जन्म : 1 जनवरी, 1961 दिल्ली के राजपुर गांव में। शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए., एम.फिल. और पी-एच.डी. सृजन : आस्था की कविताएं (संयुक्त कविता-संग्रह), अष्टाक्षरा (संयुक्त कविता-संग्रह), नवजागरण और आचार्य रामचंद्र शुक्ल (आलोचना), कविता की समकालीनता आलोचना), अभी बाकी है (कविता-संग्रह)। सम्प्रति : प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
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प्रेम या प्रेम संबंधी कविता का नाम सुनते ही नौजवानों द्वारा किए जाने वाले इश्क-मुश्क का ही अक्सर ख्याल आता है, जिसमें दीवानगी है और धरती पर रहते हुए ही कलेजा हाथ में लेकर घूमने की अनोखी अदा है। या ऐसा विरह है। जो सुखाकर कांटा बना देता है और आंखों से ऐसी अविरल जलधारा बहाता है। कि कई गांव डूब जाएं। वह नाकारा, निकम्मा, आत्महन्ता और कभी-कभी तो परहंता भी बना देता है। ऐसा ख्याल आना स्वाभाविक है, क्योंकि इसी तरह के प्रेम की उपस्थिति हमारे साहित्य में रही है। इसके अलावा प्रेम की जो उपस्थिति रही है वह कुछ अन्य रूपों में भी पाई जाती है, जैसे मातृ-प्रेम, देश-प्रेम, जनप्रेम, धन-प्रेम, आत्म-प्रेम, प्रकृति-प्रेम, देह-प्रेम और अन्य-अन्य तरह के बहुत सारे प्रेम। पर इनमें रूपांतरण की संभावना बहुत कम होती है, यहां तक कि मानवेतर प्रेम तो करुणा पर ही टिके होते हैं और ये प्रेम समय-समय पर अधिक उभरते हैं, यानी इनकी उपस्थिति समय की मांग पर टिकी होती है, और यह जरूरी नहीं कि ये प्राणी-मात्र की ही विशेषता हो अर्थात सभी प्राणियों में मौजूद हो। पर पहले तरह का प्रेम न केवल शाश्वत है वरन् प्राणी-मात्र की विशेषता भी है। ऐसे प्रेम का एक भेद विद्वानों ने स्वकीय और परकीय भी किया है। लेकिन यह विभाजन बहुत ही स्थूल है, और नैतिकता का आग्रह अधिक रखता है जिसके दबाव तले प्रेम भी दबा- सा ही रहता है, उसका तेज प्रकट ही नहीं हो पाता। वैसे इसे सूक्ष्म रूप में देखें तो यह वास्तव में स्वकाया और परकाया ही है, परकाया भी आत्मिक रूप में स्वकाया ही हो जाती है- वह उसी का जैसे विस्तार है, ऐसे में स्वकीय-परकीय भेद का कोई मतलब ही नहीं बचता। वास्तव में प्रेम का यह प्रौढ रूप है जिसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति दूधनाथ सिंह की प्रेम संबंधी कविताओं में मिलती हैं। तुम्हारे लिए' उनका एक ऐसा काव्य-संग्रह है। जिसमें प्रेम की ७१ कविताएं हैं।
प्रेम की इन कविताओं की विशेषता यह है कि इसमें प्रेम का पात्र अनुपस्थित होते हुए भी स्मृतियों के जरिए लगातार उपस्थित और पारलौकिक होते हुए भी इसी लोक में बना रहता है, तथा उसको याद करना जैसे खुद को ही याद करना है-
" चित्र अपना खींचता हूँ मैं
बहाने से तुम्हारे।''
(तुम्हारे लिए, पृ. ८६)
ऐसा लगता है कि जैसे प्रेम-पात्र इस संसार के परे जाकर भी भूला ना हो और जैसे लगातार याद करता हुआ सांसारिक बना हुआ हो। दूधनाथ सिंह की कविताओं में ‘स्व' का 'पर' में और ‘पर' का 'स्व' में यह रूपांतरण अनोखा है, कवि निराला सा- ‘सीता के राममय नयन' की भांति। यहां 'स्व' के साथ 'पर' की और ‘पर' के साथ 'स्व' की उपस्थिति सदैव बनी रहती है, और यह संभव बनता है स्मृतियों के जरिये। यही प्रेम का प्रौढ़ रूप है। जिसमें अविश्वसनीय बातें भी विश्वसनीय लगती हैं-
" मैं
मरने के बाद भी
याद करूंगा
तुम्हें।''
(तुम्हारे लिए, पृ. १२)
यह तभी संभव है जब मैं' में न रहे। यही 'मैं' (कवि) को लौटने का विश्वास भी देता है -
"लौटुंगा
अमर होकर
तुम्हारे
जन्म-दिन पर। ''
(वही, पृ. १५)।
यहां अमर होने का मतलब मरना ही है, क्योंकि बिना मरे कोई अमर नहीं हुआ आजतक। यह जरूरी नहीं है कि शारीरिक रूप से ही मरे, यह एक मनः स्थिति भी हो सकती है जिसमें प्रेम-पात्र दूसरे के न रहने पर खुद को उसकी स्थिति में पहुंचा लेता है। इसे हम रूपांतरण कह सकते हैं। सांसारिक प्रेम की यह पराकाष्ठा है जिसे हम प्रौढ़ता भी कह सकते हैं।
यह रूपांतरण कवि दूधनाथ सिंह की कविताओं की सबसे बड़ी खासियत है। प्रेम में आदर-सम्मान, समानता, मुग्धता, सुन्दरता, भुक्तता, परिवेश की मौजूदगी- सब कुछ उन कविताओं में पहले से ही उपस्थित है जो दूधनाथ सिंह से पूर्व इस संबंध में लिखी गई हैं, लेकिन यहां रूपांतरण विरला है। अलौकिक और आध्यात्मिक स्तर पर तो यह मनोदशा कबीर जैसे भक्त-कवियों में पाई जाती है- 'तू तू करता तू भया/मुझमें रही न हूं।' लेकिन भौतिक और सांसारिक स्तर पर, व्यक्ति के स्तर पर और वो भी पुरूष के स्तर पर यह मनः स्थिति नहीं के बराबर है। दूधनाथ सिंह की कविता की पंक्ति है कि 'तुम्हारी आंख के आंसू हमारी आंख में/तुम्हारी आंख मेरी आंख में' (वही, पृ. ८५) । अहसास कराता है। यहां मैं के बहाने उसकी उपस्थिति है -
*मेरे जूतों में तुम्हारे तलुओं का स्पर्श है।
एक दिन जूते खराब हो जाएंगे
फिर मैं अकेला हो जाऊंगा
जब तक रहूंगा।'
(वही, प. २६) ।
ऐसे ऐसे अकेलेपन की मन:स्थिति भी तभी पैदा होती है जब व्यक्ति अन्य को अपना हिस्सा बना लेता है, यानी रूपांतरण की स्थिति की ही देन है अकेलेपन की मनोदशा। इसलिए ‘प्रेम अकेले होने की अनुभूति की ही दूसरा नाम है' (श्रीकांत वर्मा), लेकिन यह प्रेम की वो प्रौढ़ता है। जिसमें रूपांतरण की स्थिति होती है। ऐसे में अकेला भी कोई एक नहीं होता, दोनों ही होते हैं -
'' मैं था तुम थे
हम दोनों थे एक अकेले।। ''
(वही, पृ. २०)।
इस अकेलेपन से बचने का प्रयास भी व्यक्ति करता वह नहीं चाहता कि अन्य जो उसका अनिवार्य हिस्सा बन चुका है, उससे छूट जाए, दूर हो जाए -
''मत जाओ आंधी पानी है
हवा चीखती रही रात भर
तीन दिनों से
बादल रोते रहे रात भर.....
फिर मैं रामटेक पर बैठा रहूं अकेला।'
(वही, पृ. २४) ।
उसका जाना वास्तव में जीवन रूपी युद्ध में पराजय का प्रतीक है -
''कई-कई विजयें हैं
एक पराजय केवल तुम हो
हारा तुमसे यह जीवन-रण
जीवन की अंतिम बेला में।"
(वही पृ. ८४)।
इस हार की जलन, उसका कष्ट भी वही भोगता है। जो रह गया है- “मैं तुम्हारी व्यथा का अंगार हूं'', (वही,पृ. ६३) और “जांऊ/दह जांऊ/ राख रह जांऊ/बावला कहाऊ।'' (वही, पृ. २८)। यहां यह वास्तव में जो रह गया है वह पुरूष है, स्त्री नहीं। आमतौर पर दहना, अंगारे । होना, जलकर राख या कोयला हो जाना प्रेम कविताओं में स्त्री के लिए आता है। यहां पुरूष की परंपरागत छवि को तोड़ा गया है। यह प्रेम यूं तो रीतिमुक्त कवियों घनानंद और बोधा की परंपरा में आता है पर वहां रूपांतरण की कमी है। रूपांतरण वास्तव में अकेलेपन से लड़ने की एक शक्ति है। इन दिनों समाज में और साहित्यकारों में अकेलेपन की समस्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह रूपातरण बहुत महत्वपूर्ण है।
प्रेम में रूपातरण की स्थिति दूधनाथ सिंह की कविताओं में एक अन्य रूप में भी पाई जाती है। यह रूप है प्रेम-पात्र से सम्बद्ध जगहों की स्मृतियां और उसके साथ जिए प्रसंग। यूं तो सभी तरह की मन:स्थितियों में स्मृति की परोक्ष उपस्थिति रहती ही है, पर कुछ ऐसी हैं जिनमें वह प्रत्यक्ष होती हैं -
*१८ नवम्बर बैंच पर कोई निशान नहीं
चारों और घासफूस-जंगली हरियाली....
मैं फिरता वहां
सब कुछ गुजरता हुआ चुपचाप
आज रात नहीं कोई वहां
बात नहीं कोई
झंपती आंख नहीं कोई।''
(वही, पृ. २२) ।
बेंच याद आई, उस पर बैठी झंपती आंख याद आई । वो तो नहीं दिखी। यह इच्छा अधूरी ही रह गई कि “तुम्हारी छाया आभासित हो कहीं/स्पर्श करू तुम्हें। फिर दर्श करूं।'' (वही, पृ. ३६)। हां, वातावरण में उसका बोध जरूर हुआ -
“यह जो हवा झूमती है
यह तुम्हारा स्पर्श लेकर आ रही है।"
(वही, पृ.३७ ) ।
इसी तरह सुबह उठने का प्रसंग है, “उठ जाव/आंखों में नींद/अलसाहट/खीझ, झुंझलाहट/लिए उठ जाव/लपेट लो मुझे/बैठा हूँ पैताने/युगों से/तुम्हारे।'' (वही, पृ. ६७)।
यहां युगों से बैठे रहने की अनुभूति वास्तव में उसके बिना जैसे समय के ठहर जाने का अहसास है। दिन तो कल्प ही बन जाता है जिसमें कई युग समाए रहते हैं- ''वह एक दिन जो बिन तुम्हारे कल्प जैसा बीतता है।'' (वही, पृ. ६१)।
यह स्थिरता तो मरे बराबर है। इसलिए दूधनाथ सिंह की इन प्रेम कविताओं में मरना, सोना बहुत आया है: ‘‘रात में तुम सी गई/या खी गई'' (वही, पृ. ४१), "क्या तुम सो गई ?/मैं भी सो गया'' (वही, पृ. ८३) इत्यादि। यह मरण नहीं है वरन् प्रेम-पात्र से एकमेक होना है। कवि के अनुसार यह जीवन की खोज ही है
"ज रहा हूं जीवन की खोज में
संभवतः मृत्यु मिले।"
(वही, पृ. ९९)।
इसमें कुछ रहस्यवाद-सा लग सकता है, पर यह है। बहुत ही गूढ़ बात। रूपांतरण में खुद को घुला-मिला-मिटा दिया जाता है। ‘‘मैं घुल गया/मिट गया।'' (वही, पृ. ३५॥ यह जीवन की खोज इसलिए है कि फिर उसे ही बार-बार याद किया जाएगा, उसी के दिन बार-बार लौटेंगे जो कि अब हैं ही नहीं। अभी तो स्थिति एकदम उलट है -
"तुम्हारे दिन लौटेंगे बार-बार
मेरै नहीं।''
यह कोई परलोक में साथ जाने वाला रूपांतरण नहीं है वरन् इसी लोक में बने रहने वाला रूपांतरण है। यह वास्तव में ऐसा स्नान है जिसमें निर्मल पवित्र संजीवन है-
" कब होगा स्नान
कब वह आएगा
निर्मल पवित्र
संजीवन।'
(वही, पृ. ७५)
दूधनाथ सिंह की इन प्रेम कविताओं में इस लोक और जीवन की ही प्रमुखता है। रूपांतरण की विभिन्न मनः स्थितियों और रूपों के जरिए वे अनुपस्थित प्रेम-पात्र को अपनी कविताओं में बराबर जीवन के रस-राग, रूप-रंग से रंगते रहे हैं। यह रूपांतरण ही वास्तव में प्रेम की प्रौढ़ता है जो इनकी प्रेम कविताओं की खासियत है। यह न सिर्फ व्यक्ति को अन्य से एकमेक करता है वरन् काल के भय से भी मुक्ति दिलाता है।
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