अपनी बात - विदा लेना कालजयी रचनाकारों का - - गोपाल रंजन

आज जब सूजन और विचार की दुनिया में अस्तित्व का संकट गहराया हुआ है, दो बड़े कवि-लेखक का यूं जाना, साहित्य के लिए बड़ा आघात है। पहले दूधनाथ सिंह और अब केदार नाथ सिंह का अपनी पारी से विदा लेना जबकि उनकी सबसे अधिक जरूरत थी, एक शून्य सा उपस्थित करता है। पिछले दो-तीन दशकों से लेखन के लिए उपयुक्त अवसर निर्मित नहीं हो पाया है, फिर भी पहले स्थितियां इतनी विकट नहीं थीं जितनी आज हैं। इस समय रौशनी की सख्त जरूरत है। पहले हमले ऊपर होते थे परन्तु अब निशाना जड़ की ओर है। उदारीकरण के बाद सबसे अधिक प्रभावित रचना कर्म हुआ है। इसके बावजूद लिखा तो बहत जा रहा है परंतु उसे लोगों तक पहुंचाना दुष्कर कार्य हो गया है। सुविधाएं लगभग खत्म हो गईं हैं, जन संचार माध्यम कुंद कर दिए गए हैं और विचारों के विकसित होने के रास्ते बंद हैं। ऐसे हालात में जन पक्षधर ताकतों की भूमिका बढ़ गई है। दूधनाथ की चर्चा इसलिए आवश्यक है क्योंकि उन्होंने जन पक्षधरता को अपना अस्तित्व बनाया और अपने होने की कीमत पर कभी समझौता नहीं किया।


        दूधनाथ सिंह रचनाकार के रूप में विशिष्ट हैं, तोड़फोड उनकी रचनात्मक शैली है, विधाओं का अतिक्रमण उनकी स्थापनाओं का आधार है। उन्होंने हर विधा में लिखा, अपने पूर्ववर्तियों से अलग राह बनाई परंतु उन्हें पूरा सम्मान दिया। उनका कहना था कि प्रेमचन्द की परम्परा में पूरी हिन्दी कहानी आती है। कोई उनसे बाहर नहीं है। उनके बिना हिन्दी कथा साहित्य होता या न होता, कहना कठिन है। दूधनाथ सिंह का विश्लेषण व्यक्ति के रूप में नहीं, कथाकार के रूप में ही होना चाहिए क्योंकि उनकी रचनाओं के विश्लेषण के बिना साठोत्तर काल के प्रभाव को जान पाना बेहद कठिन होगा।


        सृजन सरोकार ने दूधनाथ सिंह का रचनाकार के रूप में पूर्ण विश्लेषण करने का प्रयास किया है। रणविजय सत्यकेतु के साथ बातचीत और धनंजय चोपड़ा तथा संतोष चतुर्वेदी के संस्मरण में उनके रचनाकार के साथ-साथ ‘व्यक्ति' पर भी काफी हद तक प्रकाश पड़ता है। अपने आत्मकथ्य में संक्षेप में ही सही लेकिन अपनी यात्रा की सटीक व्याख्या वे करते हैं। उमाशंकर सिंह परमार, अजीत प्रियदर्शी, बली सिंह, रमाशंकर सिंह और गंगेश दीक्षित ने उनकी रचनाओं पर सार्थक आलोचनात्मक टिप्पणी की है। दूधनाथ सिंह की कहानी और उनकी कविताएं इस अंक की अनिवार्य सामग्री है। दूधनाथ सिंह संघर्षशील व्यक्ति थे। हर क्षेत्र में अपना स्थान उन्होंने संघर्ष कर बनाया। उनकी डायरी उनके व्यक्तित्व और बाहर की दुनिया से उनके अंदर की दुनिया के द्वन्द्व को रेखांकित करती है।


        केदारनाथ सिंह आधुनिक हिन्दी कविता के एक ऐसे नाम हैं जिन्हें नागार्जुन के बाद सबसे अधिक लोकप्रियता हासिल हुई। उनकी कविताओं का भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। इस बीच चर्चित व्यंगकार सुशील सिद्धार्थ भी हमारे बीच नहीं रहे। उन्हें हमारी श्रद्धांजलि।


         हम इस अंक को और बेहतर बनाना चाहते थे परन्तु कई लेखकों के रचनात्मक सहयोग के अभाव के कारण यह संभव नहीं हो पाया। इसके बावजूद हमारा उत्साह कम नहीं हुआ है। युवा पीढ़ी का सहयोग पर्याप्त मिला है और उसी सहयोग के बल पर हम आगे बढ़ पाए हैं। इस अंक में जुड़ने वाले मित्रों का आभार। हमें आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा रहेगी।


 


                                                                                                                                                                                                        - गोपाल रंजन