एक आँख वाला इतिहास
मैंने कठेती हड्डियों वाला एक हाथ देखा--
रंग में काला और धुन में कठोर।
मैंने उस हाथ की आत्मा देखी--
साँवली और कोमल
और कथा-कहानियों से भरपूर !
मैंने पत्थरों में खिंचा
सन्नाटा देखा
जिसे संस्कृति कहते हैं।
मैंने एक आँख वाला
इतिहास देखा
जिसे फ़िलहाल सत्य कहते हैं।
जब मैं हार गया
जब मैं हार गया सब कुछ करके
मुझे नींद आ गई।
जब मैं गुहार लगाते-लगाते थक गया
मुझे नींद आ गई
जब मैं भरपेट सोकर उठा
हड्बोंग में फंसा, गुस्सा आया जब
मुझे नींद आ गई जब तुम्हारे इधर-उधर
घर के भीतर बिस्तर से सितारों की दूरी तक
भागते निपटाते पीठ के उल्टे धनुष में हुक लगाते
चुनरी से उलझते पल्लू में पिन फंसाते, तर्जनी
की ठोढ़ी पर छलक आई खुन की बूंद को होठों में चूसते
खीझते, याद करते, भूली हुई बातों पर सिर ठोंकते
बाहर बाहर -- मेरी आवाज़ की अनसुनी करते
यही तो चाहिए था तुम्हें
ऐसा ही निपट आलस्य
ललित लालित्य, विजन में खुले हुए
अस्त-व्यस्त होठों पर नीला आकाश
ऐसी ही ध्वस्त-मस्त निर्जन पराजय
पौरुष की। इसी तरह हँसती-निहारत
बालक को जब तुम गईं
मुझे नींद आ गई। जब तुमने लौटकर जगाया
माथा सहलाया तब मुझको फिर नींद आ गई।
मैं हूँ तुम्हारा उधारखाता
मैं हूँ तुम्हारी चिढ़
तंग-तंग चोली
तुम्हारी स्वतंत्रता पर कसी हुई,
फटी हुई चादर
लुगरी तुम्हारी फेंकी हुई
मैं हूँ तुम्हारा वह सदियों का बूढा अश्व
जिसकी पीठ पर ढेर सारी मक्खियाँ
टूटी हुई नाल से खूँदता
सूना रणस्थल।
लो, अब सँभालो
अपनी रणभेरी
मैं जाता हूँ।
सभी मनुष्य हैं
सभी मनुष्य हैं
सभी जीत सकते हैं
सभी हार नहीं सकते
सभी मनुष्य हैंसभी दुखी नहीं हो सकते
सभी जानते हैं
दुख से कैसे बचा जा सकता है
कैसे सुख से बचें सभी नहीं जानते
सभी मनुष्य हैं। सभी ज्ञानी हैं।
बावरा कोई नहीं है
बावरे के बिना संसार नहीं चलता
सभी मनुष्य हैं
सभी चुप नहीं रह सकते
सभी हाहाकार नहीं कर सकते
सभी मनुष्य हैं।
सभी मनुष्य हैं
सभी मर सकते हैं
सभी मार नहीं सकते
सभी मनुष्य हैं
सभी अमर हो सकते हैं।
खुश होना अनैतिक है इस समाज में
खुश होना अनैतिक है इस समाज में
अपने लिए मात्र ठौर ढूँढना घोर अपराध है
भारतीय दण्ड-संहिता की कोई धारा होनी चाहिए बाकायदा
इसके लिए घृणा और छि-छि का विधान होना चाहिए
लोगों के दिल में पत्थर डले हैं और तुम्हें अपनी पड़ी है
विनोद जी,
आप और हम अपराधियों की निकृष्टतम कोटि में आते हैं
देखिए, वह मक्खी हरी वाली -- इतनी बड़ी, जो विष्ठा की
बू से आती है
वही आ रही है। हरियाली नहीं है यह, जिसे हम-आप
निरख रहे हैं
इस वर्षा ऋतु में। विदर्भ की विशिष्ट वनस्पति की हरी कोई
पत्ती नहीं है।
सभी सुखी हो सकते हैं
खुश होना अनैतिक है इस समाज में
खुश होना अनैतिक है इस समाज
में अपने लिए मात्र ठौर ढूँढना घोर अपराध है
भारतीय दण्ड-संहिता की कोई धारा होनी चाहिए बाकायदा
इसके लिए घृणा और छि-छि का विधान होना चाहिए
लोगों के दिल में पत्थर डले हैं और तुम्हें अपनी पड़ी है
विनोद जी,
आप और हम अपराधियों की निकृष्टतम कोटि में आते हैं
देखिए, वह मक्खी हरी वाली -- इतनी बड़ी, जो विष्ठा की
बू से आती है।
वही आ रही है। हरियाली नहीं है यह, जिसे हम-आप
निरख रहे हैं।
इस वर्षा ऋतु में। विदर्भ की विशिष्ट वनस्पति की हरी कोई
पत्ती नहीं है।
खुशी के लिए जगह नहीं है, आत्मघात के लिए है, लेकिन आप तो
अनन्त आशावान भिक्षुक हैं इस जीवन-समर के।
आप जीने के लिए पैदा हुए हैं
जीवन-धन के चौर्य-क्रम में परम पटु हैं आप और हम
कितनी सभ्य बेहयाई से हँसते हैं हहास मार छोटी-छोटी निरर्थकताओं
पर
क्यों हैं हम-आप बोलिए विनोद जी!
वह जो लौटा जेल से -- बिना अपराध के धरा गया था -- आदमी से
प्रेम करने के कारण -- वह लौटा
लेकिन जीने लायक नहीं छोड़ा उसे। हड्डी कहाँ बची। भुर्रा है पूरा शरीर
वह एक चुप-चुप कराह है बस -- वह हमारा ग्रेट भट्टाचार्य --
जो कभी
नहीं कहता कछ। और आप हैं कि भिक्षापात्र दुनिया के आगे फैलाने में
शर्म नहीं लगती आपको
माँगते-जाँचते, भिक्षा का उत्सव मनाते
मर जाएंगे आप खुश होते-होते
इस तरह नाटक करते-करते
अपने तथाकथित ‘चुप' को बचाते-बचाते
चतुर-चुटिया बाँधते-बाँधते नरक की राह में हैं आप।
मैं तो आत्मघात की सोच रहा हूँ ऐसे कृत्रिम जीवन से
अपने नए-पुराने पापों के लिए कायरतापूर्वक।
अनीति की एक कोटि यह भी है।
अचानक क्यों लगा -- खुश होना अनैतिक है इस समाज में?
जबकि जगह थी एकान्त-निर्विघ्न-जैसे कमलेश के लिए है।
जो सिर्फ मुस्कुराते हैं -- खुश नहीं होते।
छोटी औकात है मेरी
क्षमा करिए आप कमलेश जी,
और आप विनोद जी,
सभी विशिष्ट और सरल-समझदार जन
सभी मेरे भाई-बन्द
सभी मेरे दुश्मन और दोस्त
सभी आश्चर्यचकित शुभम्
सभी अनुपम अपावन
क्षमा करें।
इस बर्राहट के लिए।