संस्मरण'-इलाहाबादी स्मृतियों में रचे-बसे हैं दूधनाथ -डॉ. धनंजय चोपड़ा

२ जुलाई, १९६६ को इलाहाबाद में जन्म। हिन्दी और पत्रकारिता व जनसंचार विषयों में स्नातकोत्तर उपाधि। लगभग १२ पुस्तकें प्रकाशित एवं अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। बाबूराव विष्णु पराड़कर पुरस्कार एवं धर्मवीर भारती पुरस्कार, लक्ष्मीकान्त वर्मा पुरस्कार। पचीस वर्षों से अधिक समय तक सक्रिय पत्रकारिता करने के बाद वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेण्टर ऑफ मीडिया स्टडीज में पाठ्यक्रम समन्वयक पद पर कार्यरत।


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‘तो लो अभी मरता हूं / झरता हूं / जीवन / की डाल से / निरंतर हवा में / तरता हूं / स्मृतिविहीन करता हूँ / अपने को '' अपनी मृत्यु से बहुत पहले इन पंक्तियों को रचने वाले दूधनाथ सिंह को इलाहाबाद कभी भी अपना स्मृतियों से अलग नहीं कर सकता। इलाहाबाद उनमें रचा-बसा था और वे इलाहाबाद में। शायद यही वजह है कि आज भी यह विश्वास कर पाना मुश्किल है कि अब इलाहाबाद के साहित्यिक आयोजनों में उनकी ठसक भरी आवाज सुनने को नहीं मिलेगी।


           मेरे लिए दूधनाथ सिंह का न होना कई मायने रखता है। मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उनका विद्यार्थी तो नहीं रहा, लेकिन हमारी पीढ़ी के लिए वे गुरू थे। लिखने और कहने की कला के कई-कई अध्याय हमने उन्हीं से पढ़े। वे प्राय: दोस्ती वाले अंदाज में होते थे। अखबार में काम करते समय में जब भी मैं उनसे मिला, वे साहित्यकार की तरह कम, एक अभिभावक की तरह अधिक मिले। मुसीबत में हूं, यह पता चलता तो झट से फोन करते । जता तो देते ही कि अपने को अकेला मत समझना। हम हैं और पूरी जिम्मेदारी के साथ हैं। पहली बार जब मिला था तो उनका एक साक्षात्कार लेना था। तैयारी से गया था, सो बहुत खुश हुए। दोबारा फिर पहुंचा तो थोड़े संकोच के साथ फिर बातचीत की। कुछ दिनों के बाद फिर साक्षात्कार लेने पहुंच गया तो टोक दिया कि क्या इलाहाबाद में मैं ही हूं, जो हर बार बात करने मेरे पास आ जाते हो। पूछा“मुझसे बात करके क्या मिलेगा?' जवाब दिया-६०० रुपए और कुछ नई जानकारी।' ‘क्या मतलब?' 'आपका साक्षात्कार मेरे अखबार के साहित्यिक पृष्ठ पर छपेगा तो अलग से ६०० रुपए मिलेंगे। और नई-नई जानकारी तो आप देंगे ही।' ‘तो चलो, शुरू करो बातचीत।' उसके बाद तो खुद ही फोन करके बताते कि फलां विषय पर लिखो, बेहतर आलेख बनेगा और छपेगा भी। मेरा साहित्यिक कॉलम ‘ताना बाना' तो उनके जिक्र के बिना अधूरा सा ही लगता है। १९९६ से २०१८ तक लगातार (पहले ‘हिन्दुस्तान' और  फिर 'डेली न्यूज एक्टिविस्ट' हिन्दी दैनिक में) हर सप्ताह प्रकाशित होने वाले इस कॉलम में दूधनाथ सिंह न हों, यह थोड़ा अटपटा सा लगता था। कभी उनके पक्ष में तो बहुत बार विपक्ष में टिप्पणियां होती थीं, लेकिन वे सहज भाव से उन सबका आनंद लेते और हमेशा प्रोत्साहन देते ही मिलते। यही वह औरा था, जिसके माध्यम से हमने बड़े रचनाकार को परिभाषित करना सीखा। ‘नमो अंधकार और फिर निष्कासन' के समय तो ‘ताना बाना' में उनके विरुद्ध मोर्चा ही खुला था, लेकिन वे कभी उससे असहज नहीं हुए। कभी-कभी तो स्वयं ही फोन करके कॉलम के लिए रोचक टिप्पणी बताया करते थे। उद्देश्य केवल इतना होता था कि इलाहाबादी अंदाज में साहित्यिक चुहल लिया जाए। कुछ बरस पहले जब वे जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुए तो उन्होंने सभी लेखकीय संगठनों को मिलकर काम करने का आह्वान किया। मैंने अपने कॉलम में उनकी सबको साथ लेकर चलने की बात को कठिन बताकर संशय जता दिया। कई तो विरोध में आ गए, लेकिन दूधनाथ जी ने उस सहजता से लेते हुए कहा कि उसने एक पत्रकार का धर्म निभाया है। उसके लिखे में मुझे तो कुछ भी गलत नजर नहीं आता।


        जब मूड में होते तो मुझे कालिया का चेला कहकर । बुलाते। वह इसलिए कि मैंने गंगा यमुना साप्ताहिक में कलिया जी के सानिध्य में रहते हुए अपनी पत्रकारिता का प्रारम्भ किया था। मैं बड़े गर्व से यह बताया भी करता था। कालिया जी और दूधनाथ जी की दोस्ती तो सबको पता । है। मैं दोनों से ही मिलता था। दोनों में से किस ने भी कभी भी किसी का विरोध करने को नहीं कहा। हां, कभी-कभी हम भी दोनों के बीच चलने वाली साहित्यिक चुहल का हिस्सा अनजाने में ही बन जाया करते थे। यह दोनों का ही प्यार था कि मेरे व्यग्य संग्रह का विमोचन करने दोनों ही साथ-साथ मंच पर रहे। मैं दावा तो नहीं करता, लेकिन शायद वह अंतिम कार्यक्रम था जिसमें दोनों यार एक साथ मंच पर थे।


                                                 


                                                                         दूधनाथ जी के साथ धनंजय


 


मुझे याद है कि हिन्दुस्तानी एकेडेमी में कथाकार शेखर जोशी को पहल सम्मान दिए जाने के लिए समारोह था। देश भर से तमाम छोटे-बड़े साहित्यकार जुटे थे। मैं उन दिनों हिन्दुस्तान में कार्यरत था। समारोह को कवर करने जब मैं एकेडेमी पहुंचा। । मुख्य अतिथि का इंतजार हो रहा था और अपने दूधनाथ सिंह साहित्यिकों से धिरे अपने ही अंदाज में कुछ बतिया रहे थे। मुझे देखते ही बोले -‘चुप..चुप...चुप,.....आ गया। इसके आगे कुछ न बोलना। सब लिख देगा।' फिर मुझे सबके सामने करते हुए बोले - ‘ये धनंजय है......' और एक ही झटके में इतने बेहतर ढंग से उन सभी साहित्यकारों को मेरा परिचय दिया कि मैं दंग रह गया। यह कहने में भी कोई गुरेज नहीं किया कि 'इसका कॉलम खूब पढ़ा जाता है, जिसमें यह मेरी खिंचाई करता रहता है।'....एक अल्हड़ इलाहाबादी हंसी और सब कुछ सहज। यही तो खूबी थी उनकी।


          साहित्यिक हो या फिर सामाजिक या राजनीतिक मुद्दा। अखबार में इलाहाबाद से दिल्ली टिप्पणी जानी है तो उसमें दूधनाथ सिंह पहले नम्बर पर होते थे। मन से बोलते और बेबाक बोलते। मुझे याद आ रहा है वह दौर जब कथाकार राजेन्द्र यादव के वर्तमान साहित्य में छपे आलेख ‘होना सोना....' पर घमासान मचा हुआ था। हर साहित्यकार की टिप्पणी हमारे अखबार के साहित्यिक पृष्ठ पर छप रही थी और देश भर में पढ़ी जा रही थी। हर कोई या तो बच-बचकर टिप्पणी कर रहा था या बैलेंस करके चल रहा था। दूधनाथ बोले और खुलकर राजेन्द्र यादव के पक्ष में खड़े रहे। बेबाकी से कहा-‘चरित्र घटिया है तो खुलना चाहिए'। वे कहते-‘जो रचता है वो जोखिम उठाता है। मैंने नमो अंधकारम में खुद अपनी काफी दुर्दशा की है। उस पर शायद लोगों का ध्यान नहीं गया।....दरअसल यह हमारा टुटपुंजिया मध्यवर्गीय चरित्र है। आखिर कितने लोग जानते हैं कि किस रचना में कौन समाया हुआ है। असली बात तो ये है कि सब कुछ के बावजूद रचना बनती है या नहीं।...'


         बात शुरू करते तो फिर रौ में आ जाते। पता ही नहीं चलता कि कहां पहुंचे और कितना समय बीत गया। एक बार अमेठी से जगदीश पीयूष जी द्वारा आयोजित सेमिनार में जाना था। पता चला कि दूधनाथ जी अपनी कार से वहां जा रहे हैं। हमने उनके साथ हो लेने की बात कही और वे सहज ही तैयार हो गए। उस दिन कवि संतोष चतुर्वेदी भी हमारे साथ थे। दूधनाथ जी हों और किसी मुद्दे पर गम्भीर चर्चा न हो, यह हो ही नहीं सकता था। बातचीत की गहमा-गहमी में वे अपने ड्राइवर को यह बताना ही भूल गए कि अमेठी जाना है। उसे बस इतना पता था कि लखनऊ रूट पर चलना है और लखनऊ रूट पर चलना है और । आगे दूधनाथ जी बताएंगे कि कहां से मुड़ना है। अब दूधनाथ जी को । काहे ध्यान आए ....हम दोनों भी उनकी बात सुनने में मस्त। वो तो एक दुकान के बोर्ड पर लिखा दिखा कि जनपद राय बरेली तो पता चला कि हम सब बहुत आगे निकल आए हैं। पीछे लौटे... पहला सत्र बीत जाने के बाद वहां है पहुंचे हम सब। सत्र तो छुट गया, लेकिन यात्रा के दौरान चला सत्र इतना मसालेदार और सूचनाओं के जखीरे से भरा था कि कोई गम नहीं हुआ। यादगार थी वह यात्रा। पूरी यात्रा में वे कथाकार दूधनाथ सिंह के साथ-साथ ठेठ इलाहाबादी अंदाज में एक अभिभावक की भूमिका में भी पेश आए। एक रोचक बात और..अमेठी से लौटते समय खेत से कुछ मूली और पत्ते वाला प्याज खेत से निकलवाकर कार में रखवा दिया। इसमें कुछ मार्कण्डेय जी को भी देने के लिए कहा। हम इलाहाबाद पहुंचते ही पहले मार्कण्डेय जी के यहां पहुंचे। दूधनाथ जी ने उन्हें गोष्ठी का पूरा हाल किसी कमेंट्री की तरह सुनाया। दूधनाथ जी ने उन्हें पीयूष जी की सौगात सौंपने के बाद मुझे भी दो प्याज दिए और कहा जाओ आज पति-पत्नी ‘एक आलू और दो प्याजा' वाली सब्जी बनाना...फिर जोरदार ठहाका लगाया।


        उनको पता चला कि मैं और कथा लेखिका अनीता गोपेश ने तय किया है कि जब मिलेंगे इलाहाबादी में ही बात करेंगे तो बोले-‘क्या बे, तुम्हीं को आती है क्या इलाहाबादी। हम भी बोल सकते हैं।' शर्त लगी कि अब लगातार इलाहाबादी में ही बात होगी। कुछ ही देर में वे मुकर गए और बोले तुम अनीता से ही इलाहाबादी में बात करो, बड़ी कठिन है यार। मुझे जब भी इलाहाबादी बोलते सुनते तो कहते कि इलाहाबादी में कहानी लिख डालो, खूब पढ़ी जाएगी। नया ज्ञानोदय में प्रकाशित कहानी 'हाय रब्बा, विन्द्रो मर गई' में मैंने इलाहाबादी शब्दों का प्रयोग किया तो खुश हुए और कई सुझाव दे डाले। वे हमेशा कहते लेखन में नए-नए प्रयोग होने चाहिए। लिखने वाला नया प्रयोग करें और फिर पाठकों-श्रोताओं में शामिल होकर अपने लिखे को परखे और बिना लाग-लपेट के टिप्पणी दे, तभी असली रंग जमता है।


        एक मजेदार घटना और याद आ रही है। संग्रहालय में गोष्ठी चल रही थी। प्रो. सत्य प्रकाश मिश्र संचालन कर रहे थे और हर वक्ता को बुलाने से पहले वे लम्बी भूमिका बनाते समय कम होने का हवाला देकर वक्ता से संक्षिप्त में बोलने का आग्रह करते। दूधनाथ सिंह को चहल सूझी। उन्होंने बगल में बैठे लक्ष्मीकांत वर्मा को यह कहते हुए समय कम है तो संचालक को लम्बीउकसा दिया कि यदि समय कम है तो संचालक को लम्बीलम्बी भूमिका नहीं बनानी चाहिए। वक्ता से ज्यादा समय तो वही बोल रहे हैं (जबकि ऐसा नहीं था, गोष्ठी बड़े ही बैलेंस तरीके से आगे बढ़ रही थी..बस सभागार में नीरसता छायी हुई थी)। एक दो बार तो लक्ष्मीकांत जी ने अनसुना कर दिया, लेकिन अंत में वे दूधनाथ के उकसावे में आ ही गए। खड़े होकर सत्यप्रकाश जी को यह कहते हुए टोक ही दिया कि-'वक्ता से ज्यादा तो तुम बोल रहे हो, ऐसा दूधनाथ का भी मानना है।' इतना सुनना था कि दूधनाथ दोनों हाथ हवा में लहराते हुए बोले कि- 'न..न..मैंने कु कहा ही नहीं, मुझे कहना होता तो खुद कहता। यह मुंशी जी का अपना विचार है। हां..यह बात और है कि यह कह ठीक रहे हैं।' पूरा हाल हंस पड़ा और तालियां गूंज उठी। दूधनाथ सिंह सभागार की नीरसता भंग करने में सफल हो चुके थे।


                                                 


                                                 धनंजय की पुस्तक के विमोचन के अवसर पर यश मालवीय, रवीन्द्र कालिया और दूधनाथ सिंह


 


सत्यप्रकाश जी दोनों को बखूबी जानते थे..सो मुस्कुराए और गोष्ठी को आगे बढ़ा दिया।


       हिन्दी संस्थान से जिस वर्ष उन्हें भारत भारती सम्मान मिला, उसी बरस मुझे पराड़कर पुरस्कार मिला। हम दोनों एक ही ट्रेन से लखनऊ के लिए रवाना हुए। रास्ते में मेरी निगाह कई बार उनकी ओर गई। वे अपने सबसे प्रिय शिष्य सुधीर सिंह की बगल की सीट पर चपचाप किसी सोच में नजर आए। यह वह समय था जब निर्मला जी का देहांत हुए कुछ ही दिन बीते थे। इतना चुप बहुत कम ही वे दिखते या मिलते थे। बहरहाल लखनऊ पहुंचते ही उन्होंने किसी को इस बात का अहसास नहीं होने दियाकि वह किसी दख या कष्ट में हैं। मंच पर उन्होंने ही मझे शाल उढ़ाया और कहा कि तुम्हारा सम्मान होना मेरे ही हाथों होना लिखा है। मैंने भी तपाक से कहा तो क्यों न पचास हजार की चेक को मैं आप वाली पांच लाख की चेक से बदल लें। जोर से हंसे और बोले समाजवादी चेक है। समझो और मायने निकालो। ऐसी अनगिनत यादें हैं, जो इस बात की तस्दीक करती हैं कि हां हम उस समय में थे, जब दूधनाथ सिंह जैसे रचनाकारों के साथ इलाहाबाद मस्ती में ठहाका लगाया करते थे।


     दूधनाथ की रचनाओं को पढ़ते हुए वे मुझे कथाकार से कहीं अधिक एक सधे हुए पत्रकार लगते थे। यह सच कि उन्होंने अपने प्रारम्भिक दिनों में एक अखबार में काम किया था। उनके भीतर का खबरची कुलबुलाता रहता था। और अक्सर बाहर आकर तहलका मचा देना चाहता था। शायद यही वजह थी कि आपातकाल के दौरान उन्होंने ‘पक्षधर' नामक साहित्यिक पत्रिका निकाली। कम समय ही उसकी सम्पादन नीतियों ने तहलका मचा दिया। उसके प्रकाशन पर पाबंदी लगा दी। गई। यह दूधनाथ जी की पत्रकारीय बाद में उसे उनके और सत्यप्रकाश जी के शिष्य विनोद तिवारी ने प्रकाशित करना शुरू कर दिया जो आज भी निकल रही है। अखबार के दफ्तर में गप्प मारना उनका प्यारा शगल था। वे कहते ‘सबसे सुकून की जगह है यह। यहां हम किसी को भी ललकार देने की ताकत से रूब-रू होते हैं, चाहे वह कोई भी हो। गलत मायने गलत।' वे यह भी कहते कि मास्टर न होता तो पत्रकार ही होता।


      उनके पास अद्भुत लेखन शैली थी, जिसके माध्यम से वे अपने समय और समाज को बखूबी दर्ज करने में तो लगते ही, साथ ही उस ढोंग पर तीखा प्रहार भी करते जो हमारी सामाजिक संरचना का हिस्सा बनता जा रहा है। आखिरी कलाम हो या फिर लौट आओ धार, हर रचना में वे अपने समय की विसंगतियों पर प्रहार करते मिलते हैं। वे हर संभव कोशिश करते थे कि अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकों और नए रचनाकारों को नई भाषा दे सकें, नई शैली दे सकें और सोच-विचार के नए व परिपक्व आयाम भी। दूधनाथ सिंह का मन इलाहाबाद में ही रमता था। वे इलाहाबादी अंदाज में अपने पीछे आ रही पीढ़ियों को तैयार करते रहे। जब भी कुछ नया छपता तो फोन करते‘क्या बे.....कालिया के चेले....बहुत बढ़िया लिखा...खूब लिखो..लिखते रहो'। इंतजार रहता था उनके फोन का। आज भी रहता है...।।


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