आलोचना - जमात से बाहर का कवि ... कैलाश गौतम - दूधनाथ सिंह

कैलाश गौतम


 हिंदी कविता में इन दिनों एक अद्भुत ‘रीतिकाल' चल रहा है। अगर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों से प्रेरणा लेकर कहें तो यह भी कह सकते हैं कि आधुनिक काल की छायावादोत्तर कविता में चलने वाले ‘रीतिकाल' का यह द्वितीय उत्थान है। पहली वार यह रीतिकाल चला जब अज्ञेय ने 'सप्तकों खासकर पहले तीन, के माध्यम से हिंदी कविता को संभव बनाया। अगर इनमें इकट्टे सारे कवियों, कुछ एक को छोड़कर जिनकी कविता सुमित्रानंदन पंत के विचार से छायावाद का ही विस्तार (छायावाद एक पुर्नमूल्यांकन) है कि कविताओं से उनके नाम हटा दें तो आप पहचान नहीं सकते कि कौन कविता किसकी है। सारी कविताएं किसी की भी रचना हो सकती हैं। सब कुछ सभी का है और किसी का कुछ भी नहीं है। बात और विचार (यदि वह है तो) और कहने का ढंग-सब एक ही हैं। उसी में सब निज-निज मति अनुसार कोई नया बिंब, कोई नई उदासी, कोई नया लघुमानवत्व, कोई अजूबी-गरीबी, कोई नया संत्रास, कोई नई अस्मिता और कुंठा का खेल रच रहे हैं, लेकिन कवि नाम हटा दिया जाए तो वह उनमें से किसी की भी काव्य संपत्ति या विपत्ति हो सकती है। इसी को मैं आधुनिक (छायावादोत्तर) हिंदी कविता का रीतिकाल (प्रथम उत्थान या पतन) कहता हूं जिसका सारा ‘नखशिख' सारा ‘नायिकाभेद' सारा ‘काव्य निर्णय' एक है। उसी को हर कवि रगड़-घिस रहा है। एक व्यक्तित्वहीन चेहराविहीन कविता की भीड़-यही तो है, किसी भी कविता का 'रीतिकाल'। रुढिग्रस्त' ऊबाऊ' नीरस' निरर्थक है जिसके लिए पंत ने चिदंबरा की भूमिका में ‘रीढहीन' आत्मसुख-दुख के कदम में रेंगने वाले लघु यथार्थ के कलाफेन की सृष्टि कहा था। इसका सीधा अर्थ है कि ऐसी कविता में कवि के मौलिक और अद्वितीय व्यक्तित्व की छाप कहीं नहीं होती। आधुनिक हिंदी कविता के इस प्रथम रीतिकाल को तोड़ने और बिगाड़ने का काम चाहे जैसे भी हो सन् ६० के दौरान अकवितावादियों ने किया और अपनी दिग्भ्रमित ऊर्जा के भीतर से राजकमल चौधरी और धूमिल जैसे ऊर्जावान प्रतिभा संपन्न कवियों को पैदा किया। इसी पृष्ठभूमि में आगे चलकर गोरख पांडे और आलोक धन्वा जैसे प्रतिभा संपन्न मौलिक कवि पैदा हुए जिनसे हिंदी कविता का नया इतिहास रचता बनता है। कविता के रीतिकाल का द्वितीय उत्थान या पतन जिसकी चर्चा हमने अपनी बात के शुरू में की थीसन् ८० के आस-पास शुरू हुआ। अब पता चला क्योंकि किसी भी बात के शुरू होने की सूचना साहित्य में तुरंत नहीं मिलती। भारतीय मनुष्य और समाज और संस्कृति, इतिहास की बड़ी-बड़ी बातें है। वह मनुष्य और समाज संस्कृति किस रूप में कविता में रूपांतरित हुई है, यह कोई नहीं जानता। इस तरह के माहौल में एक ऐसे कवि के बारे में बात करना जो पूरे जमात से बाहर हो, थोड़ा कठिन है। फिर जब वह कवि इस जमात के खाट से अलग नहीं, इनके बाट से भी दूर अपनी निजी पगडंडी पर खड़ा है, लेकिन ठीक इसी वजह से तो उस पर नजर गई। कैलाश गौतम कोई दुधमुंहे कवि नहीं है कि उनका परीचय देना जरूरी हो। लेकिन जो कवि कविता के फन और फैशन से बाहर खड़ा हो, उससे लोग परिचित होना भी जरूरी नहीं समझते। क्योंकि अक्सर लोगों का ध्यान तो सौंदर्यशास्त्र की बनी-बनाई श्रेणियां खींचती हैं। कैलाश गौतम उस खांचे में नहीं अँटते । वह खांचा उनके काम का नहीं है या वे उस खांचे के काम के नहीं है। इसका सीधा सा मतलब है कि यह कवि अपनी कविताओं के लिए एक अलग और विशिष्ट सौंदर्यशास्त्र, सौदर्यदृष्टि की मांग करता है। आखिर कविता की ऊब के इस माहौल में हमारी नजर किसी कवि पर क्यों जाती है क्योंकि वह जीवन को समझने की एक नई कला, एक सर्वथा नई दृष्टि, एक सर्वांग अछूते, ताजे और अनहोने सौंदर्य की सृष्टि अपनी रचनाओं से करता है। वह चलन से बाहर कविता का एक नया विधान, एक निजी और मात्र ठाठ रचता है। कैलाश गौतम को बार-बार पढ़ते हुए या पढ़े जाने के बाद वह बात पकड़ में आती है। बार-बार पढ़ना इसलिए जरूरी नहीं होता कि उनकी कविता कठिन या अमूर्त या दूर की कौड़ी है। बल्कि वह इतनी निजी इतनी अपनत्व भरी, इतनी सहज परचित, सघन सच्चाई से इतनी भरी-पूरी लगती है, इतनी रच-बस जाती है कि पाठक और कवि या कविता के बीच रिश्ता बनाने के लिए अलग से कोई कसरत नहीं करनी पड़ती। बड़ी कविता इसी तरह हमारी सबकी अपनी हो जाती है। कबीर या तुलसीदास, निराला या नागार्जुन की पंक्तियों को हम महसूस पहले करते हैं और उन पर सोच-विचार बाद में। यह तब होता है जब कोई कवि फन और फैशन से अलग अपनी जातीय परंपरा के संस्कारों का मौलिक और सच्चा प्रतिनिधि बनकर हमारे बीच अनजाने ही उपस्थित होता है। कैलाश गौतम के संदर्भ में कुछ लोगों को यह बड़बोली लगेगी लेकिन वे वे लोग होंगे जो या तो इस कवि के मुक्त और सैलानी ठाठ से परिचित नहीं होंगे या कविता की प्रचलित सौदर्यशास्त्रीय श्रेणियों के बोझ तले बुरी तरह दबे होंगे, लेकिन कोई भी कविता हमारे ऊपर अपना रंग आखिर क्यों जमा लेती है जब वह हमारा अति परिचित सत्य एकाएक हमारे सामने खोलकर रख देती है। जीवन और समाज और इतिहास की सच्चाइयों के लिए जो प्रमाण हम खोजते फिरते हैं या जो हमारी नजरों से ओझल होता है, उसी का दिख जाना या खुल जाना या प्रकट हो जाना एक कला रचना को सर्वसम्मत बनाता है। कविता में जब इधर बहुत आय-बाय-शाय हो रहा है, कैलाश गौतम बिना किसी बनावट के एक सहजता के साथ आजादी के बाद उभरी हुई विकृत सच्चाइयों का प्रमाण अपनी कविताओं के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। जब सभी कवि भारतीय स्वतंत्रता के बारे में उत्तर आधुनिक विमर्श में जुटे हैं, कैलाश गौतम आजादी के बाद उभरने वाले चरित्रों का चित्र हमारे सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। भारतीय चित्रपट पर वे चित्र कौन से हैं जो आजादी के बाद उभरे या रूपांतरित हुए हैं। पटवारी हैं जो लेखपाल' के रूप में, आजादी के दौरान स्कूल-कालेज छोड़कर गांधीजी के आह्वान पर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ने वाले विद्यार्थी हैं जो ‘बच्चू-बाबू' के रूप में। प्रेमचंद्र का सूदखोर झिंगुरी साहू हैं जो गुप्तेसरा के रूप में। सेवादल के पुराने भाईजी अब नए ‘भाईजी के रूप में, पुरानी सत्ता नए राजाजी के रूप में, प्रेमचंद्र का पंचपरमेश्वर ‘कचेहरी पांडे' के रूप में आजादी की लड़ाई के दिनों में लगने वाला कयूं अब संप्रदायिक दंगों के कयूं के रूप में, सीटू, इंटक से निकलने वाले डांगे, रणदिवे अब, रामनगीना' के रूप मे-कहने का मतलब यह है कि राजनीति इतिहास और संस्कृति साहित्य के वे सारे प्रतीक या तो पूरी तरह से अपने नए रूपों में प्रकट हो रहे हैं या उन्होंने नए प्रतीकों की सृष्टि कर दी है। मैथलीशरण गुप्त की वह पंक्ति-अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है। क्यों न इसे सबका मन चाहे...। अब इस कवि के समय और ऐतिहासिक परिदृश्य में जिस तरह से प्रकट हो रही है, वह अभूतपूर्व अकल्पनीय परिवर्तन है।