आहट-सी लगी। हां, पत्नी ही थीं। पलंग से कुछ दूर पर अंगीठी रख रही थीं। एक हाथ में परोसी हुई थाली थी। अंगीठी रखकर वे पलंग की ओर गईं। पत्नी ने थाली बुढिया के आगे रख दी। बुढिया एकटक उनका मुंह ताकती मुस्कराती रही। उन्होंने हाथ से थाली की ओर इशारा किया। बुढिया ने एक बार थाली की ओर देखा और फिर उनकी ओर, फिर मुस्कराई। पत्नी ने फिर थाली की ओर इशारा किया तो बुढिया ने थाली उठाकर अपनी गोद में रख ली और बड़े-बड़े ग्रास तोड़कर निगलने लगी। वे चुपचाप बिना कुछ कहे नीचे उतर गईं। दुबारा लौटीं तो उनके एक हाथ में एक छोटी-सी पतीली थी और दूसरे हाथ में पानी का लोटा। पतीली को अंगीठी पर रखकर वे फिर बुढिया की खाट के पास गई और पानी का लोटा नीचे रखते हुए बुढिया को उंगली के इशारे से दिखा दिया। बुढिया ने एक बार लोटे की ओर देखा और उनकी ओर देखकर फिर मुस्कराने लगी। ऐसा लगता था, जैसे केवल मुसकराना-भर उसे आता हो और कुछ भी नहीं। फिर वह खाने में मशगूल हो गई। रोटी के खुब बड़े-बड़े कौर तोड़ती और मुंह में डालकर चपर-चपर मुंह चलाती। कौर अभी खत्म भी न हुआ होता कि फिर रोटी का एक बड़ा-सा टुकड़ा सब्जी और दाल में लपेटकर वह मुंह में ठूस लेती.
‘इन्हें इसी तरह खाने की आदत पड़ गई है.'' पत्नी ने कहा। वे चुपचाप पलंग के पास खड़ी थीं।
वह बिना कुछ कहे बुढ़िया को देखता रहा।
** और जब से ऐसी हो गई हैं। खुराक काफी बढ़ गई है.....''
"......''
" बड़ी फूहड़ हो गई हैं। कुछ नहीं समझतीं। जहां खाती हैं वहीं..."
फिर भी वह कुछ नहीं बोला तो पत्नी बैठ गईं। बालों में हाथ फेरते हुए बोलीं, “क्या किया जाए, कोई बस नहीं चलता...अच्छा, मैं नीचे का काम निपटाकर अभी आई। आप जरा अंगीठी की ओर ख्याल रखना- दूध उफनकर गिर न जाए।''
वे उठकर जाने लगीं।
वह उठकर बैठ गया। कितना असह्य था, मां का यह रोना... यह सब कुछ! मां को वह क्या कह सकता था? मां क्या सब जानती नहीं थीं? शायद पिता भी जानते थे और सारा घर जानता था। लेकिन कोई भी क्या कर सकता था! ठीक है, जो हो रहा है वही होने दो- उसने सोचा। उसे लगा कि कहीं कुछ घट नहीं रहा है। सब कुछ अपनी जगह पर एकदम अचल है। वह जड़ हो गया है- अपने से भी पराया...मां तलुवे सहलाती हुई सिसक रही थीं। उसके मुंह से कुछ नहीं निकला। आखिर मां ने उठते हुए कहा था, बेटा! इतना हठ किस काम का! पिता तेरे क्या कम दुखी थे? लेकिन बेटा! बड़ों से कोई अपराध हो जाए तो उन्हें इस तरह कहीं सजा दी जाती है। पिता तो परमात्मा हैं। और फिर वे भी क्या जानते थे? बेटा! बड़ा वह है जो अपनी तरफ से सभी को क्षमा करता चले। और वह तो फिर भी नाते में तेरी बहू है...कहीं कुछ और हो जाए तो इस हवेली की नाक कट जाएगी.'' मां फुसफुसाईं...“अभी कुछ नहीं बिगड़ा है...चल, उठ.'' मां ने बांह पकड़के उठा लिया।
यही पलंग था। ऊपर आकर वह चुपके से लेट गया था। पत्नी आईं और खड़ी रहीं, फिर मुस्कराती रहीं।
“बैठ जाइए.'' उसने कहा।
‘‘शहर तो बहुत बड़ा होगा'' वे बैठती हुई बोलीं।
*“जी!'' उसने स्वीकार भाव से कहा।
**“हमने भी शहर देखे हैं।''
“जी!''
‘‘कह रही हूं- हमने भी शहर देखे, लेकिन हम कोई रंडी थोड़े हैं।''
“जी?'' वह घूमकर पत्नी को देखता रहा।
वे मुस्कराई, “सारे इल्जाम उलटे हमीं पर...अपने बड़े भोले बनते हैं। कितने घाटों का पानी पिया?''
“जी!'' वह उठकर बैठ गया, “क्या यही सब सुनाने के लिए...'' वह उठकर खड़ा हो गया।
“बहुत खराब लगता है। और नहीं तो क्या? वहां तप करते रहे! मर्द तो कुत्ते होते ही हैं। इधर पत्तल चाटी, उधर जीभ चटखारी, उधर इंडिया में मुंह डाला....सभी लाज लिहाज तो बस हमारे ही लिए है।''
रात के दो बज रहे थे, जब वह स्टेशन पहुंचा था। सुबह होने के पहले ही वह गाड़ी पर सवार हो चुका था और दिन निकलते-न-निकलते उसे गहरी नींद आ गई थी। लोगों के पैरों से कुचला जाता हुआ, एक गठरी की तरह, नींद में गर्क वह पड़ा रहा।
दादा की चिट्ठियां आती रहीं। हर मनीआर्डर फार्म पर नीचे मां की अनुनय-विनय-भरी चंद सतरें. फिर अलग से पत्र। उसने लिख दिया- 'अब चिट्ठी तभी लिखूगा जब बीमार पडूंगा। न लिखू तो समझना मां, कि तुम्हारा लाडला बेटा आराम से है। उसे कोई दु:ख नहीं है। मां के पत्र धीरे-धीरे बंद हो गए। दादा के टेढ़े-मेढे कांपते अक्षर याद दिलाते रहे कि मां अब ज्यादातर चुप रहने लगी हैं। फिर यह कि मां किसी को पहचान नहीं पातीं। इस बात से उसे जाने क्यों संतोष हुआ। दादा लिखते रहे और वह चुपचाप पड़ा रहा। जैसे धीरे-धीरे कहीं सारे संबंध-सूत्र टूटते गए और वह निर्विकार-सा, भूला हुआ-सा चुपचाप पड़ा रहा। किस बात का इंतजार था उसे? शायद किसी बात का नहीं। कभी उसे लगता था कि सभी ने उसे छोड़ दिया हैं। अब धीरे-धीरे यह लगता था कि उसी ने अपने को छोड़ दिया है...जिस दु:ख का कोई प्रतिकार नहीं नहीं होता, वह दुःख क्या होता भी है...इसी तरह एक वर्ष, दो वर्ष, तीन वष...चार वर्ष...कि एक दिन तीन वष...चार वर्ष...कि एक दिन उसने देखा-वैसा ही बड़ा-सा साफा बांधे, छ: फीट ऊंचे दादा, सत्तर साल की उम्र में भी उसी तरह तनकर दरवाजे पर खड़े हैं।
उसका सारा धैर्य और सारा एकांत जैसे बह गया, उस एक क्षमा में ही। किसी भी बात का प्रतिकार नहीं कर सका। दादाजी को रोते देखकर उसके आंसू बंद हो गए थे....
स्टेशन पर उतरे तो वही पुरानी घोडागाड़ी खड़ी थी। शंभू कोचवान दस साल में जैसे बिलकुल नहीं बदला था। घोड़े की पूंछ झर गई थी और उसके बदन पर जगहजगह घाव के लाल-लाल चप्पे दिखाई दे रहे थे....वही रास्ता...धूल-धूसरित गांव, नदी के लंबे, सूने, दूर-दूर तक खिंचे कगार। अंतहीन, लंबे, मरीचिका-भरे मैदान और लू में तपती पृथ्वी की प्यासी आंखों-सा शुष्क और गेरुआ सोता...बचपन के बारह वर्ष अपने जिन आत्मीय दृश्यों में उसने गुजारे थे, बाद के बारह वर्षों में वह दूसरी मर्तबा देख ? रहा था। एक बार पिता की मृत्यु के बाद घर आने पर और दोबारा अब, दादा के साथ। जैसे सब-कुछ वही था-उसी तरह। सूने मैदानों में हिरनों के झुंड छलांगें मारते हुए नदी की ओर दौड़े जा रहे थे। कहीं-कहीं बबूल की विरल छांह में नीलगायों के झुंड कान उठाए खड़े थे। सब-कुछ वही था- उस पार बालू का सफेद सैलाब, तेज गरम हवा के झकोरों से क्षितिज तक फैलता हुआ...और सूर्य की अंतहीन करुणा की रेखा- वह नदी...उसने सोचा- कैसे कह सकता है वह ? किससे कह सकता है अंतर की इतनी असहयंत्रणा!
एकाएक उसे आरती का ख्याल आया। दादा ने बताया था, ‘आरती आई हुई है, बहुत हठ से बुलाया है।'' फिर वे हरी की प्रशंसा करते रहे, ‘बहुत अच्छा लड़का मिल गया। आरती सुखी है।' फिर वे बयान करने लगे- ‘उसके एक बच्चा भी है। दिन-रात रबड़ की गेंद की तरह लुढ़कता रहता है, इस गोद से उस गोद में। अपनी नानी को खुब तंग करता है...लेकिन वह बेचारी तो...' दादा फिर चुप हो गए थे। इन बेतरतीब बातों में ढेर सारे चित्र उसकी आंखों के सामने उभर रहे थे। कभी आरती का नन्हा रूप। फिर उसका बड़ा-सा भव्य नारी शरीर। अजीब-अजीब-सा मन होने लगा उसका।
झिलमिलाती हुई आंखों से उसने दादा की ओर देखा। वे झपकियां ले रहे थे।
गाड़ी रुकते ही उसने दरवाजे की ओर ताका। मां वहां जरूर होंगी। लेकिन तभी आरती निकल आई। एक पल को वह पहचान नहीं पाया। उसकी कल्पना में आतरी का यह नक्शा कभी उभरा ही नहीं था। आरती ने झुककर पैर छुए। वह वैसे ही देखता रहा। फिर दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्करा दिए। फाटक के भीतर घुसते ही वह इधर-उधर झांकने लगा। कहीं भी मां होगी ही। एक विचित्र भाव से संत्रस्त और चुप-चुप वह बहन के साथ-साथ आगे बढ़ता चला जा रहा था। झरती हुई लाहौरी ईंटों की दीवारें उसकी आंखों के सामने थीं। उनके आस-पास मां की छाया तक न दीखी। दालान पार करके आंगन में आ गए। आधे आंगन में दीवार की छाया पड़ रही थी। मां वहां भी नहीं थीं। उसने एक बार फिर बहन को देखा। जवाब में वह मुस्करा पड़ी। फिर वे बैठकखाने में आ गए। बहन ने कहा, ‘बैठो, मैं नहाने के लिए पानी रखवाती हूं।''
वह एक पुरानी आराम कुरसी पर बैठ गया। बैठे-ही- देख इंतजार बैठे उसने फिर इधर-उधर ताका। फिर भी मां नहीं दिखीं। मुड़कर पीछे की ओर देखा तो उसकी दृष्टि आंगन के पार, अपने कमरे के सामने खड़ी पत्नी पर पड़ गई। वे चुपचाप खड़ी इधर ही देख रही थीं। वह सीधा होकर बैठ गया और आरती का इंतजार करने लगा। उसे लगा कि अपने ही घर में वह एक अतिथि है और अपने परिचित कोनों, घरों की दीवारों, ताक, सीढ़ियों को नहीं छू सकता। हर कहीं एक बाध्यता है...एक न जाने कैसी विवश खिन्नता। वह उठकर टहलने लगा।
तभी आरती अंदर आई। कांच की तश्तरी में लड़ और पानी का गिलास। वह बैठ गया।
“नहाओगे न?''
मां कहां हैं?''
“पहले खा-पी लो तब चलना। पीछे वाले कमरे में होंगी.'' आरती उठकर चली गई।
बिना किसी से पूछे बरामदे से होता हुआ वह पीछे की ओर निकल आया। पत्नी अपने कमरे के दरवाजे पर खड़ी थीं। उसे आते देखकर उन्होंने हल्का-सा घूघट कर लिया। वह आगे बढ़ गया। कमरे के सामने वह एक पल को ठिठका। किवाड़ उंठगाए हुए थे। उसने हलके-से । किवाड़ों को ठेल दिया। खुलते ही एक अजीब-सी सड़ी दुर्गंध से नाक भर-सी गई। उसने नाक पर रूमाल रख लिया और अंदर दाखिल हुआ। इधर-उधर देखकर उसने यह पता लगाने की कोशिश की कि यह दुर्गंध से सनी हुई थी...चारपाई, बिस्तर, खिड़कियां, छत की शहतीरें, फर्श और स्वयं मां भी। वह चुपचाप चारपाई की पाटी पर बैठकर मां को एकटक देखने लगा। बुढ़िया ने कोई उत्सुकता जाहिर नहीं की। वैसे ही छत की ओर देखती रही.
तभी आरती आ गई। सिरहाने बैठकर बुढिया के चीकट बालों पर हाथ फिराती हुई बोली, “मां!''
बुढ़िया न हिली न डुली, न यही जाहिर किया कि उसे किसी ने पुकारा है। बस, चुपचाप छत की शहतीरें ताकती। रही। एकाध मिनट तक दोनों चुप रहे। बुढ़िया ने करवट बदली और उसकी ओर देखने लगी।
‘मां! देख, भैया आया है।''
बुढिया ने इस बार सिर उठाकर बेटी को देखा और हंसने लगी। ‘‘देख, भैया आया है।'' उसने दुहराया। “हां, मां!''।
“हां, मां!''।
बुढिया फिर चुप हो गई और एक पल के बाद उसने आंखें मूंद लीं।
वह चुपके से उठ आया।
आरती पीछे से बोली, “भइया, नहा लो।''
तीसरा पहर बीत रहा था। वह बैठकखाने में आरामकुरसी पर आंखें मूंदे पड़ा था। पत्नी रसोई में छौंक लगा रही थीं। भूख लग आने के बावजूद भी जैसे इच्छा मर गई थी। कुछ भी टिक नहीं पाता था मन में। हजारोंलाखों प्रतिबिंब जैसे किवाड़ों की ओट से झांकते और आधी पहचान देकर गुम हो जाते । समाप्त होना किसे कहते हैं...खोना किसे कहते हैं...निस्सहाय होना किसे कहते हैं...मूक होना किसे कहते हैं...अर्थहीन होना किसे कहते हैं- यह सब-का-सब कितना स्पष्ट हो गया था अंतर में!
..आंखें खोलने पर क्या दिखेगा-सच या सपना?
फिर भी यह देह है और उसी तरह आरामकुरसी में पड़ी है। बाहर से कहीं कुछ नहीं बदला है। सारा रक्तपात भीतर हो रहा है। और खून नहीं एकत्र होता है...बहता नहीं।
सब कुछ वही है। बल्कि दादा, आरती और सारे परिवार को एक निधि मिली है। सभी आज खुश हैं। कुछ घट रहा है। और इधर ? उसे लगा कि अब वह मनुष्य नहीं है। सत्कर्म, सेवा या दुष्कर्म, पाप...सब समान हैं। जिसके लिए होंगे, उसके लिए होंगे। वह मनुष्य होगा। लोगों की दृष्टि में तो सभी कुछ है, लेकिन उसके लिए?...सच है कि सब कुछ ज्यों-का-त्यों है, लेकिन मानवीय इच्छाओं का, उसका अपना संसार कहीं अंधेरे में छिप गया है।
उसने एक झटके से आंखें खोल दीं। आरती उसके पैरों के पास चटाई पर बैठी कुछ सी-पिरो रही थी। उसके देखते ही मुस्करा पड़ी, "नींद आ रही है न?''।
उसने कोई जवाह नहीं दिया। लगा कि कई जन्मों से वह इसी तरह चुप है। बोलना बहुत चाहता है, लेकिन मुंह से कोई शब्द नहीं निकलता। जैसे दिल की धड़कनों पर अनजाने ही हाथ पड़ गया हो और धड़कनें एक-सी रही हों। जीभ तालू से सट गई हो। बहुत कोशिश कर रहा हो हिलने-डुलने की, लेकिन जरा भी हरकत न होती हो। जड़, निराधार, निरुपाय वह अपने को ही देख रहा हो...
उसने उठकर खिड़की खोल दी। आंगन का प्रकाश छनकर भीतर आ गया और हवा का एक गरम झोंका बदन छीलता हुआ दूसरी खिड़की से सरक गया। वह यों ही टहलता रहा।
“तू किस क्लास में है, आरो?''
‘‘प्रीवियस में।''
**हरी कैसा है?
“ठीक है।''
“मुझे कभी याद...' तभी पत्नी दरवाजे के सामने से झमककर निकल गईं। वह चुप ही रहा। फिर आरती उठकर चली गई।
वह बाहर बरामदे में निकल आया। आंगन में छाया । बढ़ रही थी। आगे बरगद पर धूप अभी बाकी थी। उसने छत की ओर देखा। एकाएक मां को देखकर वह घबरा गया। जल्दी से दौड़कर सीढ़ियां तय कीं और छत पर आ रहा। मां पसीने से तर, नंगे पांव, जलती छत पर खड़ी थीं। उनके आधे बदन पर धूप पड़ रही थी और गरम हवा के हलके झोंके में रह-रहके उनके धूसर बाल उड़ रहे थे। वे चुपचाप, पश्चिम की ओर पीली धूल-भरी आंधी और धूल में डूबे बाग-बगीचों के ऊपर छाये हुए आसमान की ओर देख रही थीं।
“मां!'' उसने पुकारा।
फिर बिना कुछ कहे उसने बुढिया को बांहों में उठा लिया और सीढ़ियां उतरने लगा। नीचे आरती खड़ी थी। बोली, “क्या हुआ?''
“कुछ नहीं, नंगे पांव जलती छत पर धूप में खड़ी थीं।''
बैठकखाने में लाकर उसने बुढिया को आरामकुरसी में डाल दिया।
**भइया, खाना खा लो।'' आरती ने कहा।
एकाएक वह चौंक गया। जले हुए दूध की महक आ रही थी। दौड़कर उसने जलती हुई पतीली अंगीठी से उतार दी। उसका हाथ जल गया और पतीली छूटकर जमीन पर लुढ़की तो सारा दूध फैल गया। धीमे से बुढिया की खिलखिल सुनाई दी तो उसने घूमकर देखा- वह वैसी- की-वैसी ही बैठी थी। एकदम शांत, जड़ और निश्चल। जली हुई उंगलियों को मुंह में डाले वह उसकी खाट की ओर बढ़ गया। बुढिया एकटक उसे ताकने लगी। उसकी गोद में जूठी थाली वैसे ही पड़ी हुई थी। हाथ जूठे थे और मुंह पर दाल और सब्जी के टुकड़े सूख रहे थे। उसकी नाक बह रही थी जिसे कभी-कभी वह सुड्क लेती.पानी का लोटा वैसे ही नीचे रखा था, तो क्या उसने अभी तक पानी नहीं पिया?...उसने झुककर लोटा उठाया और बिना कुछ कहे बुढिया के होंठों से लगा दिया। गटगट करके वह तुरंत आधा लोटा पानी पी गई। फिर मुंह उठाकर उसकी ओर देखा और मुस्करा पड़ी। उसने थाली हटाकर नीचे डाल दी, और बुढिया के जूठे हाथ (वह दोनों हाथों से खाए हुए थी) धोने लगा। फिर उसने बुढिया का मुंह धोया और अपने कुर्ते की बांह से पोंछ दिया।
‘मां, मुझे पहचानती हो, मैं कौन हूं?''
‘‘मां, मुझे पहचानती हो, मैं कौन हूं।'' बुढिया ने वाक्य ज्यों-का-त्यों दुहरा दिया। केवल प्रश्नवाचक स्वर नहीं था उसका।।
“मैं संजय हूं...मां''
संजय हूं मां''
उसके भीतर जैसे कोई चीज अटकने लगी। वह चुप हो गया। लगा, जैसे अंतड़ियों में बड़े-बड़े पत्थर के टुकड़े आपस में टकरा रहे हैं। उसने बुढ़िया के पांव उठाकर चारपाई पर रख दिए और पकड़कर धीमे-से लिटा लिया। बुढिया लेट रही और टुकुर-टुकुर उसे देखने लगी। वह उसके तलुवे देखने लगी। वह उसके तलुवे सहलाता रहा। बुढिया मुस्कराती और फिर हलके से खिलखिल करके हंस पड़ती। उसके सफेद चमकदार दांत टूट गए थे और मुंह खुलने पर एक काले, गहरे बिल की तरह दिखता। चेहरे की झुर्रियों में चिकनाहट आ गई थी और हाथ-पांव सब चिकने-चिकने लगते थे, जैसे किसी फोड़े के आसपास की चमड़ी सूजन से खिंचकर चिकनी और मुलायम पड़ जाती है।
“मां, मैं हूं...संजय।'' वह बुढिया के चेहरे पर झुक गया, "मां, मैं हूं...मैं...संजय...''
बुढिया उस पर खूब जोर से खिलखिलाकर हंस पड़ी और फिर एकदम चुप हो गई। उसकी आंखों से दो बड़ेबड़े आंसू बुढिया के चेहरे पर चू पड़े। इस पर बुढिया फिर खिलखिला पड़ी।
सीढियों पर धमस सुन पड़ी। पत्नी धपधपाती हुई ऊपर आ रही थीं। वह उठकर बैठ गया। ऊपर आते ही उनकी नजर पड़ गई। बोलीं, ''वहां क्यों बैठे हो?''
“कुछ नहीं, ऐसे ही।''
वे निकट चली आई, “क्या खुसुरफुसुर चल रही थी? बुढिया बड़ी चार-सौ-बीस है...''
"दुध गिर गया।'' उसने दूसरे और देखते हुए कहा।
‘‘गिर गया?'' वे चौंककर अंगीठी की ओर देखने लगीं।
‘‘ जल्दीबाजी में हाथ से पतीली छूट गई।''
‘‘थोड़ा-सा भी नहीं बचा है?''
‘‘होगा बचा, मैंने देखा नहीं।''
वे अंगीठी की ओर चली गईं। पतीली को हिलाडुलाकर देखा। बोलीं, “हाय राम, अब क्या करूं? उसमें । तो पीने लायक दूध बचा ही नहीं।''
“मुझे रात को दूध पीने की आदत नहीं है।'' उसने कहा और उठकर टहलने लगा।
पत्नी ने घूरकर देखा, जैसे कह रही हों, “आदत न होने से क्या होता है?''
टहलते हुए वह छत के कोने में निकल गया, जहां बांसों की छाया में अंधकार और भी गाढ़ा हो रहा थाहरी-हरी पत्तियों के झुरमुट में इक्के-दुक्क जुगनू दमक रहे थे। नीचे दूर-दूर तक बांसों के भीतर अंधेरा ही अंधेरा और उसी तरह दमकते जुगनू। उसने हाथ बढ़ाकर एक जुगनू को पकड़ना चाहा तो वह झट से अलोप हो गया और कुछ दूर पर फिर दप-से चमक गया। उसे याद आया- किस तरह बचपन में ढेर सारे जुगनू पकडकर वह अपने घंघराले बालों में फंसा लेता और मां के पास दौड़ा-दौड़ा जाकर कहता‘मां-मां, इधर देखो, जुगनू का खोता...'
"नींद नहीं आती?''
उसने घूमकर देखा- पत्नी पास ही खड़ी थीं।
रात बहुत चली गई है। थोड़ी ही देर में गंगा नहाने वालियों के गीत सुनाई पड़ने लगेंगे।''
“हां, ठीक है.'' उसने घडी देखी, ‘‘बारह बज गए!'' वह आकर पलंग पर लेट गया।
पत्नी आकर पायताने बैठ गईं। अब उसने देखा। उन्होंने सफेद रेशमी साड़ी पहन रखी थी। बदन पर बस चोली-भर थी। बाल खूब खींचकर बांधे हुए थे और हाथों की चूड़ियां रह-रह के पंखा झलते वक्त खनक जातीं... पूरब की ओर लाल-लाल चांद उग रहा था और बरगद के सघन पत्तों के बीच से चांदनी का आभास लग रहा था। आसमान और भी गहरा नील वर्ण था, और सप्तर्षि काफी ऊपर चढ़ आए थे।
“गरमी नहीं लगती?'' वे खिसककर पलंग की पाटी पर बीचोंबीच चली आई। एक हाथ उसकी कमर के पास से दूसरी पाटी पर रखती हुई वे एकदम धनुषाकार झुक गईं। और दूसरे हाथ से पंखा झलती रहीं। वह करवट घूमकर उन्हें देखने लगा- भरी-भरी-सी गदबद देह। गरमी का मौसम होने पर पेट और बांहों पर लाल-लाल अम्हौरियां भर आई थीं।।
‘लाओ, कुर्ता निकाल दें। इतनी गरमी में कैसे पहने रहते हैं ये कपड़े?'' वे उठकर सिरहाने की ओर चली आईं। तकिया एक ओर खिसका दिया और उसका सिर हाथों से उठाती हुई बोली, “जरा उठो तो।''
वह उठकर बैठ गया। बांहें ऊपर कर दीं। उन्होंने कर्ता निकालकर एक ओर रख दिया। फिर बनियान निकाल दी। हलके प्रकाश में उसका सोनल बदन दिखने लगा। पत्नी पीठ सहलाती रही, थोड़ी देर। फिर बांहें। फिर कंधे पर ठोड़ी रखकर टिक गईं। बोलीं, इतने दुबले क्यों हो? क्या शहर में खाने को नहीं मिलता।''
“जी, ठीक तो हूं। दुबला कहां हूं!''
“हो क्यों नहीं? क्या मैं अंधी हूं?'' वे और सट आईं ।
“मां!'' उसने फुसफुसाकर इशारा किया, “बैठी है ।!''
जैसे किसी ने चिकोटी काट ली हो, पत्नी झट-से सीधी हो गईं। फिर बोलीं, “वो! वो कुछ नहीं समझतीं।'' फिर भी वे उठीं और जाकर बुढ़िया को दूसरी करवट फिराकर लिटा दिया। बुढिया चुपचाप लेट गई।
लौटकर वे पलंग की पाटी पर अधबीच में ही बैठ गईं और पंखा झलती रहीं। चांद ऊपर चढ़ आया था और सारा । आसमान धूसर रोशनी से भर आया था। छत से दूसरी छतें, पीछे की ओर का बगीचा, तथा बरगद का दरख्त रोशन हो उठे थे। वातावरण कुछ नम पड़ गया था और दूर से मधूक पक्षी की आवाज सन्नाटे को रह-रह के चीर जाती...
*"जरा एक ओर खिसको न...'
**ऊ??...हूं।'' उसने खिसककर जगह कर दी।
‘नींद आ रही है?''
‘‘कितने बज रहे हैं?''
'एक'' उसने अंधेरे में घड़ी देखी और जमुहाइयां । लेने लगा।
‘‘तुम्हारी छाती पर एक भी बाल नहीं है।'' उन्होंने अपना सिर रख दिया। पंखा नीचे डाल दिया।
"......''
**प्यार कर लू?''
“जी!''
जैसे कोई झाड़ी में छिपे हुए खरगोश को पकड़ने के लिए धीमे-धीमे कदम बढ़ाता हुआ आगे बढ़ता है, उसी तरह उन्होंने कान के पास मुंह ले जाकर एक-एक शब्द नापते हुए कहा- “मैं...कहती...हूं- प्यार कर लू?'' उसने हाथ के इशारे से फिर भी अपनी नासमझी जाहिर की।
“धत्'' वे मुस्करा पडीं, कहनी तकिये से टिकाकर हथेलियों पर अपना सिर रखकर ऊंची हो गईं। एकाएम चेहरे का भाव एकदम बदल-सा गया। बोलीं ''इतना अत्याचार क्यों करते हो?''
वह कुछ कहने ही जा रहा था कि कुकड़ कू - कुकडू - कू करती हुई ढेर सारी मुर्गियां छत पर इधर-उधर दौड़ने लगीं- डरी और घबराई हुई-सी। दो-तीन मुर्गे एक ही साथ बाहर निकल आए और उनमें से एक ने खूब ऊंची आवाज में बांग दी- कुकडू-के...एक झटके-से वे दोनों उठकर बैठ गए। छत के कोने में एक ओर मुर्गियों का दरबा था। देखा, बुढिया ने दरबा खोलकर सारी मुर्गियों को बाहर निकाल दिया है और चुपचाप खड़ी मुस्करा रही है। कभी हलकेसे खिलखिला पड़ती है। एक अजीब-सी दहशत में उसे पसीना आ गया। तभी बुढ़िया ने एक ईंट का टुकड़ा उठाकर मुर्गियों के झुंड की ओर फेंका। मुर्गियों में फिर खलबली मच गई और वे त्रस्त और निरुपाय इधर-उधर भागने लगीं। एक मुर्गा छत की मुंडेर पर जा बैठा और फिर उसने जोर की बांग लगाई- कुकडू कू...
वह उठने को ही था कि पत्नी झुंझलाती हुई उठ खड़ी हुईं। रेशमी साड़ी कुछ-कुछ खिसक गई थी। जल्दी से उन्होंने पेटीकोट से उसे खींचकर पलंग पर डाल दिया और बुढ़िया के पास चली गईं। बुढिया उसी तरह खिलखिलाकर हंस पड़ी। पत्नी ने होंठ काटे, फिर कुछ कहना चाहा, फिर व्यर्थ समझकर चुपचाप बुढ़िया की बांह पकड़ ली और घसीटते हुए खाट पर लाकर पटक दिया।
‘लेटो.'' पत्नी का गुस्सा उबल पड़ा।
बुढिया उसी तरह उकडू बैठी रही।
पत्नी ने उसे हाथों से खाट पर पसरा दिया।
बुढिया फिर भी उसी तरह ताकती रही।
पत्नी एक पल खड़ी रहीं, फिर घूमकर उसकी तरफ देखा। दोनों दौड़-दौड़कर मुर्गियों को पकड़ने में लग गए। धीरे-धीरे सारी मुर्गियां दरबे के अंदर हो गईं, लेकिन एक मुर्गा छत की मुंडेर के आखिरी सिरे पर बैठा हुआ था। उसने एकाध बार हाथ बढ़ाकर उसने पकड़ना चाहा, तो वह और आगे की ओर खिसक गया। उसने कहा, "इसको क्या करें?''
‘‘रांधकर खा जाओ।'' पत्नी झुंझलाती हुई फर्श पर बैठ गईं।
लेकिन तभी जाने क्या सोचकर मुर्गा नीचे उतर आया। उसने दौड़कर उसकी गरदन पकड़ ली और दरबे । में ले जाकर ढूंस दिया। फिर जैसे चैन की सांस लेता हुआ मुंडेर से टिककर खड़ा हो गया। एकाएक उसकी नजर बुढिया की ओर चली गई। वह चित लेटी हुई आसमान की ओर ताक रही थी। तभी पत्नी ने उठते हुए आवाज दी, ‘अब वहां क्या करने लगे?''
वह निकट चला आया, बोला, “सुनो, बरसाती में पलंग ले चलें तो कैसा रहे?''
छत पर सादे खपरैल से बनी एक बरसाती थी। पत्नी ने कहा, “मैं नहीं जाती बरसाती में। इतनी गरमी में उस कालकोठरी में मुझसे नहीं सोया जाएगा।''
**पंखा तो है ही।''
* “पंखा जाए भाड़ में। रात-भर पंखा कौन झलेगा!''
*"मैं झल दूंगा.'' वह मुस्कराया।
"चलिए... पत्नी ने सिर झटकते हुए कहा। वे खुश मालूम दे रही थीं। एकाएक घूमकर उन्होंने कहा, “अच्छा, एक काम करती हूं...'' वे उठ खड़ी हुई। बोलीं, ‘‘इनकी चारपाई जरा बरसाती में ले चलिए तो!''
“क्या कह रही हैं आप? मां की तबीयत नहीं देखतीं।''
"ले तो चलिए। इन्हें गरमी-सरदी कुछ नहीं व्यापती। अब की माघ के महीने में बाहर नदी के किनारे लेटी थीं। लोग गए तो और हंसने लगीं।''
“अरे भाई..।
क्या लगाए हैं अरे भाई, अरे भाई! रात-भर इसी फरफंद में...'' उन्होंने बुढ़िया को उठाकर खड़ा कर दिया और चारपाई उठा ली।
क्या लगाए हैं अरे भाई, अरे भाई! रात-भर इसी फरफंद में...'' उन्होंने बुढ़िया को उठाकर खड़ा कर दिया और चारपाई उठा ली।
“अब यहीं आराम से पड़ी रहो महारानी!'' पत्नी ने नजाकत के साथ बरसाती के दरवाजे पर खड़े-खड़े दोनों हाथ जोड़े और उसकी ओर देखकर मुस्कराईं। खाट पर लिटाते वक्त बुढिया दो मिनट तक लगातार खांसती रही। फिर जैसे चुप खो-सी गई। चांदनी उजरा चली थी और आसमान से हल्की-हल्की नमी उतरकर चारों ओर वातावरण पर छा रही थी। बरगद की ऊपरी डालों से भी अगर कोई पत्ता टूटकर नीचे गिरने लगता, तो उसकी खड्खड़ साफ सुनाई पड़ जाती।
“मुझे प्यास मालूम दे रही है, ऊपर पानी होगा क्या?'' उसने कहा।
पत्नी ने झुककर उसकी आंखों में देखा और मुस्कराई- ‘‘प्यास लगी है?''
*'हां''
सच?'' वे उसी तरह आंखों में देखती रहीं।
उसे थोड़ी-सी झुंझलाहट मालूम हुई। फिर उसे थोड़ा सा ख्याल आया। फिर जैसे सिर घूमने लगा और मतलीसी महसूस हुई। फिर ढेर-सारी बातें मन में घूमने लगींजैसे दिमाग में कई कदम लड़खड़ाते हुए चल रहे हों। उसने सोचा- ‘नरक.' फिर उसके दिमाग में आया, ‘क्यों इतना निस्सहाय हो गया है वह?...फिर जैसे भीतर-हीभीतर कहीं झनझनाता हुआ-सा दर्द उठने लगा। उसे लगा कि उसकी पीठ में चटक समा गया है और सांस लेने में कठिनाई हो रही है। उसने करवट बदलकर यह जान लेना चाहा कि कहीं सचमुच तो पीठ में चटक नहीं समा गया कि तभी पत्नी ने बांहों में भरकर उसे अपनी तरफ घुमा लिया। कहीं कुछ बात बढ़ न जाए, इसलिए उसने अपनी भावनाओं पर जब्त करना चाहा। इसी प्रयत्न में वह मुस्कराया, लेकिन उसकी एक आंख से एक बूंद ढुलककर चुपके से बिस्तर में गुम हो गई।
*'पानी दू?''
वह परिस्थिति भांप चुका था और उन बातों में रस आने के बजाय उसे इतना थोथापन महसूस होता कि उसकी इच्छा होती कि वह कानों में उंगली डाल ले, या जोर से चीख पड़े। लेकिन यह कुछ भी नहीं हो सका।
बोला, “जी मेहरबानी करें तो एक गिलास पानी पिला ही दीजिए।''
पत्नी झुकी तो उसने अपना चेहरा तकिये में गड़ा लिया....फिर जैसे वह पस्त पड़ गया। अब तक जितना चौकन्ना था अब उतना ही ढीला पड़ गया।
एक हाथ से वे उसकी छाती सहलाती हुई बोलीं, ‘कैसे-कैसे कपडे फिजूल में पहने रहते हो...'' और उसके बाद क्षण-भर में ही वह सारी परिस्थिति भांपकर एकदम पसीने-पसीने हो गया। आंखें मूंद लीं। उसके माथे की नसें फटने लगीं। खून में आग-सी लग गई। स्वर ओझल हो गए। वे कुछ कह रही थीं। ‘मेरे बालम! कितने जालिम हो तुम! कितने भोले...'
“मां!'' वह उछलकर एक झटके से खड़ा हो गया। लेकिन तुरंत शर्म के मारे वहीं-का-वहीं सिमटकर फर्श पर बैठ गया। पत्नी भय के मारे एकदम से फक पड़ गई। एक पल बाद, जरा-सा सुस्थिर होकर उन्होंने मुंह ऊपर उठाया तो देखा- बुढिया ठीक सिरहाने खड़ी थी, चुपचाप। पत्नी को अपनी ओर देखते पाकर वह फिर मुस्कराया। अब उनका गुस्सा उबल पड़ा। तेजी से उठकर उन्होंने बुढ़िया की बांह पकड़ ली। उनके होंठ दांतों तले दबे हुए थे और वे कांप रही थीं।
“चल, हट यहां से उनके मंह से कोई भट्टी गाली निकलते-निकलते रह गई और उन्होंने बढिया को आगे की ओर धकेल दिया।
आगे ईंटों का एक घरौंदा था। बुढ़िया को ठोकर लगी और वह आँधी-सी लुढ़क गई। गुस्से में झनझनाती हुई. उसे उसी तरह छोड़कर, खाट पर आकर बैठ गई और दोनों हाथों में उन्होंने अपना सिर थाम लिया।
यों ही दो-एक मिनट बीत गए। कोई कुछ नहीं बोला। अचानक उसने बुढिया की ओर देखा। वह वैसी ही आँधी, फर्श पर पड़ी थी। वह तेजी से उठकर लपका उस ओर- "मां!''
उसने बुढ़िया को उठाकर चित कर दिया। लहू की एक हलकी-सी लकीर होंठ के कोनों में दिखाई दी और फिर एक हूक-सी उठी। उसके होंठ हिल रहे थे...‘जल्दी से दौड़कर पानी लाओ।'' उसने चीखकर पत्नी की ओर देखा। पत्नी उठकर भागी नीचे।
दखा। पत्नी उठकर भागा ने बुढिया की आंखें खुली थीं। चेहरे की झुर्रियां और भी चिकनी हो गई थीं। चांदनी में उसका चेहरा एकदम उजली राख की तरह चमक रहा था। उसने पुकारा, ‘मां...' और बुढ़िया का सिर बाहों में थोड़ा और ऊपर कर लिया। बुढ़िया ने सिर जरा-सा उसकी ओर घुमाया और फिर हलक से खून का एक रेला...उसकी गोदी में कै कर दिया।
(रचनाकाल : सातवें दशक का पूर्वार्द्ध)