मंचन - बोलियों के रंगमंच में उभरा महिलाओं का दर्द - पंकज स्वामी

पंकज स्वामी जबलपुर में रहते हैं। नाट्य समीक्षा और साहित्य में इनका दखल है। वह हिन्द की चर्चित पत्रिका 'पहल' से भी जुड़े हैं।


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समागम रंगमंडल ने वर्ष के अंतराल के पश्चात् ११वां कश्यप झा स्मृति नाट्य समारोह २४ से २७ फरवरी के मध्य जबलपुर में आयोजित किया। इस बार का नाट्य समारोह विख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के निकटस्थ साहित्यकार डा. रामशंकर मिश्रा को समर्पित था। नाट्य समारोह का उद्धाटन पहल के संपादक ज्ञानरंजन, कवि मलय और कथाकार राजेन्द्र दानी ने किया। नाट्य समारोह की थीम थी- ‘बोलियों का रंगमंच और रंगमंच की बोलियां।' नाट्य समारोह के समापन के समय निर्देशक आशीष पाठक का यह वक्तव्य महत्वपूर्ण था कि भविष्य में नाट्य समारोह का आयोजन किया जाए या आयोजन की ऊर्जा को बचा कर वर्ष भर नई नाट्य प्रस्तुतियां की जाए। उन्हें इस बात का बोध हो 


                                                             


गया कि नाट्य समारोह समारोह को आयोजित करने से बेहतर है कि पूरी ऊर्जा के साथ नाटकों का मंचन किया जाए। चार दिवसीय नाट्य समारोह में लाल पान की बेगम, तीसरा मंतर, लाला हरदौल और अगरबत्ती की प्रस्तुति हुई। चारों प्रस्तुतियों में महिलाओं की अस्मिता व संघर्ष का मुद्दा मुखरता के साथ उभरा। लाल पान की बेगम की बिरजू की मां, तीसरा मंतर की नाग कन्या, लाला हरदौल की चम्पावती और अगरबत्ती की सभी विधवाएं अपने-अपने स्तर व परिवेश में संघर्ष कर रही हैं। प्रस्तुतियां देश की विभिन्न आंचलिकता को समेटे हुईं थीं।


     नाट्य समारोह का पहला मंचन ‘प्रस्तुति' पटना के द्वारा लाल पान की बेगम से किया गया। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी बिरजू की मां पर केन्द्रित है। बिरजू की मां के कई सपने हैं। उसकी बैलगाड़ी पर नाच देखने जाने की इच्छा नाटक में प्रतीक के रूप में अभिव्यक्त होती है। लाल पान की बेगम परिस्थतियों, पात्रों व परिवेश के मध्य विकसित हो कर निर्णायक मोड़ पर पहुंचती है। कहानी के साथ नाटक की विशेषता यह है कि साधारण कथ्य को असाधारण संवेदनशीलता से भर देता है। परिस्थितियों व उनके अनुरूप मानवीय व्यवहार का चित्रण लाल पान की बेगम मूल का मूल संदेश माना जा सकता है। परिस्थितियों में मानवीय संवेदना, प्रेम व आपसी संबंधों की भावना कुछ समय के लिए। दूर हो जाते हैं,


                                                    


लेकिन अपनापन व मिल जुलकर रहने की भावना अदम्य होती है। विपरीत परिस्थिति में बिरजू की मां अनमनी हो जाती है, लेकिन अनूकूल परिस्थिति होते ही वह सहज हो जाती है। शारदा सिंह ने कहानी में व्यक्त जीवन की सहज यथार्थ चित्रण, ग्रामीण सरलता, राग-द्वेष, खीझ, झुंझलाहट और छोटी सी चीज में जीवन की उमंगता को नाट्य प्रस्तुति में बरकरार रखा। लाल पान की बेगम में सुमन कुमार, सौरभ कुमार, विनीता सिंह और ऋषिकेश झा ने अपने पात्रों को कुशलता के साथ निभाया। शारदा सिंह ने बिरजू की मां के पात्र का अभिनय ठहराव के साथ किया। कई दृश्यों में शारदा सिंह जैसी अनुभवी कलाकार का साड़ी को बार-बार नीचे करते हुए झिझकना समझ से परे रहा। नाटक में मंच व प्रकाश परिकल्पना कहानी की पृष्ठभूमि को उभारने में सहायक सिद्ध हुई। नाटक में बिरजू व चंपिया के मां की गोद में सोते हुए जैसे कुछ दृश्य संयोजन अद्भुत रहे।


समारोह की दूसरी प्रस्तुति सघन सोसायटी भोपाल की तीसरा मंतर की रही। मिथकीय रंग से भरी हुई यह प्रस्तुति वाराणसी के राजा सेलक और नागराज के आसपास घूमती है। तथागत बुद्ध की खरपुत्र जातक आधारित नाटक का लेखन योगेश त्रिपाठी और निर्देशन संजय उपाध्याय ने किया। तीसरा मंतर नाटक में बुद्धत्व पूर्व बोधिसत्व के रूप में उनके जीवन से जुड़ी ज्ञान, दान, शील, मैत्री, सत्य जैसी दस परिपूर्णताओं के उत्थान के प्रति उनके सतत् समर्पण का बोध कराती है। नाटक की खास बात जटिलता को सरलता से प्रस्तुत करना रहा। इस नाटक में राजा सेलक और नागराज के मध्य नाग कन्या और राजा सेलक व उनकी रानी का अंतर्द्वद मानव स्वभाव के अलग-अलग भावों को स्पष्ट रूप से दर्शक के सामने लाता है। संजय उपाध्याय की प्रस्तुतियों में संगीत विशेष पक्ष रहता है और इसकी जिम्मेदारी यहां भी उन्होंने सफलतापूर्वक अदा की है। तीसरा मंतर में राजा के रूप में योगेश तिवारी ने उत्कृष्ट भूमिका निभाई। उनकी मंच में प्रविष्टि व प्रस्थान से नवोदित कलाकारों को सीख लेनी चाहिए। योगेश तिवारी ने अगली प्रस्तुति लाला हरदौल में भी पहाड़ सिंह की कुटिल भूमिका कुशलता के साथ निभा कर अपना प्रभाव छोड़ा।


       समारोह की तीसरे दिन हम थिएटर भोपाल द्वारा ‘लाला हरदौल' का मंचन किया गया। हरदौल बुंदेलखंड में पूजे जाते हैं। घरों में मांगलिक कार्यों में लाला हरदौल की समाधि पर जा कर आमंत्रित करते हैं। दरअसल बुंदेलखंड के इस अनोखे पात्र की जिंदगी की कहानी ही कुछ ऐसी है, जिसे बार-बार रंगमंच पर अलग-अलग तरीके से मंचित करने की कोशिश होती रही है। नौवे दशक में जबलपुर में अरूण पाण्डेय ने हरदौल को हिंदी रंगमंच में पहली बार प्रस्तुत किया। श्याम श्रीवास्तव ने अरूण पाण्डेय के साथ मिल कर हरदौल नाटक को लिखा था। श्याम श्रीवास्तव ने नाटक में पारम्परिक बुंदेली गीतों के साथ स्वयं के गीतों को संजो कर प्रस्तुत किया। अरूण पाण्डेय की कवि श्याम श्रीवास्तव के साथ हरदौल की सफल प्रस्तुति के पश्चात् व्यापक कार्य योजना थी, लेकिन श्याम श्रीवास्तव के असामयिक निधन से योजनाएं मूर्त रूप नहीं ले सकीं। इसके पश्चात् मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के कई नाट्य समूह हरदौल को अलग-अलग तरीकों से मंचित करने का प्रयास करते रहे। लोक गाथा को तो परिवर्तित नहीं किया जा सकता, लेकिन प्रस्तुतिकरण विविध रहा। कोमल कल्याण जैन द्वारा लिखित एवं बालेन्द्र सिंह निर्देशित लाला हरदौल गीत, संगीत व नृत्य से भरपूर है। यह नाटक देवर- भाभी के पवित्र प्रेम व स्त्री के पतिव्रता होने की कहानी है। हरदौल का चरित्र से दर्शक रोमांचित होता है, तो पहाड़ सिंह की कुटिलता से दुखी और जुझार सिंह के कान के कच्चे होने से बैचेन। बालेन्द्र सिंह हरदौल के सत्तर मंचन कर चुके हैं। हरदौल में रानी चम्पावती की भूमिका में रंजना तिवारी ने भाभी के रूप में उम्दा अभिनय किया। संगीतमय नाटक में गीत व वाद्य बुंदेलखंड की आंचलिकता को प्रभावी बनाते है।


     नाट्य समारोह की अंतिम प्रस्तुति समागम रंगमंडल की‘अगरबत्ती' की रही। आशीष पाठक लिखित व स्वाति दुबे द्वारा निर्देशित यह नाटक २८ मार्च को दिल्ली में थिएटर ओलम्पिक्स में स्टूडेंट एंट्री के रूप में मंचित होने वाला है। फूलन देवी व बेहमई हत्याकांड की पृष्ठभूमि पर आधारित अगरबत्ती का मूल संदेश है-‘पापी नातेदार हो तो भी पापी ही होता है।' आशीष पाठक ने लगभग दस वर्ष पूर्व इंटर कॉलेज नाट्य प्रतियोगिता के लिए अगरबत्ती को लिखा था। उस समय नाटक का कैनवास छोटा था। अंतराल के साथ इसमें आशीष पाठक ने परिवर्तन किए और वर्तमान में बड़े कैनवास में वे इसे प्रस्तुत करते हैं। नाटक में बेहमई हत्याकांड में मारे गए ठाकुरों की विधवाएं अगरबत्ती निर्माण का उद्यम कर अपना गुजर बसर कर रही हैं। जेल में बंद फूलन को खत्म किए बिना अपने पति की अस्थि भस्म का तर्पण न करने को संकल्पित लालाराम की ठाकुराइन कल्ली की सहायता के इंतजार में सभी विधवाओं को संगठित कर रही हैं। इन्हीं विधवाओं में से एक दमयंती एक बहस को जन्म देती है कि हत्याकांड में मरे सभी पुरूष क्यों थे? नाटक में बहस, टशूटन और भ्रम चटकने का सिलसिला उस समय चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाता है, जब बात पापी नातेदार हो तो भी पापी ही होता है, पर पहुंच जाती है। समारोह में इस प्रस्तुति में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) की श्वेता रानी एचके, बाबी बरूआ, जीना वैश्य, पल्लवी जाधव व गोगे बाम ने समागम रंगमंडल के कलाकारों के साथ अभिनय किया। पल्लवी जाधव ने लज्जो की भूमिका में आकृष्ट किया, लेकिन एनएसडी की शेष कलाकार जालौन की बुंदेली बोलने में सहज नहीं रहीं और न ही अभिनय कर सकीं। कुछ दिन पूर्व समागम रंगमंडल के नवोदित कलाकारों ने इस नाटक को समारोह की प्रस्तुति की तुलना में ज्यादा तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया था। अगरबत्ती की विषयवस्तु में दोनों पक्षों के मुद्दे के औचित्य को सिद्ध करने व संतुलन के साथ एक निर्णायक बिन्दु पर नाटक पहुंचता है। स्वाति दुबे ने मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय व एनएसडी के अनुभवों का अगरबत्ती में समुचित उपयोग किया। उनकी प्रकाश परिकल्पना, संगीत और निर्देशन में परिपक्वता भविष्य में उत्कृष्ट नाट्य प्रस्तुति की आशा जगाती है। नाटक में गोविंद नामदेव की सार्थक कमेन्ट्री प्रस्तुति को स्पष्ट व गतिवान बनाती है।