने आगे पूछा - कौन संतोष चतुर्वेदी? मैं उसे नहीं जानता न ही उसकी पत्रिका को।' शायद अशोक जी को यह पता नहीं था कि यही तो इलाहाबाद की अदा है। दूधनाथ जी मुझे तब व्यक्तिगत रूप से अच्छी तरह जानते थे। अपनी पत्रिका की शुरुआती प्रतियाँ मैं उन्हें देने खुद झूसी स्थित उनके घर जाता था। ऐसे में दूधनाथ जी का यह कहना वाकई मेरे लिए हताश करने वाला था। लेकिन दूधनाथ जी को मैं निकट से जानता था, इसलिए इस हताशा को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। बाद में किसी मौके पर उनका यह बोलना मुझे आज भी याद है कि जब तक किसी पत्रिका के चार-पाँच अंक सफलतापर्वक नहीं आ जाते तब तक उस पत्रिका के बारे में भरोसे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता।' हालाँकि बाद में एक मौके पर सुधीर सिंह ने बताया था कि गुरु का कहना है कि अनहद में सन्तोष की मेहनत साफ़ तौर पर देखी जा सकती है।' अनहद के बारे में दूधनाथ जी ने प्रत्यक्ष रूप से मुझसे कभी भी कुछ भी नहीं कहा। यहाँ भी दूधनाथ जी हमेशा मुझे एक पुरबिया अभिभावक के रूप में नजर आए।


      'अनहद' से ही जुड़ा एक प्रसंग और 'अनहद' के छठे अंक के लिए विजय मोहन सिंह पर एक संस्मरण दूधनाथ जी ने लिखा और हमारे आग्रह पर उस संस्मरण को 'अनहद' में छपने के लिए दिया। इस बात से प्रायः सभी परिचित हैं कि दूधनाथ जी एक उम्दा संस्मरणकार थे। नीलाभ अक्सर कहा करते थे, संस्मरण की उम्दा छटा देखनी हो तो दूधनाथ की किताब 'लौट आ ओ धार' जरूर पढ़नी चाहिए। बहरहाल 'अनहद' जब छपने के लिए। लगभग तैयार थी तभी गुरु का फोन आ गया - ‘सन्तोष, विजय मोहन वाला संस्मरण 'अनहद' में मत छापना। मैंने काशी नाथ के बारे में इसमें कड़ा व्यंग्य कर दिया है। काशी इसका बुरा मान जाएगा। अन्तिम समय में में सम्बन्ध खराब करना नहीं चाहता। मैंने कहा - ‘सर अगर आप चाहें तो हम उस अंश को संपादित कर देंगे। बाकी संस्मरण ज्यों का त्यों चला जाएगा। लेकिन गुरु उस संस्मरण को 'अनहद' में छपने के पक्ष में नहीं थे। एक हफ्ते के अन्दर लगभग पाँच- छः बार उनका फोन आया और हर बार वे मुझ से उसी पुरानी बात को दुहराते । जहाँ तक मुझे याद है, उस समय से ही गुरु का स्वास्थ्य बेपटरी होने लगा था। मैं विजय मोहन । सिंह पर केन्द्रित उस संस्मरण को ‘अनहद' में ‘स्मृति में है ऐसी आज जीवन' कालम के अंतर्गत बिल्कुल शुरू में ही दे रहा था। आखिरकार मैंने उनको आश्वस्त कर दिया कि आपका संस्मरण ‘अनहद' में नहीं जाएगा। आप बेफिक्र रहें। ‘अनहद' का अंक । • रचनाकारों जब आया तो स्वाभाविक रूप से । पत्रिका में उनका संस्मरण नहीं में था। पता नहीं किससे उन्होंने इस बात की शिकायत की कि देखो _ * संतोष ने मेरा संस्मरण 'अनहद' में नहीं छापा।


       ऐसे ही एक और घटना की याद आ रही है। मैं सुबह-सुबह अपने कॉलेज पहुँचा ही था कि दूधनाथ जी का फोन आया। अपने चिरपरिचित अंदाज में बोले - 'क्यों जी, तुमने शिव बचन चौबे को कैसे कह दिया कि ‘पक्षधर के अगले अंक में उनकी कहानी जा रही है?' मुझे काटो तो खून नहीं। थोड़ी सी झल्लाहट भी हुई। मैंने कहा - ‘सर, मैं किस हैसियत से शिवबचन जी की किसी भी रचना के ‘पक्षधर' पत्रिका में छपने-न छपने के बारे में बात करूंगा। ‘पक्षधर' के सम्पादक विनोद तिवारी हैं। आप संस्थापक सम्पादक हैं। यह बात मैं भलीभांति जानता हूँ। मैंने इसी क्रम में उनसे कहा कि शिव बचन जी से इधर मेरी कोई बात भी नहीं हुई। आप उनसे पूछ कर मुझ से बताइए कि मैंने उनसे इस संदर्भ में कब बात कि। खैर, दूधनाथ जी तब कुछ नरम पड़े। अच्छा ये बात है। ठीक है- कह कर उन्होंने फोन रख दिया। फिर ये बात आई गई हो गई।


      देश के शीर्षस्थ रचनाकार होने के बावजूद वे हमारे लिए सहज ही उपलब्ध रहते थे। मुझे याद है कि २०१४ में इलाहाबाद में जनवादी लेखक संघ का राष्ट्रीय अधिवेशन होना तय हुआ था। कामरेड सुधीर के नेतृत्व में हम सब इस आयोजन की तैयारियों में लगे हुए थे। समय-समय पर दूधनाथ जी हालैण्ड हाल आते और तैयारियों का जायजा व्यक्तिगत रूप से लेते रहते। इलाहाबाद में जनवादी लेखक संघ की छोटी-छोटी गोष्ठियों में भी हमारे बुलाने पर वे बेहिचक आते और नए से नए रचनाकार के लेखन पर खुल कर बात करते और अपने सुझाव देते। ऐसी ही एक गोष्ठी दो बिल्कुल नई लड़कियों की रचनाओं पर केन्द्रित की गई थी। वर्धा सेंटर के हाल में आयोजित इस गोष्ठी के संचालन का जि की जिम्मेदारी में संभाल रहा था। मैं अन्दर से थोड़ा डरा हुआ था कि इन नए रचनाकारों को दूधनाथ जी ने अगर एकदम से खारिज कर दिया तो खिलने के पहले ही ये पुष्प मुरझा जाएँगे। क्योंकि हम सब जानते थे कि दूधनाथ जी झूठी तारीफें नहीं करते और अपनी बातें हमेशा बेबाकी से रखते थे। खैर गोष्ठी आरम्भ हुई। श्रद्धा मिश्रा ने अपनी कविताएँ सुनाईं जबकि भाविनी त्रिपाठी ने अपनी लघु कहानी पढ़ी। अन्त में अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में दूधनाथ जी ने दोनों रचनाकारों के अन्दर छिपी रचनात्मकता को न केवल रेखांकित किया बल्कि बेहतर लिखने के महत्वपूर्ण टिप्स भी दिए। यही नहीं, इन दोनों बिल्कुल नए-नवेले रचनाकारों को उन्होंने अपना व्यक्तिगत मोबाइल नंबर भी दिया और आगे भी सुझाव के लिए उन्होंने फोन करने के लिए कहा। इधर दूधनाथ जी को किसी ने स्मार्ट फोन दिला दिया था। कुछ ही दिनों में वे फर्राटे से व्हाट्सएप और फेसबुक पर अच्छे-खासे सक्रिय हो गए थे। ऐसा लगता है कि वे इन अत्याधुनिक माध्यमों की ताकत से भलीभांति परिचित  थे। इसीलिए उन्होंने अपनी तरफ से इसे बेहिचक एक रचनात्मक मंच बनाने की कोशिश की। व्हाट्सएप पर वे नए रचनाकारों की कविताएँ देखते और इस माध्यम से भी वे उन्हें बेहतर लिखने के टिप्स अक्सर देते रहते।


      अपनी डायरी में दूधनाथ जी ने एक जगह लिखाहै - ‘मेरा एकांत बहुत बलवान था। अत्यधिक डर और खतरे ने मुझे दुस्साहसी बनाया। उसमें कुछ भी हो सकता था। लेकिन अकेलेपन ने, मेरे एकांत ने मुझे दुनिया के प्रति आस्थावान बनाया, आगे बढ़ने के लिए मजबूर किया। इसमें कई बार गिरा, क्षत-विक्षत हुआ, अपमान, गलाजत और दुर्व्यवस्थाएं झेलीं। मरते-मरते बचा। लेकिन एकांत ने मुझे हमेशा चुनौती दी। जैसे डूबता हुआ आदमी हमेशा अपनी नाक पानी से बाहर लाना चाहता है कि वह सांस ले सके। उसी तरह हर घबराहट, असफलता और अवसाद ने मुझे गहरे ताल से निकाल कर जीवन और कर्मठता कीतरफ धकेला। हर बार डूबते-डूबते एकाएक में बाहर आया और भाग निकला...।' यह कथन इस मायने में महत्वपूर्ण है कि हमारे यहाँ इस समय घोर रचनात्मकता विरोधी माहौल है। एक अजीब से उन्माद और मूर्खताओं में लोग जीवन खत्म कर लेते हैं। बेसिर पैर की बातें करने का जैसे फैशन चल पड़ा है। ऐसे में रचनात्मक व्यक्ति अपने को अकेला पाने लगता है। इस अकेलेपन के कई खतरे होते हैं। बावजूद इसके, अकेलापन किसी भी रचनाकार के लिए नेमत की तरह होता है। क्योंकि किसी भी सृजन या फिर रचना के लिए एकांत बहुत जरूरी होता है। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने ऐसे ही नहीं लिखा होगा - ‘जोदि तोर डाक युने कोई ना आबे, तोबे एक्ला चलो रे।' रचनाकार की राह ऐसे ही खतरों से भरी होती है। जो इस खतरे को उठा कर आगे बढ़ जाता है, वही बेहतर रचना-कर्म कर पाता है। दूधनाथ जी ने अपने इस एकांत का सदुपयोग आगे बढ़ने के लिए किया और इसी क्रम में वे हमें एक से बढ़ कर एक बेजोड कृतियाँ दे गए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से रिटायर होने के बाद दूधनाथ जी और अधिक रचनात्मक हुए। इसी क्रम में मुक्तिबोध, महादेवी वर्मा और भुवनेश्वर पर केन्द्रित उनके महत्वपूर्ण काम सामने आए। मरने के कुछ ही दिन पहले संस्मरणों की उनकी पुस्तक 'मैं सबको अमर देखना चाहता हूँ।' प्रकाशित हो कर इलाहाबाद के साहित्य भण्डार प्रकाशन से आ गई थी। सुधीर ने बताया कि मरने के पहले धीरेन्द्र वर्मा रचनावली जैसा महत्वपूर्ण काम वे पूरा कर गए हैं जो अपने प्रकाशन की बाट जोह रही है।


      डेढ़ दो साल पहले उनकी सहधर्मिणी निर्मला जी का निधन हो गया था। इसके बाद वे और अकेले पड़ गए थे। इसके बावजूद उन्होंने इलाहाबाद नहीं छोड़ा। कुछ महीने पहले ही उनके प्रोस्टेट कैंसर की बात पुष्ट हुई थी। लगता है, इसके बाद वे हौंसला हारने लगे थे। रजा फाउन्डेशन के कार्यक्रम में मैं जब दिल्ली गया था तो वहाँ मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने कहा “आप लोग दूधनाथ जी को ढाढस बंधाइए। कैंसर की वजह से वे अपनी हिम्मत हारने लगे हैं। हमेशा संघर्षरत रहने वाले, अपनी लीक खुद बनाने वाले इस अपराजेय योद्धा को इस रूप में देखना हमारे लिए बहुत कष्टकारी था। मेदान्ता से लौट कर वे इलाहाबाद के फीनिक्स हास्पिटल में भरती हुए। उनका कष्ट दिल दहला देने वाला था। वैसी स्थिति में उनकी तस्वीर ले पाने का साहस भी में नहीं कर पाया। एक योद्धा लौट रहा था, उस राह पर जिस पर जाने वाला फिर कभी वापस नहीं लौटा। आज हमारे बीच दूधनाथ जी नहीं हैं, यह विश्वास कर पाना मुश्किल है। यह उनकी सक्रियता और कर्मठता की ही परिणति है। तमाम मानवीय कमियों के बावजूद एक लेखकीय उम्दापन उन्हें औरों से बिल्कुल अलग और खूबसूरत बना देता था। वे जब तक जिए, अपनी ठसक के साथ जिए। वे जब तक जिए जिए जनपक्षधर रहे। वे जब तक जिए, मनुष्यता के लिए संघर्षरत रहे। अब यह जिम्मेदारी हम सबके कन्धों पर है। हमें ही उनके काम को आगे बढ़ाना है।


     फैज़ अहमद फैज़ उनके पसंदीदा शायर थे। वे अक्सर उनकी पंक्तियों को गुनगुनाते रहते थे। उनकी फेसबुक वाल पर संयोग से अन्तिम पोस्ट फैज की पंक्तियों की ही है।


                           रक्से-मय तेज़ करो, साजू की लय तेज करो


                             सू-ए-मयखान सफीराने - हरम आते हैं।


       यहाँ फैज़ बगावत के नशे को तेज करने की बात कर रहे हैं। बगावत का यह आह्वान दरअसल उन संकीर्णताओं के खिलाफ है जो मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देतीं। आज जब कि दिक्कतें और अधिक हैं। कट्टरपंथी ताकतें और मजबूत हुई हैं। ऐसे में यह आह्वान और अधिक सामयिक बन गया है। दूधनाथ जी इन पंक्तियों के साथ एक रचनाकार के दायित्व को आगे बढ़ाने की बात कर रहे हैं। अपने पसंदीदा शायर की मौजू इन पंक्तियों को समय के साथ सदर्भगत करना दूधनाथ जी के ही वश की बात थी। ।


                                                                         सम्पर्क : 58, नया ममफोर्डगंज,  इलाहाबाद-211002,                                                                                               उत्तर प्रदेश मोबाइल : 9450614857,                                                                                               ई-मेल : santoshpoet@gmail.com