आलोचना' - साठोत्तर पीढी के अनूठे कथाकार - दूधनाथ सिंह - डॉ. अजीत प्रियदर्शी

जन्म : 1 जनवरी 1978, चौरा, बलिया (उ.प्र.) शिक्षा : आरम्भिक एवं उच्च शिक्षा गृह जनपद में, प्रगतिवादी कवि त्रिलोचन की कविता पर शोधकार्य इलाहाबाद विश्वविद्याललय से। पिछले दस वर्षों से आलोचनात्मक लेखन। प्रकाशन : कवि त्रिलोचन (2012, आलोचना), साहित्य भंडार, इलाहाबाद से। आधुनिक कविता पर एक किताब प्रकाशनाधीन। सम्प्रति : लखनऊ विश्विद्यालय, से सहयुक्त महाविद्यालय में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर।


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दूधनाथ सिंह बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न रचनाकार हैं। वे साठोत्तर पीढ़ी के ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने कहानी, कविता, नाटक, संस्मरण, उपन्यास, आलोचना विधाओं में महत्वपूर्ण लिखा है। इन सभी विधाओं में लिखी उनकी रचनाओं ने अन्तर्वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टि से नई जमीन तोड़ी। साठोत्तर कहानी पीढ़ी में उनकी अपनी खास पहचान है। सन् साठ के आसपास से कहानी लिखना शुरू करने वाली कथाकार पीढी-ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, काशीनाथ सिंह, विजय मोहन सिंह और गंगा प्रसाद विमल- के साथ ही उन्होंने कहानियाँ लिखनी शुरू की। ये लोग आजादी के बाद नेहरू युग के रोमांटिक स्वप्नभंग के कथाकार हैं। साठोत्तर पीढ़ी के इन कथाकारों ने हिन्दी कहानी के पिछले अनुभव के ढाँचे को ध्वस्त कर दिया। इन्होंने माँ और पिता से सम्बन्ध, पत्नी से सम्बन्ध, इसी तरह और भी सभी सम्बन्धियों को उनकी सही रोशनी में जाँचना शुरू किया तथा रोमांटिक-आदर्शवादी निर्मितियों को तोड़ना शुरू किया। इस क्रम में इन्होंने प्रेम, दाम्पत्य और यौन–सम्बन्धों के छद्मों का उपहास किया। साठोत्तर पीढी के कथाकारों ने नए जीवन-अनुभव, नए कथ्य, नई भाषा, नए कथा-शिल्प द्वारा कहानी में अनूठा स्वाद उपस्थित किया। साठोत्तर कहानी में दूधनाथ सिंह अपने निजी अनुभव, जीवन-परिवेश और भौगोलिक गंधों की ईमानदार अभिव्यक्ति तथा ताजगी भरी अनूठी शैली-शिल्प के कारण अलग से पहचाने गए।


      ग्रामीण परिवेश यानी अपनी जड़ों से विलग, वियुक्त होकर शहर आने पर बेरोजगार और बेसहारा बने दूधनाथ सिंह की शुरूआती कहानियों में उस बिलगाव और बेसहारेपन का चित्रण ही प्रमुख रूप से मौजूद है। ‘रक्तपात', ‘आइसबर्ग’ और ‘सपाट चेहरे वाला आदमी' जैसी शुरूआती कहानियों में परिवेश से बिलगाव और बेसहारेपन के दुख-दर्द की अभिव्यक्ति साफ़ तौर पर देखी जा सकती है। उनकी शुरूआती कहानियों में गाँव से अलग हुए युवक की तकलीफों और असामंजस्य की ईमानदार अभिव्यक्ति मिली है। गाँव और शहर का द्वन्द्व तथा शहरी ठंडेपन में निगल लिए जाने के भय एवं चीत्कार को उनकी शुरूआती कहानियों में देखा-सुना जा सकता है। ‘रक्तपात' कहानी में एक प्रवासी युवक की पारिवारिक प्रेम सम्बन्धों के बीच उपस्थित झंझावातों और बिखरावों की कचोट भरी स्मृतियाँ हैं। इसमें दादा-पिता-माँ-बहन और पत्नी से असहज और तनाव भरे सम्बन्धों की अभिव्यक्ति में ‘पारिवारिक जीवन की विचित्र बेचारिगी' का ऐसा । रूप प्रस्तुत हुआ है कि पाठक स्वयं उसका हिस्सेदार महसूस करने लगता है। यहाँ पारिवारिक प्रेम के छीजते जाने, आत्मीय सम्बन्धों के बीच दूरी बढ़ने और इस तरह सम्बन्धहीन अलगाव, दाम्पत्य तथा यौन सम्बन्धों की संकटापन्न स्थितियों को अनेक प्रभावशाली बिम्बों-चित्रों संवादों के द्वारा उकेरा गया है। ‘आइसबर्ग' कहानी में एक प्रवासी युवक के पारिवारिक स्मृति-चित्र और चरित्र हैं; ‘हाय-हाय' वाली प्रेम-कचोट भरी स्मृति-रेखाएँ हैं। अपने गाँव-घर और परिवार से दूर इलाहाबाद जा बसे युवक की स्मृति में छटपटाती-चीखती सी कई आवाजें हैं- ‘बिन्नू'-माँ उटा की, पापा की, सुबोध, जगत दहा और बहन की। कछ दिनों के लिए पारिवारिक लोगों के आने और पुनः जाने पर अलगाव और अकेलेपन की अभिव्यक्ति' यहाँ सशक्त रूप में हुई है। ‘सपाट चेहरे वाला आदमी' कहानी में गाँव- घर, पिता-माँ और बचपन की ममता और कचोट भरी स्मृतियाँ हैं। एक वैश्या और उसके ‘सपाट चेहरे' वाले युवा बेटे की तकलीफ़देह जिन्दगी को नज़दीक से देखने पर उसे ज़िन्दगी में सब कुछ नीरस और निरर्थक लगने लगता है। इस तरह हम देखते हैं कि दूधनाथ सिंह की शुरूआती अनेक कहानियों में स्मृति-बिम्बों के सहारे गाँव-घर तथा माँ-पिता की ममतालू स्मृतियाँ मौजूद हैं। वे खुद स्वीकार करते हैं कि, “कथा-लेखन में मैंने बहुत सारी स्मृतियाँ अपने घर-परिवार, गाँव-समाज से ली हैं। लेकिन मेरा कार्यक्षेत्र मुख्यतः शहरों मध्यवर्ग है।'' (वक्तव्य, सपाट चेहरे वाला आदमी, कहानी संग्रह, प्रथम संस्करण १९६७, पुनसँस्करण : २०१२, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद)।


    दूधनाथ सिंह की वे कहानियाँ पाठकों का खास ध्यान खींचती हैं जो दिलचस्प किन्तु प्रतीकात्मक होने के कारण उलझी हुई, जटिल और चमत्कारपूर्ण होती हैं। नई कहानियाँ' (सम्पादक : भीष्म साहनी) के मई १९६६ के अंक में प्रकाशित उनकी कहानी ‘रीछ' अपनी प्रतीकात्मकता, फन्तासी तथा यौन-चित्रों-संवादों के कारण पर्याप्त विवादग्रस्त और चर्चित हुई। इसमें मध्यवर्गीय व्यक्ति के सामने उपस्थित ‘व्यक्तित्व के द्वैत' अथवा 'विभाजित व्यक्तित्व' की समस्या को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का बहुस्तरीय उपयोग करके ऐसी फन्तासी रची गई है, जिसके प्रतीकार्थ को पकड़ने में कठिनाई होती है। दाम्पत्य सम्बन्धों में उपस्थित ‘रीछ' दरअसल पति की अतीत की स्मृतियंत्रणा का प्रतीक है।


       रीछ' को लेकर बुनी गई जटिल और उलझी हुई फन्तासी पर फ्रायड के मनोविश्लेषण का प्रभाव है। ‘रीछ' कहानी के बारे में, खुद दूधनाथ सिंह का कहना है कि, *रीछ' का मुख्य कथ्य यह है कि अगर आप पीछे - देखू  हैं, अगर आप अतीतजीवी हैं तो आप या तो अतीत का वध कर आपके लिए रास्ता एक ही है कि दें और नहीं तो अतीत आपका वध कर देगा। यानी आदमी को अतीतजीवी नहीं होना चाहिए। बस इतनी-सी बात पर कहानी लिखी गई। कहानी में आया हुआ रीछ का बच्चा उसी अतीत का प्रतीक है जो हर समय उस आदमी का पीछा करता है और अन्ततः जब वह आदमी उसे मारने की कोशिश करता है तो वह (अतीत) उसके दिमाग को फाड़कर उसके दिमाग के अन्दर प्रवेश कर जाता है। कहानी लिखते वक्त कहानीकार के नाते यह मेरा निश्चय था कि अतीतजीवी ही मरे, अतीत नहीं। क्योंकि कहानी का पूरा कथ्य इसी ओर ले जाता था। जाहिर है कि कहानी इस प्रतीक में उलझी हुई है। एक ओर पत्नी है जो उस आदमी का वर्तमान जीवन है और दूसरी ओर एक विफल प्रेम है, जो रीछ की खुखार शक्ल में उसके वर्तमान जीवन का पीछा करता है। ऐसी स्थिति में सेक्स और सम्भोग जैसी आनन्दमयी प्रक्रिया घनघोर यातना है। पत्नी को प्यार करते हुए पूर्ववर्ती प्रेम की याद आना दाम्पत्य जीवन का सबसे कठिन दुख है। इसी दुख को कहानी के माध्यम से व्यक्त किया गया है। इसी यातना को, किसी यौन कुंठा को नहीं।'' (दूधनाथ सिंह से हेमन्त कुमार हिमांशु की बातचीत, अभिधा, मासिक पत्रिका, अगस्त २०००, पृष्ठ १०-११) उनकी एक अन्य कहानी ‘आइसबर्ग' भी प्रतीकात्मक कहानी है। इसमें प्रतीक-विधान समुची कहानी पर छाया हुआ है। इस कहानी की मूल संवेदना उसी प्रतीक योजना के द्वारा उद्घाटित होता है। यहाँ ‘आइसबर्ग' एक ऐसे व्यक्ति का प्रतीक है जिसका व्यवहार अवचेतन से प्रेरित है तथा जो मानसिक द्वन्द्व एवं जीवन की सहज इच्छाओं की पूर्ति न होने से अत्यन्त दुखी है।


     दूधनाथ सिंह मुख्यतः शहरी मध्यवर्ग के कहानीकार हैं। उनकी एक उल्लेखनीय कहानी ‘दुःस्वप्न' में पूँजीवादी व्यवस्था में व्यक्ति और समाज के अन्तर्विरोधों से उत्पन्न ‘व्यक्तित्व के विघटन' की समस्या को उठाया गया है। यह एक प्रतीकात्मक कहानी है। अपने गाँव से कलकत्ता शहर में आकर रह रहा युवक ('मैं') नेहरूयुगीन भारत में मोहभंग की वास्तविकता को निजी अनुभव से जानता है। वह युवक क्रान्तिकारी राजनीति । को कपड़ों की तरह ग्रहण करता। है। उसका चरित्र स्वार्थी, कायर, पर, अहम्मन्य और आत्मरत बना रहता है जिसके कारण उसके करीब आने वाला एक क्रान्तिकारी जनवादी कार्यकर्ता की हत्या हो जाती है। ‘मनोवादी टोन' । (बकौल धनंजय वर्मा) के बावजूद, यह कहानी पाठक को झकझोरती है और उसे आत्मावलोकन के लिए प्रेरित करती है। समकालीन मनुष्य के विघटित व्यक्तित्व तथा समकालीन जटिल और संश्लिष्ट यथार्थ को प्रतीकात्मक ढंग से अभिव्यक्त करने वाली इस छोटी-सी कहानी में जटिलता एवं उलझाव का होना वस्तुगत जटिलता के कारण भी है। इस कहानी में अति नाटकीयता, प्रतीकात्मकता और कालक्रम की बेतरतीबी एवं उलझाव है।


       दूधनाथ सिंह की कहानियाँ मध्यवर्ग की ढोंगभरी सामाजिक संरचना के विरूद्ध सवाल उठाती हैं। वे मुख्यतः शहरी मध्यवर्ग की कहानियाँ लिखते हैं। ऐसी कहानियों में कलकत्ता एवं इलाहाबाद शहर प्रायः उपस्थित होते हैं। वे प्रायः शहरी मध्यवर्ग की प्रदर्शनप्रिय तथा आदर्शवादी जीवन पद्धति का, यथास्थितिवादी मूल्यों और जीवनादर्शी का, प्रेम-दाम्पत्य और यौन–सम्बन्धों के छल-छद्मों का उद्धाटन कर उनका उपहास करते हैं। उनकी कहानियों में एक सर्वथा नई भाषा, नया कथ्य और अनूठा शिल्प मिलता है। उनकी कथाभाषा में बिम्बों का सर्जनात्मक उपयोग होता है। कई बार सघन बिम्ब-मालाएँ देखने को मिलती हैं। उनकी अनेक कहानियाँ 'आत्मवाची' हैं। उन सभी का वाचक 'मैं' है। ‘सुखांत', 'विजेता', 'दु:स्वप्न', ‘सपाट चेहरे वाला आदमी' आदि अनेक कहानियाँ उत्तम पुरूष (सर्वनाम) में लिखी गई हैं। ‘में' ('उत्तम पुरूष') और 'वह' ('अन्य पुरूष') के रूप में लिखी गई उनकी कहानियों के पात्र 'अनाम' हैं और प्रायः प्रतीकात्मक बन जाते हैं। उन्होंने प्रतिशोध', 'स्वर्गवासी', 'रीछ', 'कोरस आदि अनेक कहानियाँ ‘अन्य पुरूष' में लिखा है। दूधनाथ सिंह की कहानियों में एक खास तरह का खिलंदड़ापन, बेबाकी और भाषा की ताजगी दिखाई देती है। उनके पात्र सिद्धान्तों के चौखटे में बँधे पात्र नहीं हैं, न ही लेखक के हाथों की कठपुतली हैं। उनके पात्र वास्तविक जिन्दगी के द्वन्द्व, असंतोष, असहमति और नकार से भरे उबलते-खिझतेझटपटाते और ऊबे हुए पात्र हैं। आजादी के मूल्यों का विखंडन और आजादी से मोहभंग की सच्ची अभिव्यक्ति दूधनाथ सिंह की कहानियों में देखी जा सकती है। नोच-खसोट, जा सकती है। नोच-खसोट, भ्रष्टाचार, नौकरी के लिए गाँव-घर से शहरों की ओर पलायन, संयुक्त परिवारों के सुखद स्वप्न के विखंडन की ईमानदार अभिव्यक्ति उनकी कहानियों में देखने को मिलता है। नए अनुभव-यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए एक अराजक शिल्प और कथन की अविश्वसनीय भंगिमाएँ उनके कथा-शिल्प की खासियत है। वे कहानी में वर्णन और ब्यौरों का प्रायः व्यंग्यात्मक उपयोग भी करते हैं। हर शब्द, हर वाक्यांश में तोड़फोड़ कर कुछ नया और सार्थक रचना करना उनका मूल स्वभाव है। समग्रतः कहा जा सकता है कि साठोत्तर हिन्दी कहानी में दूधनाथ सिंह की कहानियाँ नए अनुभव संसार, नई कथाभाषा और कथ्य के अनूठेपान युक्त विशिष्ट सृजन हैं, जिन्हें नजरअन्दाज करके हिन्दी कहानी की मुकम्मल तस्वीर नहीं बन सकती।।


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